रविवार, 13 सितंबर 2009

अमरीका का राजनीति‍क सच

अमरीका की कारपोरेट राजनीति की धुरी है 'कारपोरेट जनतंत्र' (अमरीकी लोकतंत्र को जनता का जनतंत्र समझने की भूल नहीं करनी चहिए) ,अंधराष्ट्रवाद और यहूदीवाद। अमरीका की राजनीति में कोई भी दल सत्ता में आए उसे अंधराष्ट्रवाद और यहूदीवाद के पैराडाइम के तहत ही अपना राजनीतिक कार्यक्रम घोषित करना होता है। ओबामा भी इसी दायरे में परिक्रमा कर रहे हैं। अनेक मामलों में ओबामा और उनके सहयोगी अंधराष्ट्रवाद और यहूदीवाद के कट्टर समर्थक हैं। इस तथ्य की पुष्टि ओबामा के द्वारा जो नयी प्रशासनिक टीम बनायी जा रही है उसमें शामिल व्यक्तियों की राजनीतिक समझ और भूमिकाओं के अब तक के रिकॉर्ड के आधार पर आसानी से समझी जा सकती है।
दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय मीडिया अंधराष्ट्रवाद और यहूदीवाद के पैराडाइम से बंधा है। यही वजह है कि अंधराष्ट्रवादी और यहूदीवादी कट्टरपंथियों के विचारों को इसबार के चुनावों में व्यापक कवरेज मिला है। बहुराष्ट्रीय मीडिया नीति है अंधराष्ट्रवाद और यहूदीवाद को तार्किक ,'जेनुइन' और 'स्वाभाविक' विचार के रूप में पेश करो। यही फिनोमिना हमारे देश में स्थानीय मीडिया ने भी आत्मसात कर लिया है। अंधराष्ट्रवादी, कट्टरपंथी और कंजरवेटिव राजनीतिक शक्तियों का कवरेज प्रतिदिन बढ़ रहा है। उन्हें लोकतंत्र का संरक्षक और जनता का हितैषी बताया जा रहा है।
'नाइन इलेवन ' की घटना के बाद अमरीकी राजनीति ज्यादा आक्रामक और अधिनायकवादी रूझानों की ओर बढ़ी है। राष्ट्रीय संप्रभुता को अस्वीकार करने की भावना और भी ज्यादा बलवती हुई है। 'राजनीतिक आक्रामकता' और 'कारपोरेट अधिनायकवाद' का बाजार की आक्रामक रणनीति के साथ गहरा संबंध है। इस प्रक्रिया को प्रभावी बनाने में टेलीविजन ने केन्द्रीय भूमिका अदा की है। टेलीविजन के विस्तार के साथ 'कारपोरेट अधिनायकवाद' का विस्तार हुआ है। साथ ही 'शो बिजनेस' संस्कृति ने समूचे परिदृश्य को घेर लिया है।
'शो बिजनेस' संस्कृति साधारण आदमी की सोचने की क्षमताओं का अपहरण कर लेती है। यह ऐसा वातावरण बनाती है कि व्यक्ति को दमन-उत्पीडन में मजा आने लगता है। सब समय अपने कर्म और कुकर्म की वैधता तलाशते रहते हैं। स्वयं के हाथों अपनी पीठ ठोंकते हैं। स्वयं को शाबाशी देते हैं। आज किसी भी चीज पर पाबंदी की जरूरत नहीं है। मसलन् टीवी परेशान कर रहा है अथवा इंटरनेट परेशान कर रहा है तो पाबंदी लगाने की जरूरत नहीं है। बल्कि इनके जरिए जो सूचनाएं संप्रेषित की जा रही हैं वे ठंडी हैं, सक्रिय नहीं करतीं और थोथा ज्ञानबोध पैदा करती हैं। ये हमारे अज्ञानबोध अथवा चीजों को छिपाने में मदद करती हैं। पहले हम सूचनाओं के जरिए उद्धाटत करते थे इनदिनों सूचना के जरिए छिपाने का काम करते हैं। फलत: सत्य अप्रासंगिक हो जाता है। आज मनुष्य के जीवन में असंख्य समस्याएं हैं,पीड़ाएं हैं,असंख्य विचलन हैं,असंख्य किस्म के दबाव हैं इसके कारण हम विनाश और तबाही से भी प्रेम करने लगे है। हमें तबाही से भिन्न वातावरण नजर ही नहीं आता। हम मीडिया में अपने ही विनाश का आनंद लेते रहते हैं। अपने ही विनाश पर तालियां बजाते रहते हैं। विनाश की खबर अब परेशान नहीं करती बल्कि दर्प,विजय और आनंद के साथ दाखिल होती है।
'शो बिजनेस' का ही कमाल है कि आज सबसे ज्यादा क्लासिक बिक रहे हैं,देखे जा रहे हैं,विचारवान साहित्य भी बिक रहा है किंतु इस समूची प्रक्रिया में ज्ञान का प्रबंधन कर लिया गया है। आलोचनात्मक विश्लेषण का प्रबंधन कर लिया गया है। हमें बताने वाले ज्ञानी लोग मीडिया पर अहर्निश बैठे रहते हैं कि क्या सही और क्या गलत है और इसके बावजूद हमें सही और गलत में अंतर करने में असुविधा हो रही है। पहले हम तथ्य और विचारों को व्यवस्थित करके ,वर्गीकृत करके पढ़ते थे, जिनके लिए ये विचार हुआ करते थे वह जनता भी इस कार्य में सक्षम होती थी आज किंतु यह स्थिति एकसिरे से बदल गयी है।
टेलीविजन युग में चीजों,वस्तुओं और विचारों की रोचक प्रस्तुति की बजाय प्रत्येक चीज को मनोरंजक रूप दे दिया गया है। टेलीविजन संस्कृति के जरिए आप स्वयं को जान सकते हैं। टीवी की प्रत्येक स्टोरी का यह अर्थ नहीं है कि उसका सामाजिक प्रभाव होगा ही। टीवी प्रस्तुतियों का लक्ष्य होता है दर्शक को आगे की स्टोरियों के प्रति आकर्षित करना, उसके इंतजार में बिठाए रखना। किताब और अन्य माध्यमों की यह विशेषता है कि वे अपनी शैली और अंतर्वस्तु की निरंतरता को बनाए रखती हैं किंतु टेलीविजन में ऐसा कुछ भी नहीं है। टीवी को निरंतर देखने के कारण हम टीवी विच्छिन्नाता के आदी हो जाते हैं। टेलीविजन ज्ञानमीमांसात्मक तौर पर यह धारणा पैदा करता है कि हम टीवी में जो कुछ भी देखते हैं वह अतिरंजित होता है। अतिरंजित प्रस्तुति के कारण उसकी प्रस्तुतियों को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है।
टेलीविजन विमर्श के सैध्दान्तिक चरित्र को निर्मित करने में सुरियलिस्ट अथवा अति-यथार्थवादी परिप्रेक्ष्य हमारी मदद कर सकता है। नील पोस्टमैन ने '' एम्युजिंग अवरसेल्व्स टु डेथ: पब्लिक डिसकोर्स इन दि एज ऑफ शो बिजनेस'' (पेंगुइन बुक्स,1985) में लिखा है टेलीविजन खबरें मूलत: संचार विरोधी सैध्दान्तिकी के ढांचे में सजाकर पेश की जाती हैं। इनका लक्ष्य होता है तर्क,विवेक, क्रम और अन्तर्विरोध की विदायी।
राबर्ट मेकनील के अनुसार टेलीविजन खबरों में प्रत्येक चीज संक्षिप्त रहती है। जिससे किसी के ध्यान पर दबाव न पड़े, बल्कि दर्शक सहजभाव से वैविध्य,विविष्टता,एक्शन और मूवमेंट को ग्रहण करता रहे। दर्शक किसी अवधारणा ,चरित्र और समस्या पर चंद सैकिण्ड से ज्यादा ध्यान न दे। खबर को 'खाने के कौर' की तरह होना चाहिए,उसमें जटिलताएं न हों, नॉनसेंस अपरिहार्य है, इस गुण के कारण संदेश सहज होता है।
टीवी में दृश्य प्रस्तुतियों को विचारों का विकल्प बनाकर पेश किया जाता है। एंकर की बकबक अराजकता है। अमरीकी लोग व्यापक मनोरंजन करते हैं और पश्चिमी जगत के सबसे कम सूचना सम्पन्ना नागरिक माने जाते हैं। वे प्रत्येक विषय पर अपनी राय भी रखते हैं। उनकी राय को राय न कहकर भावनाएं कहना ज्यादा सटीक होगा। वे किसी विषय पर राय नहीं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्त करते हैं। ये भावनाएं प्रति सप्ताह बदलती रहती हैं। राय प्रति सप्ताह नहीं बदलती। राय टिकाऊ होती है भावनाएं अस्थिर होती हैं। अमरीकी नागरिकों की इन बदलती भावनाओं को हम बदलते हुए विभिन्ना किस्म की रायशुमारी में निरंतर देखते हैं। रायशुमारी की राय इसलिए बदलती रहती है क्योंकि प्रति सप्ताह तथ्य बदलते रहते हैं। इस प्रक्रिया में टेलीविजन यह विभ्रम पैदा करता है कि वह सूचना दे रहा है और सूचनाप्राणी तैयार कर रहा है। टेलीविजन के द्वारा दी गयी तथाकथित सूचना 'कुसूचना' (डिसइन्फोर्मेशन) होती है। 'कुसूचना' का अर्थ असत्य सूचना नहीं है बल्कि इसका अर्थ दिग्भ्रमित करने वाली सूचना है। गलत सूचना, अप्रासंगिक सूचना, सतही सूचना,ऐसी सूचना जो जानकारी का विभ्रम पैदा करे। बल्कि वह जो जानता है उससे भी दूर ले जाए । ज्ञान से परे ले जाए । ज्ञान से विच्छिन्न कर दे।
आज खबर को मनोरंजन के पैकेज में तैयार किया जाता है। फलत: टीवी खबर मनोरंजन तो करती है सूचना नहीं देती। जनता को प्रामाणिक सूचनाओं से वंचित करती है। हम यह भूलते जा रहे हैं कि सुसंगत सूचना सम्पन्न का अर्थ क्या होता है। अज्ञानता को हमेशा दुरूस्त किया जा सकता है। किंतु अज्ञानता को ज्ञान के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता है। वाल्टर लिपमैन ने लिखा है '' आजादी का कोई अर्थ नहीं यदि समुदाय के पास झूठ को खोज निकालने के उपकरण ही न हों।'' प्रशिक्षित प्रेस एक तरह से झूठ के उद्धाटन का काम करता है। टेलीविजन की सारी मुश्किलें यहीं पर छिपी हैं। असत्य की चादर को उघाड़ने का काम वह नहीं कर पाता। टीवी इमेजों का लक्ष्य दर्शक अथवा उपभोक्ता के अंदर अपील पैदा करना लक्ष्य होता है सत्य को पेश करना लक्ष्य नहीं होता। टीवी में विवेक और विज्ञापन में अंतर करना मुश्किल हो गया है। विवेक और विज्ञापन में भेद करना मुश्किल हो गया है।
(भड़ास ब्‍लाग पर भी प्रकाशि‍त )

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