रविवार, 3 जनवरी 2010

डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन








यह फैंटेसी की महामारी का युग है। इस युग में सत्य सबसे दुर्लभ चीज है। इनदिनों बाजार, जीवन, विज्ञापन, मीडिया,राजनीति ,जीवनशैली आदि सभी क्षेत्र में सत्य दुर्लभ हो गया है। सत्य को दुर्लभ बनाने में मासकल्चर की केन्द्रीय भूमिका है। मासकल्चर के प्रभाववश विचारधारा का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित हुआ है। वैकल्पिक विचारधारा के प्रचार- प्रसार को धक्का लगा है। औद्योगिक पूंजीवाद ने मासकल्चर पैदा की ,परवर्ती पूंजीवाद ने उसे यौवन प्रदान किया।
    समाजवाद के उदय के साथ यह समझा जा रहा था कि मासकल्चर को पछाडकर संस्कृति और जनसंस्कृति का विकास होगा। यह सपना पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत मासकल्चर के अनेक लक्षणों को समाजवादी व्यवस्था ने अपना लिया। इसके कारण सत्य और भी दुर्लभ हो गया। 
       समाजवादी व्यवस्था के विघटन के साथ पूंजीवादी वर्गों और मूल्यों का हठात् समाजवादी समाज में विस्फोट ,समाजवादी देशों का विघटन और मासकल्चर के फैंटेसीमय संसार की ओर समजवादी व्यवस्था का मुखातिब होना इस बात का संकेत है कि सारी दुनिया मासकल्चर के घेरे में है। कोई भी क्षेत्र मासकल्चर के दायरे के बाहर नहीं है।
        भारत में नव्य-उदार आर्थिक नीतियों के अनुकरण के बाद विगत दो दशकों में मासकल्चर एक नयी उर्वर जमीन मिली है। नए किस्म की बाजार व्यवस्था और संरचनाएं मिली हैं। भारत में आज मासकल्चर आक्रामक है। फैंटेसी के प्लेग ने सभी को चिन्तित कर दिया है। पुराने मूल्यों,मान्यताओं,नीतियों और जीवनशैली के मानक धड़ाधड़ टूट रहे हैं। बाजार का आकार कई गुना बढ­ गया है। विज्ञापन उद्योग से लेकर मीडिया तक सभी क्षेत्रों में तेज गति से विकास हो रहा है।
    मासकल्चर की सामान्य विशेषता है अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छे में तब्दील करना। जीवन के लिए जो मूल्य बुरे माने जाते हैं विज्ञापन में ध्यानाकर्षण और प्रेरणा के स्रोत माने जाते हैं। मसलन् ईर्ष्या या डाह को जीवन में बुरा माना जाता है लेकिन विज्ञापन को ईर्ष्या के बिना तैयार ही नहीं कर सकते। ईर्ष्या पैदा किए बगैर बाजार में वस्तु की बिक्री संभव नहीं है। ईर्ष्या को सामाजिक विकास का ईंधन बनाने में मासकल्चर की केन्द्रीय भूमिका है।
    जीवन मूल्य की दृष्टि से लालच बुरी चीज है। लेकिन वस्तुओं के प्रति लालच पैदा करना अच्छी चीज माना जाता है। वस्तुओं की लालसा ही है जो बाजार को चंगा रखती है और घरों में वस्तुओं का ढेर लगा देती है।ईर्ष्या और लालच मासकल्चर के दो पहिए हैं। असत्य इसका सारथी है। छद्म यथार्थ इसकी इमेजों का आधार है। मासकल्चर का कोई भी कार्य व्यापार,किसी भी किस्म का संप्रेषण इन चारों के बिना संभव नहीं है।
    जीवन में झूठ बोलना बुरा माना जाता है लेकिन विज्ञापन की कला में झूठ एक अनिवार्य तत्व है झूठ के बिना विज्ञापन तैयार ही नहीं होता । मेनीपुलेशन को जीवन में बुरा मानते हैं लेकिन विज्ञापन की स्क्रिप्ट इसके बिना बनती नहीं है। विज्ञापन में झूठ और मेनीपुलेशन वैसे ही है जैसे खाने में नमक। नमक के बिना खाना वेस्वाद लगता है वैसे ही झूठ और मेनीपुलेशन के बिना विज्ञापन असरहीन होता है।
       मासकल्चर और विज्ञापन इन दोनों में एक साझा तत्व है फैंटेसीमय जीवनशैली । यह ऐसी फैंटेसी है जो कभी सच नहीं होती। लेकिन उत्पादक होती है। फैंटेसी में जिस चीज का वायदा किया जाता है उसे कभी पूरा नहीं किया जाता। हम फैंटेसी में रहते हैं,उसका ही उपभोग करते हैं,फैंटेसी ही है जो हमें जीवन के कठोर यथार्थ से विरत रखती है। ज्यादा कमाने और ज्यादा उपभोग करने की ओर ठेलती है। 
     मासकल्चर और विज्ञापन के प्रभाववश हमें मीडियाजनित चीजें,बातें, मिथ, नायक,नायिका, राजनेता, विचारधारा आकर्षित करते हैं । वे हमें डिस्टर्ब नहीं करते। इस प्रक्रिया में ही नए संस्कार और आदतें बनती हैं।  मासकल्चर का जीवनशैली बदलने और वस्तुओं के बदलने पर जोर रहता है। वह नयी चीजें हासिल करने की लालसा जगाती है। इसकी तुलना में उत्पादन संबंधों में बदलाव करने,मूल्यबोध बदलने पर कम बल देती है । फलत: व्यक्ति के पास नयी वस्तुओं का अम्बार लग जाता है लेकिन जीवन मूल्यों में मूलगामी बदलाव बहुत धीमी गति से आता है।
       मासकल्चर ने हमें वस्तुओं को पाने के मामले में सबसे आगे और नए प्रगतिशील मूल्य हासिल करने के मामले में सबसे पीछे कर दिया है। मासकल्चर ने 'पाने' के भाव पर जोर दिया है ,'देने' के भाव की उपेक्षा की है। इसके परिणामस्वरूप 'अन्य' की उपेक्षा हुई है। समाज में खुदगर्जी बढी है। सामाजिक अलगाव और बेगानापन बढा है।
      मासकल्चर के प्रभाववश सामाजिक तौर पर समय गुजारने की बजाय एकांत में समय गुजारना बेहतर समझने लगे हैं।  यह गरीबों की संस्कृति है। आम जनता की संस्कृति है। यह चीजों को जैसी हैं वैसा ही रहने देती है। इस अर्थ में यथास्थितिवाद का जीवन में स्थायी आधार तैयार करती है। मासकल्चर के प्रभाववश हमें बुनियादी सामाजिक परिवर्तन से नफरत होने लगती है। हमें चीजें बदलना अच्छा लगता है,नयी- नयी चीजें खरीदना,उनका उपभोग करना अच्छा लगता है, लेकिन परिवर्तनकामी विचार और प्रगतिशील मूल्य व्यवस्था अच्छी नहीं लगती। इस तरह मासकल्चर और विज्ञापन हमारी अधिरचना को तो बदलते हैं लेकिन आधार के सामाजिक संबंधों और पुरानी विचारधारा के मर्म को ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं।
      भारतीय मासकल्चर की सबसे बडी जंग पुरानी दिमागी संरचना के साथ है। पुराने दिमागी ढांचे में एक ही मंत्र था 'कमाओ और बचाओ' ,लोग पहले कमाते थे और बचत करते थे। मासकल्चर के नव्य पूंजीवादी प्रचार अभियान ने बचत करने की धारणा की जगह 'उपभोग करो' की धारणा का विभिन्न किस्म के विज्ञापनों के जरिए प्रचार करके पुरानी मानसिक संरचना और उससे जुड़ी बचत की आदत को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। अब लोग जितना कमाते है उससे ज्यादा खर्च करने लगे हैं। उपभोग ,विनिमय और वितरण के सवाल मुख्य सवाल बन गए हैं। प्रस्तुत किताब मासकल्चर और विज्ञापन के व्यापक बुनियादी सवालों पर सैध्दान्तिक नजरिए से रोशनी डालती है। हिन्दी में यह इस विषय पर अकेली मुकम्मल किताब है। 
      इस किताब में छह अध्याय हैं ,पहले अध्याय में साइबर संस्कृति का मूल्यांकन किया गया है। दूसरे अध्याय में मासकल्चर,पापुलरकल्चर और लोक संस्कृति के विभिन्न आयामों के बीच की अन्तर्क्रियाओं का मूल्यांकन किया गया है।  तीसरे अध्याय में ग्लोबल कल्चर ,भाषा और स्त्रीभाषा की भूमिका पर विचार किया गया है।चौथे अध्याय में मासकल्चर के परिप्रेक्ष्य में संगीत,चर्चित व्यक्तित्वों और पोर्नोग्राफी के कारण पैदा हुई नयी स्थितियों और विचारधारात्मक सवालों का विवेचन किया है। पांचवें अध्याय में वैकल्पिक मीडिया दृष्टि क्या हो,आत्मसेंसरशिप किस तरह कारपोरेट सेंसरशिप के अस्त्र के रूप में काम करती है, इसका विस्तार के साथ खुलासा किया है। छठे अध्याय में विज्ञापन के इतिहास, उसकी सैध्दान्तिक समस्याओं और विभिन्न विचारधारात्मक पहलुओं का विस्तार के साथ मूल्यांकन किया है। आशा है मीडिया के शोधार्थियों,विद्वानों और परिवर्तनकामी नागरिकों को यह किताब पसंद आएगी।
    (प्रकाशक- अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा).लि.4697 / 3,21 -ए,अंसारी रोड़,दरियागंज, नई दिल्ली-110002) 





अनुक्रमणिका
पहला अध्याय : साइबरकल्चर

1. साइबरकल्चर और मासकल्चर

दूसरा अध्याय : मासकल्चर के नए पैराडाइम
2. मासकल्चर के नए पैराडाइम की तलाश में
3. लोकवादी संस्कृति, लोकप्रिय संस्कृति और लोकसंस्कृति

4. संस्कृति उद्योग
5. भूमंडलीय संस्कृति और मीडिया

तीसरा अध्याय : माध्यम भाषा,स्त्री भाषा और ग्लोबल संस्कृति

6. भूमंडलीय संस्कृति और माधयम भाषा
7. विज्ञापन की भाषा का स्त्रीवादी मूल्यांकन 


चौथा अध्याय :  संगीत,सैलिब्रिटी और पोर्न

8. मासकल्चर, संगीत और संस्कृति
9. मासकल्चर, सेलिब्रिटी और चाट शो 
10. मासकल्चर के वैविध्य के दांवपेंच 
11. सुंदरता की मध्यवर्गीय भेड़चाल 
12. मासकल्चर में हास्य-व्यंग्य की महत्ता

पांचवां अध्याय : वैकल्पिक मीडिया दृष्टि, आत्मसेंसरशिप और पापुलर कल्चर

13. मासकल्चर और वैकल्पिक मीडिया दृष्टि 
 
14. सेंसरशिप, आत्म-सेंसरशिप और संस्कृति 
15. पॉपुलर पत्रकारिता और पॉपुलर संस्कृति

    छठा अध्याय:  विज्ञापन ,इतिहास और विचारधारा

16 विज्ञापन, इतिहास और विचारधारा
17. माध्यम साम्राज्यवाद और विज्ञापन
18. भारतीय विज्ञापन उद्योग और भूमंडलीकरण
19. डेविड मैकेंजी ओजिलवी की विज्ञापन दृष्टि
20.इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और विज्ञापन
21. विज्ञापन को यहां से देखो
22 विज्ञापन और समाज : कुछ नोट्स
23. विज्ञापन में अंतहीन आधुनिकता की तलाश में
24. पूंजी का नया मंत्र: मम्मी प्लीज़!
                                          



    



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