आरएसएस की कुछ संस्कारगत आदतें हैं। पहली आदत है सब कुछ हिन्दूमय देखो। वे अपने संगठन में आने वाले हर व्यक्ति को हिन्दूमय होकर देखने का सुझाव देते हैं। उनकी आँख-नाक-कान-जिह्वा- दिमाग़ सबमें हिन्दूमय भावबोध निर्मित किया जाता है। जबकि मनुष्य का मन स्वभावतः कोरा काग़ज़ होता है। वे अपने संगठन में आने वाले बच्चों को हिन्दूमय रहने की शिक्षा देते हैं ,हिन्दू संस्कारों पर ज़ोर देते हैं। वे आगंतुक को सबसे पहले यही शिक्षा देते हैं कि वह अपने को हिन्दू माने और हिन्दू महसूस करे। इसके लिए वे नानसेंस , पौराणिक मिथों और काल्पनिक तर्कों का इस्तेमाल करते हैं। वे हिन्दू की तरह व्यवहार करने पर उतना ज़ोर नहीं देते जितना हिन्दूबोध पर ज़ोर देते हैं। वे व्यवहार की स्वतंत्रता देते हैं लेकिन हिन्दूबोध से बँधे रहने का आग्रह करते हैं।यह हिन्दूबोध वस्तुत: संघी आदत है।इस तरह वे आधुनिक व्यावहारिकता और हिन्दुत्व में संबंध बनाने में सफल हो जाते हैं। मसलन् हिन्दुत्ववादी रहो और झूठ बोलो,मुनाफ़ाख़ोरी करो, ज़ख़ीरेबाज़ी करो, दहेज लो और दहेज दो,मोबाइल से लेकर सभी आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करो और हिन्दुत्ववादी रहो।
हिन्दूबोध वस्तुत: वायवीय है उसे संघी बंदे व्यक्ति की 'अच्छी' 'बुरी' आदतों के साथ नत्थी करके पेश करते हैं। इस तरह वे हिन्दूबोध को 'अच्छीआदत' के रुप में सम्प्रेषित करते हैं। इसमें व्यक्ति के ख़ास क़िस्म के एक्शन को उभारते हैं। इस प्रक्रिया में वे संघ की फ़ासिस्ट विचारधारा पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं और संघ को मानवीय या सामाजिक संगठन के रुप में पेश करते हैं। सच यह है कि संघ की विचारधारा का मूलाधार हिन्दुत्व के रुप में फासिज्म है। हिन्दू तो आवरण है।
फासिज्म की लाक्षणिक विशेषता है अमीरों की खुलकर सेवा करना। ग़रीबों और हाशिए के लोगों के हकों पर खुलकर हमले करना। संसदीय संस्थाएँ और संवैधानिक मान-मर्यादाओं को न मानना। संवैधानिक संस्थाओं कोअर्थहीन बनाना। अपने हर एक्शन को क़ानूनी तौर पर वैध मानना। यहाँ तक कि दंगे करने को भी वैध मानना। जनसंहार को वैध मानना। जनप्रिय नेताओं के ज़रिए शिक्षा, स्वास्थ्य, मज़दूरी आदि मानवाधिकारों पर चालाकी के साथ हमले करना। मज़दूर क़ानूनों और काम के समय को निशाना बनाना।
फासीवाद का भारत में आगमन राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता, संत समागमों, मुस्लिम विद्वेष ,जातिद्वेष ,धार्मिक श्रेष्ठता , स्त्री नियंत्रण के सवालों से होता है। दूसरी बड़ी बात यह कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा संगठन कारपोरेट पूँजीवाद के बिना रह नहीं सकता। सतह पर देश की एकता का नारा लेकिन व्यवहार में साम्प्रदायिक या हिन्दू- मुस्लिम विभाजन बनाए रखने पर ज़ोर, कहने के लिए आर्थिक विकास पर ज़ोर लेकिन व्यवहार में कारपोरेट विकास पर ज़ोर ,कहने के लिए शांति बनाए रखने का नारा लेकिन व्यवहार में अहर्निश तनाव बनाए रखने वाले एक्शनों की श्रृंखला बनाए रखना । सतही तौर पर स्त्री के विकास की बातें करना लेकिन व्यवहार में स्त्री विरोधी आचरण करना, स्त्री उत्पीड़न और हिंसाचार को संरक्षण देना। उन तमाम रुढियों को मानना और मनवाना जिनसे स्त्री को परंपरागत रुढियों के खूँटे से बाँधकर रखा जा सके।अंधविश्वास और भाग्यवाद को बढ़ावा देना।
भारत में संघ और भाजपा ने अपने को लिबरल संस्कृति और विचारधारा के साथ कांग्रेस आदि लिबरल दलों के विकल्प के रुप में पेश किया है। सारी दुनिया में फासिज्म ने हमेशा उदारतावाद के विकल्प के रुप में पेश किया है। भारत में भी यही दशा है। वे जिस हिन्दुत्व की बातें करते हैं वह तो सभी क़िस्म के नवजागरणकालीन मूल्यों और मान्यताओं का निषेध है। वे नवजागरण के मूल्यों पर प्रतिदिन हमले करते हैं। धर्मनिरपेक्षता पर आए दिन होने वाले हमले फासीवादी नवजागरणविरोधी नज़रिए का एक नमूना मात्र हैं। वे सतीप्रथा का देवराला सतीकांड के समय समर्थन और हिमायत कर चुके हैं।इसी तरह स्त्री के आधुनिक रुपों और स्त्री स्वायत्तता को वे एक सिरे से ख़ारिज करते हैं।नवजागरण ने उदारतावादी विचारों को प्रवाहित किया जबकि संघ सभी क़िस्म के उदारतावादी विचारों का हिन्दुत्व के नज़रिए से विरोध करता है।
संघ सिर्फ़ मार्क्सवाद विरोधी ही नहीं है वह उदारतावाद का भी विरोधी है। संघ को समझने के लिए हमें परंपरागत मार्क्सवादी व्याख्याओं से बहुत कम मदद मिलेगी । इसके वैचारिक तानेबाने में परंपरागत अविवेकवाद और ऊलजुलूल बातें भरी हुई हैं। संघ उन तमाम ताक़तों के साथ सहज ही संबंध बना लेता है जो ताकतें अविवेकवाद की हिमायत करती हैं। इसलिए संघ को सामाजिक- वैचारिक तौर पर अलग-थलग करने लिए अविवेकवाद की भारतीय परंपरा को चिह्नित करना और फिर उसके प्रति सचेतनता बढ़ाने की ज़रुरत है।
संघ के लोग शनिपूजा से लेकर हनुमानपूजा, लक्ष्मीपूजा से लेकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा ,उत्सवों और पर्वों से अपने को सहज भाव से जोड़कर जनता की पिछड़ी चेतना का दोहन करते हैं और जनता में संपर्क- सम्बन्ध बनाते हैं। वे आधुनिकतावाद के अविवेकवादी आंदोलनों , तकनीकी रुपों और कलारुपों के साथ सहज रुप में जुड़ते हैं और मासकल्चर को ही संस्कृति बनाने या उसके ज़रिए संस्कृति का पाखंड रचते हैं।
संघ के जनाधार के निर्माण में हिन्दी सिनेमा के मर्दवादी सांस्कृतिक रुपों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह परंपरागत मर्दानगी का नवीकृत रुप भी है। समाज में एक तरफ़ दबे-कुचले लोगों की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा और दूसरी ओर संघर्ष में पराजयबोध ने आनंद के क्षणों में मर्दानगी को एक नया आनंददायक नुस्खा बनाया है। यह अचानक नहीं है कि मर्दानगी के अधिकाँश नायक भाजपा के साथ हैं या मोदी के साथ है। मोदी के साथ अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, सलमान खान आदि की मौजूदगी और मित्रता ने मर्दानगी के नायकों एवं संघ के संबंधों को मज़बूत बनाया है। शरीर का उपभोग ,शरीरचर्चा और शरीर का प्रदर्शन जितना बढ़ेगा या महिमामंडित होगा संघ उतना ही मज़बूत बनेगा।
बम्बईया हिन्दी सिनेमा ने ऐसी कृत्रिम भाषा विकसित की है जो देश में कहीं नहीं बोली जाती ।जनाधाररहित भाषा और उसमें भी प्रतिवादी तेवरों की अभिव्यक्ति अपने आप में सुखद ख़बर है।ऐसे भाषिक प्रयोग संवादों मिलते हैं जो हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहीं नज़र नहीं आते। इस तरह कृत्रिम भाषा का साइड इफ़ेक्ट यह है कि हम फेकभाषा में जीने लगते हैं, फेकभाषा में प्रतिवाद करते हैं, यही राजनीति में फेकभाषा को प्रतिवाद की भाषा बनाने में सहायक हुई है। प्रतिवाद की फेकभाषा को संघ ने जनप्रिय बनाया है और इसी फेकभाषा के ज़रिए हिन्दुत्व और हिन्दूभावबोध का प्रचार किया है ।
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