सोमवार, 15 सितंबर 2014

बर्बरता के प्रतिवाद में


भारत में सभ्यता विमर्श है लेकिन हमने कभी यह ठहरकर नहीं सोचा कि सभ्यता के पर्दे के पीछे बर्बरता के किस तरह के रुप समाज में विकसित हो रहे हैं । हम सभ्यता और धर्म की ऊँची मीनारों पर सवार हैं लेकिन  बर्बरता की भी ऊँची मीनारों का निर्माण किया है । हमने बर्बरता के लक्षणों की तफ़सील के साथ जाँच- पड़ताल नहीं की । 
     आज़ाद भारत की नींव भारत -विभाजन और तेलंगाना विद्रोह के दमन से पैदा हुई बर्बरता पर रखी गयी है । यह संयोग है कि भारत विभाजनजनित बर्बरता की तो कभी -कभार चर्चा सुनने को मिल जाती है लेकिन तेलंगाना के किसान आंदोलन के दमन और बर्बरता के रुपों की कभी चर्चा ही नहीं होती, यहाँ तक कि कम्युनिस्ट थिंकरों के यहाँ भी उसका ज़िक्र नहीं मिलता ।
    भारत में लोकतंत्र का कम और बर्बरता का ज़्यादा विकास हुआ है । बर्बरता की जब भी बातें होती हैं तो हम वफ़ादारी के आधार पर पक्ष- विपक्ष तय करने लगते हैं या फिर राजनीतिक - सामाजिक पूर्वाग्रहों के आधार पर ।
   भारत में दो तरह की बर्बरता है , पहली बर्बरता घर के अंदर है ,दूसरी बर्बरता घर के बाहर समाज के विभिन्न स्तरों पर घट रही है। संक्षेप में , बर्बरता के दो बड़े एजेंट हैं परिवार और पुलिस ।
  बर्बरता के पारिवारिक तत्वों को हमने सामाजिक तौर पर चुनौती नहीं दी । लंबे समय तक पारिवारिक बर्बरता को हम छिपाते रहे। सन् 1970-71 के बाद से पारिवारिक बर्बरता के रुपों को धीरे धीरे हमने सार्वजनिक करना आरंभ किया लेकिन इसके बारे में कोई समग्र समझ नहीं बनायी ।
    पारिवारिक बर्बरता का प्रधान कारण है पारिवारिक सदस्यों में समानता , सद्भाव और एक- दूसरे के प्रति लगाव का अभाव । जीवनशैली के विभिन्न पारिवारिक रुपों में वर्चस्व की मौजूदगी । साथ ही परिवार को नए लोकतांत्रिक ढाँचे के अनुरूप परिवर्तित न कर पाना ।  

  लोकतंत्र में कोई भी चीज, वस्तु, विचार या जीवन मूल्य जब जन्म लेता है तो वह प्रसारित होता है । लोकतंत्र में प्रसार की क्षमता के कारण ही बुरी चीज़ें, बुरी आदतें और बुरे मूल्य तेज़ी से प्रसारित हुए ।बर्बरता का प्रसार उनमें से एक है । 
     त्रासदी की हमारे समाज में आँधी चल रही है।   इसमें पारिवारिक बर्बरता, जातिवादी, साम्प्रदायिक, पृथकतावादी ( उत्तर पूर्वी राज्यों , पंजाब और कश्मीर ), माओवादी -नक्सलवादी बर्बरता,आपातकालीन आतंकी बर्बरता के साथ पुलिसबलों की दैनंदिन बर्बरता शामिल है ।  हिंसा और बर्बरता के इन सभी क्षेत्रों के आँकड़े चौंकाने वाले हैं । 
        परिवार में दहेज- हत्या, स्त्री- उत्पीड़न , बच्चों और बूढ़ों का उत्पीड़न या उनके प्रति बर्बर व्यवहार हमें त्रासद नहीं लगता बल्कि इसे हम 'बुरा' कहकर हल्का बनाने की कोशिश करते हैं । इसी तरह की कोई घटना घटित होती है तो हमें बुरा लगता है । हम यही कहते हैं 'बुरा' हुआ। जबकि यह त्रासद है , दुखद है , लेकिन हम 'बुरा 'कहकर अपने भावों को व्यक्त करते हैं। 
    दैनन्दिन पारिवारिक जीवन की त्रासदियों में भय , शाॅक , चौंकाने वाला और उत्पीड़न सबसे बड़े तत्व हैं। आधुनिक त्रासदी को इन तत्वों के बिना परिभाषित ही नहीं कर सकते । त्रासदी को महज़ बुरे के रुप न देखा जाय।
    मार्क्सवादी आलोचक  टेरी इगिलटन के अनुसार त्रासदी को जब हम 'बुरा' या ' बहुत बुरा हुआ' कहते हैं तो इसमें निहित दर्द को महसूस नहीं करते । 
     टेरी इगिलटन के अनुसार शिक्षित और अशिक्षित संस्थानों के बीच में त्रासदी के अर्थ को लेकर बहुत बड़ा भेद है। इस प्रसंग में शिक्षितों के संस्थान तुलनात्मक तौर पर ज़्यादा विश्वसनीय हैं। वे यह महसूस करते हैं कि त्रासदी का अर्थ ' बुरा' से बढ़कर होता है । वे दुख में निहित मूल्य की खोज करते हैं और उसे रेखांकित करते हैं । 
     त्रासदी को हमें दुख या बुरे के रुप से ज़्यादा व्यापक अर्थ में देखना चाहिए । त्रासदी का मतलब दुख मात्र नहीं है । 
     हमारे समाज में जो अनुदारवादी हैं वे त्रासदी को 'दुख'या 'बुरे ' के रुप में ही देखते हैं। वे इसमें निहित दर्द, पीड़ा, उत्पीड़न और भय की उपेक्षा करते हैं।
    मसलन् ,गुजरात के दंगों को मोदीपंथी दुखद या बुरा मानते हैं , त्रासद नहीं मानते हैं , त्रासदी और बर्बरता नहीं मानते । इसी तरह दहेज- हत्या को हम बुरा कहते हैं बर्बरता या त्रासदी नहीं कहते । इस तरह हमलोग जाने -अनजाने बर्बरता के साथ सहनीय संबंध बना लेते हैं। 
     पारिवारिक बर्बरता को कम करके आँकने और देखने का सबसे जनप्रिय मुहावरा है ,'चार बर्तन होंगे तो खनकेंगे।' पति-पत्नी  के बीच की बर्बरता को हम उपेक्षणीय मानते हैं । कहते हैं 'जहाँ प्यार होता है वहाँ झगड़ा भी होता है ।' 'पारिवारिक झगडा' कहकर बर्बरता को कम करके पेश किया जाता है और इस प्रक्रिया में घटित त्रासदी की अनदेखी की जाती है । यह त्रासदी लिंगमुक्त है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ महिलाओं के साथ त्रासद घटनाएँ घटित होती हैं , यह भी देखा गया है कि पुरुषों , बच्चों और बूढ़ों के साथ त्रासद घटनाएँ बढ़ी हैं ।
   त्रासदी में अपूरणीय मानवीय क्षति होती है । इसके दो छोर हैं , पहला , निजी, शारीरिक और मानसिक है तो दूसरा , सार्वजनिक, राजनीतिक और अन्य के प्रति जबावदेही  है । 
      सवाल यह है कि लोकतंत्र के विकास के साथ- साथ समाज में सभ्यता का विकास कम और बर्बरता का विकास ज़्यादा क्यों हुआ ? बर्बरता के साथ सामंजस्य बिठाने की मानसिकता का विकास क्यों हुआ ? बर्बरता का कैनवास दिनोंदिन क्यों बढा ? 
मेरे लेखे ,बर्बरता के विकास का प्रधान कारण है समाज में नई जीवन प्रणाली , सामाजिक संरचनाओं और नियमों के विकास की प्रक्रिया का अभाव। पुरानी प्रणाली का पूरी तरह बिखर जाना या ध्वस्त हो जाना और नियमन की नई प्रणाली का निर्मित न हो पाना । 
   एरिक हाॅब्सबाम के अनुसार ' नियमों और नैतिक आचरण ' की परंपरागत और सार्वभौम प्रणाली जब ध्वस्त हो जाती है तो बर्बरता पैदा होती है ।
    सामाजिक- राजनीतिक नियमन की  राजकीय प्रणाली को जब हम आधार बनाकर समाज को संचालित करने लगते हैं तब भी बर्बरता में इज़ाफ़ा होता है । 
    राजकीय नियमन बर्बरता के प्रति सहिष्णु बनाता है, राजकीय बर्बरता को वैध और स्वीकार्य बनाता है फलत: राजकीय बर्बरता की हम अनदेखी करते हैं ,पुलिस और सैन्यबलों की बर्बरता को वैध मानने लगते हैं। 
      काम संतुष्टि के अभाव और  बंदूक़ की सभ्यता के विकास ने बर्बरता के क्षेत्र में लंबी छलाँग लगायी है। असहाय और मातहत लोगों के प्रति बर्बरता के ये दो बडे अस्त्र हैं। 
    हम बर्बरता की ओर जितना तेज़ी से बढ़े हैं उतनी ही तेज़ी से दक्षिणपंथी राजनीति का ग्राफ़ बढ़ा है ।  उदार राजनीति का ह्रास हुआ है । 
      भारतीय  समाज में एक तरफ़ निरंतर पुलिस बर्बरता है तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक दंगों , पृथकतावादी -आतंकी आंदोलनों का हिंसाचार है। इसके अलावा राजनीतिक हत्याओं का ग्राफ़ तेज़ी से बढ़ा है।   
    स्वाधीनता संग्राम और मध्यकाल की तुलना में स्वाधीन भारत में राजनीतिक हत्याएँ कई गुना ज़्यादा हुईं ।  जितने लोग युद्ध( 1962,1965,1971 ) में मारे गए उससे कई गुना ज़्यादा लोग पुलिस के हाथों थानों में मारे गए या पुलिसबलों से मुठभेड़ में मारे गए । 
     गाँवों में जातिगत बर्बरता को हमने सामान्य रुटिन मानकर आँखें बंद कर लीं। जातिगत बर्बरता के हमने सुंदर वैध तर्कों का परंपरागत कम्युनिकेशन के ज़रिए प्रचार किया और परंपरागत ग़ुलामी को वैध बनाने की कोशिश की । असल में यह वर्गयुद्ध है जो अपने ही देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ जारी है । 
    जातिगत श्रेष्ठता को आधार बनाकर किए गए बर्बर हमलों ने भारत के सुंदर भविष्य की सभी संभावनाओं को दफ़न कर दिया । शैतान को हमने भगवान बना लिया और हर घर में जातिरुपी शैतान की पूजा-अर्चना, मान- मर्यादा बढ़ा दी ।
      इसी दौर में तमाम प्रगतिशीलों को पुरानी और नई जाति व्यवस्था में भेद करके पुरानी को बेहतर कहते सुना गया । पुरानी जाति व्यवस्था के 'अच्छे' गुणों की खोज खोजकर चर्चा की गयी और यह काम नामवर सिंह जैसे प्रगतिशील आलोचक ने ख़ूब किया । 
     जाति व्यवस्था पुरानी हो या नई वह हमेशा से बर्बर रही है और उसका मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य के साथ सीधे अंतर्विरोध है उसकी किसी भी क़िस्म की हिमायत बर्बरता को वैधता प्रदान करती है । 
     यही हाल साम्प्रदायिक बर्बरता का है जिसके कारण हज़ारों दंगे हुए ,उनमें हज़ारों लोग बर्बरता की बलि चढ़ गए । भारत विभाजन से लेकर आज तक हुए दंगों के ग्राफ़ को देखें तो पाएँगे कि हमारे ज़ेहन में साम्प्रदायिक हिंसा और बर्बरता के प्रति घृणा घटी है । तरह - तरह के घटिया तर्कों के ज़रिए हमने साम्प्रदायिक हिंसा को वैधता प्रदान की है । सतह पर साम्प्रदायिक हिंसा और बर्बरता टुकड़ों में होती रही है लेकिन उसके बीच में एक बारीक कड़ी है जो सभी क़िस्म के बिखरे टुकड़ों को जोड़ती है ।
     साम्प्रदायिक बर्बरता का सबसे बड़ा योगदान है कि हमारे समाज में पहचान के आधुनिक वर्गीय और पेशेवर रुपों की बजाय धार्मिक रुपों की ओर रुझान बढा है । 
  साम्प्रदायिक बर्बरता ने देश की ' ब्रेनवाशिंग' की है । भारतीय मन को साम्प्रदायिक मन में रुपान्तरित किया है ।  बहिष्कार करने और साम्प्रदायिक समूह में रहने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है ।महानगरों या शहरों में मिश्रित बस्तियाँ या बसावट ग़ायब हो गयी है। 
    अल्पसंख्यकों और ख़ासकर मुसलमानों को समाज में वैध तरीक़ों के ज़रिए ठेलकर समूहबंद 'घेटो ' में बंद कर दिया है या फिर उनकी बस्तियाँ अलग बसा दी गयी हैं। इसने समाज में ' हम' और ' तुम' के आधार पर विभाजन को वैध बनाया है और यह बर्बरता का वह साइड इफ़ेक्ट है जो हिंसाचार के बाद भी जारी है । 
        बर्बरता के दो तरह के प्रभाव होते हैं ,पहला पतात्कालिक होता है और दूसरा प्रभाव दीर्घकालिक होता है । तात्कालिक प्रभाव पर हमारी तत्काल प्रतिक्रिया सुनने में आती है लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में हमारी कोई प्रतिक्रिया नज़र नहीं आती ।
   बर्बरता का दीर्घकालिक प्रभाव बेहद ख़तरनाक होता है और मौन उत्पीडक का काम करता है । इसमें व्यक्ति हर स्तर पर बिखर जाता है, नष्ट हो जाता है । इससे समाज में बर्बरता को चुप सहने और देखने की बीमारी का जन्म होता है और हम फिर बर्बरता को देखते हैं और चुप रहने लगते हैं । अब बर्बरता हमारे ज़ेहन में रुटिन बनकर छा जाती है । वह रोज़मर्रा की चीज़ हो जाती है और हम उसे 'बुरा'भर कहकर मन के भावों को व्यक्त करने लगते हैं ।
     यही हाल पुलिस बर्बरता का है ,हम कभी नहीं सोचते कि पुलिस जब किसी अपराधी के प्रति असभ्य तरीक़ों का इस्तेमाल करती है या 'थर्ड डिग्री'उत्पीडन के तरीक़े अपनाती है तो वह राजकीय संस्थाओं को बर्बर बनाती है । राजकीय संस्थाएँ जब बर्बर हो जाती हैं तो समाज में सभ्यता को बचाना बहुत ही मुश्किल काम हो जाता है । इससे समाज की नैतिक प्रगति बाधित होती है । 
     अपराधियों से सूचनाएँ हासिल करने के लिए पुलिस के बलप्रयोग ने जबरिया सूचना हासिल करने और जबरिया मुखबिर की तरह काम करने की पद्धति का विकास किया , इस पद्धति का कालांतर में साम्प्रदायिक -पृथकतावादी -माओवादी और आतंकी संगठनों ने भी इस्तेमाल किया । इन संगठनों से प्रभावित इलाक़ों में आतंक और प्रति आतंक    को बढ़ावा मिला जिसने राजकीय बर्बरता में इज़ाफ़ा किया ।मसलन पुलिस के बर्बर दमन से आतंकी संगठन ख़त्म हो जाते हैं , जैसा पंजाब में हुआ , तो लोग राजकीय बर्बरता को वैध मानने लगते हैं। इसके चलते आमलोगों में यह धारणा भी बनी कि सभ्यता के मुक़ाबले बर्बरता ज़्यादा कारगर हथियार है । इसने हमेशा के लिए सभ्यता की सीमाओं को कमज़ोर कर दिया । 
      सभ्य तरीक़ों की बजाय हम जब बर्बर तरीक़ों को वैध मानने लगते हैं तो स्वयं को अमानवीय बना रहे होते हैं। अमानवीयता में मज़े लेना आरंभ कर देते हैं । फलत: हम अमानवीयता के आदी हो दाते हैं । इस समूची प्रक्रिया के वाहक युवा बनते हैं । वे असहनीय चीज़ों को, अमानवीय चीज़ों को सहन करने लगते हैं , उनमें मज़ा लेने लगते हैं। 
     आज बर्बरता के निशाने पर युवा हैं। बर्बरता युवाओं को विभिन्न रुपों में अपनी ओर आकर्षित कर रही है । साम्प्रदायिक-पृथकतावादी -माओवादी-आतंकी हिंसा के वाहक युवा हैं, वे अपने बर्बर हिंसा से रोमैंटिक संबंध बना रहे हैं । 
     परिवार से लेकर समाज तक बर्बरता के विभिन्न रुपों में युवाओं की बड़े पैमाने पर शिरकत चिन्ता की बात है । 
    युवाओं में बर्बरता के प्रति बढ़ते आकर्षण और बेगानेपन को हमें  जुड़वाँ पहलू की तरह देखना चाहिए । यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । मसलन युवाओं में दहेज के प्रति कोई घृणा नहीं है उलटे वे दहेज माँगने लगे हैं । 
    यही हाल साम्प्रदायिक -आतंकी-पृथकतावादी -माओवादी- नक्सल राजनीति का है ,उसकी धुरी भी युवा हैं। एक तरफ़ युवाओं का यह रुप और दूसरी ओर उनका 'अ- राजनीतिक 'रुप असल में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और ये दोनों मिलकर बर्बरता को महत्वहीन बनाते हैं। सच यह है बर्बरता महत्वहीन नहीं है वह एक सच्चाई है और इसने जीवनशैली से लेकर राजनीति तक, आदतों से लेकर आचार- व्यवहार और नैतिकता के विभिन्न स्तरों तक अपने पैर पसार लिए हैं ।
    अब बर्बरता एक नई ऊँचाई की ओर जा रही है और अब इसने युवाओं में येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाने की अंधी होड़ पैदा कर दी है। अब बर्बरता महत्वहीन हो गयी है और पैसा कमाना महत्वपूर्ण हो गया है और यह बर्बरता का वह छोर है जहाँ पहुँचकर सभ्यता और मानवीय मूल्यों की खोज का काम और भी दूभर हो गया है । 
     
      
      
     


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