बुधवार, 16 सितंबर 2009

लेखक अब डर गए हैं: चन्‍द्रबली सिंह

हाल ही में कोटा से प्रकाशि‍त पत्रि‍का 'अभि‍व्‍यक्‍ति‍' का नया अंक देखने को मि‍ला। इस अंक में हिंदी के सबसे बडे लेखक और आलोचक चन्‍द्रबली सिंह का एक शानदार साक्षात्‍कार छपा है। चन्‍द्रबली सिंह का व्‍यक्‍ति‍त्‍व और कृतित्‍व हिंदी लेखकों से छि‍पा नहीं है। वे हिंदी के शि‍खरपुरूष स्‍व.रामवि‍लास शर्मा से लेकर जीवि‍त शि‍खर पुरूष नामवर सिंह के ज्ञानगुरू हैं। हिंदी की वैज्ञानि‍क आलोचना के नि‍र्माण में उनका बहुमूल्‍य योगदान रहा है। उनकी‍ मेधा के सामने रामवि‍लास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक सभी नतमस्‍तक होते रहे हैं। चन्‍द्रबली जी हिंदी के ज्ञानगुरू हैं। हिंदी के लेखक जब भी गंभीर संकट में फंसे हैं उनके पास गए हैं और उनके द्वारा दि‍शा नि‍र्देश पाते रहे हैं। चन्‍द्रबली सिंह प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर जनवादी लेखक संघ तक सभी में शि‍खर नेतृत्‍व का हि‍स्‍सा रहे हैं। पि‍छले पैंसठ साल से भी ज्‍यादा समय से प्रगति‍शील आलोचना को दि‍शा देते रहे हैं। इन दि‍नों चन्‍द्रबली सिंह अस्‍वस्‍थ हैं और बनारस में अपने घर पर ही बि‍स्‍तर पर पडे आराम कर रहे हैं। 'अभि‍व्‍यक्‍ति‍' के संपादक 'शि‍वराम' ने उनका साक्षात्‍कार प्रकाशि‍त करके हिंदी की बडी सेवा की है। स्‍वयं शि‍वराम भी राजस्‍थान में सबसे ज्‍यादा सक्रि‍य परि‍वर्तनकामी लोकतांत्रि‍क नजरि‍ए के लेखक हैं।
अपने साक्षात्‍कार में चन्‍द्रबली सिंह ने जो कहा है वह हिंदी के लेखक संगठनों की उदासीनता और बेगानेपन के खि‍लाफ तल्‍ख टि‍प्‍पणी है। चन्‍द्रबली जी ने लेखक संगठनों के बारे में कहा है '' लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं,बहुत संतोषजनक तो नहीं है,उनका अस्‍ति‍त्‍व औपचारि‍क हो गया है। '' हिंदी लेखक संगठनों के बारे में यह टि‍प्‍पणी ऐसे समय में आयी है जब हिंदी के लेखक सबसे ज्‍यादा असहाय महसूस कर रहे हैं। लेखक संगठनों की नि‍ष्‍क्रि‍यता, वि‍चारधारात्‍मक उदासीनता और स्‍थानीय गुटबंदि‍यां चरमोत्‍कर्ष पर हैं। अब लेखक संगठन प्रतीकात्‍मक रूप में काम कर रहे हैं। लेखक संगठन प्रतीक क्‍यों बनकर रह गए हैं ? औपचारि‍क संगठन बनकर क्‍यों रह गए हैं ,उनके अंदर कोई वैचारि‍क और सर्जनात्‍मक सरगर्मी नजर क्‍यों नहीं आती ? हिन्‍दी में तीन बडे लेखक संगठन हैं,प्रगति‍शील लेखक संगठन,जनवादी लेखक संगठन,जनवादी सांस्‍कृति‍क मोर्चा। इनके अलावा और अनेक स्‍थानीय स्‍तर के लेखक संगठन हैं। लेकि‍न तीन बडे संगठनों में कि‍सी भी कि‍स्‍म का समन्‍वय नहीं है। इन संगठनों की कार्यप्रणली में इनके साथ जुडे राजनीति‍क दलों की राजनीति‍क संकीर्णताएं घुस आयी हैं। इस प्रसंग में चन्‍द्रबली सिंह ने कहा '' कुछ को ऑर्डि‍नेशन राजनीति‍क तौर पर हुआ है,पर उनकी राजनीति‍ से जुड़े जो सांस्‍कृति‍क संगठन हैं उनमें कोई समन्‍वय नहीं हुआ है। जहॉं तक कि‍ साहि‍त्‍यि‍क मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धि‍क संगठन में होना चाहि‍ए।... लेखकों का संगठन राजनैति‍क संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।'' आगे बड़ी ही प्रासंगि‍क दि‍क्‍कत की ओर ध्‍यान खींचते हुए चन्‍द्रबली जी ने कहा '' राजनैति‍क पार्टी में तो डेमोक्रेटि‍क सेन्‍ट्रलि‍ज्‍म के नाम पर जो तय हो गया,वह हो गया। पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि‍ फतवा दे दें कि‍ जो ऊपर तय हो गया तो हो गया। दि‍क्‍कत तो है। सम्‍प्रति‍ कोई ऐसी संस्‍था नहीं है कि‍ समन्‍वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि‍ इन संगठनों में जो नेतृत्‍व है वह नेतृत्‍व भी जो वि‍चार-वि‍मर्श करना चाहि‍ए,वह नहीं करता है।पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि‍ इन समस्‍याओं की ओर ध्‍यान दें।
चन्‍द्रबली सिंह ने एक रहस्‍योद्घाटन कि‍या है कि‍ लेखक संगठनों की समन्‍वय समि‍ति‍ बने यह प्रस्‍ताव नामवर सिंह ने दि‍या था ,चन्‍द्रबली जी भी उससे संभवत: सहमत थे। लेकि‍न पता नहीं क्‍यों यह प्रस्‍ताव अमल में अभी तक नहीं आ पाया है। चन्‍द्रबलीजी ने कहा है, '' मैंने समन्‍वय समि‍ति‍ का,नामवर ने जो प्रस्‍ताव रखा था कि‍ यदि‍ एक न हों तो समन्‍वय समि‍ति‍ हो जाए।पार्टियॉं जो हैं उनमें तो समन्‍वय समि‍ति‍ बनी ही है‍। पर लेखक संगठन व्‍यवहार में यह स्‍वीकार नहीं करते हैं कि‍ वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्‍वय की प्रक्रि‍या शुरू करने के लि‍ए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह सम्‍भव नहीं है। बि‍ना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।'' पुराने जमाने और आज के जमाने के लेखक संगठनों की बहसों की तुलना करते हुए चन्‍द्रबली जी ने कहा '' ऐसा लगता नहीं है कि‍ जैसी पहले मोर्चाबंदी हुई थी एक जमाने में,वैसी अब होती हो। वैसी अब दि‍खाई नहीं देती।वैसा वैचारि‍क संघर्ष दि‍खाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्‍थि‍ति‍ है। खास तौर से जो पत्र- पत्रि‍काएँ नि‍कलती हैं उनमें उस तरह की स्‍पष्‍टता और मोर्चाबंदी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि‍ लेखक मंच पर भी व्‍यक्‍ति‍यों के साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है। लीडरशि‍प के नाम पर लेखकों में एक सैक्‍टेरि‍यन दृष्‍टि‍कोण पनपता है।पतनशील प्रवृत्‍ति‍यों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्‍ति‍यॉं मौजूद रहती हैं।'' चन्‍द्रबली सिंह ने एक बडी ही मार्के की बात कही है। '' मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ‍ ,जि‍समें ज्‍यादातर कवि‍ ही हैं। वे कवि‍ता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि‍ अपनी कवि‍ताऍं,जनता के बीच में जाओ,उन्‍हें सुनाओ।फि‍र देखो क्‍या प्रति‍क्रि‍या होती है। जनता समझती है या नहीं।पाब्‍लो नेरूदा जैसा कवि‍ जनता के बीच जाकर कवि‍ता सुनाता था। जनता को उसकी कवि‍ताऍं याद हैं। जनता को जि‍तना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि‍ वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्‍हें भी तो समझ सकती है।बशर्ते उसकी भाषा में भावों को व्‍यक्‍त कि‍या जाए।'' समीक्षा के वर्तमान मठाधीश प्रगति‍शील लेखकों की उपेक्षा करते हैं। इस पर चन्‍द्रबली जी ने कहा '' कहते तो हैं अपने को प्रगति‍शील और जनवादी पर कहीं न कहीं कलावादि‍यों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्‍थ जो आलोचक हैं,नामवरसिंह ,उनके जो प्रति‍मान हैं,वे सारे प्रति‍मान लेते हैं,वि‍जयनारायण देव साही से।'' चन्‍द्रबली जी ने बडी ही मार्के की एक अन्‍य बात कही है '' लेखक अब डर गए हैं।'' लेखकों में यह डर कहां से आया ? प्रगति‍शील लेखकों का वैचारि‍क जुझारूपन कहॉं गायब हो गया,आज वे अपने सपनों और वि‍चारों के लि‍ए तल्‍खी के साथ लि‍खते क्‍यों नहीं हैं ? लेखक अपने वि‍चारों के प्रति‍ जब तक जुझारू नहीं होगा तब तक स्‍थि‍ति‍ बदलने वाली नहीं है। लेखकों को अपना डर त्‍यागना होगा,अपने लेखन और व्‍यक्‍ति‍त्‍व को नि‍हि‍तस्‍वार्थों के दायरे के बाहर लाकर वैचारि‍क संघर्ष करना होगा। बुद्धि‍जीवि‍यों को दलीय वि‍चारधारा के फ्रेम के बाहर नि‍कलकर मानवाधि‍कार के परि‍प्रेक्ष्‍य में अपने वि‍चारधारात्‍मक सवालों को नए सि‍रे से खोलना होबा। हिंदी के बुद्धि‍जीवि‍यों में एक तरु डर है तो दूसरी औ व्‍यवहारवाद भी गहरी जडें जमाए बैठा है। हम अपने लेखन से कि‍सी को नाराज नहीं करना चाहते। लेखक के नाते हमें यह याद रखना होगा, कि‍ लेखक का काम दि‍ल बहलाना नपहीं है। लेखन की दि‍ल बहलाने वाली भूमि‍का में अगर हमारा लेखन चला जाता है तो जसने-अनजाने दरबारी सभ्‍यता और संस्‍कृति‍ का गुलाम बनकर रह जाएगा। दि‍ल बहलाने वाले साहि‍त्‍य में जीवन की गंध,दुख,दर्द और प्रति‍वाद के स्‍वर व्‍यक्‍त नहीं होते। दि‍ल बहलाने का काम लेखक का नहीं है। दि‍ल बहलाने के लि‍ए खि‍लौने बाजार में मि‍लते हैं। हम बाजार जाएं अपने लि‍ए दि‍ल बहलाने का सामान खरीद लाएं और घर बैठे आनंद लें। लेखक का काम आम लोगों को बेचैन करना और स्‍वयं भी बेचैन रहना,अपना डर नि‍कालना साथ समाज का भी डर नि‍कालना। लेखक कि‍सी एक का नहीं होता वह सबका होता है कठोरता,नि‍र्भीकता और ममता से भरा होता है।
( 16 सि‍तम्‍बर 2009 को 'मोहल्‍ला लाइव डॉट कॉम ' और 'भड़ास ब्‍लाग'पर भी प्रकाशि‍त )

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