मंगलवार, 1 सितंबर 2009

वे गाली क्‍यों देते हैं जि‍नको आती है भाषा

प्रभाष जोशी के साक्षात्‍कार पर चली बहस सामान्‍य बहस नहीं है यह हिंदी के सोए हुए अथवा वि‍कास की दौड में पि‍छड गए लेखकों को सम्‍बोधि‍त बहस है। प्रभाषपंथी इस बहस में गाली के अलावा कुछ नहीं बोल रहे,वे जानते नहीं हैं कि‍ वे साइबर स्‍पेस में हैं और इसमें प्रेस युग की सामंती हेकडी नहीं चलती। साइबर स्‍पेस में चल रही मौजूदा बहस में कुछ यूजर ऐसे हैं जो मुहल्‍ले की भाषा में,तू -तडाक की भाषा में अभि‍व्‍यक्‍त कर रहे हैं, जैसे आलोक तोमर एंड कंपनी।इनके जबाव में भी कुछ लोग हैं जो वैसी भाषा में बोल रहे हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो चुपचाप बैठकर पढ रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो अपने चेलों से खबर मंगा रहे हैं,प्रि‍ट मंगा रहे हैं और पढ रहे हैं,जैसे प्रभाष जोशी।
प्रभाष जोशी-राजेन्‍द्र यादव जैसे लोग परंपरावादी हैं,कम्‍प्‍यूटर से अपरि‍चि‍त हैं, वे यह सोचते हैं कि यह उनकी सरस्वती को इंटरनेट भ्रष्ट कर देगा। इंटरनेट पर घूम -घूमकर गाली देने वाले,नेटलेखकों को गरि‍याने वाले जानते नहीं हैं कि‍ नेट लेखन के लि‍ए साहित्यिक अतीत से मुक्त होकर सोचना परमावश्‍यक है। नेट रीडिंग और नेट लेखन में साहित्यिक अतीत की यादें और धारणाएं पग-पग पर बाधाएं खड़ी करती हैं। नेट लेखन शुद्ध लेखन है यह ऐसा लेखन है जि‍सने 'साहि‍त्‍य' परंपरागत धारणाओं,वि‍धाओं की धारणाओं,आलोचना, साहि‍त्‍य के इति‍हास,प्रेस लेखन आदि‍ सबको लेखन में रूपान्‍तरि‍त कर दि‍या है। अब सारी दुनि‍या में सि‍र्फ लेखन है और कुछ नहीं लेखन ही सत्‍य है। लेखक,आलोचना, महानता, वि‍द्वता,वि‍धाएं आदि‍ की स्‍वतंत्र सत्‍ता का अंत हो चुका है। अब सि‍र्फ लेखन बचा है । सब कुछ लेखन में समाहि‍त हो चुका है। नेट का जगत खुला जगत है। साहि‍त्‍य के बंद संसार से यह पूरी तरह भि‍न्‍न है। प्रभाषपंथी गुस्‍सैल दोस्‍त माफ करें उन्‍हें चाहे जि‍तनी तकलीफ हो उन्‍हें नेट के खुलेपन को झेलना पड़ेगा,नेट का खुलापन अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी का चरर्मोत्‍कर्ष है।नेट में लि‍खे हुए को देखकर लेखक के वि‍जन का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इसमें भागीदारी के लि‍ए उत्‍तेजना और गाली गलौज की भाषा की नहीं गंभीरता, नि‍‍र्भीकता और तत्‍क्षण बुद्धि‍ की जरूरत होती है। नेट लेखन में अपना वि‍जन महसूस करने के साथ अन्‍य के वि‍जन को भी महसूस करते हैं, गंभीरता से लेते हैं। नेट मूलत: प्रदर्शन की जगह है। यह बातचीत का आरामदायक स्‍थान नहीं है। हमारे पाठक तत्‍काल जि‍स स्‍थान पर टि‍प्‍पणी लि‍ख रहे हैं उसे कम्‍प्‍यूटर सि‍द्धान्‍तकारों ने 'हॉस्‍पीटल' की संज्ञा दी है। वेब का पाठक जब भी लौटकर यहां पर आता है तो मूलत: 'हास्‍पीटल' में ही लौटकर आता है। हमें देखना होगा कि‍ वह कि‍तनी बार लौटता है उसका बार-बार लौटना नेट के पाठ की पुष्‍टि‍ है।
वेब का लेखक साधारण लेखक नहीं होता,वह परंपरागत लेखक से बुनि‍यादी तौर पर भि‍न्‍न होता। यह बेहतर, आत्मसजग ,आलोचनात्मक, विचारक लेखक है। इसके पास प्रसि‍द्धि‍ है,सूचनाएं हैं। आत्‍माभि‍व्‍यक्‍ति‍ है। लेखन के साथ उसका परि‍वार,दोस्‍तों आदि‍ से संबंध भी बना रहता है। वेब लेखक की प्रति‍ष्‍ठा,संपर्क और शि‍रकत में नि‍रंतर वृद्धि‍ होती है। जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं तो उन्हें वेबसाइट बनानी होंगी। वेबसाइट को पढ़ना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सामाजिक परिवर्तन, न्याय, और सामाजिक सुधार आदि संभव नहीं है। इसके लिए हमें राजनीतिक वेबसाइट बनानी होंगी। जो लोग वेब पर मिलेंगे उनके बीच गहरे संबंध होंगे। वे स्वतंत्रचेता विचारक होंगे। उनमें सामुदायिकता की भावना ज्यादा होगी। पुरानी तर्क प्रणाली में तर्क बदलने की गुंजाइश नहीं है। जबकि नेट में तर्क परिवर्तन की पर्याप्त संभावनाएं हैं। यह परंपरागत पाठ से भि‍न्‍न पाठ है। लिंक के कनेक्शन पर आधारित है।इसके कारण उसका सूचना आधार विकासशील है। उसमें निरंतर वृध्दि होती रहती है।वह यूजर के चारों ओर माहौल बनाए रखता है। प्रभाषपंथी इस बात से दुखी हैं कि‍ उनके बारे में अनाप-शनाप लि‍खा जा रहा है। ये नादान दोस्‍त हैं जानते ही नहीं हैं कि‍ इंटरनेट में कोई चौकीदार नहीं होता, कोई छलनी नहीं होती । इंटरनेट छलनी को अपदस्थ कर देता है। चयन में इस्तेमाल होने वाली सेंसरशिप को खत्म कर देता है। वह आधिकारिक तौर पर चीजों की छानबीन नहीं करता। इंटरनेट यह मानकर चलता है कि शिक्षित समाज में छलनी की जरूरत नहीं होती।सामान्य तौर पर लोग इतने जागरूक होते हैं कि वे गुणवत्तामूलक और अन्य सामग्री में फर्क कर लेते हैं। छलनी की जरूरत पूर्व शिक्षित संस्कृति के युग में होती है। प्रभाषपंथी भूल गए हैं कि‍ आज हम मध्यकाल से आगे आ चुके हैं। शिक्षित समाज में अबाधित सूचना प्रसार सामान्य और अनिवार्य जरूरत है। इसमें कुछ खतरे भी हैं। किंतु यदि हम स्व-प्रशासन की दिशा में आगे जाएंगे तो जोखिम तो उठाना होगा। इसके लाभ बहुत हैं। यहीं पर एक पुराना सवाल पैदा होता है कि सेंसरशिप को सेंसर कौन करेगा ? उल्लेखनीय है कि प्रत्येक यूजर अपने तरीके से छानता है।चयन करता है।अत: शुरू से छानकर देना सही नहीं होगा।हम यह कैसे तय करेंगे कि पाठक क्या चाहता है। पाठक क्या चाहता है इसे पाठक ही तय करेगा अन्य कोई तय नहीं कर सकता। आज का दौर समस्या केन्द्रित अध्ययन का दौर है। यह परीक्षा का दौर नहीं है। आज हमारे बच्चों के पास भी आलोचनात्मक विवेक है। यह ऐसा दौर है जिसे मीडिया के संदर्भ केसहारे पढ़ा नहीं जा सकता। इसे वेब के सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए।वेब के जरिए लाखों-करोडों चैनलों ने हमला बोला हुआ है। यह वेब का हमला है। इसकी छानबीन संभव नहीं है। इसकी छानबीन का कोई तरीका भी नहीं है। यह पूर्णत: अराजक अवस्था है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेखन ,रीडिंग और वाचन की तुलना में टाइपिंग अस्वाभाविक और घातक गतिविधि है। कम्प्यूटर क्रांति ने इसे चरमोत्‍कर्ष पर पहुंचाया है। लिखने से क्या लाभ होता है यह सब जानते हैं।वाचन से इंटरनेट पाठ की ओर संक्रमण मानवीय प्रगति का चरमोत्कर्ष है।यह अभिजात्य संप्रसार से व्यक्तिगत सृजन और स्वायत्तता (इंटरनेट) का विकास है।

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