रविवार, 21 सितंबर 2014

कार्ल मार्क्स और सर्वहारा की तानाशाही

              इन दिनों फेसबुक पर अशिक्षितों का फैशन हो गया है कि वे मार्क्स को शैतान सिद्धांतकार और सर्वहारा की तानाशाही को गंदी गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसमें सभी रंगत और विचारधारा के लोग हैं,यहां तक कि मार्क्स के अनुयायी होने का दावा करने वाले पूर्व मार्क्सवादियों में भी एक वर्ग है जो सर्वहारा की तानाशाही की गलत व्याख्या करता है।
       
      सर्वहारा की तानाशाही का मतलब कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही नहीं है। व्यवहार में अनेक पूर्व समाजवादी देशों में इस अवधारणा का इसी रुप में इस्तेमाल किया गया। पूर्व समाजवादी देशों में सर्वहारा की तानाशाही का जिस तरह दुरुपयोग हुआ उससे यह धारणा विकृत हुई और इसकी गलत समझ प्रचारित हुई। मुश्किल यह है कि एक तरफ बुर्जुआजी का कु-प्रचार और दूसरी ओर कम्युनिस्टों के द्वारा इस धारणा का भ्रष्टीकरण ये दो चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं। कार्ल मार्क्स की अनेक धारणाओं को इन दोनों ओर से गंभीर खतरा है। तीसरा खतरा सोशल मीडिया ने पैदा किया है। इसके यूजरों का एक बड़ा हिस्सा है जो मार्क्सवाद को एकदम नहीं जानता लेकिन मार्क्सवाद ,साम्यवाद और उससे जुड़ी धारणाओं के बारे में आए दिन फेक प्रतिक्रियाएं देते रहते हैं। यहां हम ''सर्वहारा की तानाशाही'' के बारे में मार्क्स के विचारों के विवेचन तक सीमित रखेंगे।

मौजूदा दौर में हमारे समाज पर विश्वव्यापी वित्तीय संस्थाओं ,बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों का नियंत्रण है। वे ही तय कर रहे हैं कि देश और दुनिया में क्या होगा ?किस तरह का विकास होगा और किस तरह के सामाजिक मूल्य और राजनीतिक संरचनाएं काम करेंगी? इन संस्थाओं के निदेशकों को जनता कभी नहीं चुनती,यानी आज दुनिया को वे लोग चला रहे हैं जिनका चयन जनता नहीं करती।जबकि इनके फैसलों से करोड़ों लोग सीधे प्रभावित होते हैं।ये ही वे लोग हैं जिन्होंने सत्तादास की नयी राजनीतिक श्रेणी निर्मित की है जो सरकार चलाती है।सतह पर सरकारें कभी –कभी अपने इन आकाओं के खिलाफ फैसले लेती हैं, टैक्सचोरी के आरोप लगाकर जुर्माना वसूलती हैं,किसी न किसी अपराध में उनके बड़े अफसरों को गिरफ्तार भी करती हैं। यहां तक कि उनके ऊपर असामाजिक आचरण का आरोप तक लगाती हैं। दिलचस्प बात यह है कि जिनको मार्क्स में तानाशाही नजर आती है लेकिन उनको वित्तीय-संस्थाओं की तानाशाही नजर नहीं आती।बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों के मालिकों के आचरण में कहीं तानाशाही नजर नहीं आती।जबकि ये संस्थाएं खुलेआम अ-लोकतांत्रिक व्यक्तियों के निर्देशन में काम करती हैं। सच्चाई यह है कि मौजूदा पूंजीवादी समाज ने मानवता की अपूरणीय क्षति की है। इसके बावजूद हमारा पूंजीवाद के प्रति आकर्षण किसी भी तरह कम नहीं हो रहा। हम इस या उस पूंजीवादी दल के अनुयायी होने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। हमें कांग्रेस से नफरत है या भाजपा या बसपा या सपा आदि से नफरत है लेकिन अंततः हम यही चाहते हैं कि कोई न कोई पूंजीवादी दल सत्ता में आए। जबकि पूंजीवाद की जनविरोधी,लोकतंत्र विरोधी भूमिका के प्रमाण पग-पग पर बिखरे पड़े हैं।इनकी ओर हम कभी देखते तक नहीं हैं और आए दिन कम्युनिस्टों और मार्क्सवादियों पर हमले करते रहते हैं। मार्क्सवादियों पर किया गया प्रत्येक हमला बर्बर पूंजीवाद की सेवा ही माना जाएगा। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसे ध्यान रखें और मार्क्स प्रतिपादित ''सर्वहारा की तानाशाही'' की अवधारणा पर विचार करें।

मार्क्स ने 'फ्रांस में गृह-युद्ध' नामक कृति में विस्तार के साथ अपने लोकतांत्रिक नजरिए का प्रतिपादन किया है। मार्क्स ने रेखांकित किया है कि मजदूरवर्ग कभी भी राज्य की तैयारशुदा मशीनरी के साथ हाथ मिलाकर काम नहीं कर सकता।क्योंकि राज्य की मशीनरी का मकसद और मजदूरवर्ग के मकसद में अंतर है। दूसरा कारण यह कि राज्य मशीनरी में यथास्थितिवाद के प्रति पूर्वाग्रह भरे होते हैं। आज हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें अनेक अ-लोकतांत्रिक चीजें मुखौटे लगाकर सक्रिय हैं वे अलोकतांत्रिक हितों की खुलेआम रक्षा कर रहे हैं।

मार्क्स के लोकतांत्रिक स्व-शासन के मॉडल को देखना हो तो सन् 1871 के पेरिस कम्यून के शासन को गंभीरता से देखा जाना चाहिए। यह वह दौर है जिसमें कुछ समय के लिए फ्रांस के मजदूरों और आम जनता ने शासन अपने हाथों में ले लिया था। 'फ्रांस में गृहयुद्ध' नामक कृति में मार्क्स ने बताया है कि कम्यून का अर्थ क्या है ? यह मूलतः नगरपालिका के स्थानीय कौंसलरों का शासन है, जिनमें अधिकतर कामकाजी लोग थे,ये लोकप्रिय मतदान के जरिए चुनकर आए थे और उनको जनता को वापस बुलाने का भी अधिकार था। यहां पर उनको मजदूरों की मजदूरी के बराबर काम करने के लिए वेतन मिलता था। कोई विशेषाधिकार या विशेष सुविधाएं उनके पास नहीं थीं। स्थायी सेना समाप्त कर दी गयी थी।पुलिस को कम्यून के प्रति जबावदेह बनाया गया था।कम्यून आने के पहले फ्रांस के राज्य,कमाण्डरों और पादरियों के हाथों में सत्ता हुआ करती थी,कम्यून का शासन स्थापित होने के बाद ये सब सार्वजनिक जीवन से गायब हो गए। शिक्षा संस्थानों के दरवाजे आम जनता के लिए खोल दिए गए।शिक्षा को राज्य और चर्च के दखल से मुक्त कर दिया गया।मजिस्ट्रेट,जज और सार्वजनिक पदों पर काम करने वालों का जनता चुनाव करती थी। वे जनता प्रति जबावदेह थे और जनता को उनको वापस बुलाने हक भी था। कम्यून के शासन ने निजी संपत्ति को भी खत्म कर दिया था।उसकी जगह सामुदायिक उत्पादन ने ले ली थी। पूंजीवादी वर्गीय शोषण को खत्म करके सामाजिक जनतंत्र की नींव रखी गयी।स्थायी सेना को खत्म करके जनता को हथियारबंद कर दिया गया।

पेरिस कम्यून की स्थापना जनता के द्वारा चुने गए सभासदों के जरिए की गयी। मार्क्स ने लिखा है ''कम्यून नगर सभासदों को लेकर गठित हुआ था,जो नगर के वार्डों से सार्विक मताधिकार द्वारा चुने गए थे,जो उत्तरदायी थे और साथ ही किसी भी समय हटाये जा सकते थे।कम्यून के अधिकांश सदस्य स्वभाववतया मजदूर अथवा मजदूर वर्ग के जाने –माने प्रतिनिधि थे। कम्यून संसदीय नहीं ,बल्कि एक कार्यशील संगठन था,जो कार्यकारी और विधिकारी दोनों कार्य साथ-साथ करता था।''( का,मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स,पेरिल कम्यून,प्रगति प्रकाशन, 1980, पृ.84) पुलिस को कम्यून के प्रति जबावदेह बनाया गया और यही काम प्रशासन के अन्य अंगों के बारे में भी किया गया। कम्यून के सदस्यों को वही मजदूरी मिलती थी जो मजदूरों को मिलती थी। विभिन्न किस्म के भत्तों का अंत कर दिया गया।किसी भी विभाग के पास कोई विशेषाधिकार नहीं थे, सब कुछ कम्यून के हवाले था।पादरियों को सार्वजनिक पदों से मुक्त करके एकांत में जीने के लिए भेज दिया गया। उन्हें धार्मिक महात्माओं की तरह जीवन-यापन करने के लिए कहा गया।इसी तरह विज्ञान को भी वर्गीय-पूर्वाग्रहों और सरकारी दबावों से मुक्त कर दिया गया। चर्च की संपत्ति जब्त कर ली गयी। बंद पड़े वर्कशाप और फैक्ट्रियों को मुआवजे की शर्त के साथ खोल दिया गया । वर्ग-संपत्ति को खत्म कर दिया गया।

कम्यून के संचालक यह नहीं मानते ते कि वे कभी गलती नहीं कर सकते। उनकी जानकारी में यदि कोई गलती लायी जाती थी तो वे उसे तुरंत दुरुस्त करते थे।उनकी कथनी और करनी में साम्य था। वे जो कहते थे वही करते थे। पेरिस कम्यून स्थापित होने के बाद पेरिस की शक्ल ही बदल गयी। भ्रष्ट आडंबरयुक्त पेरिस खत्म हो गया। मुर्दाखाने में लाशें न थीं,रात को चोरियां होना बंद हो गयीं,राहजनी बंद हो गयी।फरवरी 1848 के बाद पेरिस की सड़कें पहलीबार निरापद हुईं। सड़कों पर पुलिस का पहरा नहीं होता था।पेरिस की वेश्याएं गायब हो गयीं।हत्या,चोरी और व्यक्तियों पर हमले की घटनाएं एकदम बंद हो गयीं। यही वह शासन है जिसको उस समय ''सर्वहारा की तानाशाही'' का नाम दिया गया। उस समय इसका वह अर्थ नहीं था जो इन दिनों प्रचारित किया जाता है।

मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन ने लिखा है कि उस समय इस पदबंध का अर्थ था ''लोकप्रिय लोकतंत्र''। ''सर्वहारा की तानाशाही'' का सामान्य अर्थ था बहुमत का शासन। आज ''तानाशाही'' का जो अर्थ लिया जाता है वह अर्थ मार्क्स के जमाने में नहीं था। आजकल तानाशाही का अर्थ है संविधान का उल्लंघनकर्ता। असल में कार्ल मार्क्स ने ''सर्वहारा की तानाशाही''पदबंध लूइ ओग्यूस्त ब्लांकी (1805-1881) से लिया। ब्लांकी फ्रांसीसी क्रांतिकारी थे और उन्होंने ही इस पदबंध को जन्म दिया। उनकी नजर में ''सर्वहारा की तानाशाही'' का अर्थ था साधारण जनता का स्व-शासन। मार्क्स ने भी इसी अर्थ में इस पदबंध का इस्तेमाल किया है। उल्लेखनीय है लूइ ओग्यूस्त ब्लांकी बाद में पेरिस कम्यून के जनता के द्वारा चुने गए राष्ट्रपति बने लेकिन उस समय जेल में डाल दिए गए थे।





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