सोमवार, 7 सितंबर 2009

मीडि‍या मुगलों के खि‍लाफ चुप क्‍यों हैं प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी बडे पत्रकार हैं।मीडि‍या एथि‍क्‍स के आदर्श पुरूष हैं। हमें अभी तक यह बात समझ में नहीं आयी है कि‍ वे मीडि‍या मुगलों के बारे में चुप क्‍यों हैं ? भारत में मीडि‍या मुगल सरेआम कानून की धज्‍जि‍यां उडा रहे हैं। सभी नि‍यमों को ताक पर रख रहे हैं। मीडि‍या का उनके हाथों केन्‍द्रीकरण हो रहा है। जि‍सके पास अखबार है, वही अब टीवी,रेडि‍यो,केबल चैनलों का भी मालि‍क है,जि‍नके पास चैनल हैं वे अब प्रेस के धंधे में भी आ गए हैं। क्‍या मीडि‍या का बढता केन्‍द्रीकरण प्रभाष जोशी को दि‍खता नहीं है ? क्‍या हम यह जान सकते हैं कि‍ खबरों के काले धंधे से बचाने वाला इतना बड़ा पत्रकार मीडि‍या के केन्‍द्रीकरण के सवाल पर चुप क्‍यों है ? क्‍या यह सवाल जाति‍वाद,सतीप्रथा,शीला दीक्षि‍त आदि‍ से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण नहीं है ? क्‍या इस सवाल पर मीडि‍या संगठनों की चुप्‍पी उन्‍हें परेशान नहीं करती ? मीडि‍या की स्‍वतंत्रता के नाम पर मीडि‍या का केन्‍द्रीकरण बढ़ा है। लोकतंत्र और अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी के लि‍ए यह अशुभ संकेत हैं।
देश अब तक के सबसे गंभीर संकट में है, आर्थि‍क मंदी सामान्‍य चीज नहीं है, लेकि‍न मीडि‍या की सतही रि‍पोर्टिंग क्‍या लि‍खने के लि‍ए बेचैन नहीं करती ? क्‍या अनुयायी लि‍ख रहे हैं ? आखि‍रकार प्रभाष जोशी को इतनी बडी समस्‍याओं को देखकर भी गुस्‍सा क्‍यों नहीं आता। हमेशा मरे हुए मसलों को ही क्‍यों उठाते हैं। क्‍या कभी पाकि‍स्‍तान के परे जाकर अफगानि‍स्‍तान,इराक और फि‍लि‍स्‍तीन की भी याद आती है ? इस तरह वि‍श्‍व हि‍त के सवालों पर कलम पर चुप क्‍यों रहती है ? क्‍या इन देशों की तबाही बेचैन नहीं करती,क्‍या हुआ है आपकी भारतीयचेतना को। क्‍या पुराने पत्रकार ऐसे ही थे ? इराक और फि‍लि‍स्‍तीन के जनसंहार आपको कभी भी वि‍चलि‍त क्‍यों नहीं करते ? बेहतर कारण तो आप ही बता पाएंगे,लेकि‍न हम इतना जानते हैं यह मीडि‍या मुगलों के सामने आत्‍मसमर्पण है। मीडि‍या मुगल नहीं चाहते कि‍ अमरीकी साम्राज्‍यवाद और उसके सहयोगी देशों ने जो तबाही मचायी हुई है उसके खि‍लाफ कोई बोले। आश्‍चर्य की बात है आपको जि‍न्‍ना,मुशर्रफ,जरदारी आदि‍ पर बोलना अच्‍छा लगता है लेकि‍न पास ही में अफगानि‍स्‍तान,इराक और फि‍लि‍स्‍तीन में चल रहे जनसंहारों और गुलामी के तंत्र के खि‍लाफ बोलने की कभी भी इच्‍छा नहीं होती, आपकी आत्‍मा सोई हुई क्‍यों है ? प्रभाष जोशी जि‍स अखबार को आपने पाल पोसकर बडा कि‍या है उसके पन्‍ने भी इन तीन देशों के जनसंहार के बारे में चुप रहते हैं। आपकी आंखों के सामने युद्धापराध हो रहे हैं लेकि‍न आप चुप हैं। आप अपनी 'मैं सही ' की धुन पर कायम हैं। आप लोकतंत्र के भीतर बैठकर तीर चला रहे हैं,लोकतंत्र के बाहर जाकर ही लोकतंत्र की रक्षा संभव है। क्‍या भारत के मीडि‍या मुगलों के द्वारा जि‍स तरह का खबरों के साथ जघन्‍य व्‍यवहार कि‍या जा रहा है उसे देखकर क्‍या इनके खि‍लाफ बोलने की इच्‍छा नहीं करती यदि‍ करती है तो बोलते क्‍यों नहीं ? यह क्‍या बनि‍या-ब्राह्मण लगा रखा है प्रेस में। सीधे सही नाम और सही परि‍भाषाओं में सटीक ढंग से क्‍यों नहीं लि‍खते ?
बीसवीं शताब्‍दी की तीन बडी परि‍घटनाएं हैं लोकतंत्र का वि‍कास, कारपोरेट शक्‍ति‍ का वि‍कास और कारपोरेट प्रौपेगैंडा का वि‍कास। इन तीनों ही क्षेत्रों में अभूतवूर्व वि‍कास हुआ है। कारपोरेट प्रौपेगैण्‍डा का लक्ष्‍य है लोकतंत्र के बरक्‍स कारपोरेट हि‍तों की रक्षा करना। आपकी परंपरा आत्‍म सेंसरशि‍प की परंपरा है। इसके जरि‍ए पावरगेम में शामि‍ल लोगों के हि‍तों की कौशलपूर्ण ढंग से सेवा की जाती है। आप जैसे पत्रकार 'लोकतंत्र के प्रौपेगैण्‍डा प्रबंधक' हैं। इन प्रबंधकों का बुनि‍यादी काम ही यही है प्रेस और मीडि‍या को लक्ष्‍मणरेखा में रखना,कारपोरेट हि‍तों के खि‍लाफ न जाने देना।
प्रभाष जोशी चूंकि‍ प्रौपेगैण्‍डा मॉडल को केन्‍द्र में रखकर लि‍खते हैं फलत: उन्‍हें परंपरागत अभि‍जन परंपरा से खूब समर्थन मि‍लता है। कारपोरेट मीडि‍या उन्‍हें बेहद पसंद करता है। साधारण जनता को वे यह आभास देते रहते हैं कि‍ वे सत्‍ता के साथ नहीं हैं। सत्‍ता के गुलाम नहीं हैं। इस चाल को नंगे रूप में तब देखा जा सकता है जब प्रभाष जोशी चुनावों में लि‍खते हैं। देखें प्रभाष जोशी ने हाल ही में सम्‍पन्‍न चुनावों में कि‍सके पक्ष में लि‍खा है ? कि‍नके लि‍ए प्रचार कि‍या ? मजेदार बात यह है कि‍ जो पत्रकार अभि‍जन के पक्ष में खडा रहता है वह अपने को जनपक्षधर कहता है ? प्रभाष जोशी अपने लेखन के जरि‍ए जो राय,एटीटयूट,पूर्वाग्रह पहले से मौजूद हैं उनको ही पेश करते हैं। अंत में,प्रभाष जोशी कि‍न लोगों में जनप्रि‍य हैं ? बुद्धि‍जीवी और शि‍क्षि‍तों में जनप्रि‍य हैं। यही वह तबका है जो कारपोरेट मीडि‍या प्रौपेगैण्‍डा के सामने सबसे ज्‍यादा असुरक्षि‍त है। यह वह तबका है जो सभी कि‍स्‍म की सूचनाएं हजम कर जाता है।उन्‍हें मजबूर कि‍या जाता है कि‍ राय दें,फलत: वे अन्‍य की राय अथवा प्रौपेगैण्‍डा की चपेट में होते हैं। यह ऐसा तबका है जि‍सकी अपनी स्‍वतंत्र राय नहीं होती,वह कारपोरेट प्रौपेगैण्‍डा से ही अपनी राय बनाता है। इनके ही प्रभाष जोशी देवता भी हैं। हमारे तो 'बडे भाई' हैं।

( देशकाल डाट कॉम पर भी 7सि‍तम्‍बर 2009 को प्रकाशि‍त)

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