रविवार, 2 जनवरी 2011

जिंदादिल युवानायक सफदर हाशमी

सफदर हाशमी के साथ मेरी पहली मुलाकात 1978 में हुई थी। मैं उन दिनों मथुरा में एसएफआई का जिलामंत्री था। केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी और केन्द्र सरकार एक बदनाम मजदूर विरोधी कानून लेकर आयी थी उसके खिलाफ दिल्ली में मजदूरों की महारैली थी। कई लाख लोग उसमें शामिल हुए थे। मथुरा से हमारे साथ सैंकड़ों मजदूर और छात्र भी आए थे। इसी रैली में पहलीबार सफदर हाशमी से मुलाकात हुई थी। उसी दिन जन नाट्यमंच का नुक्कड नाटक मंचित किया गया था। हम लोग बेहद उत्साहित और जोश में थे और संभवतः मशीन नाटक का मंचन हुआ था। 

उसके बाद मैं जब जेएनयू 1979 में पढ़ने चला आया तो सफदर के साथ कम से कम सप्ताह में दो एकबार मुलाकात,बातें,संस्कृति,राजनीति पर चर्चाएं और कैसे काम करें और कैसे आगे जाएं,ये ही मुद्दे बातचीत में होते थे। साथ में सड़क किनारे किसी ढ़ाबे पर दाल रोटी का लंच। 

सफदर जिंदादिल,हंसमुख,यारानाभाव में जीने के साथ एक प्रतिबद्ध पार्टी कार्यकर्ता था। कम्युनिस्ट प्रतिबद्धता उसे संस्कार में परिवार से मिली थी। उसके पास परिवार के बेहतरीन संस्कार और सभ्यता थी। नैतिक मानदंडों के पालन में वह बेजोड़ था।हम लोग एक ही पार्टी (माकपा) में साथ काम करते थे। सबके बीच में जिस अनौपचारिक राजनीतिक मित्रता का आनंद हम लोगों ने महसूस किया है वह आज दुर्लभ है। 

सफदर की मौत जब हुई थी तब मैं जेएनयू में ही रहता था। विभिन्न अखबारों में काम करता था। उसकी मौत  एक हत्या थी।कांग्रेसी गुंडों ने उसे नृशंसभाव से मारा था। वह चाहता तो भागकर अपनी जान बचा सकता था लेकिन उसने अपने सभी साथियों की गुंडों से जान बचाने के लिए जान दे दी। गुंडों के सारे हमले निजी तौर पर झेले और जननाट्य मंच के किसी भी साथी को खरोंच तक नहीं आने दी। 

वह सचमुच में साथियों को जान से ज्यादा प्यार करता था। वह हम सब में बेमिसाल था और यह बात उसके दैनन्दिन व्यवहार में झलकती थी। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति उसकी निष्ठा देखकर कभी कभी परेशानी भी होती थी,मैं बराबर उसे छेड़ता भी था कि क्या सब समय जुनूनीभाव में रहते हो। घर-परिवार,पत्नी किसी की चिंता नहीं करते,वह हमेशा कहता था सब ठीक है। लेकिन हम जानते थे कि वह जिस भावना और क्रांतिकारी स्प्रिट में रहता है उसे कोई बाधा देकर रोक नहीं सकता।

उसने अपने काम से अपने साथियों के साथ साथ दिल्ली के सांस्कृतिक वातावरण और भारत के रंगमंच को गहरे तक जाकर प्रभावित किया। नुक्कड नाटक को एक शक्तिशाली मीडियम के रूप में राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलायी। सफदर विलक्षण था। वह सामान्य,सहज.सरल और अति मेधावी था।सर्जनात्मकता में हमेशा सराबोर रहता था। उसे याद करते हुए आज भी रोंगटे खड़े होते हैं। हिन्दीभाषी जनता में इतना मेधावी और जनप्रिय युवक मैंने नहीं देखा। उससे मिलो तो भूल नहीं सकते। उसकी हत्या ने हम सबको हिला दिया था। उसकी यादें आज भी रोमांचित करती हैं। उसका अपने भाई सुहेल हाशमी,मां,बहन ,कॉमरोडों और पत्नी के साथ गहरा प्रेम हम सब में हमेशा चर्चा का विषय रहता था।

उससे जब भी बात होती हमेशा सीखने के भाव में रहता था। वह किसी से भी बात करता तो कुछ न कुछ सीखता और बटोरता रहता था। मैं उसके इस सीखने और जाननेवाले भाव पर फिदा भी था और कभी कभी कहता था कि यार सब समय जानने के चक्कर में क्यों रहते हो।बोलता था उससे बल मिलता है। मुझे काम करने,नाटक की स्क्रिप्ट लिखने में आसानी होती है। उसे याद करना अपने आपमें सुख देता है।

सफदर हाशमी की कविताएं-




किताबें
किताबें
करती हैं बातें
बीते ज़माने की
दुनिया की इंसानों की
आज की, कल की
एक - एक पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की !
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं |
किताबों में चिड़ियां चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं |
किताबों में रोकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान का भंडार  है |
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं |

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पढ़ना-लिखना सीखो

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो 
पढ़ना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो 

क ख ग घ को पहचानो 
अलिफ़ को पढ़ना सीखो 
अ आ इ ई को हथियार 
बनाकर लड़ना सीखो 

ओ सड़क बनाने वालो, ओ भवन उठाने वालो 
खुद अपनी किस्मत का फैसला अगर तुम्हें करना है 
ओ बोझा ढोने वालो ओ रेल चलने वालो 
अगर देश की बागडोर को कब्ज़े में करना है  

क ख ग घ को पहचानो 
अलिफ़ को पढ़ना सीखो 
अ आ इ ई को हथियार 
बनाकर लड़ना सीखो 

पूछो, मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं? 
पढ़ो,तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, माँ-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढ़ो,तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं? 
पढ़ो, लिखा है दीवारों पर मेहनतकश का नारा 
पढ़ो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा 
पढ़ो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा 
पढ़ो, किताबें कहती हैं - सारा संसार तुम्हारा 
                    पढ़ो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है 
पढ़ो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है 

क ख ग घ को पहचानो 
अलिफ़ को पढ़ना सीखो 
अ आ इ ई को हथियार 
बनाकर लड़ना सीखो




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आओ, ए पर्दानशीं
एक पर्दानशीं , मुफ़लिसी में फँसी 
और नवेली दुल्हन की है ये दास्ताँ
जिसके खाविंद  ने उस पे ढाया सितम
उस नवेली दुल्हन का करू मै बयाँ

उसके खाविंद ने उससे एक दिन कहा
मुफ़लिसी में घिरा हूँ मै कुछ इस तरह
या तो अब्बा से कहो कुछ करे 
वरना करने लगा हूँ मै दूजा निकाह 

में तो समझा  था तुम लेके जहेज़ आओगी
साथ में मोटी रकम अपने बांध लाओगी
करके सौदा तुम्हारे गहनों का
कोई धंधा खड़ा मै कर लूँगा

तुम तो पर खाली हाथ आई हो
सिर्फ दो जोड़े साथ लाई हो
मेरे ऊपर तो फ़कत बोझ हो तुम
इक सहारा नहीं हो बोझ हो तुम
इसलिए ध्यान से सुन लो अब मेरी जाँ
मुझको कोई तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं
आ रहे है अभी  मौलवी जी यहाँ
मेरे रास्ते में कोई रुकावट नहीं
खा के इस तरह ठोकरे-शौहर
आ गई वो बेचारी सड़कों पर
कोसती अपने नसीबों को हज़ार
आ के  पहुंची वो अपनी माँ के द्वार
अम्मा- अब्बा हुए बहुत नाराज
उसको समझाया ये मज़हब का राज़
तेरे शौहर को हक़ है यह सुन ले
चाहे तो चार वह निकाह कर ले
तेरा तो फ़र्ज़ है कि सब कुछ सह ले
अपनी सौतन के संग संग रह ले
लौटकर  के जो यहाँ आएगी
रोटियां हमसे छीन  खाएगी
भाई - भाभी भी उससे यह बोले
लौट जा और अपनी राह होले
ऐसी बातें सुनी, सुन के दंग रह गई    
सर झुका के कहा अब मैं जाऊं  कहाँ
जिसके खाविंद ने उसपे  ढाया सितम
उस नवेली दुल्हन की है ये दास्ताँ
जिंदगी  घर में ही बिताई थी
एक अक्षर भी पढ़ न  पाई थी
कभी सीखा नहीं था कोई हुनर
सोचा था घर में ही कटेगी उमर
अब पड़ी उस पे आ के वक़्त की मार
हो गई इस जहां से वो बेज़ार
तभी उससे कहा किसी ने ये
क्यों ना  तू न्याय की शरण ले ले
ठोकरें खाती हुई पहुची जज के पास 
बोली, आका करें मेरा इंसाफ
जज ने जब पूरी उसकी बात सुनी
बोला, किस दुनिया में हो तुम रहती

मर्द को अब सजा नहीं मिलती 
औरतें की नहीं है अब कुछ चलती
दे दे मुस्लिम मर्द अगर कि तलाक
बीवी-बच्चों को कर दे इक दिन आक़
अब तो कानून नया आया है
 नई सरकार ने बनाया है....
बोली वो, यह तो है मज़हब के खिलाफ 
हर नज़र से तो यह है नाइंसाफ
यह तो कुरान में ही आया है
फ़र्ज़े- शौहर उसे बनाया है
बीवी को गर तलाक दे भी दे
उसकी रोटी का पूरा खर्चा दे 
जज ये बोला जरा मेरी सुन ले
तू ये बातों को जा के उससे कह 
जिसने सरकार से मिलाकर हाथ
 काट डाले हैं तेरे दोनों हाथ 
बनते है दीन के जो ठेकेदार
पूरी मिल्लत  के  वोट  के हक़दार
उन्हीं से जाके पूछ ऐ बेटी
क्यों करी दीन से ये गद्दारी
उसने जब ये सुना , सुन के उसको लगा
अब नहीं मेरा दुनिया में कोई बचा 
ना  मैं शौहर की हूँ,  न माँ बाप की 
ना ही मज़ब की मुझको मिलेगी दया
तभी उसने ये देखा नज्ज़ारा
और कानों में पड़ा एक नारा -
औरतें अब नहीं रहीं कमज़ोर
उनकी आवाज भी बनी पुरजोर
दकियानूसी उसूल तोड़ेंगे
इस गुलामी की चूल 
तोड़ेंगे
औरतों का जुलूस आता था
गर्म सड़कों पे बढ़ता जाता था
उसको ऐसा लगा की ये बहनें
उसको आवाज़ दे बुलाती हैं
आओ ए पर्दा- नशीनो आओ
अपनी बहनों की सफ में आ जाओ
ऐसे जुल्मो- सितम से लड़ना है
इसको जड़ से तमाम करना है
अपने दिल से सुनी जो ये आवाज़
धीरे धीरे वो
 आई उनके पास
और उनकी सफों में जा पहुँची
अपनी मंजिल पे जैसे आ पहुँची
उसको दुनिया से लड़ने की ताकत  मिली
मिल गया उसको जैसे नया ही जहाँ
जिसके खाविंद  ने उसपे ढाया सितम
उस नवेली  दुल्हन  की  है ये दास्ताँ .
('मुस्लिम महिला विधेयक' के  संदर्भ में ' इन सेकूलर  इंडिया  '
नामक डाक्युमेंटरी फिल्म के लिए लिखी गयी नज़्म.)

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