कार्ल मार्क्स के बारे में मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों तक अनेक मिथ प्रचलित हैं।इन मिथों में एक मिथ है कि मार्क्स का लोकतंत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है,मार्क्स लोकतंत्र विरोधी हैं। फलश्रुति यह कि जो मार्क्स को मानते हैं वे लोकतंत्र विरोधी होते हैं। सच्चाई इसके एकदम विपरीत है।मार्क्स ने अपना जीवन रेडीकल या परिवर्तनकामी लोकतांत्रिक नागरिक के रुप में आरंभ किया। कालान्तर में वे इस मार्ग पर चलते हुए क्रांतिकारी बने। अपने व्यापक जीवनानुभवों के आधार पर मार्क्स ने तय किया कि लोकतंत्र को वास्तव लोकतंत्र में रुपान्तरित करना बेहद जरुरी है।
हममें से अधिकांश लोकतंत्र के प्रचलित रुप को मानते और जानते हैं। लेकिन जेनुइन लोकतंत्र को हम लोग नहीं जानते अथवा उसे पाने से परहेज करते हैं। कार्ल मार्क्स के समग्र लेखन और कर्म पर विचार करें तो पाएंगे कि वे राजसत्ता की परमसत्ता के विरोधी थे। प्रसिद्ध ब्रिटिश मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार मार्क्स जनता की लोकप्रिय संप्रभुता के पक्षधर थे। इसका एक रुप संसदीय लोकतंत्र है। वे सिद्धांततः संसद के विरोधी नहीं थे। वे मात्र संसद में ही लोकतंत्र के पक्षधर नहीं थे उसके आगे जाकर वे वास्तव अर्थों में स्थानीय,लोकप्रिय संप्रभु,स्वायत्त शासन के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि लोकतंत्र में सभी संस्थानों को स्वायत्तता प्राप्त हो। नागरिक समाज के सभी संस्थानों को स्वायत्तता मिले।मार्क्स चाहते थे कि इस स्वायत्तता को राजनीतिक से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक विस्तार दिया जाय।इस अर्थ में वे आत्म निर्भर सरकार के पक्षधर थे।
टेरी इगिलटन ने लिखा है कि मार्क्स राजनीतिक अभिजात्यवर्ग तक सीमित मौजूदा लोकतांत्रिक सरकार के विरोधी थे।मार्क्स का मानना था नागरिक की स्वशासन में निर्णायक भूमिका होनी चहिए। वे अल्पमत पर बहुमत के शासन के मौजूदा सिद्धांत के विरोधी थे। वे मानते थे कि नागरिक स्वयं राज्य पर शासन करें न कि राज्य उन पर शासन करे। मार्क्स का मानना था लोकतंत्र में राज्य का नागरिक समाज से अलगाव हो गया है। इन दोनों के बीच में सीधे अन्तर्विरोध पैदा हो गया है। मसलन् राज्य की नजर में अमूर्त रुप में सभी नागरिक समान हैं। जबकि वे दैनंदिन जीवन में असमान हैं। नागरिकों का सामाजिक अस्तित्व अन्तर्विरोधों से ग्रस्त है। जबकि राज्य उन सबको समान मानता है। राज्य ऊपर से समाज को निर्मित करने वाले की इमेज संप्रेषित करता है।जबकि उसकी यह इमेज तो सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्बन है। इगिलटन ने लिखा है राज्य पर समाज निर्भर नहीं है बल्कि समाज पर राज्य परजीवी की तरह निर्भर है। लोकतंत्र में सब उलटा –पुलटा हो जाता है। पूंजीवाद ऊपर आ जाता है और लोकतंत्र नीचे चला जाता है। कायदे से लोकतंत्र को ऊपर यानी राजसत्ता का संचालक होना चाहिए लेकिन उलटे पूंजीवाद राज्य का संचालक बन जाता है। इसका अर्थ है कि समस्त संस्थानों को संचालित लोकतंत्र नहीं करता बल्कि पूंजीवाद संचालित करने लगता है।
मार्क्स का लक्ष्य था राजसत्ता और समाज के बीच के अंतराल को कम किया जाय।राजनीति और दैनंदिन जीवन के बीच के अंतराल को कम किया जाय। वे चाहते थे कि लोकतांत्रिक ढ़ंग से राज्य और राजनीति दोनों की भूमिका को स्वशासन के जरिए खत्म किया जाय।मसलन् समाज के पक्ष में राजसत्ता का अंत किया जाय,दैनंदिन जीवन के सुखमय विकास के लिए राजनीति का अंत किया जाय।इसी को मार्क्सीय नजरिए से लोकतंत्र कहते हैं।दैनंदिन जीवन में स्त्री और पुरुष अपने हकों को प्राप्त करें यही उनकी कामना थी,मौजूदा लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष के हकों को राजसत्ता ने हड़प लिया है।टेरी इगिलटन के अनुसार समाजवाद तो लोकतंत्र की पूर्णता है वह उसका नकार नहीं है। हमें सोचना चाहिए कि मार्क्स के इस नजरिए में आपत्तिजनक क्या है जिसके लिए उन पर तरह-तरह के हमले किए जाते हैं।
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