मंगलवार, 26 जनवरी 2010

टेलीविजन ज्योतिष और सामाजिक विभाजन-3-

मसलन् एक बेरोजगार इंजीनियर युवक को नौकरी नहीं मिल रही है।ज्योतिष के उपाय के बावजूद नौकरी नहीं मिल रही है।ऐसी स्थिति में ज्योतिषी कुछ इसतरह का तंत्र फैलाएगा कि लगे कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ी है।इस क्रम में बेकार युवक परेशान होगा और ज्योतिषी इसके लिए उसे मानसिक तौर पर तैयार करता है।वह बेकारी के वास्तव कारणों को अपने बयान में शामिल करता है,उन वास्तव अंतर्विरोधों को शामिल करता है जिन्हें जातक जानता है।जिससे जातक उसके आदेश को माने।इस प्रसंग में ज्योतिषी जिस तत्व का सबसे प्रभावी ढ़ंग से इस्तेमाल करता है वह है समय का तत्व।जितने भी फलादेश टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं के कॉलम में छपते हैं उनमें समय की सर्वोच्च सत्ता पर जोर होता है।समय की सत्ता पर जोर देते समय अंतर्विरोधपूर्ण तत्वों को छोड़ दिया जाता है।ज्योतिषी यहां समय का
मीडियम के तौर पर इस्तेमाल करता है।ज्योतिष यह आभास देता है कि जो कुछ भी हो रहा है और होने वाला है वह सब ग्रहों के प्रभाव का परिणाम है।इस क्रम मेंवह पल-पलकी जानकारी देने का पाखण्ड रचता है।यह कार्य वह कुण्डली,राशिफल,जन्म लग्न या अंक ज्योतिष के बहाने करता है।फलादेश इस तरह लिखा या बताया जाता है जिससे सारी संभावनाएं समय के ऊपर छोड़ दी जाती हैं।अब समय ही अंतत: निर्णायक शक्ति बनकर सामने आता है।और प्रकारान्तर से समय का नियंता स्वयं ज्योतिषी बन जाता है।यही ज्योतिष में निहित अविवेकवाद है।
समस्या यह है कि जीवन की अंतर्विरोधपूर्ण परिस्थितियों और जरूरतों का ज्योतिषी कैसे विकेन्द्रीकरण करता है,समाधान करता है।वह जरूरतों को विभिन्न काल खण्डों में विभक्त कर देता है।यहां तक कि उन्हें एक ही दिन में विभिन्न समयों में विभक्त कर देता है।इस क्रम में वह कोशिश करता है कि व्यक्ति की दो अन्तर्विरोधी इच्छाएं एक साथ न रहें।मसलन् किसी बच्चे के बारे में यह सवाल नहीं किया जा सकता कि उसकी शादी कब होगी ?क्योंकि वह अभी बच्चा है और बच्चे की एकमात्र इच्छा है कि वह पढे यदि बच्चा पढ़ता नहीं है और खेलता है या सब समय परेशान करता है तो इसके साथ पढ़ाई संभव नहीं है।इस तरह के अंतर्विरोधों को हल करने के लिए ज्योतिषी वास्तव समाधान सुझाता है।समय की सत्ता पर विश्वास के बारे में यही कहा जा सकता है कि यह ईगो की कमजोरी को सामने लाता है।
एरिक फ्रॉम ने ''दि फिलिंग ऑफ ऑफ इम्पोटेंस'' नामक कृति में लिखा कि समय पर आस्था अचानक घटित परिवर्तन के बोध के अभाव को व्यक्त करती है।इसे 'संभावित समय' में घटित उम्मीद के विकल्प में बदल दिया जाता है।संभावित समय में घटित होने वाली प्रत्येक घटना ठीक है।जो अंतर्विरोध आएंगे वे भी समय पर बगैर जोखिम उठाए स्वयं हल हो जाएंगे।समय पर बार-बार आस्था स्वयं की उपलब्धियों में शामिल कर ली जाती है।इसके माध्यम से व्यक्ति अपने नकारापन पर संतोष करने लगता है।वह यह भी सोचता है कि अपनी भूमिका अदा करने के लिए उसके पास काफी समय होगा और उसे जल्दबाजी करने की कोई जरूरत नहीं है।
असल में एरिक फ्रॉम बच्चे की मनोदशा के तत्वों का इस्तेमाल कर रहे हैं।बच्चा सोचता है कि जब वह बड़ा होगा तो क्या होगा ?यह बच्चे की फैण्टेसी वाली दुनिया है।बच्चा जब बड़ा होता है तो महसूस करता है कि अब वह बड़ा हो गया है तब वह महसूस करता है कि उसकी संभावित क्षमताओं के बारे में वह न तो स्वायत्त है और न निजी तौर पर फैसले लेने का उसे अधिकार है।जब वह वयस्क जीवन व्यतीत करता है तो मनोरोगी की अवस्था में होता है।
जिन लोगों का अहं कमजोर होता है,वस्तुगत तौर पर अपने भविष्य को मोड़ने में असमर्थ या कमजोर होते हैं।वे ही अपनी जिम्मेदारी और असफलताओं को र्अमूत्त समय के कारणों को सौंप देते हैं।बार-बार कहते हैं समय खराब था इसलिए ऐसा हुआ।समय पर जिम्मेदारी सौंपने के कारण उनके अंदर आशा का संचार होता है।इस आशा के माध्यम से वे अपनी समस्त कमजोरियों और असफलताओं से राहत पाने की कोशिश करते हैं।यहां तक कि जीवन के सबसे बड़े कष्टों को भी भूल जाते हैं।क्योंकि हमारी स्मृतियों का गहरा संबंध हमारे अहं से है।मनुष्य की इस तरह की मनोशक्ति का ज्योतिषी इस्तेमाल करता है।जो फलादेश समय के प्रति आस्था बनाते हैं वे समय को रहस्यमय भी बनाते हैं।जबकि समय रहस्यमय नहीं होता।
समय के बारे में दुविधापूर्ण स्थिति को हमें मनोशास्त्र के जरिए गहराई में जाकर जांचना चाहिए।यह प्रक्रिया इस प्रकार से घटित होती है,जब प्रतिक्रिया का निर्माण होता है तो एटीट्यूट्स मूल का खंडन करते हैं।इससे एक कदम आगे जाकर उसके अनुपालन का निषेध करते हैं।कुछ सकारात्मक हो जाने पर ,चाहे वह वास्तव में हो या रहस्यमय ढ़ंग से हो,यदि वह वास्तव या कल्पना के विपरीत है तो यह मान लिया जाता है कि ऐसा तो पहले भी हुआ था।यह मान लिया जाता है कि यह जो कुछ हुआ है वह भगवान या ग्रहों के द्वारा हुआ है।इसे मनोशास्त्र में बाध्यता कहते हैं।कुछ बाध्यताएं विकृत रूप में सामने आती हैं।इन्हें हम सहजजात मांग भी कह सकते हैं।कुछ गैर-सहजजात मांग होती हैं।ये पराअहं को चुनौती देती हैं।इन दोनों में संघर्ष भी हो सकता है।ज्योतषी इन दोनों स्थितियों का कौशलपूर्ण इस्तेमालकरता है और हमें यह समझाने में सफल होजाता है कि सब कुछ भाग्य और ग्रहों का खेल है।सच्चाई यह है कि हमारे जीवन के कार्य कलापों का भाग्य याभगवान से कोई वास्ता नहीं है और न यह ग्रहों का खेल है।बेहतर होगा हम ज्योतिष के खेल से मुक्ति पाएं।
      (समाप्त)





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