सुनील गुप्ता के अकस्मात हमारे बीच से चले जाने की ख़बर फ़ेसबुक पर पढ़ी । मन को बेहद दुख हुआ।मैं सुनील को तब से जानता हूँ जब वह जेएनयू पढ़ने आए थे। हम दोनों सतलज में रहते थे। रोज़ का मिलना और तरह - तरह के विषयों पर आदान प्रदान आदत बन गयी थी। सुनील मेरे साथ 1980-81 में छात्रसंघ में कौंसलर रहे। सुनील के जीवन का हिंदीप्रेम मुझे बेहद अपील करता था साथ ही उनकी सादगी को मैं मन ही मन सराहता था और उनको अनेकबार कहता भी था कि आपके समाजवादी विचार और सादगी को हर नागरिक को सीखना चाहिए।
सुनील अपने समाजवादी आदर्शों और ग़रीबों के लिए काम करने की प्रतिबद्धता के लिए हम सभी मित्रों में सम्मान की नज़र से देखे जाते थे। शानदार अकादमिक रिकॉर्ड के बावजूद सुनील ने ग़रीबों की सेवा करने का फ़ैसला करके युवाओं में मिसाल क़ायम की थी और उसका यह त्याग हमलोगों में ईर्ष्या की चीज़ था।
सुनील से मेरी लंबे समय से मुलाक़ात नहीं हो पायी लेकिन मैं उसके लिखे को खोजकर पढ़ता रहा हूँ। सुनील का अकस्मात निधन भारत के समाजवादी आंदोलन की अपूरणीय क्षति है ।
सुनील जब जेएनयू आए तो उस समय उसका कैम्पस बदल रहा था। पहले जेनयू कैम्पस में जो कुछ होता था वह भारत के किसी भी विश्वविद्यालय से मेल नहीं खाता था। लेकिन 1978-79 से कैम्पस ने नई अँगडाई लेनी शुरु की और देश के छात्र आंदोलन की बयार यहां पर भी आने लगी। देश में जो घट रहा था उसकी अभिव्यंजना जब कैम्पस में होने लगे तो लोग कहते हैं कि अब यह कैम्पस देश की मुख्यधारा से जुड़ गया है।
कैम्पस में आरक्षण,अल्पसंख्यक,दलित राजनीति ,जातिवाद , साम्प्रदायिकता आदि प्रवृत्तियों का असर दिखने लगा। इससे कैम्पस में नए किस्म की अस्मिता राजनीति का दौर शुरु हुआ। यही वह परिवेश था जिसमें छात्र राजनीति में नया छात्र समीकरण बनकर सामने आया। पहलीबार यह देखा गया कि सोशियोलॉजी विभाग में जाति के आधार एक ही जाति के भूमिहार छात्रों के दाखिले हुए और बड़े पैमाने पर उसके खिलाफ आंदोलन हुआ और उस आंदोलन में फ्री-थिकरों और एसएफआई की बड़ी भूमिका थी। यह संयोग कि बात थी कि उस समय हमारे समाजवादी मित्रगण जातिवादी दाखिले के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। समाजवादियों और फ्रीथिंकरों का एलायंस हुआ करता था वह टूट गया। यही वह परिवेश है जिसमें नए सिरे से समाजवादी युवजनसभा ने अपने को संगठित किया ।
जेएनयू कैम्पस में सुनील गुप्ता समाजवादी युवजनसभा के नेता थे और सभी छात्र उनका सम्मान करते थे। वे पढ़ने में बेहतरीन थे और हिन्दी के अनन्य भक्त थे। वे मुख्यभाषा के रुप में हिन्दी का अपने भाषणों में इस्तेमाल करते थे। दिलचस्प बात यह थी कि वे समाजविज्ञान के स्कूल में अर्थशास्त्र पढ़ते थे। इस स्कूल में हिन्दीभाषी क्षेत्र से आने वाले छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा थी लेकिन अधिकतर छात्र हिन्दी से परहेज करते थे। हिन्दी में भाषण सुनना पसंद नहीं करते थे।
सन् 1980-81 में मैंने एसएफआई के पैनल से कौंसलर का चुनाव लड़ा था। उस समय तक छात्रसंघ चुनाव में यह परंपरा थी कि एसएफआई पैनल में मुख्य वक्ता के रुप में पदाधिकारी उम्मीदवार ही बोला करते थे। साथ में अतिथि नेता बोलते थे। सभी अंग्रेजी में बोलते थे । स्थिति यह थी कि सभी छात्र संगठनों के चुनाव पैनल में प्रधानवक्ता पुराने अनुभवी कैम्पसनेता या बाहर के नेता रहते थे और सबको अंग्रेजी में बोलने की आदत थी। यहां तक कि समाजवादी नेता भी अंग्रेजी-हिन्दी में मिलाकर बोलते थे। मसलन् यदि समाजवादियों की मीटिंग 3 घंटे चली तो मुश्किल से 15-20 मिनट समय हिन्दी को मिल पाता था। मैं निजी तौर पर इस स्थिति बेहद दुखी था और तय कर चुका था कि हिन्दी को भाषणकला की मुख्य भाषा बनाना होगा।
मैंने एसएफआई की मीटिंग में यह प्रस्ताव रखा कि मुख्यवक्ताओं के साथ मैं हिन्दी में बोलूँगा। पहले इसको किसी ने नहीं माना बाद में काफी जोर देकर अपनी बात कही तो सभी मान गए और यह हिन्दी के लिए शुभ खबर थी। मेरा मानना था कैम्पस में हिन्दी को मुख्य भाषणभाषा बनना है तो एसएफआई को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। क्योंकि वह कैंपस में सबसे बड़ा छात्र संगठन है। कैम्पस की राजनीति हिन्दी उस समय अस्तित्वहीन थी। उन दिनों हिन्दी वहां सिर्फ भारतीय भाषा संस्थान (हिन्दी-उर्दू दो ही भाषाएं इसमें थीं) की भाषा थी। समाजवादी हिन्दी के पक्षधर थे लेकिन वे अंग्रेजी दां फ्रीथिंकरों के मित्र थे इसके कारण फ्रीथिंकरों और समाजवादियों के संयुक्त मोर्चे में अंग्रेजी का वर्चस्व हुआ करता था,चुनाव सभाओं में इस मोर्चे के अधिकांश वक्ता फ्रीथिंकर हुआ करते थे जो अंग्रेजी में ही बोलते थे।
हिन्दी के लिहाज से 1980-81 का छात्रसंघ चुनाव बेहद महत्वपूर्ण था। एसएफआई का एआईएसएफ से संयुक्त मोर्चा नहीं बना। वहीं पर अन्य मोर्चे भी मैदान में थे। इसबार के चुनाव की पहली मीटिंग पेरियार होस्टल में हुई उसमें मुख्यवक्ता थे-प्रकाश कारात,सीताराम येचुरी,डी.रघुनंदन,अनिल चौधरी,अध्यक्षपद के प्रत्याशी वी.भास्कर और जगदीश्वर चतुर्वेदी। मेरे अलावा सभी ने अंग्रेजी में बेहतरीन भाषण दिया था। लेकिन संयोग की बात थी कि इस मीटिंग में मेरा भाषण सबसे अच्छा हुआ और यह पहलीबार था कि कोई वक्ता पूरे समय हिन्दी में एसएफआई के मंच से तकरीबन 40-50 मिनट बोला हो।इस भाषण का असर यह हुआ कि एसएफआई ने तय किया कि मैं प्रत्येक चुनावसभा में भाषण दूँ। उस रात पहलीबार जब मैं भाषण देकर अपने छात्रावास आया तो सुनीलजी ने गरमजोशी के साथ मेरे भाषण की प्रशंसा की और कहा कि आपने तो एसएफआई को ही बदल दिया। वे इतनी देर हिन्दी कहां सुनते हैं और कैम्पस में चुनावसभा में इतनी देर हिन्दी कौन सुनता है। यह भी कहा आप हमारे साथ होते तो और भी मजा आता। लेकिन यह हिन्दी की शुरुआत थी। मैंने उस समय सुनील से कहा कि आप हिन्दी को कैम्पस में लाना चाहते हैं तो जिद करके भाषण दें लोगों को हिन्दी सुनने को मजबूर करें और वे मेरे इस सुझाव से सहमत थे। मेरे और सुनील या अन्य किसी छात्रनेता में एक बुनियादी अंतर यह था कि ये सब बहुभाषी वक्ता थे। मैं हिन्दी के अलावा और कोई भाषा नहीं जानता था और यही मेरी सबसे बड़ी पूँजी भी थी। सारा कैम्पस जानता था कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता। लेकिन इससे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। मुझे याद है कि पहली चुनावसभा के तत्काल बाद नीलगिरि ढाबे पर समाजवादी छात्रनेता स्व. दिग्विजय सिंह ने कहा था तुम यह बताओ तुमने पार्टी को राजी कैसे किया ? मैं हँसने लगा। मैंने कहा दादा कैम्पस बदल रहा है। भविष्य की मुख्य वक्तृताभाषा यहां हिन्दी ही होगी। इसी चुनाव में आखिरी चुनावसभा गोदावरी होस्टल में हुई जिसमें प्रकाश कारात ने साफ कहा कि मैं आगे से छात्रसंघ के चुनावों में भाषण देने नहीं आऊँगा, क्योंकि नई लीडरशिप आ गयी है और ये इतना सुंदर बोलते हैं कि अब मेरे आने की जरुरत ही नहीं है। खासतौर पर उसने मेरे भाषण का जिक्र किया और कहा कि हिन्दी को जिस तरह यहां सम्प्रेषणीय और बाँधे रखने की भाषा के रुप में जगदीश्वर ने पेश किया है उसे मैं इस चुनाव की बड़ी उपलब्धि मानता हूँ। यह संस्मरण बताने का बडा कारण है कि जेएनयू में सुनील जब आए तो परिवेश बदल रहा था और अंग्रेजी का वर्चस्व टूट रहा था। यही वह परिवेश था जिसमें समाजवादी युवजन सभा ताकतवर संगठन के रुप में उभरी। हिन्दीभाषी छात्र अपने को समाजवादी युवजन सभा में अभिव्यंजित होते देख रहे थे। इस चुनाव में सुनील और मैं दोनों कौंसलर बने और दोनों हिन्दी में बोलकर चुनाव जीते।
देखते ही देखते सुनील और उनके साथियों की मेहनत रंग लाई और 1982-83 में समाजवादी युवजनसभा समूचा चुनाव जीत गयी,नलिनीरंजन मोहन्ती(समाजवादी युवजन सभा) छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए। वे विशुद्ध अंग्रेजी भाषी थे। लोग अचम्भित थे कि जो समाजवादी हिन्दी की हिमायत करते थे उनका उम्मीदवार ऐसा व्यक्ति था जो हिन्दी नहीं बोलता था। खैर, यह अनुभव कई मायनों में मूल्यवान था। उसमें सुनील के साथ-साथ समाजवादी मित्रों के राजनीतिक मनोभावों को जानने –समझने का मौका मिला।
इस अनुभव का सबक यह मिला कि सुनील और उनके साथ के समाजवादी मित्र हठी लोग हैं। कैम्पस में प्रतिबद्ध राजनीति थी और उसके अनेक मानक देखे गए लेकिन समाजवादी राजनीति में नया फिनोमिना देखा गया जिसमें प्रतिबद्धता के साथ हठीभाव भी था। समाजवादी टूट जाने के लिए तैयार थे लेकिन अपने हठ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इसने कैम्पस में अतिवादी रुझानों को जन्म दिया। संघर्ष होते थे लेकिन समझौते नहीं हो पाए। राजनीति में एक खास किस्म की कट्टरता का जन्म हुआ और उसने समूचे कैम्पसके चरित्र को ही बदल दिया।
प्रतिबद्ध राजनीति में छात्रों की मांगें होती हैं.उनके लिए संघर्ष होता है, लेकिन अधिकारियों के साथ संवाद और समझौते का रास्ता खुला रखना पड़ता है और लक्ष्मणरेखाएं खींचकर आंदोलन नहीं किए जाते। सुनील के कैम्पस में आने के पहले समाजवादियों में वैचारिक लचीलापन था जो सुनील के सक्रिय होने के बाद खत्म हो गया। सुनील की लीडरशिप का यह कमाल था कि समाजवादी पहलीबार छात्रसंघ का चुनाव जीते और मीलिटेंट भाव से राजनीति की कैम्पस में शुरुआत हुई। इस राजनीति का मूल संस्कार हठवादी था। यह हठवाद छात्रों को काफी अपील करता था। जबकि सच यह है कि छात्र राजनीति अनमनीय भाव से नहीं की जा सकती । लेकिन कैम्पस में समाजवादी हठवाद का श्रीगणेश हुआ और इसका परिणाम कैम्पस और स्वयं समाजवादी युवजन सभा के लिए आत्मघाती साबित हुआ। समाजवादी युवजन सभा जिस लहर के साथ उभरकर सामने आई मात्र 1982-83 के एक साल के छात्रसंघ के लीडरशिप के दौरान हाशिए पर चली गयी। यहां तक कि अधिकांश छात्रों का समाजवादी युवजन सभा से मोहभंग हो गया। कैम्पस भायानक अराजकता के दौर से गुजरा, जेएनयू में एक साल दाखिले नहीं हुए। सैंकड़ों छात्र निष्कासित हुए।
समाजवादी हठवाद का लक्षण है कि हम जो मानते हैं उसे हूबहू लागू करेंगे चाहे जो हो। इस समझ के कारण समूचे हिन्दीभाषी क्षेत्र में समाजवादी उफान की तरह आए और फिर उसी तरह भुला दिए गए। सन् 1983 में किसी समस्या पर विवाद यह था कि प्रतिवाद करना है और वीसी का घेराव करना है। हमारा (एसएफआई) प्रस्ताव यह था कि घेराव करो लेकिन आफिस में करो। समाजवादियों का कहना था घर पर घेराव करेंगे। हमने इसका प्रतिवाद किया लेकिन वे नहीं माने, छात्रों ने उनका समर्थन किया हमारी बात नहीं मानी। परिणाम सामने था, समूचा छात्र आंदोलन दमन के जरिए तोड़ दिया गया। जेएनयू की तमाम नीतियां बदल दी गयीं।छात्रसंघ को अप्रासंगिक बना दिया गया।सैंकड़ों छात्र निष्कासित हुए और सैंकड़ों छात्रों पर 18 से ज्यादा धाराओं में मुकदमे ठोक दिए गए 400से ज्यादा छात्र 15 दिनों तक तिहाड़ जेल में बंद रहे। जेएनयू में अभूतपूर्व दमन हुआ। समूचा समाजवादी नेतृत्व छात्रों में अलग-थलग पड़ गया। जो छात्र एक साल पहले समाजवादी युवजनसभा पर जान छिड़कते थे वे ही नफरत करने लगे।यह समाजवादी हठ की स्वाभाविक परिणति थी।
समाजवादी हठ एक तरह की वैचारिक कट्टरता है जिसको सुनील ने अपनी सादगी,त्याग और ईमानदारी के जरिए आकर्षित बना लिया और वे बाद में इसके जरिए गरीबों के बीच में काम करने कैम्पस के बाहर म.प्र. में चले गए। मेरा निजी तौर पर उनसे कैम्पस में नियमित संपर्क था लेकिन उनके कैम्पस के बाहर जाने के बाद कोई सम्पर्क नहीं रहा। इसका प्रधान दोषी मैं ही हूँ। मैं उतना मिलनसार नहीं हूँ। कम मिलता हूँ। जबकि सुनील जमीनी कार्यकर्ता होने के नाते मिलनसारिता में बेमिसाल था। वह मित्रों का ख्याल भी रखता था। उसके अचानक जाने से समाजवादी आंदोलन की बड़ी क्षति हुई है। (सामयिक वार्ता, जुलाई 2014 में प्रकाशित)
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