शनिवार, 12 सितंबर 2009

चैनलों की कर्म संस्‍कृति‍ और नया माहौल

भारत में टेलीवि‍जन चैनलों की बाढ़ आयी हुई है। चैनलों का यह सि‍लसि‍ला थमने वाला नहीं है। चैनलों की चमक अपील करती है। चैनलों के इस हंगामे में अगर कोई वंचि‍त है तो चैनलों में काम करने वाले लोग। चैनलों की कर्मसंस्‍कृति‍ अभी तक परि‍भाषि‍त नहीं है। चैनलों के अंदर कि‍स तरह का प्रशासन और संचालन प्रणाली हो,कर्मचारि‍यों के कि‍स तरह के पद और पगार आदि‍ हो, काम के घंटे कि‍तने हों, कर्मचारि‍यों की तरक्‍की के नि‍यम क्‍या हों,इत्‍यादि‍ सवालों पर हमारा मीडि‍या उद्योग अभी तक चुप क्‍यों है ? अनेक चैनल हैं जि‍नमें काम करने वालों को समय पर पगार नहीं मि‍लती,जो लोग काम करते हैं उन्‍हें सही तनख्‍वाह नहीं मि‍लती। औने-पौने दामों पर चैनलों में लोग काम कर रहे हैं। नौकरी के मामले में सबसे ज्‍यादा अनि‍श्‍चि‍त भवि‍ष्‍य अगर कि‍सी का है तो चैनल कर्मचारि‍यों का है। केन्‍द्र सरकार अभी तक यह तय क्‍यों कर पायी है कि‍ चैनलों में काम करने वालों की सेवाशर्त्‍तें क्‍या होंगी ? चैनलकर्मि‍यों का अबाध शोषण जारी है। क्‍या केन्‍द्र सरकार कि‍सी भयावह तबाही का इंतजार कर रही है ? तमाम कि‍स्‍म के वि‍षयों पर जमकर लि‍खने वाले पत्रकारों को चैनलों में काम करने वालों की दुर्दशापूर्ण अवस्‍था पर लि‍खने का मन क्‍यों नहीं होता ? हमारे पत्रकार नि‍हि‍तस्‍वार्थी मानसि‍कता के फ्रेम के बाहर आकर चैनलों में काम करने वालों की दशा-दुर्दशा पर कुछ भी क्‍यों नहीं लि‍खते ? हमारे न्‍यायालयों में आए दि‍न जनहि‍त याचि‍का दायर करने वाले मानवाधि‍कार कर्मी इस मसले पर चुप क्‍यों हैं ? कायदे से अखबारों से लेकर नेट तक चैनलों के अंदरूनी तंत्र के उद्घाटन के बारे में सुनि‍योजि‍त ढ़ंग से मुहि‍म चलायी जानी चाहि‍ए। इस काम के लि‍ए जो भी उपयुक्‍त पद्धति‍ हो उसे लागू कि‍या जाना चाहि‍ए।
प्रत्‍येक चैनल के अंदरूनी संसार,कार्यप्रणाली,नौकरी करने वालों की संख्‍या,प्रत्‍येक पद पर काम करने वालों की पगार,काम के घंटे आदि‍ के ब्‍यौरे कि‍सी न कि‍सी रूप में प्रकाशि‍त कि‍ए जाने चाहि‍ए। साथ ही संबंधि‍त चैनल का मालि‍क कौन है, कि‍स तरह संचालन के लि‍ए धन एकत्रि‍त कि‍या है। कौन और कि‍तने हि‍स्‍सेदार हैं। प्रबंधन का तरीका क्‍या है, कर्मचारि‍यों की सेवाशर्ते क्‍या हैं इत्‍यादि‍ सवालों पर सि‍लसि‍लेबार ढ़ंग से रहस्‍योद्धाटन कि‍या जाना चाहि‍ए। इससे चैनलों के बारे में पारदर्शि‍ता बढेगी।
चैनल कर्मि‍यों का पना बृहत्‍तर संगठन हो प्रत्‍येक चैनल में उसकी शाखाएं हों, जि‍ससे वे एकजुट होकर प्रबंधन के साथ बातें कर सकें,अपनी समस्‍याएं सुलझा सकें।वि‍भि‍न्‍न मजदूर संगठनों को भी इन कर्मचारि‍यों को संगठि‍त करने के बारे में सोचना चाहि‍ए। चैनल कर्मियों के प्रभावशाली संगठन के अभाव में चैनल मालि‍क अपने कर्मि‍यों के साथ अमानवीय व्‍यवहार कर रहे हैं। चैनल संस्‍कृति‍ ने मीडि‍या में जि‍स अराजकता और नि‍यमहीनता को जन्‍म दि‍या है उसके उद्घाटन के बाद ही मालि‍कों के ऊपर दबाव बनेगा। केन्‍द्र सरकार भी समझेगी कि‍ आखि‍रकार वह कोई ब्रॉडकास्‍टिंग के नि‍यमन का तंत्र बनाए । अभी चैनल मालि‍कों ने अपना संगठन बना लि‍या है और इसके जरि‍ए वे सरकार के साथ अपनी सौदेबाजी करते रहते हैं। मालि‍कों के संगठन ने कभी अपने सदस्‍य चैनल में चल रही अनि‍यमि‍तताओं की ओर ध्‍यान ही नहीं दि‍या है, वे सि‍र्फ अपने धंधे के वि‍स्‍तार और संरक्षण के सवालों पर ही सक्रि‍य होते हैं। चैनलकर्मी और चैनलों की कर्मसंस्‍कृति‍ उनकी चि‍न्‍ता के केन्‍द्र में नहीं है। यह स्‍थि‍ति बदलनी चाहि‍ए। चैनलों की उठापटक की खबरें, कर्मचारि‍यों की समस्‍याओं पर तरह तरह के लेख और अन्‍य सूचनाएं अभी बहुत कम मात्रा में सि‍र्फ नेट पर ही दि‍खते हैं। प्रेस में उन्‍हें प्रमुखता नहीं दी जाती।‍
दूसरी ओर चैनल संस्कृति ने तर्क के मुहावरे, भाषा का मर्म और बाजार के विकास के नियम बदल दिए हैं। बौध्दिकों में भ्रम पैदा किया है। बोगस,खोखले,सतही और कृत्रिम को महत्ता दिलाई है। आदर्श बनाया है।चैनलों में सब ग्लोबल और इकसार नहीं है,बल्कि प्रतिरोधी और क्षेत्रीय भी है।चैनल संस्कृति वस्तुत: अस्मिता संस्कृति है।मासकल्चर है।लैटिन अमेरिका, मध्यपूर्व,यूरोपीय यूनियन और भारत का अनुभव बताता है कि चैनलों के प्रसार ने स्वतंत्र राष्ट्रों की संप्रभुता, क्षेत्रीय एकजुटता को मजबूत बनाया है।चैनलों के माध्यम से साझा भाषा और सभ्यता का निर्माण हो रहा है।जहां-जहां चैनल संस्कृति अपने पैर पसार रही है वहां पर जनता में संपर्क,एकजुटता और करीबीपन बढ़ा है। यह स्थिति आज से दस बरस पहले नहीं थी।भाषायी एकता मजबूत हुई है। ज्ञान ,खबरों,मनोरंजन,शिक्षा आदि में इजाफा हुआ है।सूचना पाने का अधिकार और मनोरंजन प्राप्ति के अधिकार के रूप में दो नए अधिकारों का जन्म हुआ है।क्षेत्रीय जरूरतों के कारण क्षेत्रीय खबरों का भी जन्म हुआ है।टेलीविजन ने खबरों को देशज सीमाओं के बाहर ले जाकर अपने लिए नया 'स्पेस' बनाया है।इस प्रक्रिया में दर्शक भी देशज सीमाओं के बाहर जा रहे हैं। इसके कारण दर्शकों के एक काल्पनिक समुदाय का जन्म हुआ है।
नवजागरण के साथ प्रेस क्रांति ने जातीय भाषा,जातीय व्यापार और जातीय चेतना का निर्माण किया था।इसके परिणामस्वरूप साधारण लोगों में जातीय भाषा के प्रति आकर्षण पैदा हुआ।ऐसा सामाजिक समूह उभरकर आया जो अपनी भाषा में लिखता,बोलता था।किंतु अपने क्षेत्र के बाहर अन्य भाषा का इस्तेमाल करता था।भारत में जब प्रेस आया तो उसने संस्कृति की तमाम दीवारों को गिरा दिया।सांस्कृतिक संकीर्णता के बंधनों से मुक्त किया और राष्ट्रीय अस्मिता को बढावा दिया।बहुराष्ट्रीय उपग्रह चैनलों ने मूलत: इस स्थिति को बल पहुँचाया।प्रेस की नई तकनीकों,सैटेलाइट और इंटरनेट ने दूर से स्वतंत्र सूचना के संप्रसारण की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं। चैनल संस्कृति के आने के पहले तक प्रत्येक देश की सरकार का अपने देश के सूचना बाजार पर नियंत्रण था।किंतु चैनल संस्कृति ने एक ही झटके में इस इजारेदारी को तोड़ दिया।आज सूचना देशज संपत्ति न होकर सार्वभौम संपत्ति का रूप ले चुकी है।राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक व्यापक बाजार जन्म ले चुका है।तमाम किस्म के भाषायी अंतरों के बावजूद क्षेत्रीय एकीकरण बढ़ा है।
तकनीकी प्रोन्नति के कारण राष्ट्र-राज्य की प्रकृति में भी बदलाव आया है। परंपरागत राष्ट्रवाद और राष्ट्र की धारणा में परिवर्तन आया है ।यह परिवर्तन कैसा होगा ?किस दिशा में ले जाएगा ?इसके बारे में कोई नहीं जानता।पूंजीवादी उत्पादन संबंधों में तेजी से परिवर्तन आ रहा है।इसके कारण राष्ट्र की भूमिका सीमित होकर रह गई है।इस क्रम में सत्ता को चुनौती देने वालों की नई जमात पैदा हो गई है।जिन्हें हम भारत में कठमुल्ले या साम्प्रदायिक, मध्य-पूर्व में फंडामेंटलिस्ट और लैटिन अमेरिका में ड्रग माफिया के नाम से जानते हैं। इन्हें समाचार चैनलों ने हवा दी है।
आज हमारे सामने परा-राष्ट्रवाद और नई माध्यम तकनीकी द्वारा पैदा की गई चुनौतियां गंभीर संकट पैदा कर रही हैं।चैनलों के द्वारा भूमंडलीय सांस्कृतिक रूपों के अबाधित प्रसार ने महानगरीय संस्कृति के लिए गंभीर संकट पैदा किया है।इसके परिणामस्वरूप महानगरों में ग्लोबल और महानगरीय दोनों ही सांस्कृतिक रूप और एटीट्यूट्स प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक वैविध्य को स्वीकार करने या उसकी प्रशंसा करने वालों की तादाद में इजाफा हुआ है।चैनल संस्कृति के आने के पहले तक हमारे संस्कृति ने महानगरीय संस्कृति को तरजीह दी और क्षेत्रीय या स्थानीय संस्कृति को दोयम दर्जे का स्थान दिया।इस समूची प्रक्रिया को चैनलों ने एकसिरे से पलट दिया है।
बहुराष्ट्रीय समाचार चैनलों ने स्थानीय संस्कृति,स्थानीय खबरों,स्थानीय सामाजिक एवं राजनीतिक संगठनों, स्थानीय सोच और स्थानीय नेताओं को तरजीह दी है। महानगरीय बोध की बजाय स्थानीय बोध और स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा दिया है।इसे भाषायी चैनलों में सहज ही देख सकते हैं।यह नए किस्म का क्षेत्रीयतावाद है।समाचार चैनलों में स्थानीय विवादों और झगड़ों को पेश किया जा रहा है।समाचार चैनलों का स्थानीयतावाद,क्षेत्रीयतावाद और बहुभाषिकता अंतत:जनतांत्रिकीकरण की अपार संभावनाओं के द्वार खोल रहा है।समाचार चैनलों में स्थानीय संगठनों की विभिन्न मसलों पर होनेवाली बहसों में हिस्सेदारी बढ़ी है।मौजूदा शासन व्यवस्था इससे मजबूत हुई है।महानगर और छोटे शहरों या कस्बों के बीच संबंध मजबूत हुआ है। सभी चैनलों के मुख्यालय महानगरों में हैं।आरंभ में इन चैनलों पर महानगर हावी था।किंतु आज भाषायी वैविध्य और स्थानीयतावाद एवं क्षेत्रीयतावाद हावी है।यह टेलीविजन पर प्रेस का प्रभाव है।

( मोहल्‍ला लाइव और भड़ास ब्‍लाग पर 12 सि‍तम्‍बर 2009 को प्रकाशि‍त )

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