दो तरह के सामाजिक कारण हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे आत्महत्या दर को प्रभावित करते हैं। ये हैं कायिक मानसिक विन्यास और भौतिक पर्यावरण का स्वरूप। व्यक्ति स्वभाव या व्यक्तियों के एक महत्वपूर्ण वर्ग के स्वभाव में आत्महत्या की ओर ले जाने वाली प्रत्यक्ष प्रवृत्ति हो सकती है। इसकी तीव्रता में देशों के अनुसार अंतर हो सकता है। दूसरी ओर कायिक रचना पर जलवायु तापमान की क्रिया के अप्रत्यक्ष रूप में वही प्रभाव हो सकते हैं। किसी भी स्थिति में इस परिकल्पना को बगैर विचार किए अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हम इन तत्वों पर एक-एक करके विचार करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे अध्ययनाधीन विषय पर प्रभाव डालते हैं और यदि डालते हैं तो कितना।
किसी निश्चित समाज के मामले में निश्चित बीमारियों की वार्षिक दर अपेक्षाकृत स्थिर होती है हालांकि इसको लेकर विभिन्न आवामों में काफी अंतर होता है। विक्षिप्तता भी ऐसी ही बीमारी है। प्रत्येक स्वैच्छिक मौत में यदि विक्षिप्तता पाई जाती है तो हमारी समस्या हल हो जाती है और आत्महत्या को वैयक्तिक रोग मान लिया जाएगा।
इस बात का बहुत से मनोचिकित्सकों ने समर्थन भी किया है। एस्कुइरोल के अनुसार : 'आत्महत्या में दिमागी पागलपन के सभी लक्षण मौजूद हैं।' 'कोई व्यक्ति उन्माद की अवस्था में ही आत्महत्या का प्रयास करता है। और आत्महंतक दिमागी तौर पर पागल होते हैं। इस सिध्दांत से उसने निष्कर्ष निकाला कि आत्महत्या अनिच्छा से की जाती है, इसलिए कानून में उसके लिए दंडविधान नहीं होना चाहिए। फलरेट5 और मोरो डि टूर्स ने भी लगभग इसी शब्दावली का प्रयोग किया है। टूर्स ने जिस पैसेज में अपना सिध्दांत रखा है उसी में ही वह एक ऐसी टिप्पणी कर देता है जो उसे संदेहास्पद बना देती है : 'क्या आत्महत्या को सभी मामलों में पागलपन का परिणाम माना जाना चाहिए ? इस मुश्किल सवाल का उत्तर देने के बजाए हम सामान्य तौर पर कह सकते हैं कि जो व्यक्ति जितना अधिक अनुभव प्राप्त करेगा, जितने अधिक पागल लोगों की जांच करेगा वह उतना ही अधिक इसे स्वीकार करने के लिए तैयार होगा।' 1845 में अपने एक ब्रोशर, जिसने चिकित्सा जगत में तुरंत तहलका मचा दिया, में डॉ. बोरडिन ने यही बात रखी बल्कि अधिक निस्संकोच रूप में।
इस सिध्दांत की पैरवी दो रूपों में की जा सकती है और की गई है। आत्महत्या को या तो अपने आप में ही एक अद्वितीय बीमारी माना गया है, एक विशेष प्रकार का पागलपन; या इसे अलग वर्ग न मानकर पागलपन के एक या विभिन्न रूपों में पाई जाने वाली बीमारी मान लिया जो कि स्वरूप व्यक्तियों में नहीं पाई जाती। इनमें से पहला बोरडिन का सिध्दांत है। एस्कुईरोल दूसरा विचार रखने वाला प्रमुख विद्वान है। उसका कहना है, 'जो पाया गया है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि आत्महत्या कई विभिन्न कारणें का परिणाम होती है और कई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। जाहिर है कि यह किसी बीमारी की विशेषता नहीं होती। आत्महत्या को एक अद्वितीय बीमारी मानकर कई सामान्य बातें कह दी गई हैं जो अनुभव की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।'
आत्महत्या को विक्षिप्तता की अभिव्यक्ति साबित करने की इन दो विधियों में से दूसरी कम श्रमसाध्य और निश्चयात्मक है क्योंकि इसके कारण निषेधात्मक अनुभव असंभव हैं। आत्महत्या के सभी मामलों की पूरी सूची नहीं बनाई जा सकती और न ही प्रत्येक में पागलपन के प्रभाव को दर्शाया जा सकता है। केवल इक्का-दुक्का उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन उनकी संख्या चाहे जितनी हो उन्हें वैज्ञानिक सामान्यीकरण का आधार नहीं बनाया जा सकता। साथ ही इस बारे में हालांकि विरोधी उदाहरण नहीं दिए गए हैं, लेकिन उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। यदि आत्महत्या को अपनी विशेषताओं और अपने अलग अस्तित्व वाली मानसिक बीमारी दर्शाया जा सकता है तो समस्या सुलझ जाती है। प्रत्येक आत्महंतक एक पागल व्यक्ति है।
लेकिन क्या आत्महत्यात्मक पागलपन जैसी कोई चीज है? आत्महत्या की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप में विशेष और निश्चित होती है। यदि यह एक तरह की विक्षिप्तता है तो यह एक कृत्य तक सीमित आंशिक विक्षिप्तता होगी। एक कृत्य तक सीमित होने पर ही इसे उन्माद कहा जा सकता है, क्योंकि यदि उन्माद कई कृत्यों को लेकर है तो शेष को छोड़कर एक कृत्य द्वारा उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। मानसिक रोग विज्ञान की परंपरागत शब्दावली में इन सीमित उन्मादों को एकोन्माद कहा जाता है। एकोन्मादी ऐसे बीमार व्यक्ति को कहते हैं जिसका दिमाग केवल एक मामले को छोड़कर शेष सभी मामलों में स्वस्थ रहता है। उसमें केवल एक दोष होता है। उदाहरण के लिए, उसमें शराब पीने, चोरी करने या गाली देने की असंगत और बेतुकी कामना होती है; लेकिन उसके अन्य कृत्य और अन्य विचार पूरी तरह से सही होते हैं। इसलिए यदि कोई आत्महत्यात्मक उन्माद होता है तो वह एकोन्माद ही हो सकता है और सामान्यत: इसे यही कहकर पुकारा गया है।
दूसरी ओर यदि एकोन्माद कही जाने वाली इस विशेष बीमारी के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है तो यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि उसमें आत्महत्या को क्यों शामिल किया जाता है। अभी दी गई परिभाषा के अनुसार इस तरह की बीमारियों का स्वरूप ऐसा होता है कि इनसे बौध्दिक कार्य में कोई अनिवार्य गड़बड़ी नहीं होती। एकोन्मादी और स्वस्थ व्यक्ति के मानसिक जीवन का आधार एक होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि एकोन्मादी के मामले में एक निश्चित मनोदशा इस सामान्य आधार से कटी होती है। संक्षेप में एकोन्माद मनोवेगों में से एक उग्र मनोवेग, विचारसमूह में से एक गलत विचार है लेकिन इसकी तीव्रता इतनी अधिक होती है कि वह दिमाग को अभिभूत कर लेता है और उसे पूरी तरह से अपना दास बना लेता है। उदाहरण के लिए, जब महत्वाकांक्षा विकराल रूप धारण कर लेती है और बाकी सभी दिमागी कार्य पंगु हो गए लगते हैं तो वह विकृत होकर भव्य एकोन्माद का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार दिमागी संतुलन को गड़बड़ा देने वाला हिंसक मनोवेग एकोन्माद का पर्याप्त कारण बन सकता है। सामान्यत: आत्महत्याएं असामान्य आवेग से प्रभावित लगती हैं। इस आवेग की ऊर्जा का अचानक विस्फोट हो सकता है या वह धीरे-धीरे विकसित हो सकती है। यह आावेग इस आधार पर तर्कसंगत भी लग सकता है कि आत्मरक्षण की बुनियादी सहजवृत्ति का प्रतिकार करने के लिए इस तरह का बल हमेशा चाहिए। इसके अलावा आत्महत्या के कृत्य को छोड़कर आत्महंतक बिलकुल दूसरे आदमियों जैसे होते हैं। उन्हें सामान्य रूप में उन्मादी नहीं कहा जा सकता। इस तर्क के आधार पर आत्महत्या को एकोन्माद की संज्ञा देकर विक्षिप्तता की अभिव्यक्ति माना गया है।
लेकिन क्या एकोन्मादियों का वास्तव में कोई वजूद है? काफी लंबे समय तक इस पर सवाल नहीं उठाया गया। सभी मनोचिकित्सक बगैर किसी चर्चा के आंशिक उन्माद के सिध्दांत पर सहमत थे। इसे न केवल चिकित्सकीय दृष्टि से पक्का मान लिया गया बल्कि मनोविज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप मान लिया गया। मानव बुध्दि के विषय में कहा गया है कि उसमें पृथक आत्मिक ऊर्जाएं और अलग शक्तियां हैं जो सामान्यत: मिलकर काम करती हैं। लेकिन वे अलग होकर भी कार्य कर सकती हैं। अत: स्वाभाविक तौर पर ऐसा लगा कि ये शक्तियां अलग-अलग रोगग्रस्त हो सकती हैं। जब मानव-बुध्दि बगैर संकल्पशक्ति के और भावनाएं बगैर बुध्दि के प्रकट हो सकती हैं तो भावनाओं में बगैर गड़बड़ी के बुध्दि या संकल्प संबंधी और बुध्दि या संकल्प में बगैर गड़बड़ी के भावनाओं संबंधी विकार क्यों नहीं हो सकते? इस नियम को जब आत्मिक ऊर्जाओं के विशेषीकृत रूपों पर लागू किया गया तो यह सिध्दांत उभर कर सामने आया कि कोई आघात केवल किसी मनोवेग, कृत्य या अलग-थलग विचार को प्रभावित कर सकता है।
लेकिन आज इस विचार को सब जगह त्याग दिया गया है। प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण से एकोन्मादियों की गैरमौजूदगी सिध्द नहीं की जा सकती लेकिन साथ ही उनकी मौजूदगी का भी कोई निर्विवाद उदाहरण नहीं दिया जा सकता। चिकित्सीय अनुभव के दौरान कोई बिलकुल अलग मनोवेग नजर में नहीं आया है। जब किसी एक आत्मिक ऊर्जा पर आघात लगता है तो दूसरियों को भी आघात पहुंचता है। एकोन्माद में विश्वास करने वाले इन सहगामी आघातों को इसलिए नहीं देख पाए हैं क्यों उनका पर्यवेक्षण बहुत कमजोर है। फलरेट ने लिखा है कि 'उदाहरण के लिए धार्मिक विचारों से आविष्ट किसी विक्षिप्त व्यक्ति को लें जिसे धार्मिक एकोन्मादियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। वह स्वयं को दिव्य प्रेरित कहता है; अपने दिव्य मिशन के तहत वह संसार में नया धर्म लाता है...इस विचार को पूरी तरह से विक्षिप्तता कहा जा सकता है; फिर भी उसके धार्मिक विचारों को छोड़कर उसकी बाकी बातें दूसरे आदमियों की तरह युक्तियुक्त होती हैं। उससे ध्यान से पूछताछ करने पर कुछ और रुग्ण विचार सामने आएंगे। उदाहरण के लिए, धार्मिक विचारों के समानांतर उसमें गर्व की प्रवृत्ति मिलेगी। वह ऐसा विश्वास करता है कि उसे न केवल धर्म बल्कि समाज को सुधारने के लिए पैदा किया गया है। वह शायद यह कल्पना भी करेगा कि उसकी नियति में बहुत बड़ा काम करना लिखा है। यदि इस रोगी में आपको गर्व की प्रवृत्तियां नहीं मिलती हैं तो उसमें नम्रता के विचार या भय की प्रवृत्तियां मिलेंगी। धार्मिक विचारों के भंवर में फंसकर वह स्वयं को ध्वस्त, विनाश नियति वाला आदि मानेगा।'9 उन्माद के ये सभी रूप किसी एक व्यक्ति में इकट्ठे नहीं मिलेंगे, लेकिन कुछ रूप इकट्ठे मिल सकते हैं। यदि वे बीमारी के किसी विशेष क्षण में नजर नहीं आते तो बाद में एक के बाद बहुत जल्दी नजर आ सकते हैं।
इन लक्षणों के अलावा इन तथाकथित एकोन्मादियों की एक सामान्य मानसिक अवस्था होती है जो बीमारी की बुनियाद होती है। उन्मादी विचार तो इसकी बाहरी और क्षणिक अभिव्यक्ति हैं। आनंदातिरेक या गहरा अवसाद या सामान्य विकृति इसकी अनिवार्य विशेषता हैं। विचार और कृत्य में संतुलन और समन्वय का अभाव रहता है।
रोगी सोच-विचार करता है, लेकिन उसके विचारों में रिक्ति होती है। उसके कृत्यों में विसंगति नहीं होती लेकिन उनमें कोई तारतम्य नहीं होता। अत: यह कहना गलत है कि विक्षिप्तता मानसिक जीवन का एक हिस्सा, एक सीमित हिस्सा है। यह जब बुध्दि में घुसता है तो उसे पूरी तरह से आच्छादित कर देता है।
इसके अलावा एकोन्माद की परिकल्पना का बुनियादी सिध्दांत विज्ञान के वास्तविक आंकड़ों का प्रतिवाद करता है। अत: शक्ति के पुराने सिध्दांत के अब बहुत कम पैरोकार हैं। अब विभिन्न प्रकार की सचेत गतिविधियों को अलग-अलग, असंबध्द और केवल गूढ़ तत्व में जुड़ी ताकतें नहीं माना जाता। उन्हें अब एक दूसरे पर आश्रित तत्व माना जाता है। यदि एक को आघात पहुंचता है तो दूसरा उससे अप्रमादित नहीं रह सकता। यह बात अन्य अवयवों के बजाए मानसिक जीवन के मामले में अधिक सही है क्योंकि मानसिक कार्यों के लिए इस तरह से अलग-अलग अवयव नहीं होते कि अन्यों को छोड़कर केवल एक को प्रभावित किया जा सके। मस्तिष्क के विभिन्न भागों में उनका वितरण बहुत स्पष्ट नहीं होता। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि यदि किसी एक भाग को अपना कार्य करने से रोका जाता है तो अन्य भाग बड़ी तत्परता के साथ एक दूसरे का स्थान ले लेते हैं। ये इस कदर एक दूसरे से संबध्द हैं कि विक्षिप्तता अन्यों को छोड़ कर केवल कुछ पर आघात नहीं कर सकती। मानसिक जीवन को पूरी तरह से बदले बगैर विक्षिप्तता द्वारा किसी एक भावना या विचार को प्रभावित कर दिया जाना तो बिलकुल असंभव है। विचारों और आवेगों का कोई अलग-अलग अस्तित्व नहीं है। वे ऐसे बहुत से छोटे तत्व, आध्यात्मिक एटम नहीं हैं जिनके इकट्ठे होने से मस्तिष्क बनता है। वे चेतना के केंद्रों की सामान्य अवस्था की बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं। चेतना ही उनका स्रोत है और वे उसी की अभिव्यक्ति करते हैं। इस प्रकार वे इस अवस्था की विकृति के बगैर रुग्ण नहीं हो सकते।
यदि मानसिक दोषों का स्थान निर्धारण नहीं किया जा सकता तो अपने वास्तविक अर्थ में एकोन्मादी भी नहीं हो सकते। इससे जुड़ी और स्थानिक लगने वाली गड़बड़ी वास्तव में बहुत व्यापक उथल-पुथल होती है। वे अपने आप में बीमारियां नहीं होतीं बल्कि अधिक सामान्य बीमारियों की गौण अभिव्यक्ति होती हैं। इस प्रकार यदि एकोन्मादी नहीं हैं तो आत्महत्यापरक एकोन्माद भी नहीं हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप हम कह सकते हैं कि आत्महत्या विक्षिप्तता का विशिष्ट रूप नहीं है।
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