बुधवार, 27 जनवरी 2010

फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह का आज आखिरी दिन - मध्यपूर्व के बारे में मीडिया में इस्राइली मिथ









(गाजा की नाकेबंदी के खिलाफ फिलीस्तीनी कलाकारों की कलाकृतियां)                                            
    
इस्राइली सेना के बारे में पश्चिमी मीडिया यह मिथ प्रचारित कर रहा है कि वह कभी गलती नहीं कर सकता। इस्राइली हमेशा जीतेंगे। इस्राइली सेना इस्राइली जनता की रक्षा करेगी। इस्राइली चैनलों में 'हम' की केटेगरी के तहत पश्चिम की प्रशंसा और पश्चिम के साथ इस्राइली रिश्ते के साथ जोड़कर पेश किया जा रहा है। इस्राइल के द्वारा 'अन्य' या पराए की केटेगरी में समूचे अरब जगत को पेश किया जा रहा है। फिलीस्तीनी और अरब जनता को 'न्यूसेंस' और आतंकी के रूप में पेश किया जा रहा है।

इस्राइली प्रचार में कहा जा रहा है इस्राइल का लक्ष्य है 'न्यूसेंस' और आतंकवाद का विरोध करना,उसका सफाया करना।ऐसा करने में किसी भी किस्म के पश्चाताप करने की जरूरत नहीं है। अरब जनता को शक्लविहीन और आतंकी बनाने में पश्चिमी मीडिया का बड़ा हाथ है,खासकर चैनलों का।
      मीडिया आसानी से यह बात भूलता जा रहा है कि इस्राइली सैनिकों के द्वारा फिलिस्तीनी जनता पर निरंतर अमानवीय अत्याचार किए जा रहे हैं।  वे इन लोगों को अपमानित और परेशान कर रहे हैं। ऐसे में फिलीस्तीनी जनता के मन में गुस्सा,घृणा या प्रतिवाद या बदला लेने की भावना पैदा होती है या नहीं ? इस्राइल के सैनिकों के द्वारा गाजा के इलाकों में किया जा रहा अपमानजनक व्यवहार गुस्सा पैदा करता है।मीडिया इसकी ओर कभी ध्यान ही नहीं देता।

गाजा और बेस्ट बैंक के इलाकों में निरंतर बमबारी बच्चों और गर्भवती औरतों के लिए गंभीर रूप से क्षति पहुँचा रही है। बच्चे और औरतें रात में सो नहीं पाते,बच्चों के कान के पर्दे फट रहे हैं,गर्भवती औरतों के बमबारी के धमाकों के कारण गर्भ गिर रहे हैं। पश्चिमी मीडिया में ये सारी बातें एकसिरे से गायब हैं।

इसके अलावा फिलीस्तीनी इलाकों में चली आ रही आर्थिक नाकेबंदी के कारण भी फिलीस्तीनी जनता का जीना दूभर हो गया है। आर्थिक नाकेबंदी के कारण इस्राइल सामूहिक तौर पर फिलीस्तीनी जनता को उत्पीडित कर रहा है। इस सारे अमानवीय कार्यकलाप का आख्यान मीडिया से गायब है। यहीं पर हमें मैनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका के बारे में गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।

खासकर आतंकवादी हमलों, युध्द और प्राकृतिक आपदा जैसे संकट के समय मैनस्ट्रीम मीडिया को वस्तुगत भूमिका अदा करनी चाहिए। संकट के समय राजनीतिक ध्रुवीकरण सबसे ज्यादा होता है। मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। ऐसी अवस्था में ही जनता के हितरक्षक के रूप में मीडिया सक्रिय भूमिका अदा करता है। संकट की अवस्था में मैनस्ट्रीम मीडिया में जो चीज सबसे पहले गायब होती है वह है वस्तुगतता।
     वस्तुगत रिपोर्टिंग के अभाव के कारण अनेक किस्म के अ-जनतांत्रिक पूर्वाग्रहों को मीडिया हवा देने लगता है। मध्य-पूर्व के संदर्भ में खासतौर पर यह बात ध्यान रखने की है कि वहां पर अरब देशों को लेकर मीडिया अपने पूर्वाग्रहों से पूरी तरह बंधा हुआ है। अरब जनता को शैतान के रूप में चित्रित करता रहा है।
  मध्यपूर्व की समस्या की बुनियादी वजह है अमेरिका का इस्राइल की तुलना में अरब देशों के साथ भेदभावपूर्ण संबंध। अमेरिका-इस्राइल के द्वारा अरब देशों के ऊपर कब्जा,उत्पीडन ,बर्बरता और अरब जनता के जीवन का अवमूल्यन।
अमेरिका की नीति है कि वह मध्यपूर्व के संकट को चुनिंदा रूप में सम्बोधित करता रहा है,कभी समग्रता में इस संकट का समाधान खोजने की कोशिश नहीं की गई।वह कभी मध्यपूर्व की समग्र जनता को सम्बोधित नहीं करता। वह उन्हें अपने शांति प्रयासों में शामिल नहीं करता। अमेरिका का सारा जोर इस्राइल की सुरक्षा पर है। यही स्थिति अमेरिकी मीडिया में भी देखी जा सकती है। अमेरिकी जनता को अपने चैनलों पर कभी इस्राइली बर्बरता के चित्र देखने को नहीं मिलते। फिलीस्तीनी इलाकों में इस्राइल ने किस तरह का संकट और तबाही पैदा की है उसके विवरण और ब्यौरे कभी दिखाए नहीं जाते। इस्राइल जहरीले रासायनिक अस्त्रों का इस्तेमाल कर रहा है,जिसके ब्यौरे गैर अमेरिकी मीडिया में मिल जाएंगे। किन्तु अमेरिकी -इस्राइली मीडिया में इसकी एकसिरे से अनुपस्थिति है।

मीडिया में मध्यपूर्व का जो थोड़ा-बहुत कवरेज आ रहा है उसमें ऐतिहासिक नजरिए का अभाव है। समस्त रिपोर्टिंग घटना केन्द्रित रहती है,समस्या और उसके ऐतिहासिक कारणों को कभी पाठक या दर्शक को नहीं बताया जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि इस्राइली जुल्म और अरब देशों पर अमेरिका-इस्राइल के अवैध कब्जे के आख्यान के बिना मीडिया मध्यपूर्व की खबरें दे रहा है। चैनलों में यदि कभी अरब विशेषज्ञ शामिल किए जाते हैं तो बहस में एक पक्ष के रूप में,विवादी स्वर के रूप में।

यदि कभी किसी चैनल में अरब देशों के पक्षधर विशेषज्ञों से सवाल किए जाते हैं तो सवाल इस तरह का होता है कि विशेषज्ञ को रक्षात्मक मुद्रा अपनानी पड़ती है। मीडिया की मूल समस्या यह है कि उसे मध्यपूर्व में असमानता और वैषम्य नजर नहीं आता। असमानता और वैषम्य जब तक रहेगा हिंसा जारी रहेगी।

 हिंसा के लिए सिर्फ बहाना चाहिए। हिंसा का मूल कारण घटना विशेष को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा। घटना विशेष तो बहाना है,मूल कारण है अमेरिका-इस्राइल का मध्यपूर्व के प्रति असमान नजरिया और भेदभावपूर्ण विदेशनीति। समस्या है इसे को चुनौती देने की।

चैनलों के द्वारा सुनियोजित ढ़ंग से ऐसी भाषा और पध्दति का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे अमेरिकी-इस्राइली हितों और नजरिए के पक्ष में माहौल बना रहे।मसलन् बहुराष्ट्रीय मीडिया ने फिलीस्तीनी नाकेबोदी ,अहर्निश बमबारी और तबाही को युध्द की संज्ञा नहीं दी है। बहुराष्ट्रीय मीडिया ने इसे 'मध्यपूर्व संकट' , 'इस्राइल - हम्मास झगड़ा' 'इस्राइल और आतंकवाद' के बीच के संघर्ष के नाम से ही पेश किया है। इसमें इस्राइली-अमेरिकी विशेषज्ञों ,सैन्य अधिकारियों को ही बार-बार प्रमाण के रूप में पेश किया है।
इस्राइल के द्वारा फिलीस्तीनी इलाकों में किए जा रहे हमलों को आतंकवादी ठिकानों पर किए जा रहे हमले कहा है,जबकि ये सारे हमले रिहायशी इलाकों पर किए गए हैं। इस्राइली बमबारी में बच्चे,औरतें और निर्दोष नागरिक ही मारे गए हैं।ऐसे में इस्राइल का यह दावा कि उसकी सारी कार्रवाई आतंकवादियों के खिलाफ है। गलत साबित होता है। समाचार चैनलों में नंगे रूप में इस्राइली प्रचार अभियान चल रहा है। इसमें मध्यपूर्व का यथार्थ एकसिरे से गायब है। समूचा बहुराष्ट्रीय मीडिया सेंसरशिप और आत्म-सेंसरशिप से गुजर रहा है।
    
                    

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