मुसलमानों की देशभक्ति की बात उठते ही भारत-पाक मैच का संदर्भ बार-बार संघी लोग उठाते हैं और कहते हैं देखिए मुसलमान भारत की हार पर बल्ले बल्ले कर रहे हैं। इनको शर्म नहीं आती,ये देशद्रोही हैं,आदि किस्म के कुतर्कों की हम फेसबुक से लेकर मासमीडिया में आएदिन प्रतिक्रिया देखते हैं। हम साफ कहना चाहते हैं कि खेल को राष्ट्रवाद के साथ नहीं जोडा जाना चाहिए। राष्ट्रवाद कैंसर है इसे जिससे भी जोड़ेंगे वह चीज सड़ जाएगी। खेल से जोड़ेंगे खेल नष्ट हो जाएगा। रही बात पाक की जीत पर खुशी मनाने की तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
खेल के दर्शक को हम दर्शक की तरह देखें हिन्दू-मुसलमान के रुप में न देखें। खेल में धर्म,देश,छोटा-बड़ा नहीं होता। खेल तो सिर्फ खेल है।खेल में कोई जीतेगा और कोई हारेगा,कोई खुशी होगा तो कोई निराश होगा, खेल अंततःसर्जनात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। खेल को यदि राष्ट्रवाद से जोड़ा जाएगा या किसी भी किस्म की राजनीति से जोड़ा जाएगा तो उससे सामाजिक सर्जनात्मकता पर बुरा असर पड़ेगा।खेल का मकसद है जोड़ना।जबकि राष्ट्रवाद का मकसद है तोड़ना।भारत-पाक मैच के साथ संघी लोग राष्ट्रवाद को जोड़कर अपनी फूटसंस्कृति को खेल संस्कृति पर आरोपित करने की हमेशा कोशिश करते हैं और इस लक्ष्य में बुरी तरह पराजित होते हैं।इसका प्रधान कारण है खेल की आंतरिक शक्ति। खेल की आंतरिक शक्ति सर्जनात्मक और जोड़ने वाली है।
हमारे बहुत सारे संघी मित्र आए दिन क्रांतिकारियों को माला पहनाते रहते हैं लेकिन इन क्रांतिकारियों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले मुसलमानों को भूल जाते हैं। मसलन् क्रांतिकारी खुदीराम बोस को ही लें।खुदाराम बोस को गिरफ्तारी के पहले एक मुसलिम महिला ने अपने घर में शरण दी थी,यह और कोई नहीं मौलवी अब्दुल वहीद की बहन थी। ये जनाब क्रांतिकारी भूपेन्द्र दत्त के गहरे मित्र थे।यही महिला थी जो फांसी के पहले निडर होकर खुदीराम बोस से मिलने जाया करती थी।जबकि उस समय अंग्रेजी शासन के आतंक के कारण अनेक लोग खुदीराम बोस से मिलने से डरते थे।
मुसलमानों के पक्ष में लिखने का यह मकसद नहीं है कि अन्य तबकों की भूमिका की अनदेखी की जाय,मूल मकसद है मुसलिम विरोधी घृणा से युवाओं को बचाना।एक बार यह घृणा मन में बैठ गयी तो फिर उसे दूर करने में पीढ़ियां गुजर जाएंगी। हमारे कई हिन्दू मित्र मुसलमानों की कुर्बानियों की परंपरा को जानते हुए भी फेसबुक पर आए दिन जहर उगलते रहते हैं,इसलिए भी जरुरी हो गया है कि मुसलमानों के सकारात्मक योगदान के बारे में सही नजरिए से ध्यान खींचा जाय। मुसलमान हमारे समाज का अंतर्ग्रथित हिस्सा हैं। उनकी कुर्बानियों के बिना हम आजाद हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं कर सकते।
याद करें रायबरेली के मुसलमान फकीर सैयद अहमद को जिनके नेतृत्व में उत्तर भारत बहावी सम्प्रदाय के अनुयायियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गांवों से लेकर शहरों तक पहाडों से मौदानों तक आधी शताब्दी तक संघर्ष चलाया। सन् 1871 में एक अन्य बहावी क्रांतिकारी अब्दुल्ला को जस्टिस नार्मन की हत्या के आरोप में फाँसी पर लटकाया गया। सन् 1872 में अंडमान में लार्ड मेयो की हत्या करने वाला बहावी वीर शेर अली था,वह इस हत्या के लिए फाँसी के फंदे पर झूल गया। सन् 1831 में नीलहे साहबों के विरुद्ध पहले विद्रोह के प्रवर्तक रफीक मंडल को कौन भूल सकता है। मुसलमानों में ऐसे अनेक नेता हुए हैं जिन्होंने अपने समुदाय के साम्प्रदायिक और रुढिवादी आग्रहों को तिलांजलि देकर आजादी की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।सन् 1905 के ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी बंग-भंग आंदोलन के बरीसाल अधिवेशन की अध्यक्षता कलकता के प्रसिद्ध मुसलमान वकील अब्दुल्ला रसूल ने की थी। बंग-भंग के विरुद्ध चले पहले विशाल स्वदेशी आंदोलन में भारी संख्या में मुसलिम बुद्धिजीवियों ने हिन्दुओं के साथ मिलकर संघर्ष किया था।
भारत के मुसलमान देशभक्त होते हैं,यह निर्विवाद सत्य है।इसे जानते हुए भी संघ और उसके लगुए-भगुए संगठन विभ्रम पैदा करते रहते हैं और युवाओं में मुसलिम विरोधी प्रचार करते रहते हैं। मुसलमानों की देशभक्ति की बार-बार स्वाधीनता संग्राम में परीक्षा हुई है और आजादी के बाद बार बार जनांदोलनों के समय परीक्षा हुई है। भारत के मुसलमानों की देशभक्ति ही है कि आज जम्मू-कश्मीर में आतंकी-पृथकतावादी संगठन पाक की अबाध मदद के बावजूद आम मुसलमानों के बीच अलग-थलग पड़े हैं। इस क्षेत्र के आम मुसलमानों का भारत के लोकतंत्र और संविधान मेें अटूट विश्वास है।मुश्किल यह है कि एक तरफ संघ के संगठन मुसलमानों पर देशद्रोही कहकर हमले करते हैं,मुसलमानों के प्रति संशय और संदेह पैदा करते हैं,वहीं दूसरी ओर आतंकी-पृथकतावादी संगठन भी उनको निशाना बनाते हैं। सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों ने संघ और आतंकी-पृथकतावादी दोनों के ही नजरिए के खिलाफ संघर्ष किया है और तमाम तकलीफों के बावजूद उदारतावाद की बेहतरीन मिसाल कायम की है।
खेल के दर्शक को हम दर्शक की तरह देखें हिन्दू-मुसलमान के रुप में न देखें। खेल में धर्म,देश,छोटा-बड़ा नहीं होता। खेल तो सिर्फ खेल है।खेल में कोई जीतेगा और कोई हारेगा,कोई खुशी होगा तो कोई निराश होगा, खेल अंततःसर्जनात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। खेल को यदि राष्ट्रवाद से जोड़ा जाएगा या किसी भी किस्म की राजनीति से जोड़ा जाएगा तो उससे सामाजिक सर्जनात्मकता पर बुरा असर पड़ेगा।खेल का मकसद है जोड़ना।जबकि राष्ट्रवाद का मकसद है तोड़ना।भारत-पाक मैच के साथ संघी लोग राष्ट्रवाद को जोड़कर अपनी फूटसंस्कृति को खेल संस्कृति पर आरोपित करने की हमेशा कोशिश करते हैं और इस लक्ष्य में बुरी तरह पराजित होते हैं।इसका प्रधान कारण है खेल की आंतरिक शक्ति। खेल की आंतरिक शक्ति सर्जनात्मक और जोड़ने वाली है।
हमारे बहुत सारे संघी मित्र आए दिन क्रांतिकारियों को माला पहनाते रहते हैं लेकिन इन क्रांतिकारियों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले मुसलमानों को भूल जाते हैं। मसलन् क्रांतिकारी खुदीराम बोस को ही लें।खुदाराम बोस को गिरफ्तारी के पहले एक मुसलिम महिला ने अपने घर में शरण दी थी,यह और कोई नहीं मौलवी अब्दुल वहीद की बहन थी। ये जनाब क्रांतिकारी भूपेन्द्र दत्त के गहरे मित्र थे।यही महिला थी जो फांसी के पहले निडर होकर खुदीराम बोस से मिलने जाया करती थी।जबकि उस समय अंग्रेजी शासन के आतंक के कारण अनेक लोग खुदीराम बोस से मिलने से डरते थे।
मुसलमानों के पक्ष में लिखने का यह मकसद नहीं है कि अन्य तबकों की भूमिका की अनदेखी की जाय,मूल मकसद है मुसलिम विरोधी घृणा से युवाओं को बचाना।एक बार यह घृणा मन में बैठ गयी तो फिर उसे दूर करने में पीढ़ियां गुजर जाएंगी। हमारे कई हिन्दू मित्र मुसलमानों की कुर्बानियों की परंपरा को जानते हुए भी फेसबुक पर आए दिन जहर उगलते रहते हैं,इसलिए भी जरुरी हो गया है कि मुसलमानों के सकारात्मक योगदान के बारे में सही नजरिए से ध्यान खींचा जाय। मुसलमान हमारे समाज का अंतर्ग्रथित हिस्सा हैं। उनकी कुर्बानियों के बिना हम आजाद हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं कर सकते।
याद करें रायबरेली के मुसलमान फकीर सैयद अहमद को जिनके नेतृत्व में उत्तर भारत बहावी सम्प्रदाय के अनुयायियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गांवों से लेकर शहरों तक पहाडों से मौदानों तक आधी शताब्दी तक संघर्ष चलाया। सन् 1871 में एक अन्य बहावी क्रांतिकारी अब्दुल्ला को जस्टिस नार्मन की हत्या के आरोप में फाँसी पर लटकाया गया। सन् 1872 में अंडमान में लार्ड मेयो की हत्या करने वाला बहावी वीर शेर अली था,वह इस हत्या के लिए फाँसी के फंदे पर झूल गया। सन् 1831 में नीलहे साहबों के विरुद्ध पहले विद्रोह के प्रवर्तक रफीक मंडल को कौन भूल सकता है। मुसलमानों में ऐसे अनेक नेता हुए हैं जिन्होंने अपने समुदाय के साम्प्रदायिक और रुढिवादी आग्रहों को तिलांजलि देकर आजादी की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।सन् 1905 के ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी बंग-भंग आंदोलन के बरीसाल अधिवेशन की अध्यक्षता कलकता के प्रसिद्ध मुसलमान वकील अब्दुल्ला रसूल ने की थी। बंग-भंग के विरुद्ध चले पहले विशाल स्वदेशी आंदोलन में भारी संख्या में मुसलिम बुद्धिजीवियों ने हिन्दुओं के साथ मिलकर संघर्ष किया था।
भारत के मुसलमान देशभक्त होते हैं,यह निर्विवाद सत्य है।इसे जानते हुए भी संघ और उसके लगुए-भगुए संगठन विभ्रम पैदा करते रहते हैं और युवाओं में मुसलिम विरोधी प्रचार करते रहते हैं। मुसलमानों की देशभक्ति की बार-बार स्वाधीनता संग्राम में परीक्षा हुई है और आजादी के बाद बार बार जनांदोलनों के समय परीक्षा हुई है। भारत के मुसलमानों की देशभक्ति ही है कि आज जम्मू-कश्मीर में आतंकी-पृथकतावादी संगठन पाक की अबाध मदद के बावजूद आम मुसलमानों के बीच अलग-थलग पड़े हैं। इस क्षेत्र के आम मुसलमानों का भारत के लोकतंत्र और संविधान मेें अटूट विश्वास है।मुश्किल यह है कि एक तरफ संघ के संगठन मुसलमानों पर देशद्रोही कहकर हमले करते हैं,मुसलमानों के प्रति संशय और संदेह पैदा करते हैं,वहीं दूसरी ओर आतंकी-पृथकतावादी संगठन भी उनको निशाना बनाते हैं। सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों ने संघ और आतंकी-पृथकतावादी दोनों के ही नजरिए के खिलाफ संघर्ष किया है और तमाम तकलीफों के बावजूद उदारतावाद की बेहतरीन मिसाल कायम की है।
आप की राय से सहमत हूँ , यह असल में सांप्रदायिक शक्तियों का गठजोड़ है ,जो मुसलमानों की नियत पर सवाल उठाता रहता है .
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