शनिवार, 12 सितंबर 2009

'ई मेल' और प्रति‍गामी उन्‍माद

हाइपर टेक्स्ट का सबसे अच्छा रूप है 'ई-मेल'। कम्प्यूटर खोलो ,अपना 'ईमेल' खाता खोलो आपको अनेक पत्र मि‍लेंगे। परि‍चि‍त -अपरि‍चि‍त सभी के पत्र मि‍लेंगे। ऐसे भी संदेश मि‍लेंगे कि‍ आप चौंक जाएं। आप चाहें तो इन्हें पढ़ें , कूड़ेदान में फेंकें ,उपेक्षा करें अथवा मिटा दें। असल में 'ई-मेल' होते ही हैं कचरा। इससे ज्‍यादा उनका कोई महत्‍व नहीं होता। 'ई-मेल' के अनुभव का यथार्थ अनुभवों के साथ क्‍या रि‍श्‍ता है ? इस सवाल पर गंभीरता से वि‍चार करने की जरूरत है। वास्तव जीवन में आप अपने अनुभवों को लिखते हैं।किंतु कम्प्यूटर संदेश में लिखते समय अनुभव करते हैं।संपर्क करते हैं। तुरंत जबाव प्राप्त करते हैं। उपेक्षा भी करते हैं। असल में कम्प्यूटर में लेखन ही अनुभव है। 'ई-मेल' बिना संदर्भ का अनुभव है। 'ई-मेल' का कोई संदर्भ सूत्र नहीं होता।जो संदेश आप प्राप्त कर रहे हैं जरूरी नहीं है कि वह संदेश किसी परिचित का हो।ये संदेश आत्म संदर्भ में बोलते हैं। निजी भावों को व्यक्त करते हैं।
पत्र लिखने में अनुभव पहले आता है उसे हम लिपिबध्द करते हैं। किंतु कम्प्यूटर में लेखन ही अनुभव है।इसके कारण लेखन का आधार ही बदल गया है।यह तब ही बदलेगा जब आपके पास कम्प्यूटर हो और उसका आप इस्तेमाल करते हों। लेखन के सामने संपर्क लिखा रहता है।यह अनुभव है।साझा अनुभव है।यहां हम शब्दों को नहीं व्यक्ति को छोड़ते हैं। 'ई-मेल' पाने और 'ई-मेल' देने में आप पाएंगे कि आपके पास सिर्फ टेक्स्ट होता है। व्यक्ति तो कहीं दूर छूट गया।इसमें भाषा बदल जाती है।इसमें भाषा होती है , अनुभव होता है किंतु संवेदनाएं नहीं होतीं। अनुभवों का विस्तार होता है। किंतु संवेदनाओं का लोप हो जाता है।यहां भाषा में सिर्फ अनुभव होता है।संवेदना गायब हो जाती है। संवेदना के अभाव के कारण इसमें जिम्मेदारी का भाव भी नहीं आता।यही वजह है कि 'ई-मेल' की वैधता नहीं है।उसे आप तुरंत नष्ट कर देते हैं।यहां तो लेखन ही अनुभव है।
'ई-मेल' की दुनिया में विचरण करते हुए पाएंगे कि आप अपनी आवाज खोते जा रहे हैं। आप सूचनाओं के साझीदार होते हैं। संवेदनाओं और जिम्मेदारी के भाव के साझीदार नहीं होते ।यहां 'पथ' हैं। ये ऐसे 'पथ' हैं जिनके नीचे जमीन नहीं है।यह सीमाहीन मैदान है।फलत: हम सब जगह हैं और कहीं भी नहीं हैं।यहां आपकी आवाज ठंडी हो चुकी है।संवेदनाएं ठंडी हो चुकी हैं। आपके असामान्य क्षणों को शब्दों में रूपान्तरित कर दिया गया है।इनमें संवेदना नहीं है। कम्प्यूटर की संकेत भाषा में परवर्ती पूंजीवाद के विकास के अर्थ छिपे हैं।जैसे- कनेक्शन, लिंक,नोडस के बीच रिलेशनशिप,नरेटिव का पुनरोदय,मेमोरी,एक्सपीरिएंस आदि इन सबको पाने या इनमें से किसी एक पर जाने का अर्थ है 'इसे तुरंत लागू करो।'इस तरह विचारों की आंधी चलती रहती है।इसकी गति तेज है।यहां समूह,अर्थ का साझीदार है। शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं।संकेतभाषा का प्रयोग खूब होने लगा है।
कम्‍प्‍यूटर भाषा में साझीदार जैसा कुछ नहीं होता। आपको जो संदेश देता है अथवा जि‍सका संदेश आप पढते हैं अथवा जि‍सके साथ बातें करते हैं,लि‍खकर संवाद करते हैं। यह सारा वर्चुअल में करते हैं। इसका वास्‍तव संसार से कोई लेना देना नहीं है। वर्चुअल संदेश का भी यही हाल है। वर्चुअल यथार्थ को वास्‍तव यथार्थ समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए। वर्चुअल यथार्थ के तर्क अलग हैं,यथार्थ के तर्क अलग हैं। मसलन जो लोग वर्चुअल में पार्टनर के साथ बातें करते हैं,वर्चुअल पार्टनर के साथ सेक्‍स करते हैं,वे यह सब वर्चुअल में करते हैं। वास्‍तव में नहीं। यह नकली सेक्‍स है। अधूरा सेक्‍स है। वहां यथार्थ में कोई पार्टनर नहीं होता। यहां पर साझेदार के रूप में भाषा होती है, या प्रतीकात्‍मक इमेज होती है। जि‍से देखते हैं।पढते हैं।संवाद करते हैं।सेक्‍स करते हैं। लेकि‍न वास्‍तव में वहां कोई नहीं होता। मजेदार बात यह है जि‍ससे आप बातें कर रहे होते हैं अथवा जि‍स अनजान का आप ईमेल पढ रहे होते हैं वह आपके साथ ही संवाद नहीं कर रहा बल्‍कि‍ एक ही साथ अनेक के साथ संवाद कर रहा होता। इस अर्थ में नेट का संवाद,संपर्क,संदेश,इमेज सब कुछ साझा होता है,सामुदायि‍क होता है। यहां संदेश का संप्रेषक अनुपलब्‍ध होता है। सि‍र्फ संदेश,इमेज, प्रतीक और भाषा होती है कोई वास्‍तव व्‍यक्‍ति‍ नहीं होता।
नेट पर जब आप पढते हैं तो लगता यही है कि‍ आप ही पढ रहे हैं,नेट पर जब आप कि‍सी के साथ सेक्‍स करते हैं,हस्‍तमैथुन करते हैं अथवा कोई भी क्रि‍या करते हैं तो यही लगता है कि‍ आप ही कर रहे हैं। लेकि‍न दूसरी ओर कोई नहीं होता। वहां तो सि‍र्फ भाषा, इमेज, शब्‍द आदि‍ ही होते हैं वास्‍तव में आपके सामने कोई मनुष्‍य नहीं होता,एक वर्चुअल पर्दा होता है। जब तक यह पर्दा खुला है आप महसूस करते हैं,पर्दा बंद तो बाकी चीजें गायब हो जाती हैं। कहने का तात्‍पर्य यह है कि‍ नेट पर प्रत्‍येक चीज मौत और जीवन के परे होती हैं।यहां न तो कोई चीज मरी है और न कोई चीज जिंदा है। वह कुछ भी नहीं है। यहां सि‍र्फ आभास है और आभास को ही हम सच समझने लगते हैं।
आप कम्‍प्‍यूटर में जो कुछ लि‍खा है उसे नष्‍ट कर सकते हैं, अनेक बार नष्‍ट नहीं भी होता है। आज वास्‍तवि‍कता यह है कि‍ आपके कम्‍प्‍यूटर में जो कोई चीज सामने नष्‍ट भी कर दी गयी है तो उसे महाकम्‍प्‍यूटर की स्‍मृति‍ में से खोजकर नि‍काला जा सकता है। इस संदर्भ में देखें तो आपका 'ई-मेल' सुरक्षि‍त है,अन्‍य के पास। यह आपकी प्राइवेसी के सार्वजनि‍क हो जाने की सूचना भी है। पहले आप पत्र लि‍खते थे कि‍सी को तो पत्र नि‍जी तौरपर सुरक्षि‍त रहता था,आज सार्वजनि‍क तौर पर सुरक्षि‍त रहता है। 'ई-मेल' में एक खासकर कि‍स्‍म का उन्‍माद नि‍हि‍त है। आप जब कि‍सी को 'ई-मेल' करते हैं तो आप नहीं जानते कि‍ आपका 'ई-मेल' कौन पढ रहा है। 'ई-मेल' के संप्रेषण में सबसे ज्‍यादा अनि‍श्‍चि‍तता नि‍हि‍त है। 'ई-मेल' हमेशा ऐसी परि‍स्‍थि‍ति‍यों में पढा जाता है जि‍नका आप अनुमान नहीं लगा सकते। पहले आपको संचार करते समय अनुमान रहता था कि‍ आप कैसी परि‍स्‍थि‍ति‍यों में संप्रेषण कर रहे हैं। अन्‍य की प्रति‍क्रि‍याओं का पूर्वानुमान लगा सकते थे। आमने सामने जब संवाद करते हैं तो हावभाव,भाषा,भंगि‍मा,परि‍वेश आदि‍ के जरि‍ए अनुमान कर लेते हैं कि‍ क्‍या स्‍थि‍ति‍ है और कैसे प्रति‍क्रि‍या दें। 'ई-मेल- अथवा नेट संचार में तो आप जानते ही नहीं हैं कि‍ अब क्‍या होगा,कैसी प्रति‍क्रि‍या आएगी। कि‍स तरह के लोग प्रति‍क्रि‍या देंगे।
साइबरस्‍पेस में बहुस्‍तरीय अस्‍मि‍ताओं के साथ संवाद करते हैं,अनि‍श्‍चि‍त और अपरि‍चि‍तों के साथ संवाद करते हैं। इस परि‍वेश को तकनीक के जरि‍ए परि‍भाषि‍त नहीं कि‍या जा सकता। साइबरस्‍पेस में संवाद के कई रूप प्रचलन में हैं। सबसे पहला अति‍सरलीकृत रूप है, इसके मानने वाले तर्क देते हैं कि‍ साइबरस्‍पेस में ,'ई-मेल' या संवाद के दौरान दो परि‍चि‍त जब संवाद करते हैं तो वे वास्‍तव के ही लोग होते हैं। साइबरस्‍पेस भी अन्‍य माध्‍यमों की तरह ही एक माध्‍यम है। यह अति‍सरलीकृत तर्क है। इस प्रसंग में पहली बात यह कि‍ साइबरस्‍पेस का संवाद सीधे प्रभावि‍त करता है। वह आपकी स्‍वायत्‍त तत्‍काल छीन लेता है। आप जब आमने सामने संवाद करते हैं तो अपनी नि‍जता,स्‍वायत्‍तता बनाए रखते हैं। लेकि‍न ज्‍योंही साइबरस्‍पेस में मि‍लते हैं अपनी स्‍वायत्‍तता से वंचि‍त हो जाते हैं। एक और भी मि‍थ प्रचारि‍त कि‍या जा रहा है हमें साइबरस्‍पेस पि‍तृसत्‍तात्‍मक दबावों,भावों आदि‍ से मुक्‍त करता है और हम मुक्‍तभाव से संवाद करते हैं। पि‍तृसत्‍तात्‍मक दबाव हमें मुक्‍त भाव से संवाद नहीं करने देते। एक अन्‍य तर्क यह भी दि‍या जा रहा है कि‍ साइबरस्‍पेस शानदार स्‍पेस है ऐसा स्‍पेस जो हमने पहले कभी नहीं देखा। वे सभी तर्क देने वाले साइबरस्‍पेस की वि‍लक्षणता पर मुग्‍ध हैं। इस तरह के सभी कि‍स्‍म के तर्क एक ही बात की पुष्‍टि‍ करते हैं कि‍ साइबरस्‍पेस उन्‍मादना से भरा है। साइबरस्‍पेस का उन्‍माद के अलावा और कोई नाम संभव नहीं लगता है। साइबरस्‍पेस का अनुभव उन्‍मादी अनुभव है। यह वैसा ही उन्‍माद है जैसा कि‍सी जमाने में कम्‍युनि‍स्‍टों और क्रांति‍कारि‍यों में हुआ करता था,हाल के वर्षों में इसी उन्‍माद को 'जै श्री राम' की राजनीति‍ में भी देखा गया। यह मूलत: प्रति‍गामी एटीटयूट है। प्रति‍गामी इस अर्थ में कि‍ यहां व्‍यक्‍ति‍ स्‍वयं से ही बातें करता है,स्‍वयं से ही सेक्‍स करता है, स्‍वयं के साथ उलझना और सुलझना ही प्रति‍गामि‍ता का लक्षण है। वह छद्म वातावरण बनाता है,नकली चीजों से बातें करते रहते हैं।
प्रति‍गामि‍ता के फ्रेम में ही उन्‍माद आता है ।‍ उन्‍मादी सपनों को यथार्थ में रूपान्‍तरि‍त नहीं कर सकते। कहने का अर्थ यह है प्रति‍गामी परि‍दृश्‍य हमेशा नकली होता है और नकली वातावरण पर टि‍का होता है। परवर्ती पूंजीवाद का यथार्थ मूलत: प्रति‍गामी होता है और इसकी प्रत्‍येक चीज प्रति‍गामि‍ता से भरी है,चूंकि‍ साइबरस्‍पेस परवर्ती पूंजीवाद के संचार का सर्वोच्‍च शि‍खर है अत: प्रति‍गामि‍ता का भी सर्वोच्‍च शि‍खर है,फेक का भी चरम है।
साइबरस्‍पेस में बहुस्‍तरीय प्रति‍गामि‍ता का वि‍स्‍फोट हो रहा है। आज अस्‍मि‍ता भी स्‍थि‍र नहीं है। अस्‍मि‍ता बार-बार बदल रही है,हम देखते हैं कभी लिंग ,कभी जाति‍,कभी धर्म, कभी गोत्र,कभी देश,कभी भाषा आदि‍ की अस्‍मि‍ताएं एक ही व्‍यक्‍ति‍ के अंदर से व्‍यक्‍त होने लगती हैं। ये सभी बुनि‍यादी तौर पर नकली और प्रति‍गामी हैं।

( भड़ास ब्‍लाग पर भी प्रकाशि‍त )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...