सोमवार, 3 जनवरी 2011

उत्तर आधुनिकतावाद,नारीवाद और मार्क्स- केरॉल ए.स्टेविले- समापन किश्त-


पारंपरिक नारीवाद की सीमाएं
मजदूर के रूप में महिलाओं की स्थितियों की व्याख्या करने तथा प्रभावी राजनीतिक कार्रवाई की बुनियाद का निर्माण करने दोनों रूपों में पारंपरिक नारीवाद की कमियां गर्भपात अधिकारों को लेकर किए गए संघर्ष की संकीर्णता द्वारा उजागर होती है। स्वाभाविक है कि विगत तीस बरसों से मुख्यधारा के महिला आंदोलनों का यह केंद्रीय मुद्दा रहा है। महिलाओं को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों के सापेक्ष इस  मुद्दे के महत्व के बारे में तर्क की गुंजाइश है लेकिन मैं जो यहां कहना चाहती हूं उसका इस प्रश्न के सापेक्ष महत्व से उतना सरोकार नहीं है जितना उस नजरिए से जिससे इसे देखा गया है। उदाहरण के लिए 1977 में पारित हाईड अमेंडमेंट (जिससे निर्धन महिलाओं के लिए गर्भपात के आर्थिक रास्ते बंद कर दिए गए) का हाल के बेब्सटर डिसींजन (1990) की तुलना में बहुत कम नारीवादी विरोध हुआ। इस संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि गर्भपात के अधिकार विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं के अधिकार अधिक हैं। यह तथ्य ही कि गर्भपात अधिकारों की उत्पत्ति मुख्यधारा के नारीवादी सक्रियतावाद को परिभाषित करने वाले फोकस के रूप में हुई जिसमें गर्भपात के आर्थिक उपगम्य और जो महिलाएं जन्म दे रही हों उनके लिए डे केयर और सब्सिडी के रूप में आर्थिक सहायता निषिध्द है, नारीवादी हितों की एक संकीर्ण अवधारणा को दरशाता है।
1994 की शीत ऋतु में मैं प्रजनन अधिकारों के लिए एक संगठन बनाने में लगी थी। इसका लक्ष्य स्वास्थ्य सेवा (जन्म पूर्व और जन्म के बाद देखभाल तथा गर्भपात सेवाएं सहित), डे केयर तथा कल्याण जैसे आर्थिक मुद्दों पर बल देकर गर्भपातगर्भपात-विरोधीगतिरोध से बाहर निकलना था। 'एन.ओ.डब्ल्यू' और 'प्लैन्ड पैरंटहुड' से सहानुभूति रखने वाले संगठन के कई सदस्यों ने सुझाव दिया कि हम अपनी ऊर्जा 'फ्रीडम ऑफ एक्सेस टु क्लिनिक इंट्रेसेस एक्ट' को पारित कराने के लिए समर्थन जुटाने में लगाएं। अन्यों ने यह चिंता व्यक्त करते हुए आपत्ति की कि इस कानून का उपयोग सामान्य हड़ताली मजदूरों और राजनीतिक विरोध प्रदर्शनकारियों के विरुध्द कैसे किया जा सकता है। यद्यपि इसने अनुमान के अनुसार यूनियनों तथा लिंग-भेदभाव के बारे में गरमागरम बहस मुबाहिसा को जन्म दे दिया, लेकिन इस बहस से जो सर्वाधिक शक्तिशाली बात उभर कर आई वह यह थी कि जिन 'अधिकारों' का अनुमोदन करने के लिए हम लोगों से कहा जा रहा था, उन्हें विशेषाधिकृत परिप्रेक्ष्य में देखा गया था। चूंकि राज्य आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के विशिष्ट हितों को बढ़ावा देने में ये महिलाएं इस तथ्य को अनदेखा कर सकती थीं कि ठीक उसी समय (और प्राय: उन्हीं स्थानों में) राज्य बहुसंख्य महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों का हनन कर रहा है। 'अधिकारों' के लिए इस संघर्ष को उस सत्ता और विशेषाधिकार के वृहद तंत्र से अलग देखा जा रहा था जिसमें ये अधिकार अवस्थित थे।
सेना में लिंग-भेदभाव और समलैंगिक-भय के विरुध्द संघर्षों के बारे में भी ठीक यही बातें कही जा सकती हैं। निस्संदेह किसी भी संस्था के लोकतंत्रीकरण के लिए किए जाने वाले संघर्षों का समाजवादियों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन सेना जैसी संस्था के अंदरूनी कार्यकलापों को लोकतांत्रिक बनाने जबकि स्वयं संस्था के लोकतंत्र-विरोधी तथा दमनकारी प्रकार्यों की अनदेखी करने, यहां तक कि स्वीकार करने के प्रयास के बारे में कुछ निश्चित ही अत्यधिक आंदोलित करने वाली बात है। और युध्द से प्रतिबंध हटा लेने से यह तथ्य नहीं बदल सकता कि कई महिलाएं (जिन्हें सेना में पदोन्नति की चाहत नहीं के बराबर है) सेना में इसलिए भर्ती होती हैं क्योंकि, जैसा कि मेरी एक मित्र ने एक बार कहा कि यह उनके लिए एक अच्छे लाभ की स्थायी जगह है जिनके पास आर्थिक अवसर नहीं के बराबर हैं।
ऐतिहासिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों का सार यह है कि 'अधिकारों' के बचाव ने नारीवादी राजनीति को कमजोर किया है तथा इस आम धारणा को बल प्रदान किया है कि नारीवाद केवल संकीर्ण और विशेषाधिकृत हितों को पूरा करता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद उत्पादन के पूंजीवादी संबंधों की शोषक प्रकृति की व्यापक समझ पर आधारित, परिवार हिंसा के विरुध्द संघर्षों में महिलाओं और पुरुषों को एकजुट कर, पहले ही घटाए जा चुके सामाजिक प्रोग्रामों में और कटौती कर तथा इन बुराइयों से लाभ उठाने वाले तंत्र के विरुध्द गठबंधनों की संभावना प्रस्तुत करता है। साथ ही यह प्रस्थापना करता है कि महिलाओं की मुक्ति का, यदि इसमें सभी महिलाओं को शामिल करना है तो, पूंजीवाद के साथ कोई सामंजस्य नहीं है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद को उस प्रकार के आत्ममंथन प्रस्तुत करने का लाभ प्राप्त है जिसका उत्तरआधुनिकतावाद और समयुगीन नारीवाद में सर्वथा अभाव है। इस लेख में मैंनेइसे रेखांकित करने का प्रयास किया है। यह सत्ता की प्रभुत्वशाली संरचना के संबंध में हमारे सिध्दांतों, हमारे आचरणों और हमारी अवस्थितियों को समझने के लिए तुरंत बाध्य करता है तथा बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद के भीतर महिलाओं और पुरुषों की अवस्थितियों और इन अवस्थितियों में समकालीन परिवर्तनों को समझने का अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी आधार प्रदान करता है।
उदाहरण के लिए 'पारिवारिक मूल्यों' के बहस के बारे में विचार करें। पारंपरिक नारीवादी तर्क है कि पारिवारिक मूल्यों की ओर लौटने का 'न्यू राइट' का आह्वान महज एक प्रतिक्षेप है। एक ओर कहा जाता है कि यह प्रतिक्षेप 'न्यूक्लियर फैमिली' के पारंपरिक संस्करण को पुनर्स्थापित करने के प्रयास को दरशाता है ताकि श्रमशक्ति से महिलाओं को बाहर निकलने के लिए तथा वापस घर में बैठने के लिए मजबूर किया जा सके। दूसरी ओर इसे नारीवादी आंदोलन को प्रभावकारी बनाने के उपाय के रूप में देखा जाता है क्योंकि अब महिलाओं के पास काम करने का 'विकल्प' है। इन विश्लेषणों में यह तथ्य सामने नहीं आता कि आर्थिक स्थितियों ने घरेलू कार्य के अतिरिक्त एक या दो पूर्णकालिक काम के दोहरे लाभ को मध्यवर्गीय महिलाओं पर लाद दिया है और इस सामाजिक परिवर्तन से पूंजीवाद को लाभ होता है न कि व्यक्ति विशेष को। निर्धन और मजदूर वर्ग की महिलाओं (जिनमें से कई अश्वेत हैं) ने लंबे समय तक घर से बाहर कार्य किया है लेकिन उनमें से शायद ही कोई अपने विमुख और प्राय: हताश श्रम को अपनी 'पसंद' का कार्य कहेंगी। महिलाओं के लिए जो लाभ बताया जा रहा है उसका अर्थ महज यह है कि मध्यम वर्गीय महिलाओं को अब पूंजीवाद की आवश्यकताओं द्वारा उस 'विकल्प' को चुनने के लिए मजबूर किया जा रहा है जो पारंपरिक रूप से निर्धन और मजदूर वर्ग की महिलाओं का रहा है। यह तर्क देना कि परिवार के मूल्यों के बारे में बहस का उद्देश्य महिलाओं को वापस घरेलू परिवेश में भेजना है, इस तथ्य की अनदेखी करना है कि पारंपरिक न्यूक्लियर परिवार की ओर लौटना संभव नहीं है क्योंकि अब यह आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य नहीं है। यह तर्क देना कि पारिवारिक मूल्यों के बारे में ये बहस नारीवादी सफलताओं द्वारा प्रेरित हैं, उस विचारधारात्मक रहस्यात्मकता को स्वीकार करना है जो पूंजीवाद के आर्थिक अधिदेशों को यों मानता है गोया वे मुक्त जीवन शैली के 'विकल्प' हों।
मैं यह विश्वास करना पसंद करूंगी कि दरअसल नारीवादी क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबध्द हैं, लेकिन विचार करने के लिए और अपेक्षाकृत कम सुखद संभावना भी है जो वर्ग की स्थिति की अनदेखी के खतरों को इंगित करती है। संभव है कि अपने को नारीवादी कहने वाले कई व्यक्तियों की दिलचस्पी वर्ग के विशेषाधिकार को बनाए रखने में या ख्यातिलब्ध व्यक्ति का दर्जा पाने में हो। उस दृष्टिकोण से मार्क्सवाद एक गंभीर खतरा है न केवल इसलिए कि यह उत्तरआधुनिक नारीवाद के सैध्दांतिक बुनियादों के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है बल्कि इसलिए भी कि यह ज्ञान के कुछ निश्चित रूपों के ऐतिहासिक, भौतिक यह काफी हद तक स्पष्ट है कि कैटी रोइफे, नाओमी वुल्फ और केमिली पेजिला जैसी महिलाएं नारीवाद का उपयोग समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के बजाए, किसी प्रकार अपनी पुस्तकों, छवियों और आजीविकाओं को आगे बढ़ाने के लिए विपणन की कार्यनीति के रूप में करती हैं। लेकिन जब तक अनेक नारीवादी अपने विशेषाधिकार तथा उन तरीकों, जिनसे हम सभी कम विशेषाधिकृत महिलाओं और पुरुषों के शोषण से 'फायदा' उठाते हैं, को अस्वीकार नहीं करते, नारीवाद एक राजनीतिक परियोजना होने के बजाए एक पेशागत कार्यनीति बन जाने के खतरे में रहेगा।
अब हम संक्षेप में मीडिया तमाशा और ओ.जे. सिंपसन के मुकदमे की ओर लौटें। सितारों की दुनिया के तामझाम और न्यायालय कक्ष के अतिसंवेगी नाटक के अलावा, न्यायालय कक्ष एक बहुसांस्कृतिक समाज लग रहा था, एक ऐसा स्थान जहां स्थायी अस्मिताएं (आइडेंटिटीज) पल्लवित हो रही थीं। न्यायाधीश मंडली के सदस्य अफ्रीकी-अमरीकी थे। एक महिला और एक अफ्रीकी-अमरीकी पुरुष बहस में प्रमुख भाग लेने वाले थे। एक गंभीर मुद्रा वाला एशियाई-अमरीकी व्यक्ति कोर्टरूम की अध्यक्षता कर रहा था। लेकिन एक ऐसे समय में जब समाज के शीर्ष में पूंजीवाद का व्यापक सुदृढ़ीकरण हो रहा हो, क्या लोग वाकई इस तमाशे में यकीन करते हैं? एक ऐसे समय में जब अश्वेतों की बेरोजगारी श्वेतों की दुगुनी से भी अधिक हो, जब महिलाओं, पुरुषों और उनके परिवारों के अधिकारों को खुलेआम और क्रूरतापूर्ण ढंग से छीना जा रहा हो, जब समस्त अमरीका में महिला तथा पुरुष समलैंगिकों पर आक्रमण हो रहा हो और जब हड़ताली मजदूरों को पुलिस द्वारा डेकाटूर, इलिनॉइस जैसे स्थानों में गैस भर कर मारा जा रहा हो तो क्या लोग सचमुच बहुसांस्कृतिक समाज की छवि में विश्वास करते हैं?
अंतत: लोग क्या चाहते हैं या उनकी पहचान कैसे करते हैं मीडिया तमाशा इस बारे में हम लोगों को कुछ नहीं बताता। ऐसे समय में जब मीडिया की प्रस्तुति और सच्चाई में इतनी कम समानता हो, शायद ही कोई सच्चाई और कपोल-कल्पना के बीच ंफर्क कर पाएगा। क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की संभावना में जिनका विश्वास बरकरार है वे आलोचनात्मक चेतना की शक्ति तथा उन उपकरणों में विश्वास नहीं छोड़ सकते जो लोगों (खास तौर पर अस्थिर आर्थिक भविष्य का सामना करने वालों) को अपनी स्थिति को समझने तथा इसके विरुध्द लड़ने में उन्हें सक्षम बनाते हैं, न कि इनसे महज समझौता करने में। यदि नारीवादी विश्लेषणों को विश्लेषणात्मक तथा राजनीतिक संसक्ति (प्रभावोत्पादकता का तो उल्लेख करने की आवश्यकता ही नहीं है) पर अपने किसी दावे को बरकरार रखना है तो यह बेहतर ढंग से समझने की आवश्यकता है कि उत्तरआधुनिकतावादी, नारीवादी या उनके मिले-जुले रूप, जिनको हममें से कुछ प्रोत्साहित करते हैं, दरअसल ये परियोजनाएं पूंजीवाद को बल प्रदान कर सकती हैं। ये परियोजनाएं विश्लेषण की उन श्रेणियों का त्याग कर, जो हमें समझने में सक्षम बनाती हैं, तंत्रगत शोषण के संबंधों के भीतर हमारी स्थितियों तथा वर्ग आधारों को भी उजागर करता है।उसको दुर्बोध बनाती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन की किसी परियोजना को अस्वीकार्य कर देती हैं।
स्थायी अस्मिताओं (आइडेंटिटीज) के विखंडन को उत्सव का कारण समझने के बनिस्बत हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि स्थायी अस्मिता को कैसे उन लोगों के लिए एक वस्तु में परिवर्तित कर दिया गया है जिनके पास इसके उपभोग के लिए पूंजी है और किस प्रकार पूंजीवादी तंत्र ने समाजवादी राजनीति के संघटन के विरुध्द कार्य किया है (और कार्य करता रहेगा)। स्थायी अस्मिता की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स), जो दमन के प्रतिस्पर्ध्दी दावों की अंतहीन सम्मिलित प्रार्थना में समूहों को एक दूसरे के खिलाफ केवल खड़ा करने का काम करती है, के स्थान पर हम लोगों को दमन की तंत्रगत प्रकृति की सशक्त समझ विकसित करने की आवश्यकता है। हमें यह विचार करने की आवश्यकता है कि किस हद तक स्थायी अस्मिता की राजनीति तंत्र के लिए चुनौती नहीं बल्कि उसका यह उत्पाद है। किस हद तक यह एक वैश्विक तंत्र के रूप में पूंजी के विश्वीकरण द्वारा उत्पादित अस्मिता का वस्तूकरण तथा बाजार विखंडन की अभिव्यक्ति है। क्योंकि जो विरोधात्मक रणनीतियां प्रतीत हो रही हैं, हो सकता है वे दमन के संकेत साबित हों।
(यह निबंध इलेन मिकसिंन्स वुड और जॉन बेलेमा फास्टर संपादित किताब 'इतिहास के पक्ष में' से साभार लिया गया है, इसके प्रकाशक हैं ग्रंथ शिल्पी,दिल्ली)

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