सोमवार, 7 सितंबर 2009

'सामाजि‍क धर्म' मीडि‍या का महापाप है प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी का अति‍रंजि‍त लेखन साधारण लोगों को भ्रमि‍त करता है। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो उन्‍हें 'जनसंपादक' और 'जनता का बुद्धि‍जीवी' मानते हैं। वे 'जनसंपादक' नहीं 'कारपोरेट संपादक' थे,वे जनता के बुद्धि‍जीवी नहीं 'पावर' के बुद्धि‍जीवी हैं। 'पावर' का बुद्धि‍जीवी 'वि‍चार नि‍यंत्रक' होता है, जो दायरे के बाहर जाता है उससे कहता है 'टि‍कोगे नहीं', यह मर्द भाषा है,नि‍यंत्रक की भाषा है। अलोकतांत्रि‍क भाषा है।
हिंदी में सही धारणाओं में सोचने की परंपरा वि‍कसि‍त नहीं हुई है अत: ये सब बातें करना बड़ों का अपमान माना जाएगा। यह अपमान नहीं मूल्‍यांकन है। सच यह है प्रभाष जोशी कारपोरेट मीडि‍या में संपादक थे। एक ऐसे अखबार के संपादक थे जि‍सका प्रकाशन हिंदुस्‍तान का प्रमुख कारपोरेट घराना करता है। प्रभाष जोशी ने 'जनसत्‍ता' के 'कारे कागद' स्‍तम्‍भ के ताजा लेख में जो बातें कहीं हैं,वे जनपत्रकारि‍ता के बारे में नहीं हैं,बल्‍कि‍ कारपोरेट पत्रकारि‍ता के बारे में हैं।
जोशी ने लि‍खा ''जनसत्‍ता हिंदी का पहला अखबार है जि‍सका पूरा स्‍टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्‍यादा सख्‍त परीक्षा के बाद लि‍या गया।' जोशी यह भर्ती की कारपोरेट संस्‍कृति‍ है। परीक्षा,क्षमता,योग्‍यता और मेरि‍ट आदि‍ कारपोरेट संस्‍कृति‍ के तत्‍व हैं। 'जनसंपादन कला' के नहीं। नि‍राला,प्रेमचंद,महावीर प्रसादद्वि‍वेदी के यहां भर्ती के कारपोरेट नि‍यम नहीं थे।
प्रभाष जोशी ने अपने समूचे पत्रकार जीवन में 'अवधारणात्‍मक नि‍यंत्रक' का काम कि‍या है। लि‍खा है , '' अखबार मि‍त्र की प्रशंसा और आलोचना के लि‍ए ही नहीं होते। उनका एक व्‍यापक सामाजि‍क धर्म भी होता है।'' यह 'सामाजि‍क धर्म ' क्‍या है ? प्रभाष जोशी इसे कारपोरेट मीडि‍या की भाषा में कहते हैं 'अवधारणात्‍मक नि‍यंत्रण'। हिंदी पाठक कि‍न वि‍षयों पर बहस करे, कि‍स नजरि‍ए से बहस करे,इसका एजेण्‍डा इसी 'सामाजि‍क धर्म' के तहत तय कि‍या गया। इस 'सामाजि‍क धर्म' के बहाने कि‍नका नि‍यंत्रण करना है और कि‍स भाषा में करना है यह भी आपने बताया है ,लि‍खा है '' वह दलि‍तों-पि‍छड़ों की राजनीति‍क ताकतों,वाम आंदोलनों और प्रति‍रोध की शक्‍ति‍यों का भी आकलन मांगता है और जि‍सकी जैसी करनी उसको वैसी ही देने से पूरा होता है। '' यानी आपने दलि‍त,पि‍छड़े और वाम का मूल्‍यांकन कि‍या। कि‍स तरह के पत्रकारों से कराया मूल्‍यांकन ? कि‍सी प्रति‍क्रि‍यावादी से वाम का मूल्‍यांकन कराइएगा तो कैसा मूल्‍यांकन होगा ? एक दलि‍त का गैर दलि‍त नजरि‍ए से कैसा मूल्‍यांकन होगा ? ,एक मुसलमान की समस्‍या पर गैर मुसलि‍म नजरि‍या कि‍तना हमदर्दी के साथ पेश आएगा ? प्रभाष जी आप जानते हैं अमेरि‍का में काले लोग जब मीडि‍या में काम करने आए तब ही काले लोगों का सही कवरेज हो पाया।
प्रभाष जोशी आप धर्मनि‍रपेक्ष हैं, मुसलमानों के हि‍मायती हैं।कृपया बताएं आपके संपादनकाल में मुसलमानों के कार्यव्‍यापार, जीवनशैली,सामाजि‍क दशा के बारे में कि‍तने लेख छपे थे। आपके यहां पांच अच्‍छे मुस्‍लि‍म पत्रकार नहीं थे, अब यह मत कहना मुसलमानों को लि‍खना पढना नहीं आता। खैर हि‍न्‍दू पत्रकारों को तो आता था उनसे ही मुसलमानों की जीवनदशा पर सकारात्‍मक नजरि‍ए से समूचे संपादनकाल में दस बेहतरीन खोजपरक लेख तैयार करवाए होते। कि‍सने रोका था। कोई चीज थी जो रोक रही थी। अभी भी हालात ज्‍यादा बेहतर नहीं हैं। आप मुसलमानों के बारे में वैसे सोच ही नहीं सकते क्‍योंकि‍ शासकवर्ग नहीं सोचते। आपकी पि‍छड़ों और दलि‍तों के प्रति‍ कि‍तनी और कैसी तटस्‍थ पत्रकारि‍ता रही है उसके बारे में भी वही सवाल उठता है जो मुसलमानों के बारे में उठता है। कारपोरेट पत्रकार -संपादक होने के नाते आपने जनप्रि‍य पदावली में 'शासकवर्गों के लि‍ए 'अवधारणात्‍मक नि‍यंत्रक' की भूमि‍का अदा की। कारपोरेट प्रेस में 'वस्‍तुपरकता' और 'तटस्‍थता' को मीडि‍या की सैद्धान्‍ति‍की में प्रभाष जोशी 'मेनीपुलेशन' कहते हैं। हिंदी के भोले पाठकों को इन पदबंधों से अब भ्रमि‍त करना संभव नहीं है।
आपके लेखन की एक वि‍शेषता है चीजों को व्‍यक्‍ति‍गत बनाने की, व्‍यक्‍ति‍गत चयन के आधार पर संप्रेषि‍त करने की। मीडि‍या थ्‍योरी में इसे बुनि‍यादी चीज से ध्‍यान हटाने की कला कहते हैं। अथवा जब कि‍सी अंतर्वस्‍तु को पतला करना हो तो इस पद्धति‍ का इस्‍तेमाल कि‍या जाता है। सब जानते हैं आप पचास साल से पत्रकारि‍ता कर रहे हैं। आप जि‍स वैचारि‍क संसार में मगन हैं वह 'पावर' का संसार है,कारपोरेट संसार है। उसे जनसंसार समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए। अपने इसी लेख में आपने उन तमाम लोगों, व्‍यक्‍ति‍यों, नेताओं, पत्रकारों आदि‍ का जि‍क्र कि‍या है ,जि‍नसे आपके व्‍यक्‍ति‍गत संबंध रहे हैं, और हैं। यह 'मेनीपुलेशन' की शानदार केटेगरी है। वि‍श्‍वास न हो तो प्रभाष जोशी अपने कि‍ए के बारे में जरा हर्बर्ट शि‍लर और नॉम चोम्‍स्‍की से ही पूछ लो, उनकी कि‍ताबों में आपको अपने द्वारा इस्‍तेमाल कि‍ए जा रहे वैचारि‍क अस्‍त्रों का सही जबाव मि‍ल जाएगा। प्रभाष जोशी जब आप कि‍सी चीज को व्‍यक्‍ति‍गत चयन की केटेगरी में रखकर पेश करते हैं अथवा व्‍यक्‍ति‍गत बनाते हैं तो अति‍रि‍क्‍त असत्‍य से काम लेते हैं। अति‍रि‍क्‍त असत्‍य का सुंदर काल्‍पनि‍क भवि‍ष्‍य के साथ रि‍श्‍ता जोडते हैं। प्रभाष जोशी आप स्‍वयं ही बताएं सरकारी नीति‍यों और कारपोरेट घरानों पर आपने केन्‍द्रि‍त ढंग से कब हमला कि‍या ? मैं सि‍र्फ एक उदाहरण दूंगा। वि‍गत वर्षों में हिंदुस्‍तान टाइम्‍स ग्रुप ने 130 से ज्‍यादा कर्मचारि‍यों को नौकरी से नि‍काल दि‍या था,लंबे समय तक वे आंदोलन करते रहे, क्‍या आपको कभी अपने समानधर्माओं की याद आयी ? आप शानदार पत्रकार हैं लेकि‍न कारपोरेट घरानों के, जनता के नहीं। क्‍योंकि‍ आपको इस बात से कोई बेचैनी नहीं है कि‍ प्रेस में आखि‍रकार वि‍देशी पूंजी तेजी से क्‍यों आ रही है, आप उसका कहीं पर भी प्रति‍वाद नहीं करते, आप चुप क्‍यों हैं ? आपको रूपक मडरॉक से लेकर गार्जियन के मालि‍क तक सभी देशभक्‍त नजर आते हैं ? प्रभाष जोशी आपके संपादन की सबसे कमजोर कडी है वि‍देश की खबरें। सच सच बताना आपने वि‍देश की खबरें कम से कम क्‍यों छापीं ? जानते हैं संपादकीय मेनीपुलेशन का सबसे नरम स्‍थल है यह। आपने दुनि‍या को बदलने और देखने के बारे में अब तक जि‍तने भी वि‍कल्‍प सुझाएं हैं वे कि‍सी न कि‍सी रूप में सत्‍ताधारी वर्ग के ही वि‍कल्‍प हैं। जि‍से सचमुच में वि‍कल्‍प राजनीति‍ कहते हैं,वह सत्‍ताधारी वि‍चारों के परे होती है। आपने सारे जीवन पत्रकारि‍ता कम प्रौपेगैण्‍डा ज्‍यादा कि‍या है। प्रौपेगैंडि‍‍स्‍ट को ऑरवेल ने 'बडेभाई' कहा था।

( 'जनसत्‍ता' (6सि‍तम्‍बर 2009 ) में प्रकाशि‍त 'कागद कारे' की प्रति‍क्रि‍या में, 'मोहल्‍ला लाइव' पर 'आपने जीवनभर पत्रकारि‍ता कम और प्रौपेगैण्‍डा ज्‍यादा कि‍या' शीर्षक '7सि‍तम्‍बर 2009 को प्रकाशि‍त )

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