गुरुवार, 27 जनवरी 2011

फासीवादी ताकतें मार्क्सवाद का विरोध क्यों करती हैं ? - रोजे बूर्दरों


      जहां तक मार्क्सवाद और मार्क्सवादी पार्टियों का संबंध है, फासीवादी आंदोलनों में प्रयुक्त शब्द बहुत सटीक नहीं है। फासीवादी जानबूझ कर गोलमोल शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। और 'मार्क्सवाद' 'समाजवाद' 'कम्युनिज्म' के बीच फर्क नहीं करते और कम्युनिस्ट आंदोलन और सोशल-डेमोक्रेसी के बीच भी फर्क नहीं करते। इन आंदोलनों के संस्थापक और विचारक जब अपने आंदोलन के सिद्धांत परिभाषित करते हैं तो मार्क्सवादी विचारों के नकार से ही शुरू करते हैं। इसके अनगिनत उदाहरण हैं। 21 जून 1921 को सत्ता प्राप्ति के पहले मुसोलिनी ने संसद में मार्क्सवाद के विध्वंस को सारभूत उद्देश्य के रूप में चिह्नित किया था :
'हम अपनी पूरी शक्ति के साथ समाजीकरण, राज्यीकरण और सामूहिकीकरण की कोशिशों का विरोध करेंगे। राजकीय समाजवाद से हम भर पाए। हम आपके जटिल सिध्दांतों, जिन्हें हम सत्य और नियतिविरोधी करार देते हैं, के विरुध्द अपना सैध्दांतिक संघर्ष छोड़ेंगे नहीं। हम नकारते हैं कि दो वर्गों का अस्तित्व है, क्योंकि और बहुतों का भी अस्तित्व है। हम नकारते हैं कि आर्थिक नियतिवाद के जरिए समस्त मानव-इतिहास की व्याख्या की जा सकती है। हम आपके अतंर्राष्ट्रीयतावाद को नकारते हैं। क्योंकि यह एक बुध्दि-विलास है। इसे केवल उन्नत वर्ग व्यवहार में ला सकते हैं जबकि आम जनता हताश है और अपनी जन्मभूमि से जुड़ी हुई हैं।'
('इस्तुआर द्यू फासिज्म आनीताली' द्वारा आर. पेरिस, पृष्ठ 298 में उध्दृत)
       और बाद में, सत्तासीन होने के बाद मुसोलिनी ने मिलान में मजदूरों को संबोधित करते हुए कहा कि उसकी सरकार के कार्यों के तीन प्रमुख सिध्दांत हैं: राष्ट्र के, जिसका अस्तित्व है और जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता, उत्पादन 'हित होते हैं, पूंजीपतियों के ही नहीं मजदूरों के भी, कि उत्पादन बेहतर हो, और अधिकतम हो', और मेहनतकशों के हितों की रक्षा हो। अंतर्राष्ट्रीयता और वर्ग संघर्ष के संघर्ष काफी स्पष्ट है। और उन पर वालिंजियानी की टिप्पणी है :
'मार्क्सवाद का विरोध हमारी नियति है। इस नजरिए से फासीवाद द्वारा निर्मित मजदूर आंदोलन की प्रेरणा का आदर्श और सिद्धांत निश्चित ही समाजवादी आदर्श के विरुद्ध है।'
(वालिंजियानी, 'ल कारपोरालिज्म फासिस्त' 'दला नूवेल रिव्यू क्रितीक', पेरिस 1935, पृष्ठ 19)
     नात्सीवाद में भी यही सैद्धांतिक आधार है। हिटलर मुसोलिनी के प्रति अपने सम्मान को इस तरह परिभाषित करता है :
'जो बात मुसोलिनी को आज के महापुरुषों की कोटि में रखती है वह है इटली में मार्क्सवाद की हिस्सेदारी को नकारने का निश्चय, उसका विनाश और अंतर्राष्ट्रीयवाद से अपने देश की रक्षा'
(माइन कांफ, पृष्ठ 679)
हिटलर सबसे पहले सर्वाधिक स्पष्टता के साथ वह घोषणा करता है कि जर्मनी के विनाश के लिए जिम्मेदार मार्क्सवाद को समाप्त करना सबसे बड़ी समस्या है। और जनता के बीच उसका विकल्प बनने में समर्थ एक नई विचारधारा को स्थापित
करना है :
'इस क्षण जबकि एक पार्टी (मार्क्सवादी पार्टी) समस्त दार्शनिक धारणाओं के साथ एक स्थापित व्यवस्था के विरुध्द आक्रामक है, अगर प्रतिकार में एक नई राजनीतिक शब्दावली नहीं स्थापित होती और कमजोरियों को दूर करते हुए एक साहसिक और निर्मम आक्रमण की घोषणा के साथ रक्षा में नहीं उतरती तो यह आपराधिक होगा।'
(माइन कांफ, पृष्ठ 375)
कुछ पृष्ठ आगे अपने नस्लवादी अवधारणा के सिद्धांतों की व्याख्या के बाद वह अपने प्राथमिक उद्देश्य की गुणवत्ता चिह्नित करता है।
'जनता के लिए नस्लवादी अवधारणा व्यक्ति का मूल्य उद्धाटित करती है,
और उसके माध्यम से विनाशक मार्क्सवाद के रू-ब-रू उसे संगठक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है' (जोर लेखक का)
(माइन कांफ, पृष्ठ 381)
इसी आशय का आह्वान स्पेन के संसद में अंतोनियो प्रीमो ने अक्टूबर 1924 के विद्रोह के बाद एक नई विचारधारा की आवश्यकता के रूप में किया था :'क्रांति की शक्ति इस बात से पैदा होती है कि क्रांतिकारियों के पास एक प्रकार की रहस्यात्मकता होती है। वह बुरी होती है, इसे मैं मानता हूं। लेकिन अंतत: वह एक क्रांतिकारी रहस्यात्मकता होती है, जिसके रू-ब-रू न तो समाज, न ही सरकार, परिस्थितियों से स्वतंत्र एक शाश्वत कर्तव्य की रहस्यात्मकता प्रस्तुत करने की समझदारी दिखा पाएं हैं।
'... त्याग की स्वीकृति के लिए जो जरूरी है, वह है एक धर्म, एक देश, एक समाज की एक नई धारणा के लिए, एक पवित्र आवेग से भर जाना। यही वह आवेग है जिसने इन नेताओं को शक्ति दी है और उन्हें खतरनाक बना दिया है।' (एस.जी. पैन, 'फलांज इस्तुआर द्यू फासिज्म स्पेनियाल', (स्पानी फासीवाद का इतिहास) संपादक रूपदो इबोरिको, 1965, पृष्ठ 54)
तो इस प्रकार इस आंदोलन के संस्थापकों के पास मार्क्सवाद के क्रांतिकारी सिद्धांत के सामने एक विचारधारात्मक शून्य था। मार्क्सवाद के रू-ब-रू ऐसा कुछ भी नहीं था, जो लोगों को एकजुट कर पाता, जो जन के बीच उत्साह और आवेग जगा पाता। इसीलिए एक नया सिद्धांत गढना जरूरी था जो मार्क्सवाद के सामने टिक पाए। इसी बिंदु पर फासीवाद, नाजीवाद और फलांजवाद की प्रासंगिकता है, यहां तक कि मार्क्सवाद की आलोचना करीब-करीब उसी तरह सूत्रीकृत है जिस तरह मार्क्सवाद।
मार्क्सवाद को दो निरपेक्ष कार्यभार चिह्नित करते हैं वर्ग संघर्ष और अतंर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास। अतंर्राष्ट्रीयता व्यक्ति के अपनी जमीन के प्रति नैसर्गिक लगाव को ही भटका देता है, एक समुदाय से संबंध को बाधित करता है। इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन के आधार के स्रोत को ही सुखा देता है। वर्ग संघर्ष का सिद्धांत समाज के विभिन्न ग्रुपों की परस्परता को नष्ट करता है, व्यक्तिगत क्षमता का क्षरण करता है, बेहतर लोगों को ही निम्नतर स्तर तक पहुंचा देता है, व्यक्ति की अपने सामाजिक वर्ग में समायोजित होने में उपयोगी लाक्षणिकताओं को नजरअंदाज करता है। और इस तरह उसका अमानवीकरण हो जाता है। वर्ग संघर्ष का सिद्धांत समाज के विरुद्ध है। मार्क्सवाद स्वयं में सारत: विध्वंसक है, यह विशेषण प्राय: प्रयोग में आता है। फासीवादी आंदोलन के संस्थापकों की पैनी समझ थी कि उपस्थित सामाजिक व्यवस्था पर उग्र प्रश्न उठाने वाला एक मात्र सिद्धांत मार्क्सवाद है। (आगे चलकर विशेष रूप से चालक वर्गों की बात करते हुए इस सिद्धांत के सामाजिक प्रभाव का परीक्षण करेंगे।)
नि:संदेह इसीलिए यह तीनों आंदोलन मार्क्सवाद का विरोध यह कहते हुए करते हैं कि समस्त ब्रंह्मांड को संचालित करने वाली श्रेणीबध्दता के विरुद्ध अपनी समानता को खडा करने वाला मार्क्सवाद प्राकृतिक व्यवस्था के ही विरुद्ध है। यह सूत्रवत पुष्टि मार्क्सवाद के नकार को और ठोस ढंग से प्रस्तुत करती है।
इस प्रकार प्रकृतिविरोधी मार्क्सवाद की जीत समस्त सामाजिक संगठन को तहस-नहस कर देगी। इस तथ्य के अनुसार मार्क्सवाद सभ्यता को ही समाप्त कर देगा। संघर्ष का यह ठंडा और बर्फीला सिद्धांत समस्त अध्यात्मिकता को, और इस प्रकार जीवन के उद्देश्य को ही नकारता है। आंतोनियो प्रीमो के अनुसार :'मार्क्सवाद पाश्चात्य और ईसाई सभ्यता के विनाशक का उद्धत प्रादुर्भाव है। यह उस सभ्यता, जिसमें हम पहले पोसे गए हैं और जिसके मूलभूत मूल्यों को हम जीते हैं, के अंत का सूचक है। हम यह मानने से इंकार करते हैं कि यह स्वयं पुराना पड ज़ाएगा।(अंतोनियो प्रीमो, 'फलांज की उद्धोषणा 2 फरवरी, 1936')
'समाजवाद मजदूरों के अंदर से सारी अध्यात्मिकता बाहर कर देता है इसीलिए मजदूरों के लिए धर्म, देशप्रेम और जैसा कि रूस में हो रहा है, पारिवारिक कोमलता तक पर प्रतिबंध लग जाता है।'
(प्रीमो, 'नासियों ए जुसटिस सोसियाल' मई, 1934)
यह भी हो सकता है कि यह विध्वंसकता चारों ओर फैल जाए। भौतिकवाद शब्द की द्विअर्थी संभावना के आधार पर दार्शनिक भौतिकवाद और सभी आध्यात्मिक मूल्यों के नकार और केवल भौतिक संतुष्टि की खोज के बीच विभ्रम पैदा कर प्रीमो घोषित करता है कि मार्क्सवाद का सबसे ताजा रूप बोलशेविज्म है जिसके विनाशक कार्य रूस में उजागर हो रहे हैं। बोलशेविक वह है जो गरीबों की विपदाओं पर बिना ध्यान दिए सारी समृध्दि का उपभोग करता है। कुछ भी हो, जो अनैतिक है, नैतिकता से परे हैं, वह बोलशेविक है।
इससे भी बुरी बात यह है कि हिटलर अपने तर्कों से इन नतीजे तक पहुंचता है कि मार्क्सवाद की विजय धरती पर मानव जीवन का अंत साबित होगा :
'तब हमारी दुनिया लाखों साल पहले की तरह फिर शून्य से शुरू करेगी। धरती की सतह पर आदमी का नामो-निशान नहीं होगा। जब शाश्वत प्रकृति के निदेशों का उल्लंघन होता है तो वह निर्ममतापूर्वक बदला लेती है।'
(माइन कांप्फ, पृष्ठ 71)
       इस तरह मार्क्सवाद की मूलभूत विकृति स्थापित की जाती है। इसके अलावा चूंकि फासीवादी कार्यक्रमों में समाजवाद के कुछ तत्व उधार लिए गए हैं, मार्क्सवाद के खिलाफ कोई विचारधारात्मक कमजोरी दिखाना जरा कठिन होता है। इन कार्यक्रमों में बराबर समाजवाद का संदर्भ होते हुए भी मार्क्सवाद को दूर ही रखा जाता है। अंत में उदारवाद विरोध अगर अंशत: राज्य और व्यक्ति की सकारात्मक अवधारणा से जुडता है, जैसा कि इन तीनों ही आंदोलनों ने विकसित किया था, उदारवाद की आलोचना इस विचार पर आधारित है कि उदार राज्य मार्क्सवाद के खिलाफ प्रभावी संघर्ष में असमर्थ है। राजनीतिक स्तर पर उदार राज्य की जन्मजात कमजोरी उसे मार्क्सवाद के विरुध्द आवश्यक कदम उठाने से रोकता है।
     विचारधारा के स्तर पर न्याय संगत परिवेश के दर्शन के पास बृहत्तर जनता को आकर्षित करने वाली कोई जीवंतता नहीं है। मुसोलिनी अपने वक्तव्यों में उदार राज्य की कृतियों और सिद्धांत की नपुंसकता की भर्त्सना करता है। हिटलर घोषित करता है : 'एक ऐसा राज्य जो एक कोढी, मार्क्सवाद वास्तव में यही तो है, के विकास को नहीं रोक सका वह भविष्य के किसी अवसर का क्या इस्तेमाल कर पायेगा।' (माइन कांफ, पृष्ठ 175) वह गैर मार्क्सवादी सभी पार्टियों की भर्त्सना करता है क्योंकि वे किसी भी राजनीतिक दर्शन के लिए अक्षम हैं। अंतोनियो प्रीमो और आगे तक जाता है। हमने देखा है कि उसने यह तथ्य चिन्हित किया है कि समाज और सरकार एक क्रांतिकारी रहस्यात्मकता (रू4ह्यह्लद्बह्नह्वद्ग) के बरअक्स कोई नई रहस्यात्मकता प्रस्तुत नहीं कर सका है। वह जोर देकर कहता है कि मार्क्सवाद के विकास के लिए आर्थिक उदारवाद ही जिम्मेदार है।
'साम्यवाद का आना रोकने का एक ही गहरा और ईमानदार तरीका है पूंजीवाद को नष्ट करने का साहस।'
(ला फलांज अवां लेजेलेक्सियों द 1936)
राजनीतिक और विचारधारात्मक वंध्यता के कारण उदारवाद ही मार्क्सवाद को पोषित करता है। इसलिए वह पूर्णत: त्याज्य है।तर्कहीन विचारधाराएं इस प्रकार लगता है कि हर फासीवादी आंदोलन 'विध्वंसक' मार्क्सवाद का विरोध करना चाहता है। और इसी के विपरीत उदारवाद के सामने एक ऐसी प्रभावी विचारधारा रखना चाहता है जो उदार राज्य का विरोध कर सफल होने वाले मार्क्सवाद की ऊर्जा के बराबर ऊर्जा रखता हो। इसके लिए जरूरी होगा विचारधारात्मक शून्य को भरना, लेकिन इस नई विचारधारा की अंतर्वस्तु के परीक्षण से पहले उन रूपों का परीक्षण करना जरूरी है, जो वह धारण कर सकती है। क्योंकि अगर एक नई विचारधारा का औचित्य प्रभाविता के संदर्भ में स्थापित करना है अर्थात इस अर्थ में कि उसका समाज पर अपेक्षित प्रभाव क्या है, तो उसका मतलब होगा कि एक सुसंगत सिद्धांत जो तर्क पर आधारित हो, जो संसार की एक धारणा प्रस्तुत करता हो और जो व्यापक अवधारणा प्रस्तुत करता हो, आदि उतना आवश्यक नहीं है जितना ऐसे नारों का समुच्चय जो जनमत गढ सके। इसके अलावा यह भी जरूरी है कि ये नारे विश्वसनीय होंक्योंकि इनके अनुकूल पूर्वग्रहों को लाभ मिल सकता है, क्योंकि ऐसा न होने पर वह जनता पर मार्क्सवादी प्रभाव को रोक नहीं सकेगा। होना यह चाहिए कि वह इस प्रकार निरपेक्ष सत्य को स्थापित करे कि वह शब्दश: अप्रतिकार्य हो जाए। लेकिन कौन ही सर्वोत्तम तर्कसंगत और वैज्ञानिक थियोरी निरपेक्ष सत्य की बात कर सकती है? अगर कोई सिद्धांत अपने को तर्क संगतता पर जोर देते हुए प्रस्तुत करता है तो वह अपने नियोजित लक्ष्य को नहीं पा सकता। इन आंदोलनों के संस्थापक स्वेच्छा से मिस्तीक की बात करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रीमो क्रांतिकारी मिस्तीक के बरअक्स 'शाश्वत कर्तव्य का मिस्तीक' प्रस्तुत करता है। नात्सियों के यहां नस्ल का मिस्तीक, फासीवाद में राष्ट्र का। 'हमने अपना मिथ रचा है। हमारा मिथ है राष्ट्र।' (मुसोलिनी, 1922) जर्मनी में नस्लवाद 'बीसवीं शताब्दी का मिथ है।'
जर्मन और इतालवी विचारधाराओं ने अपने सिद्धांतों के अतर्कसंगत आधारों पर जोर दिया है। नए फासीवादी राज्य का विश्लेषण करते हुए जेंतील याद दिलाता है कि एक प्रकार का निरंकुश उदारवाद फासीवादी के लिए अपरिचित नहीं हैं। लेकिन वह यह भी कहता है कि एक शक्तिशाली राज्य की अवधाराणा 'कमोबेश बौद्धिक जड़सूत्र' के अलावा कुछ नहीं है। इस अवधारणा का वास्तव में कोई आधार नहीं है। फासीवाद के कारण यह जड़सूत्र एक विचार-शक्ति, एक आवेग बन गया है। भीड़ और शक्तिशाली विचार के बीच तत्काल एक दिया स्थापित हो जाता है, जैसे उसे प्रकाश मिल गया हो। कर्म पर आवेग हावी हो जाता है। इस प्रकार सुसंगत सिद्धांत से जुड़ाव के कारण गति नहीं पैदा होती है, उल्टे, इसके विपरीत, कर्म द्वारा जनता में विचारशक्ति एक अतर्कसंगत उद्गार और आवेश उद्वेलित करता है एक प्रकार से रहस्यात्मकता का उद्धाटन। इस प्रकार व्यक्ति और सिद्धांत के मिलन की तात्कालिकता नात्सियों में कम नहीं है। कार्ल श्मिट सिध्दांत की समझ और कर्म के प्रारंभ के लिए किसी तर्क संगत या भावात्मक मध्यस्थता को नकारता है।
उल्लेखनीय है कि एक संगत छवि तत्काल छवि या तुलना से बढ क़र लगती है वह स्वयं एक प्रेरणा होती है। हमारी अवधारणा को न तो किसी मध्यस्थ छवि की आवश्कयता है न प्रतिनिधि तुलना की। वह किसी दृष्टांत या बारीक प्रतिनिधित्व से नहीं आती है, न ही देकार्तवादी एक 'सामान्य विचार' से। वह तो एक तत्काल उपस्थित और व्यावहारिक धारणा है। (जोर लेखक काहोफे द्वारा उध्दृतनासिओनाल सोसिआलिज्म पार ले तेक्स्त, पृष्ठ 40)
कहना ही हो तो कहेंगे इस सिध्दांत का उत्स दैवीय है-हिटलर कहता नहीं है कि इसमें ईश्वर की प्रेरणा हैं? 'मैं तो सर्वशक्तिमान अपने रचयिता की प्ररेणा से काम करता हूं, यहूदियों के विरुध्द अपनी रक्षा करते समय मैं ईश्वर के कामों की ही रक्षा में संघर्ष करता होता हूं।' (माइन कांप्फ, पृष्ठ 72)
इस प्रकार, आधार कुछ विचार-शक्तियां होनी चाहिए जो लोगों को आवेग मुक्त कर सकें और ऊर्जा लामबंद की जा सकेकुछ निरपेक्ष सत्य जो बस विश्वास में ही अभिव्यक्त होते हैं। उन्हें बस आधारतत्व के रूप में घोषित किया जा सकता है वांछित तत्काल प्रभाविता के लिए यह जरूरी होता है।
विमर्श की प्रक्रिया इन्हीं संचालक सिध्दांतों से संचालित होती है। अकसर ही शुरुआत होती है कुछ अभिपुष्टियों से बिना किसी और बात का खयाल किए। इटालियन इनसाइक्लोपीडिया में फासीवाद की परिभाषा पर गौर करें तो उसमें कोई तर्कणा या बहस नहीं है बस कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक, अभिपुष्टियां हैं। ('फासीवाद है, 'फासीवाद की धारणा', 'फासीवाद का विचार' ऐसा है..) इसके अलावा सत्य का वाहक होने का विश्वास किसी व्याख्या को निरर्थक बना देता है। नेशनल सिंडिकलिज्म की व्याख्या इस प्रकार है : चूंकि वह सत्य का वाहक है और चूंकि सत्य एक ही होता है इसलिए नेशनल सिंडिकलिज्म को लेकर किसी भी प्रकार के विवाद की संभावना स्वीकार्य नहीं हैं।
विचारधारात्मक स्तर पर एक प्रदर्शनात्मक आकर्षण हो सकता है लेकिन उसमें भी पूर्वापेक्षा यही है कि न कोई विवाद हो न निरूपण। इसको विशेष रूप से माइन कांप्फ में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए 'जन और नस्ल' नामक अध्याय में नस्ल की असमानता की अभिपुष्टि को मान कर ही चला गया हैउसी पर यह बहस आधारित है कि आर्य श्रेष्ठ होते हैं और यहूदियों ने सारे विश्व पर अपना प्रभुत्व कायम कर रखा है। ज्यादा से ज्यादा यह पुष्टि पर्यवेक्षण पर आधारित की जाती है जिसे अपने में एक सबूत, एक बोध, स्वाभाविक, ऐतिहासिक या वैज्ञानिक की तरह पेश किया जाता है। इस प्रकार घोषित सत्य के प्रति एक सावधानी बरतने की बात कर दी जाती है। इस प्रकार तीनों ही आंदोलनों में समान रूप से श्रेणीबध्दता के सिध्दांत और जीवन के लिए संघर्ष के संदर्भ में एक नैसर्गिकता चिह्नित है जिसमें किसी तरह की समानता का कोई अस्तित्व नहीं है न व्यक्तियों के बीच, न नस्लों के बीच। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद और नस्ली असमानता को इतिहास में तथ्यसंगत और तथ्यपरक बताया गया है। इस बिंदु पर इन आंदोलनों की विचारधाराएं निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक नियति की तरह प्रस्तुत की गई है।
नात्सीवाद ने प्राकृतिक विज्ञान मेंवनस्पति संसार एवं जंतु संसार के उदाहरणों से दिखाया कि एक 'सिध्दांत है 'रचयिता का सिध्दांत और दूसरा है 'परजीविता' का। फिर वह परजीवियों से मनुष्यों के संघर्ष का उदाहरण लेता है और एक 'वैज्ञानिक' सिध्दांत प्रतिपादित करता है कि यह संघर्ष तभी खत्म होगा जब या तो परजीवियों का अंत हो जाए या मानव समाज का। यह बात मानव समाज पर भी लागू होती है क्योंकि नियम सार्विक (यूनीवर्सल) है और इसलिए मानवजाति बच सके इसके लिए परजीवियों का अंत होना चाहिए। इस प्रकार तर्क पूरी गंभीरता के साथ प्रयोग की पध्दति पर आधारित है। लेकिन इस तर्कणा की विकृति एकदम स्पष्ट है।
      1.     सिध्दांत रचयिता और परजीवी का निरपेक्ष सत्य, जिस पर सारी प्रस्तुति आधारित है, एक सामान्य अभिपुष्टि की तरह लिया गया है जिसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं समझी गई है।
      2.    समन्वयन के स्तर पर, जिससे झूठे तर्क जुटाए गए हैंजंतु विज्ञान की एक बात को सामाजिक संरचना पर लागू कर दिया गया है। इस तरह दिखाई कुछ भी पडे, यह सब है पूरी तरह अतर्कसंगत।
इस तरह हमें अतर्कसंगतता के स्तर पर पटक दिया जाता है। इस प्रकार हम ऐसी विचारधारा के रूबरू हैं जो उन मूलभूत सत्यों पर आधारित है जिन्हें निर्विवाद और जडसूत्र की तरह अभिपुष्ट मान लिया गया है। जिनका व्यक्ति और जन-समुदाय तत्काल साक्षात्कार करता है। लेकिन अगर हम प्रभाविता की कसौटी पर इसे कसें तो ये विचार शक्तियां खास एक प्रकार का व्यवहार चिन्हित करती हैं। यहीं जरूरत है कि सिध्दांत और व्यवहार के बीच संबंध पर इनकी सोच का विश्लेषण कर लिया जाए।
(साभार- फासीवाद : सिद्धांत और व्यवहार,लेखक-  रोजे बूर्दरों,अनुवाद-लालबहादुर वर्मा, प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी, बी-7,सरस्वती काम्प्लेक्स,सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर,दिल्ली-110092 ,मूल्य -275)  


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