पश्चिम बंगाल में विगत कई सालों में जिस तरह की जड़ता,हताशा और पराजय भाव का जन्म हुआ है उसने सभी जागरुक लोगों को चिन्ताग्रस्त किया है। चिन्ताएं इसलिए भी बढ़ी हैं क्योंकि वामदलों की साख घटी है, जनसंघर्षों के प्रति संशय और संदेह का भाव बढ़ा है। मध्यवर्ग में कदाचार और हिंसाचार के प्रति सहिष्णुता बढ़ी है। विश्वविद्यालय-कॉलेजों में व्यापक आतंक और कदाचार बढ़ा है। शिक्षक-बुद्धिजीवी-संस्कृतिकर्मियों की इमेज धूमिल हुई है। उन पर हमले बढ़े हैं। शासकों में अन्याय-हिंसा –भ्रष्टाचार-बर्बरता की नग्न हिमायत ने जन्म लिया है। सभ्य बंगाल अब असभ्य और बर्बर प्रतीत होने लगा है !
सभ्य बंगाली अपने को बंगाली कहने में लज्जित महसूस करने लगे हैं। बंगाल में लंपटई,दबंगई,कु-संगति का आज जितना सम्मान है उतना सभ्यता का सम्मान नहीं रह गया है। बुद्धिजीवियों को कल तक ओपिनियनमेकर माना जाता था लेकिन आज उनकी आवाज को कोई सुन नहीं रहा। कल तक ज्ञानी-गुणी-बुद्धिजीवी-संस्कृतिकर्मी-कलाकार –शिक्षक आदि को गर्व की नजर से देखा जाता था लेकिन आज वह सब गायब हो चुका है। यही वह परिवेश है जिसमें राजनीति में वाम की पराजय हुई और ममता बनर्जी का उदय हुआ और उसके सत्तारुढ़ होते ही असभ्यता का चौतरफा विस्तार हुआ। ममता शासन की एक ही बड़ी देन असभ्यता-असभ्यता-असभ्यता।
ममता ने जिस समय वाम के खिलाफ मोर्चा संभाला था बंगाल असभ्यता के शिखर था। हर क्षेत्र में सभ्यता के मानक नष्ट करने का काम वाम ने किया और इसकी प्रक्रिया आंरंभ होती है ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ। मुख्यमंत्री के तौर पर बुद्धदेव भट्टाचार्य का शासन असभ्यता के विकास का शासन है। उसकी स्वाभाविक परिणति ममता विजय में हुई। ममता ने वाम को राजनीति में हरा दिया लेकिन असभ्यता की मीनारों को तोड़ने की कोई कोशिश नहीं की बल्कि स्वयं असभ्यता की मीनारों पर जाकर बैठ गयी। सभ्य बंगाल में असभ्यता की मीनारें किसने बनायीं और समूचा समाज असभ्यता के नागपाश में कैसे बंध गया यह अपने आपमें दिलचस्प है।
बंगाल में असभ्यता के आख्यान की नींव कांग्रेस ने 1972-77 के फासीवादी दौर में रखी,माओवादियों,कांग्रेस और माकपा ने उसमें पानी डाला,सींचा और पल्लवित किया। ममता ने उसकी समूची फसल को बेचा और खाया। ममता की भाषा,भंगिमा,राजनीति,सांगठनिक जनाधार आदि ने कुल मिलाकर असभ्यता के अनुकूल दिशा में राजकीय संरचनाओं को मोड़ दिया। आज असभ्यता से मुक्ति के नाम पर जो विकल्प आ रहा है वह है भाजपा जो असभ्यता का अजगर है। संक्षेप में देखें तो वाम असभ्यता का बिच्छू था,तृणमूल असभ्यता का साँप और भाजपा असभ्यता का अजगर है। जाहिर है कोई भी सभ्य विकल्प इन सबके परे जाकर ही निकल सकता है। यही वो परिदृश्य है जिसको केन्द्र में रखकर जादवपुर विश्वविद्यालय के मौजूदा छात्र आंदोलन को देखा जाना चाहिए। यह आंदोलन क्षयिष्णु वातावरण में आशा की किरण की तरह है। यह आंदोलन सफल होगा कि नहीं यह तो भविष्य में तय होगा । लेकिन एक बात तय है कि जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने स्त्री के अपमान और उत्पीडन के मामले को जिस दृढ़ता और आस्था के साथ उठाया है उसने नए बंगाल के निर्माण की नींव डाल दी है। इस आंदोलन के साथ बंगाल ने असभ्यता के खिलाफ प्रतिवाद की शुरुआत कर दी है। इस आंदोलन की खूबी है कि इसके केन्द्र में स्त्री उत्पीडन का मुद्दा है। सभ्यता के नए आख्यान के निर्माण के लिए यह बिंदु बेहद महत्वपूर्ण है। आंदोलनकारी छात्र सरकार बनाने या गिराने के लिए आंदोलन नहीं कर रहे हैं बल्कि स्त्री के सम्मान ,सुरक्षा और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। स्त्री का बंगाल की राजनीति में मुद्दे के तौर पर केन्द्र में आना अपने आपमें बहुत ही मूल्यवान परिवर्तन का संकेत है। इस बिंदु से नए सभ्य बंगाल की संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं। जादवपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति आदि को हटाने की मांग तो इस मसले में ईंधन का काम कर रही है। जादवपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति द्वारा स्त्री उत्पीडन की घटना की उपेक्षा करना और उसे गंभीरता से न लेना एकसिरे गलत और निंदनीय कृत्य है। उपकुलपति यह भूल गए कि एक स्त्री के साथ उत्पीडन की घटना सामान्य रुटिन घटना नहीं है।उनका केजुअल और उपेक्षाभाव इस बात को भी दरशाता है कि बौद्धिकों में किस तरह की स्त्रीविरोधी मानसिकता घर कर गयी है। उपकुलपति के रवैय्ये को देखकर यही लगता है बंगाल का बौद्धिक वातावरण बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। यहाँ के बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों में स्त्री के सम्मान और सुरक्षा के प्रति कोई सचेतनता नहीं बची है। दो सप्ताह से ज्यादा समय हो चुका है लेकिन बंगाल के तथाकथित बुद्धिजीवीवर्ग की आवाज और प्रतिवाद को हमने कहीं पर भी नहीं देखा। आखिरकार वे चुप क्यों हैं ? उनके सामने वे कौन सी बाधाएं जिनके कारण अपने चारों ओर होनेवाली असभ्यता की घटनाओं को मूकदर्शक की तरह देख रहे हैं और उनको कभी सड़कों पर प्रतिवाद करने का मन नहीं होता ! स्त्री की अवमानना और उत्पीडन की विगत तीन साल में सैंकड़ों घटनाएं हुई हैं लेकिन बुद्धिजीवी लंबी तानकर सोए हुए हुए हैं। बौद्धिकता का इस तरह का बेसुधभाव तो बंगाल ने कभी नहीं देखा !
आज जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र दोपहर 12बजे आमसभा करने जा रहे हैं और वे अपने आंदोलन की भावी योजना बनाएंगे। हमें उम्मीद है कि वे सही दिशा में कदम उठाएंगे।वे लंबे समय से कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे हैं, उन्होंने उपकुलपति का घेराव किया और उनके घेराव को पुलिस हस्तक्षेप के जरिए तोड़ा गया, छात्रों को पुलिसवालों ने निर्ममता से पीटा अनेक छात्र घायल हुए और इसके प्रतिवाद में हजारों छात्रों ने विशाल जुलूस निकाला और राज्यपाल को जाकर ज्ञापन दिया। इस समस्या के सम्मानजनक समाधान की दिशा में राज्य सरकार कोई प्रयत्न करती नजर नहीं आ रही। उलटे शिक्षामंत्री ने सबसे असभ्य बयान दिया है। उन्होंने कहा है जिन छात्रों को वीसी पसंद नहीं है वे जादवपुर विश्वविद्यालय छोड़कर अन्यत्र चले जाएं। हम इस बयान की निंदा करते हैं। साथ ही कहना चाहते हैं विश्वविद्यालय राज्य सरकार के शिक्षामंत्री और वीसी की जागीर नहीं है, यह छात्रों और बंगाल की संपदा है। शिक्षामंत्री भूल रहे हैं कि यदि जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र अपनी मांगों पर अड़ गए तो समूची ममता मंडली को बंगाल के बाहर भाड़े के घर खोजने होंगे। वे यह देख ही नहीं पा रहे हैं कि छात्रों के प्रतिवाद की अग्नि में बंगाल की असभ्यता धू धू करके जल रही है।
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