कोलकाता की स्त्रीवादी इमेज का आईना है प्रभाखेतान का लेखन। वे जितनी सहृदय और सुसंस्कृत थीं उतनी ही बेहतरीन व्यापारी भी थीं। साधारण स्त्री जीवन से आरंभ करके उन्होंने असाधारण स्त्रीक्षमता का विकास किया था और इसे उन्होंने ‘अन्या से अनन्या’ नामक आत्मकथा में लिपिबद्ध किया है। उनकी आत्मकथा का मूल स्वर स्त्रीवादी है। स्त्रीवाद का लक्ष्य आत्मसंतोष या आनंद देना नहीं है बल्कि उसका लक्ष्य है न्याय पाना। प्रभा की आत्मकथा इसी अर्थ में न्याय की तलाश है। इस किताब में अन्याय के कई रूप हैं, अनेक चरित्र हैं जो अन्याय से पीड़ित हैं, मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय जीवन के स्त्री अन्तर्विरोध हैं, उसके पाखण्ड हैं,संकेतों के जरिए यह भी बताया गया है कि हमारे आप्रवासी भारतीय किस तरह अमानवीय हैं। स्त्री के हम एक ही रूप से परिचित हैं, किंतु आत्मकथा में स्त्री के कई रूप सामने आते हैं, स्त्री की अनेक किस्म की चालाकियां अथवा रणनीतियां सामने आती हैं, इस आत्मकथा की सारी औरतें समझदार और चालाक हैं। मूर्ख स्त्री इनमें कोई नहीं है। कम से कम एक मिथ तो टूटा कि औरत मूर्ख नहीं होती।
आत्मकथा में रेखांकित किया गया है कि जिस परिवार नामक संस्था को हम महान मानते हैं, पति-पत्नी के संबंध को उच्चकोटि का मानते हैं, वह संबंध किस कदर खोखला हो चुका है और अंदर से सड़ रहा है। किस तरह स्वार्थों के कारण यह संबंध महान है और किस तरह और कब इस संबंध के बाहर बनाए संबंध ,जिसे सारा समाज अस्वीकार कर रहा था, किसी हद तक स्वीकार करने लगता है। परंपरागत परिवार का सारा ताना-बाना आर्थिक सुरक्षा के आधार पर बुना गया है। स्त्री से सब लोग पाना चाहते हैं, उसे कोई देना नहीं चाहता। स्त्री के व्यवहार और रूख पर आलोचनात्मक नजरें टिकी होती हैं जबकि पुरूष के व्यवहार को कभी आलोचनात्मक नजरिए से देखा नहीं जाता, उसके रवैयये को स्वाभाविक मान लिया जाता है। यानी मर्द जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बदलने के चांस नहीं हैं। बदलना है तो औरत बदले। डा. सर्राफ का रवैय्या नहीं बदलता वे चाहते हैं कि प्रभा बदले। सारी गतिविधियों में प्रभा को ही आलोचना के केन्द्र में रखा जाता है, कहीं न कहीं इस मानसिकता का स्वयं लेखिका के नजरिए पर भी असर है।
लेखिका की प्रेम में न्याय की तलाश डा. सर्राफ को आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखती। मसलन् डा.सर्राफ के पास प्रभा के लिए मूल समस्या से ध्यान हटाने के अनेक सुझाव रहते थे, जबकि प्रभा के लिए मूल समस्या थी प्रेम और न्याय। प्रभा आत्मनिर्भर बनने के लिए डा. सर्राफ से नहीं मिली थी। अचानक प्रेम हुआ और वही उसके लिए प्रमुख था। डा. सर्राफ ने प्रेम को गौड़ और कैरियर को प्रमुख बनाने की ही सारी रणनीतियां सुझायीं, प्रेम उनके यहां प्रकारान्तर से व्यक्त होता था। प्रेम की पीड़ा का सघन एहसास जिस तरह प्रभा के अंदर व्यक्त हुआ है वह डा. सर्राफ में कहीं पर भी नजर नहीं आता। प्रेम के बारे में डा. सर्राफ जब भी बातें करते हैं तो सिर्फ आशा बंधाने के लिए। डा. सर्राफ के लिए प्रेम भविष्य की चीज था, जबकि प्रभा के लिए वर्तमान था। त्रासदी यह थी कि भविष्य दोनों के हाथ से खिसक गया था। प्रभा को आरंभ में ही अहसास हो गया कि डा. सर्राफ से किया गया प्रेम तकलीफदेह है। डा. सर्राफ के लिए जीवन के उद्देश्यों में प्रेम का कहीं कोई स्थान नहीं था, जबकि प्रभा के लिए जीवन में प्रेम का केन्द्रीय स्थान था।
'अन्या से अनन्या' से एक बात यह भी निकलती है कि स्त्री-पुरूष के प्रेम में वस्तुत: प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग करता है। पुरुष में देने का भाव नहीं होता। वह सिर्फ स्त्री से पाना चाहता है। प्रेम के इस लेने ,देने वाले भाव में स्त्री का अस्तित्व दांव पर लगा है। वह अपना दांव पर सब कुछ लगा देती है और सतह पर हारती नजर आती है किंतु वास्तविकता यह है कि जीवन में जीतती स्त्री ही है पुरुष नहीं। प्रेम में आप जिसे चाहते हैं उसके प्रति यदि देने का भाव है तो यह तय है कि जो देगा उसका प्रेम गाढ़ा होगा, जो निवेश नहीं करेगा उसका प्रेम खोखला होगा। प्रेम में भावों, संवेदनाओं,सांसों का निवेश जरूरी है।
प्रेम का मतलब कैरियर बना देना, रोजगार दिला देना,व्यापार करा देना नहीं है। बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं,प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं। प्रेम गहना,कैरियर ,आत्मनिर्भरता आदि नहीं है। प्रेम सहयोग भी नहीं है। प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए। प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है। प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व है। इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है,एकाकी नहीं होता। सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता। प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है। प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है। प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराईयों में जाकर ही शांति मिलती है, प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य -व्यापार टिका है। प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें। प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता। प्रेम में स्टैंण्ड लेना जरूरी है। डा. सर्राफ की मुश्किलें यहीं पर है। वे प्रेम नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि प्रभा उनसे प्रेम करे। 'अन्या से अनन्या' में प्रभा ने अपने को आलोचनात्मक रूप में देखा है, बार-बार अपने व्यक्तित्व की कमजोरियों को पेश किया है। स्वयं की कमजोरियों को बताते समय लेखिका इस तथ्य पर जोर देना चाहती है कि इन कमजोरियों से मुक्त हुआ जा सकता है। स्त्री की ये कमजोरियां स्थायी चीज नहीं हैं। ये कमजोरियां स्त्री की नियति नहीं हैं। कमजोरियां शाश्वत नहीं होतीं। अपनी कमजोरियों को बताने का अर्थ यह नहीं है कि लेखिका अपने लिए पाठकों की सहानुभूति चाहती है। किंतु दिक्कत तब होती है जब कमजोरियों को समस्त सामाजिक प्रक्रिया से अलग करके देखती है। स्त्री की जिन कमजोरियों का जिक्र लेखिका ने स्वयं के बहाने किया है वे एक खास किस्म की सामाजिक प्रक्रिया में ही पैदा होती हैं। स्त्री ज्यों -ज्यों इस प्रक्रिया के बाहर चली जाती है कमजोरियां खत्म हो जाती हैं। प्रभा की कमजोरियां असल में उनकी निजी कमजोरियां नहीं हैं बल्कि ये औरत जाति की कमजोरियां हैं। इन्हें व्यक्तिगत समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
प्रभा ने बार-बार जिस भाषा में और जिन बातों को डा. सर्राफ के सामने उठाया है वे सारी बातें परंपरागत औरत की बातें हैं और परंपरागत भाषा में ही व्यक्त हुई हैं। किंतु सामाजिक प्रक्रिया प्रभा को परंपरागत रहने नहीं देती, प्रभा के एक्शन परंपरागत नहीं हैं। प्रभा के एक्शन परंपरा का विरोध करते हैं, प्रभा की मांगें और भाषा परंपरागत को पेश करते हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हमें स्त्री के कथन पर नहीं कर्म पर ध्यान देना चाहिए। औरत कहती क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह करती क्या है। प्रभा का कर्म परंपरागत कर्म नहीं है। वह वे सारे काम करती है जो भारतीय औरत ने कभी नहीं किए। वह उन बातों को बोलती है जो आम साधारण औरत बोलती हैं। इस अर्थ में प्रभा की बातें,मांगें,तर्क ,भाषा आदि साधारण औरत की परंपरागत भावना को व्यक्त करते हैं। किंतु उसका कर्म असाधारण है। औरत के अंदर चल रहे साधारण और असाधारण के इस द्वंद्व को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
शादीशुदा मर्द,बाल-बच्चेदार मर्द से प्रेम भारतीय परंपरा में नयी बात नहीं है, इस प्रेम की मांगे भी नई नहीं हैं,ये भी पुरानी हैं,इस तरह के आख्यान भरे पड़े हैं।सवाल यह है कि प्रेमीयुगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है। प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है। इससे प्रेम परंपरागत दायरों को तोड़कर आगे चला जाता है। पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास। प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है। समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है। प्रभा अपने एक्शन के जरिए इसी शोषित रूप से लड़ती है।
स्त्री आत्मकथा पहले उपलब्ध नहीं थी,अब लिखी जा रही है। हम जिस भाषा के अभ्यस्त हैं वह मर्द भाषा है। इसमें पाठक और विषय के बीच अंतराल है। विषय और 'स्व' के बीच अंतराल है। मर्द भाषा में बोलने,लिखने और सोचने की हमारी आदत सैंकड़ों साल पुरानी है। मर्द भाषा वह है जो हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है। यह इकतरफा भाषा है, इस भाषा में बोलने वाले उत्तर की प्रतीक्षा नहीं करते और न यही महसूस करते हैं कि उनकी बात सुनी जा रही है या नहीं। जबकि स्त्री भाषा की विशेषता है कि उसे उत्तर चाहिए। यह संवाद है। स्त्री भाषा संप्रेषण नहीं बल्कि संबंध है। संबंध ही है जो जोड़ता है। इसकी शक्ति बांटने वाली नहीं ,बांधने वाली है। इस भाषा को आप हृदय से महसूस कर सकते हैं। इस किताब के भाषिक सौंदर्य का यह परम तत्व है कि लेखिका बिना किसी संकोच और दुविधा के एक विषय से दूसरे विषय,एक शहर से दूसरे शहर की ओर अपने आख्यान को खोलती है। यहां उत्तर आधुनिक रपटन है। गतिशीलता है। लोच है। यह किताब व्यक्तिगत होते हुए भी राजनीतिक है। भाषा में फिसलन ही इसकी शक्ति है। इस भाषा में जब आप फिसलते हैं ,फिर उठते हैं,संभलते हैं,फिर चलते हैं और फिर रपटते हैं। रपटन में चलना,गिरना और संभलना यहीं पर इसका स्त्री भाषिक सौंदर्य है।
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