जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सोमवार, 29 सितंबर 2014
मेडिसन स्क्वेयर के चाक्षुष आनंद की मोदीधुन
सोमवार, 22 सितंबर 2014
जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन के बहाने नए बंगाल की तलाश
पश्चिम बंगाल में विगत कई सालों में जिस तरह की जड़ता,हताशा और पराजय भाव का जन्म हुआ है उसने सभी जागरुक लोगों को चिन्ताग्रस्त किया है। चिन्ताएं इसलिए भी बढ़ी हैं क्योंकि वामदलों की साख घटी है, जनसंघर्षों के प्रति संशय और संदेह का भाव बढ़ा है। मध्यवर्ग में कदाचार और हिंसाचार के प्रति सहिष्णुता बढ़ी है। विश्वविद्यालय-कॉलेजों में व्यापक आतंक और कदाचार बढ़ा है। शिक्षक-बुद्धिजीवी-संस्कृतिकर्मियों की इमेज धूमिल हुई है। उन पर हमले बढ़े हैं। शासकों में अन्याय-हिंसा –भ्रष्टाचार-बर्बरता की नग्न हिमायत ने जन्म लिया है। सभ्य बंगाल अब असभ्य और बर्बर प्रतीत होने लगा है !
सभ्य बंगाली अपने को बंगाली कहने में लज्जित महसूस करने लगे हैं। बंगाल में लंपटई,दबंगई,कु-संगति का आज जितना सम्मान है उतना सभ्यता का सम्मान नहीं रह गया है। बुद्धिजीवियों को कल तक ओपिनियनमेकर माना जाता था लेकिन आज उनकी आवाज को कोई सुन नहीं रहा। कल तक ज्ञानी-गुणी-बुद्धिजीवी-संस्कृतिकर्मी-कलाकार –शिक्षक आदि को गर्व की नजर से देखा जाता था लेकिन आज वह सब गायब हो चुका है। यही वह परिवेश है जिसमें राजनीति में वाम की पराजय हुई और ममता बनर्जी का उदय हुआ और उसके सत्तारुढ़ होते ही असभ्यता का चौतरफा विस्तार हुआ। ममता शासन की एक ही बड़ी देन असभ्यता-असभ्यता-असभ्यता।
ममता ने जिस समय वाम के खिलाफ मोर्चा संभाला था बंगाल असभ्यता के शिखर था। हर क्षेत्र में सभ्यता के मानक नष्ट करने का काम वाम ने किया और इसकी प्रक्रिया आंरंभ होती है ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ। मुख्यमंत्री के तौर पर बुद्धदेव भट्टाचार्य का शासन असभ्यता के विकास का शासन है। उसकी स्वाभाविक परिणति ममता विजय में हुई। ममता ने वाम को राजनीति में हरा दिया लेकिन असभ्यता की मीनारों को तोड़ने की कोई कोशिश नहीं की बल्कि स्वयं असभ्यता की मीनारों पर जाकर बैठ गयी। सभ्य बंगाल में असभ्यता की मीनारें किसने बनायीं और समूचा समाज असभ्यता के नागपाश में कैसे बंध गया यह अपने आपमें दिलचस्प है।
बंगाल में असभ्यता के आख्यान की नींव कांग्रेस ने 1972-77 के फासीवादी दौर में रखी,माओवादियों,कांग्रेस और माकपा ने उसमें पानी डाला,सींचा और पल्लवित किया। ममता ने उसकी समूची फसल को बेचा और खाया। ममता की भाषा,भंगिमा,राजनीति,सांगठनिक जनाधार आदि ने कुल मिलाकर असभ्यता के अनुकूल दिशा में राजकीय संरचनाओं को मोड़ दिया। आज असभ्यता से मुक्ति के नाम पर जो विकल्प आ रहा है वह है भाजपा जो असभ्यता का अजगर है। संक्षेप में देखें तो वाम असभ्यता का बिच्छू था,तृणमूल असभ्यता का साँप और भाजपा असभ्यता का अजगर है। जाहिर है कोई भी सभ्य विकल्प इन सबके परे जाकर ही निकल सकता है। यही वो परिदृश्य है जिसको केन्द्र में रखकर जादवपुर विश्वविद्यालय के मौजूदा छात्र आंदोलन को देखा जाना चाहिए। यह आंदोलन क्षयिष्णु वातावरण में आशा की किरण की तरह है। यह आंदोलन सफल होगा कि नहीं यह तो भविष्य में तय होगा । लेकिन एक बात तय है कि जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने स्त्री के अपमान और उत्पीडन के मामले को जिस दृढ़ता और आस्था के साथ उठाया है उसने नए बंगाल के निर्माण की नींव डाल दी है। इस आंदोलन के साथ बंगाल ने असभ्यता के खिलाफ प्रतिवाद की शुरुआत कर दी है। इस आंदोलन की खूबी है कि इसके केन्द्र में स्त्री उत्पीडन का मुद्दा है। सभ्यता के नए आख्यान के निर्माण के लिए यह बिंदु बेहद महत्वपूर्ण है। आंदोलनकारी छात्र सरकार बनाने या गिराने के लिए आंदोलन नहीं कर रहे हैं बल्कि स्त्री के सम्मान ,सुरक्षा और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। स्त्री का बंगाल की राजनीति में मुद्दे के तौर पर केन्द्र में आना अपने आपमें बहुत ही मूल्यवान परिवर्तन का संकेत है। इस बिंदु से नए सभ्य बंगाल की संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं। जादवपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति आदि को हटाने की मांग तो इस मसले में ईंधन का काम कर रही है। जादवपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति द्वारा स्त्री उत्पीडन की घटना की उपेक्षा करना और उसे गंभीरता से न लेना एकसिरे गलत और निंदनीय कृत्य है। उपकुलपति यह भूल गए कि एक स्त्री के साथ उत्पीडन की घटना सामान्य रुटिन घटना नहीं है।उनका केजुअल और उपेक्षाभाव इस बात को भी दरशाता है कि बौद्धिकों में किस तरह की स्त्रीविरोधी मानसिकता घर कर गयी है। उपकुलपति के रवैय्ये को देखकर यही लगता है बंगाल का बौद्धिक वातावरण बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। यहाँ के बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों में स्त्री के सम्मान और सुरक्षा के प्रति कोई सचेतनता नहीं बची है। दो सप्ताह से ज्यादा समय हो चुका है लेकिन बंगाल के तथाकथित बुद्धिजीवीवर्ग की आवाज और प्रतिवाद को हमने कहीं पर भी नहीं देखा। आखिरकार वे चुप क्यों हैं ? उनके सामने वे कौन सी बाधाएं जिनके कारण अपने चारों ओर होनेवाली असभ्यता की घटनाओं को मूकदर्शक की तरह देख रहे हैं और उनको कभी सड़कों पर प्रतिवाद करने का मन नहीं होता ! स्त्री की अवमानना और उत्पीडन की विगत तीन साल में सैंकड़ों घटनाएं हुई हैं लेकिन बुद्धिजीवी लंबी तानकर सोए हुए हुए हैं। बौद्धिकता का इस तरह का बेसुधभाव तो बंगाल ने कभी नहीं देखा !
आज जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र दोपहर 12बजे आमसभा करने जा रहे हैं और वे अपने आंदोलन की भावी योजना बनाएंगे। हमें उम्मीद है कि वे सही दिशा में कदम उठाएंगे।वे लंबे समय से कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे हैं, उन्होंने उपकुलपति का घेराव किया और उनके घेराव को पुलिस हस्तक्षेप के जरिए तोड़ा गया, छात्रों को पुलिसवालों ने निर्ममता से पीटा अनेक छात्र घायल हुए और इसके प्रतिवाद में हजारों छात्रों ने विशाल जुलूस निकाला और राज्यपाल को जाकर ज्ञापन दिया। इस समस्या के सम्मानजनक समाधान की दिशा में राज्य सरकार कोई प्रयत्न करती नजर नहीं आ रही। उलटे शिक्षामंत्री ने सबसे असभ्य बयान दिया है। उन्होंने कहा है जिन छात्रों को वीसी पसंद नहीं है वे जादवपुर विश्वविद्यालय छोड़कर अन्यत्र चले जाएं। हम इस बयान की निंदा करते हैं। साथ ही कहना चाहते हैं विश्वविद्यालय राज्य सरकार के शिक्षामंत्री और वीसी की जागीर नहीं है, यह छात्रों और बंगाल की संपदा है। शिक्षामंत्री भूल रहे हैं कि यदि जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र अपनी मांगों पर अड़ गए तो समूची ममता मंडली को बंगाल के बाहर भाड़े के घर खोजने होंगे। वे यह देख ही नहीं पा रहे हैं कि छात्रों के प्रतिवाद की अग्नि में बंगाल की असभ्यता धू धू करके जल रही है।
रविवार, 21 सितंबर 2014
कार्ल मार्क्स और सर्वहारा की तानाशाही
सर्वहारा की तानाशाही का मतलब कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही नहीं है। व्यवहार में अनेक पूर्व समाजवादी देशों में इस अवधारणा का इसी रुप में इस्तेमाल किया गया। पूर्व समाजवादी देशों में सर्वहारा की तानाशाही का जिस तरह दुरुपयोग हुआ उससे यह धारणा विकृत हुई और इसकी गलत समझ प्रचारित हुई। मुश्किल यह है कि एक तरफ बुर्जुआजी का कु-प्रचार और दूसरी ओर कम्युनिस्टों के द्वारा इस धारणा का भ्रष्टीकरण ये दो चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं। कार्ल मार्क्स की अनेक धारणाओं को इन दोनों ओर से गंभीर खतरा है। तीसरा खतरा सोशल मीडिया ने पैदा किया है। इसके यूजरों का एक बड़ा हिस्सा है जो मार्क्सवाद को एकदम नहीं जानता लेकिन मार्क्सवाद ,साम्यवाद और उससे जुड़ी धारणाओं के बारे में आए दिन फेक प्रतिक्रियाएं देते रहते हैं। यहां हम ''सर्वहारा की तानाशाही'' के बारे में मार्क्स के विचारों के विवेचन तक सीमित रखेंगे।
मौजूदा दौर में हमारे समाज पर विश्वव्यापी वित्तीय संस्थाओं ,बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों का नियंत्रण है। वे ही तय कर रहे हैं कि देश और दुनिया में क्या होगा ?किस तरह का विकास होगा और किस तरह के सामाजिक मूल्य और राजनीतिक संरचनाएं काम करेंगी? इन संस्थाओं के निदेशकों को जनता कभी नहीं चुनती,यानी आज दुनिया को वे लोग चला रहे हैं जिनका चयन जनता नहीं करती।जबकि इनके फैसलों से करोड़ों लोग सीधे प्रभावित होते हैं।ये ही वे लोग हैं जिन्होंने सत्तादास की नयी राजनीतिक श्रेणी निर्मित की है जो सरकार चलाती है।सतह पर सरकारें कभी –कभी अपने इन आकाओं के खिलाफ फैसले लेती हैं, टैक्सचोरी के आरोप लगाकर जुर्माना वसूलती हैं,किसी न किसी अपराध में उनके बड़े अफसरों को गिरफ्तार भी करती हैं। यहां तक कि उनके ऊपर असामाजिक आचरण का आरोप तक लगाती हैं। दिलचस्प बात यह है कि जिनको मार्क्स में तानाशाही नजर आती है लेकिन उनको वित्तीय-संस्थाओं की तानाशाही नजर नहीं आती।बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों के मालिकों के आचरण में कहीं तानाशाही नजर नहीं आती।जबकि ये संस्थाएं खुलेआम अ-लोकतांत्रिक व्यक्तियों के निर्देशन में काम करती हैं। सच्चाई यह है कि मौजूदा पूंजीवादी समाज ने मानवता की अपूरणीय क्षति की है। इसके बावजूद हमारा पूंजीवाद के प्रति आकर्षण किसी भी तरह कम नहीं हो रहा। हम इस या उस पूंजीवादी दल के अनुयायी होने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। हमें कांग्रेस से नफरत है या भाजपा या बसपा या सपा आदि से नफरत है लेकिन अंततः हम यही चाहते हैं कि कोई न कोई पूंजीवादी दल सत्ता में आए। जबकि पूंजीवाद की जनविरोधी,लोकतंत्र विरोधी भूमिका के प्रमाण पग-पग पर बिखरे पड़े हैं।इनकी ओर हम कभी देखते तक नहीं हैं और आए दिन कम्युनिस्टों और मार्क्सवादियों पर हमले करते रहते हैं। मार्क्सवादियों पर किया गया प्रत्येक हमला बर्बर पूंजीवाद की सेवा ही माना जाएगा। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसे ध्यान रखें और मार्क्स प्रतिपादित ''सर्वहारा की तानाशाही'' की अवधारणा पर विचार करें।
मार्क्स ने 'फ्रांस में गृह-युद्ध' नामक कृति में विस्तार के साथ अपने लोकतांत्रिक नजरिए का प्रतिपादन किया है। मार्क्स ने रेखांकित किया है कि मजदूरवर्ग कभी भी राज्य की तैयारशुदा मशीनरी के साथ हाथ मिलाकर काम नहीं कर सकता।क्योंकि राज्य की मशीनरी का मकसद और मजदूरवर्ग के मकसद में अंतर है। दूसरा कारण यह कि राज्य मशीनरी में यथास्थितिवाद के प्रति पूर्वाग्रह भरे होते हैं। आज हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें अनेक अ-लोकतांत्रिक चीजें मुखौटे लगाकर सक्रिय हैं वे अलोकतांत्रिक हितों की खुलेआम रक्षा कर रहे हैं।
मार्क्स के लोकतांत्रिक स्व-शासन के मॉडल को देखना हो तो सन् 1871 के पेरिस कम्यून के शासन को गंभीरता से देखा जाना चाहिए। यह वह दौर है जिसमें कुछ समय के लिए फ्रांस के मजदूरों और आम जनता ने शासन अपने हाथों में ले लिया था। 'फ्रांस में गृहयुद्ध' नामक कृति में मार्क्स ने बताया है कि कम्यून का अर्थ क्या है ? यह मूलतः नगरपालिका के स्थानीय कौंसलरों का शासन है, जिनमें अधिकतर कामकाजी लोग थे,ये लोकप्रिय मतदान के जरिए चुनकर आए थे और उनको जनता को वापस बुलाने का भी अधिकार था। यहां पर उनको मजदूरों की मजदूरी के बराबर काम करने के लिए वेतन मिलता था। कोई विशेषाधिकार या विशेष सुविधाएं उनके पास नहीं थीं। स्थायी सेना समाप्त कर दी गयी थी।पुलिस को कम्यून के प्रति जबावदेह बनाया गया था।कम्यून आने के पहले फ्रांस के राज्य,कमाण्डरों और पादरियों के हाथों में सत्ता हुआ करती थी,कम्यून का शासन स्थापित होने के बाद ये सब सार्वजनिक जीवन से गायब हो गए। शिक्षा संस्थानों के दरवाजे आम जनता के लिए खोल दिए गए।शिक्षा को राज्य और चर्च के दखल से मुक्त कर दिया गया।मजिस्ट्रेट,जज और सार्वजनिक पदों पर काम करने वालों का जनता चुनाव करती थी। वे जनता प्रति जबावदेह थे और जनता को उनको वापस बुलाने हक भी था। कम्यून के शासन ने निजी संपत्ति को भी खत्म कर दिया था।उसकी जगह सामुदायिक उत्पादन ने ले ली थी। पूंजीवादी वर्गीय शोषण को खत्म करके सामाजिक जनतंत्र की नींव रखी गयी।स्थायी सेना को खत्म करके जनता को हथियारबंद कर दिया गया।
पेरिस कम्यून की स्थापना जनता के द्वारा चुने गए सभासदों के जरिए की गयी। मार्क्स ने लिखा है ''कम्यून नगर सभासदों को लेकर गठित हुआ था,जो नगर के वार्डों से सार्विक मताधिकार द्वारा चुने गए थे,जो उत्तरदायी थे और साथ ही किसी भी समय हटाये जा सकते थे।कम्यून के अधिकांश सदस्य स्वभाववतया मजदूर अथवा मजदूर वर्ग के जाने –माने प्रतिनिधि थे। कम्यून संसदीय नहीं ,बल्कि एक कार्यशील संगठन था,जो कार्यकारी और विधिकारी दोनों कार्य साथ-साथ करता था।''( का,मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स,पेरिल कम्यून,प्रगति प्रकाशन, 1980, पृ.84) पुलिस को कम्यून के प्रति जबावदेह बनाया गया और यही काम प्रशासन के अन्य अंगों के बारे में भी किया गया। कम्यून के सदस्यों को वही मजदूरी मिलती थी जो मजदूरों को मिलती थी। विभिन्न किस्म के भत्तों का अंत कर दिया गया।किसी भी विभाग के पास कोई विशेषाधिकार नहीं थे, सब कुछ कम्यून के हवाले था।पादरियों को सार्वजनिक पदों से मुक्त करके एकांत में जीने के लिए भेज दिया गया। उन्हें धार्मिक महात्माओं की तरह जीवन-यापन करने के लिए कहा गया।इसी तरह विज्ञान को भी वर्गीय-पूर्वाग्रहों और सरकारी दबावों से मुक्त कर दिया गया। चर्च की संपत्ति जब्त कर ली गयी। बंद पड़े वर्कशाप और फैक्ट्रियों को मुआवजे की शर्त के साथ खोल दिया गया । वर्ग-संपत्ति को खत्म कर दिया गया।
कम्यून के संचालक यह नहीं मानते ते कि वे कभी गलती नहीं कर सकते। उनकी जानकारी में यदि कोई गलती लायी जाती थी तो वे उसे तुरंत दुरुस्त करते थे।उनकी कथनी और करनी में साम्य था। वे जो कहते थे वही करते थे। पेरिस कम्यून स्थापित होने के बाद पेरिस की शक्ल ही बदल गयी। भ्रष्ट आडंबरयुक्त पेरिस खत्म हो गया। मुर्दाखाने में लाशें न थीं,रात को चोरियां होना बंद हो गयीं,राहजनी बंद हो गयी।फरवरी 1848 के बाद पेरिस की सड़कें पहलीबार निरापद हुईं। सड़कों पर पुलिस का पहरा नहीं होता था।पेरिस की वेश्याएं गायब हो गयीं।हत्या,चोरी और व्यक्तियों पर हमले की घटनाएं एकदम बंद हो गयीं। यही वह शासन है जिसको उस समय ''सर्वहारा की तानाशाही'' का नाम दिया गया। उस समय इसका वह अर्थ नहीं था जो इन दिनों प्रचारित किया जाता है।
मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन ने लिखा है कि उस समय इस पदबंध का अर्थ था ''लोकप्रिय लोकतंत्र''। ''सर्वहारा की तानाशाही'' का सामान्य अर्थ था बहुमत का शासन। आज ''तानाशाही'' का जो अर्थ लिया जाता है वह अर्थ मार्क्स के जमाने में नहीं था। आजकल तानाशाही का अर्थ है संविधान का उल्लंघनकर्ता। असल में कार्ल मार्क्स ने ''सर्वहारा की तानाशाही''पदबंध लूइ ओग्यूस्त ब्लांकी (1805-1881) से लिया। ब्लांकी फ्रांसीसी क्रांतिकारी थे और उन्होंने ही इस पदबंध को जन्म दिया। उनकी नजर में ''सर्वहारा की तानाशाही'' का अर्थ था साधारण जनता का स्व-शासन। मार्क्स ने भी इसी अर्थ में इस पदबंध का इस्तेमाल किया है। उल्लेखनीय है लूइ ओग्यूस्त ब्लांकी बाद में पेरिस कम्यून के जनता के द्वारा चुने गए राष्ट्रपति बने लेकिन उस समय जेल में डाल दिए गए थे।
कार्ल मार्क्स और लोकतंत्र
कार्ल मार्क्स के बारे में मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों तक अनेक मिथ प्रचलित हैं।इन मिथों में एक मिथ है कि मार्क्स का लोकतंत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है,मार्क्स लोकतंत्र विरोधी हैं। फलश्रुति यह कि जो मार्क्स को मानते हैं वे लोकतंत्र विरोधी होते हैं। सच्चाई इसके एकदम विपरीत है।मार्क्स ने अपना जीवन रेडीकल या परिवर्तनकामी लोकतांत्रिक नागरिक के रुप में आरंभ किया। कालान्तर में वे इस मार्ग पर चलते हुए क्रांतिकारी बने। अपने व्यापक जीवनानुभवों के आधार पर मार्क्स ने तय किया कि लोकतंत्र को वास्तव लोकतंत्र में रुपान्तरित करना बेहद जरुरी है।
हममें से अधिकांश लोकतंत्र के प्रचलित रुप को मानते और जानते हैं। लेकिन जेनुइन लोकतंत्र को हम लोग नहीं जानते अथवा उसे पाने से परहेज करते हैं। कार्ल मार्क्स के समग्र लेखन और कर्म पर विचार करें तो पाएंगे कि वे राजसत्ता की परमसत्ता के विरोधी थे। प्रसिद्ध ब्रिटिश मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार मार्क्स जनता की लोकप्रिय संप्रभुता के पक्षधर थे। इसका एक रुप संसदीय लोकतंत्र है। वे सिद्धांततः संसद के विरोधी नहीं थे। वे मात्र संसद में ही लोकतंत्र के पक्षधर नहीं थे उसके आगे जाकर वे वास्तव अर्थों में स्थानीय,लोकप्रिय संप्रभु,स्वायत्त शासन के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि लोकतंत्र में सभी संस्थानों को स्वायत्तता प्राप्त हो। नागरिक समाज के सभी संस्थानों को स्वायत्तता मिले।मार्क्स चाहते थे कि इस स्वायत्तता को राजनीतिक से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक विस्तार दिया जाय।इस अर्थ में वे आत्म निर्भर सरकार के पक्षधर थे।
टेरी इगिलटन ने लिखा है कि मार्क्स राजनीतिक अभिजात्यवर्ग तक सीमित मौजूदा लोकतांत्रिक सरकार के विरोधी थे।मार्क्स का मानना था नागरिक की स्वशासन में निर्णायक भूमिका होनी चहिए। वे अल्पमत पर बहुमत के शासन के मौजूदा सिद्धांत के विरोधी थे। वे मानते थे कि नागरिक स्वयं राज्य पर शासन करें न कि राज्य उन पर शासन करे। मार्क्स का मानना था लोकतंत्र में राज्य का नागरिक समाज से अलगाव हो गया है। इन दोनों के बीच में सीधे अन्तर्विरोध पैदा हो गया है। मसलन् राज्य की नजर में अमूर्त रुप में सभी नागरिक समान हैं। जबकि वे दैनंदिन जीवन में असमान हैं। नागरिकों का सामाजिक अस्तित्व अन्तर्विरोधों से ग्रस्त है। जबकि राज्य उन सबको समान मानता है। राज्य ऊपर से समाज को निर्मित करने वाले की इमेज संप्रेषित करता है।जबकि उसकी यह इमेज तो सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्बन है। इगिलटन ने लिखा है राज्य पर समाज निर्भर नहीं है बल्कि समाज पर राज्य परजीवी की तरह निर्भर है। लोकतंत्र में सब उलटा –पुलटा हो जाता है। पूंजीवाद ऊपर आ जाता है और लोकतंत्र नीचे चला जाता है। कायदे से लोकतंत्र को ऊपर यानी राजसत्ता का संचालक होना चाहिए लेकिन उलटे पूंजीवाद राज्य का संचालक बन जाता है। इसका अर्थ है कि समस्त संस्थानों को संचालित लोकतंत्र नहीं करता बल्कि पूंजीवाद संचालित करने लगता है।
मार्क्स का लक्ष्य था राजसत्ता और समाज के बीच के अंतराल को कम किया जाय।राजनीति और दैनंदिन जीवन के बीच के अंतराल को कम किया जाय। वे चाहते थे कि लोकतांत्रिक ढ़ंग से राज्य और राजनीति दोनों की भूमिका को स्वशासन के जरिए खत्म किया जाय।मसलन् समाज के पक्ष में राजसत्ता का अंत किया जाय,दैनंदिन जीवन के सुखमय विकास के लिए राजनीति का अंत किया जाय।इसी को मार्क्सीय नजरिए से लोकतंत्र कहते हैं।दैनंदिन जीवन में स्त्री और पुरुष अपने हकों को प्राप्त करें यही उनकी कामना थी,मौजूदा लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष के हकों को राजसत्ता ने हड़प लिया है।टेरी इगिलटन के अनुसार समाजवाद तो लोकतंत्र की पूर्णता है वह उसका नकार नहीं है। हमें सोचना चाहिए कि मार्क्स के इस नजरिए में आपत्तिजनक क्या है जिसके लिए उन पर तरह-तरह के हमले किए जाते हैं।
शनिवार, 20 सितंबर 2014
इमेजों के विभ्रम में कैद मोदी
नेता कूटनीतिक क्षणों में मुसकराते हैं ,दांत नहीं दिखाते! मोदी भूल ही गए कि दाँत दिखाते हुए हँसना राजनयिक सभ्यता का उल्लंघन है।दूसरी भूल यह हुई कि वे बे-मौसम हँस रहे थे, कूटनीति गंभीर कार्यव्यापार है,यह बच्चों की हँसी -ठिटोली नहीं है!
मोदी को अपनी कायिक भाषा को रुपान्तरित करना होगा। उनका अनौपचारिक भाव इमेजों के जरिए विलोम रच रहा है। राजनयिक भावबोध के समय परंपरा ,सहजता ,नियम और सभ्यता का ख्याल रखा जाना चाहिए। भारत में इमेजों को लोग नहीं पढ़ते लेकिन चीन में पढ़ते हैं, चीन में मोदी का इमेज संदेश अच्छा नहीं गया है।मोदीजी आगे अमेरिका जाने वाले उनको कूटनीति के अनुरुप इमेज बनाने पर ध्यान देना होगा,वरना कैमरा उनको कहीं का नहीं छोड़ेगा।
शुक्रवार, 19 सितंबर 2014
वृन्दावन की विधवाएं और नया बंगाली समाज
वृन्दावन में विधवाएं क्यों आती हैं या भेज दी जाती हैं,इसके कारणों की ओर गंभीरता से ध्यान देने की जरुरत है। इस प्रसंग में बंगाली समाज में विगत 100साल में जो आंतरिक परिवर्तन हुए हैं उनको ध्यान में रखें। बंगाली समाज में सबसे पहला परिवर्तन तो यह हुआ है कि परिवार की संरचना बदली है, परिवार में नए आधुनिक जीवन संबंधों का उदय हुआ है। इसने एक खास किस्म की स्थिति बूढ़ों और औरतों के प्रति पैदा की है। दूसरा परिवर्तन यह हुआ है कि उनमें नकली आधुनिकचेतना का विकास हुआ है। नकली आधुनिकता में डूबे रहने के कारण बंगालियों का एक अंश अपने अंदर पुराने मूल्यों और मान्यताओं को छिपाकर जीता रहा है। इसके कारण एक खास किस्म के मिश्रित व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है ।
यह नया आधुनिक बंगाली उस बंगाली से भिन्न है जिसको रैनेसां ने रचा था। नया बंगाली उस परंपरा से अपने को जोड़ता है जो रैनेसांविरोधी है। नए बंगाली के पास मुखौटा रैनेसां का है लेकिन अधिकांश जीवनमूल्य और आदतें रैनेसां विरोधी हैं। मसलन् रैनेसां में सामाजिक और निजी संवेदनशीलता थी ,जबकि नए बंगाली में निजी संवेदनशीलता का अभाव है। रैनेसां और रैनेसांविरोधी बंगाली परंपरा में संवेदनशीलता में जो अंतर है उसने औरतों के प्रति मुखौटासंस्कृति पैदा की और इसी संस्कृति के गर्भ से निजी परिजनों के प्रति संवेदनहीनता हमें बार बार देखने को मिलती है। यह संवेदनहीनता उन लोगों में ज्यादा है जो मध्यवर्ग और उच्च-मध्यवर्ग से आते हैं । यही वह वर्ग है जिसमें से सामयिक राजनीतिक नेतृत्व भी पैदा हुआ है। कम्युनिस्टों से लेकर ममतापंथियों तक इस संवेदनहीनता को प्रत्यक्ष रुप में देखा जा सकता है। यह संवेदनहीनता मध्ययुगीन भावबोध की देन है। हमें विचार करना चाहिए कि वे कौन से कारण हैं जिनके कारण मध्ययुगीन संवेदनहीनता या ग्राम्य बर्बरता फिर से बंगाल में इतनी ताकतवर हो गयी ? विधवाओं के वृन्दावन भेजे जाने का सम्बन्ध ग्राम्य बर्बरता से है। यह ग्राम्य बर्बरता नए रुपों में संगठित होकर काम कर रही है। इसका सबसे ज्यादा शिकार औरतें हो रही हैं।
नए बंगाली समाज की मानसिकता है 'अनुपयोगी को बाहर करो' , अनुपयोगी से दूर रहो, बात मत करो। परिवार में भी यही मानसिकता क्रमशःविस्तार पा रही है। परिवारीजनों में प्रयोजनमूलक संबंध बन रहे हैं। जिससे कोई प्रयोजन नहीं है उसको भूल जाओ, जीवन से निकाल दो। बूढे प्रयोजनहीन हैं उन्हें बाहर करो, घर से बाहर करो, प्रांत से बाहर करो,मन से बाहर करो। यह एक तरह का 'तिरस्कारवाद' है, जो पुराने 'अछूतभाव' का ही नया संस्करण है, जो दिनों दिन ताकतवर होकर उभरा है।
मध्ययुगीन भावबोध का शिकार होने के कारण नए बंगाली समाज में सामाजिक परिवर्तन और प्रतिवाद की मूलगामी आकांक्षा खत्म हो चुकी है और उसकी जगह राजनीतिक अवसरवाद ने ले ली है। इसे मध्ययुगीन वफादारी कहते हैं। इसके कारण समाज में अनालोचनात्मक नजरिए की बाढ़ आ गयी है। सभी किस्म के पुराने त्याज्य मूल्य और आदतें हठात प्रबल हो उठे हैं। फलतःचौतरफा औरतों पर हमले हो रहे हैं। बलात्कार,विधवा परित्याग,नियोजित वेश्यावृत्ति आदि में इजाफा हुआ है।
मध्ययुगीन भावबोध को कभी बंगाली जाति ने विगत पैंसठ सालों में कभी चुनौती नहीं दी। वे क्रांति करते रहे,वामएकता करते रहे ,लेकिन मध्ययुगीनता पर ध्यान नहीं दिया। मध्ययुगीन भावबोध वह वायरस है जो धीमी गति से समाज को खाता है और प्रत्येक विचारधारा के साथ सामंजस्य बिठा लेता है। बंगाली समाज की सबसे बड़ी बाधा यही मध्ययुगीनता है इससे चौतरफा संघर्ष करने की जरुरत है। बंगाली समाज से मध्ययुगीन भावबोध जाए इसके लिए जरुरी है कि सभी किस्म के त्याज्य मध्ययुगीन मूल्यों के खिलाफ सीधे संघर्ष किया जाय।
बंगाली बुद्धिजीवी नए सिरे से अपने समाज और परिवार के अंदर झाँकें और बार बार उन पहलुओं को रेखांकित करके बहस चलाएं जिनकी वजह है मध्ययुगीनता पुनर्ज्जीवित हो रही है। मध्ययुगीनता का सम्बन्ध भाजपा के उदय और विकास की प्रक्रियाओं के साथ भी है। अब मध्ययुगीन बर्बरता ने सामाजिक कैंसर का रुप ले लिया है और इससे तकरीबन प्रत्येक परिवार किसी न किसी रुप में प्रभावित है। मध्ययुगीनता के असर के कारण समाज में बुद्धिजीवीवर्ग ने बंगाली समाज की आंतरिक समस्याओं पर सार्वजनिक रुप में लिखना बंद कर दिया है। मैं नहीं जानता कि नामी बंगाली बुद्धिजीवियों ने अपने समाज के आंतरिक तंत्र की कमजोरियों को सार्वजनिक तौर पर कभी उजागर किया हो।जबकि रैनेसां के लोग यह काम बार बार करते थे।
मध्ययुगीन बर्बरता में इजाफे के कारण सबसे ज्यादा औरतें प्रभावित होती हैं,विधवाएं उनमें से एक हैं। विधवाओं की समस्या का एक पहलू है उनके पुनर्वास का,दूसरा पहलू है उनके प्रति सामाजिक नजरिया बदलने का,तीसरा पहलू है विधवाओं के पलायन को रोकने का। इन सभी पहलुओं पर तब बातें होंगी जब बंगाली बुद्धिजीवी इस मसले पर कोई सामूहिक पहल करें।
भारतीय मुसलमानों की बलिदानी परंपरा
खेल के दर्शक को हम दर्शक की तरह देखें हिन्दू-मुसलमान के रुप में न देखें। खेल में धर्म,देश,छोटा-बड़ा नहीं होता। खेल तो सिर्फ खेल है।खेल में कोई जीतेगा और कोई हारेगा,कोई खुशी होगा तो कोई निराश होगा, खेल अंततःसर्जनात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। खेल को यदि राष्ट्रवाद से जोड़ा जाएगा या किसी भी किस्म की राजनीति से जोड़ा जाएगा तो उससे सामाजिक सर्जनात्मकता पर बुरा असर पड़ेगा।खेल का मकसद है जोड़ना।जबकि राष्ट्रवाद का मकसद है तोड़ना।भारत-पाक मैच के साथ संघी लोग राष्ट्रवाद को जोड़कर अपनी फूटसंस्कृति को खेल संस्कृति पर आरोपित करने की हमेशा कोशिश करते हैं और इस लक्ष्य में बुरी तरह पराजित होते हैं।इसका प्रधान कारण है खेल की आंतरिक शक्ति। खेल की आंतरिक शक्ति सर्जनात्मक और जोड़ने वाली है।
हमारे बहुत सारे संघी मित्र आए दिन क्रांतिकारियों को माला पहनाते रहते हैं लेकिन इन क्रांतिकारियों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले मुसलमानों को भूल जाते हैं। मसलन् क्रांतिकारी खुदीराम बोस को ही लें।खुदाराम बोस को गिरफ्तारी के पहले एक मुसलिम महिला ने अपने घर में शरण दी थी,यह और कोई नहीं मौलवी अब्दुल वहीद की बहन थी। ये जनाब क्रांतिकारी भूपेन्द्र दत्त के गहरे मित्र थे।यही महिला थी जो फांसी के पहले निडर होकर खुदीराम बोस से मिलने जाया करती थी।जबकि उस समय अंग्रेजी शासन के आतंक के कारण अनेक लोग खुदीराम बोस से मिलने से डरते थे।
मुसलमानों के पक्ष में लिखने का यह मकसद नहीं है कि अन्य तबकों की भूमिका की अनदेखी की जाय,मूल मकसद है मुसलिम विरोधी घृणा से युवाओं को बचाना।एक बार यह घृणा मन में बैठ गयी तो फिर उसे दूर करने में पीढ़ियां गुजर जाएंगी। हमारे कई हिन्दू मित्र मुसलमानों की कुर्बानियों की परंपरा को जानते हुए भी फेसबुक पर आए दिन जहर उगलते रहते हैं,इसलिए भी जरुरी हो गया है कि मुसलमानों के सकारात्मक योगदान के बारे में सही नजरिए से ध्यान खींचा जाय। मुसलमान हमारे समाज का अंतर्ग्रथित हिस्सा हैं। उनकी कुर्बानियों के बिना हम आजाद हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं कर सकते।
याद करें रायबरेली के मुसलमान फकीर सैयद अहमद को जिनके नेतृत्व में उत्तर भारत बहावी सम्प्रदाय के अनुयायियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गांवों से लेकर शहरों तक पहाडों से मौदानों तक आधी शताब्दी तक संघर्ष चलाया। सन् 1871 में एक अन्य बहावी क्रांतिकारी अब्दुल्ला को जस्टिस नार्मन की हत्या के आरोप में फाँसी पर लटकाया गया। सन् 1872 में अंडमान में लार्ड मेयो की हत्या करने वाला बहावी वीर शेर अली था,वह इस हत्या के लिए फाँसी के फंदे पर झूल गया। सन् 1831 में नीलहे साहबों के विरुद्ध पहले विद्रोह के प्रवर्तक रफीक मंडल को कौन भूल सकता है। मुसलमानों में ऐसे अनेक नेता हुए हैं जिन्होंने अपने समुदाय के साम्प्रदायिक और रुढिवादी आग्रहों को तिलांजलि देकर आजादी की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।सन् 1905 के ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी बंग-भंग आंदोलन के बरीसाल अधिवेशन की अध्यक्षता कलकता के प्रसिद्ध मुसलमान वकील अब्दुल्ला रसूल ने की थी। बंग-भंग के विरुद्ध चले पहले विशाल स्वदेशी आंदोलन में भारी संख्या में मुसलिम बुद्धिजीवियों ने हिन्दुओं के साथ मिलकर संघर्ष किया था।
भारत के मुसलमान देशभक्त होते हैं,यह निर्विवाद सत्य है।इसे जानते हुए भी संघ और उसके लगुए-भगुए संगठन विभ्रम पैदा करते रहते हैं और युवाओं में मुसलिम विरोधी प्रचार करते रहते हैं। मुसलमानों की देशभक्ति की बार-बार स्वाधीनता संग्राम में परीक्षा हुई है और आजादी के बाद बार बार जनांदोलनों के समय परीक्षा हुई है। भारत के मुसलमानों की देशभक्ति ही है कि आज जम्मू-कश्मीर में आतंकी-पृथकतावादी संगठन पाक की अबाध मदद के बावजूद आम मुसलमानों के बीच अलग-थलग पड़े हैं। इस क्षेत्र के आम मुसलमानों का भारत के लोकतंत्र और संविधान मेें अटूट विश्वास है।मुश्किल यह है कि एक तरफ संघ के संगठन मुसलमानों पर देशद्रोही कहकर हमले करते हैं,मुसलमानों के प्रति संशय और संदेह पैदा करते हैं,वहीं दूसरी ओर आतंकी-पृथकतावादी संगठन भी उनको निशाना बनाते हैं। सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों ने संघ और आतंकी-पृथकतावादी दोनों के ही नजरिए के खिलाफ संघर्ष किया है और तमाम तकलीफों के बावजूद उदारतावाद की बेहतरीन मिसाल कायम की है।
गुरुवार, 18 सितंबर 2014
वृन्दावन की विधवाएँ और पुंसवाद
सोमवार, 15 सितंबर 2014
बर्बरता के प्रतिवाद में
शुक्रवार, 12 सितंबर 2014
मुसलमानों की हिमायत में
आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने मुसलमानों के खिलाफ जिस तरह प्रचार आरंभ किया है उसे देखते हुए सामयिक तौर पर मुसलमानों की इमेज की रक्षा के लिए सभी भारतवासियों को सामने आना चाहिए। मुसलमानों को देशद्रोही और आतंकी करार देने में इन दिनों मीडिया का एक वर्ग भी सक्रिय हो उठा है,ऐसे में मुसलमानों की भूमिका को जोरदार ढ़ंग से सामने लाने की जरुरत है। सबसे पहली बात यह कि भारत के अधिकांश मुसलमान लोकतांत्रिक हैं और देशभक्त हैं। वे किसी भी किस्म की साम्प्रदायिक राजनीति का अंग नहीं रहे हैं। चाहे वह मुस्लिम साम्प्रदायिकता ही क्यों न हो। भारत के मुसलमानों ने आजादी के पहले और बाद में मिलकर देश के निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी है और उनके योगदान की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।
भारतीय मुसलमानों के बारे में जिस तरह का स्टीरियोटाइप प्रचार अभियान मीडिया ने आरंभ किया है कि मुसलमान कट्टरपंथी होते हैं,अनुदार होते हैं,नवाजी होते हैं,गऊ का मांस खाते हैं,हिन्दुओं से नफरत करते हैं,चार शादी करते हैं,आतंकी या माफिया गतिविधियां करते हैं।इस तरह के स्टीरियोटाइप प्रचार जरिए मुसलमान को भारत मुख्यधारा से भिन्न दरशाने की कोशिशें की जाती हैं।जबकि सच यह है मुसलमानों या हिन्दुओं को स्टीरियोटाइप के आधार पर समझ ही नहीं सकते। हिन्दू का मतलब संघी नहीं होता।संघ की हिन्दुत्व की अवधारणा अधिकांश हिन्दू नहीं मानते।भारत के अधिकांश हिन्दू- मुसलमान कुल मिलाकर भारत के संविधान के द्वारा परिभाषित संस्कृति और सभ्यता के दायरे में रहते हैं और उसके आधार पर दैनंदिन आचरण करते हैं।अधिकांश मुसलमानों की सबसे बड़ी किताब भारत का संविधान है और उस संविधान में जो हक उनके लिए तय किए गए हैं उनका वे उपयोग करते हैं।हमारा संविधान किसी भी समुदाय को कट्टरपंथी होने की अनुमति नहीं देता। भारत का संविधान मानने के कारण सभी भारतवासियों को उदारतावादी मूल्यों,संस्कारों और आदतों का विकास करना पड़ता है।
समाज में हिन्दू का संसार गीता या मनुस्मृति से संचालित नहीं होता बल्कि भारत के संविधान से संचालित होता है। उसी तरह मुसलमानों के जीवन के निर्धारक तत्व के रुप में भारत के संविधान की निर्णायक भूमिका। भारत में किसी भी विचारधारा की सरकार आए या जाए उससे भारत की प्रकृति तय नहीं होती,भारत की प्रकृति तो संविधान तय करता है। यह धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक देश है और इसके सभी बाशिंदे धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक हैं।संविधान में धार्मिक पहचान गौण है, नागरिक की पहचान प्रमुख है।इस नजरिए से मुसलमान नागरिक पहले हैं ,धार्मिक बाद में ।आरएसएस देश का ऐसा एकमात्र बड़ा संगठन है जिसकी स्वाधीनता संग्राम में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही,यह अकेला ऐसा संगठन है जिसके किसी बड़े नेता को साम्प्रदायिक-आतंकी-पृथकतावादी हमले का शिकार नहीं होना पड़ा। उलटे इसकी विचारधारा के भारत की धर्मनिरपेक्ष -लोकतांत्रिक संस्कृति और सभ्यता विमर्र्श पर गहरे नकारात्मक असर देखे गए हैं। इसके विपरीत भारत के मुसलमानों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी भारत के स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनेक मुसलिम नेताओं ने कम्युनिस्ट आंदोलन और क्रांतिकारी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । ब्रिटिशशासन के खिलाफ मुसलमानों की देशभक्तिपूर्ण भूमिका को हमें हमेशा याद रखना चाहिए। मसलन्, रौलट एक्ट विरोधी आंदोलन और जलियांवालाबाग कांड में 70 से अधिक देशभक्त मुसलमान शहीद हुए। इनकी शहादत को हम कैसे भूल सकते हैं।आरएसएस के प्रचार अभियान में मुसलमानों को जब भी निशाना बनाया जाता है तो उनकी देशभक्ति और कुर्बानी की बातें नहीं बतायी जाती हैं।हमारे अनेक सुधीजन फेसबुक पर उनके प्रचार के रोज शिकार हो रहे हैं। ऐसे लोगों को हम यही कहना चाहेंगे कि मुसलमानों के खिलाफ फेसबुक पर लिखने से पहले थोड़ा लाइब्रेरी जाकर इतिहास का ज्ञान भी प्राप्त कर लें तो शासद मुसलमानों के प्रति फैलायी जा रही नफरत से इस देश को बचा सकेंगे।
आरएसएस के लोगों से सवाल किया जाना चाहिए कि उनको देश के लिए कुर्बानी देने से किसने रोका था ?स्वाधीनता संग्राम में उनके कितने सदस्य शहीद हुए ? इसकी तुलना में यह भी देखें कितने मुसलमान नेता-कार्यकर्ता शहीद हुए ? देशप्रेम का मतलब हिन्दू-हिन्दू करना नहीं है। हिन्दू इस देश में रहते हैं तो उनकी रक्षा और विकास के लिए अंग्रेजों से मुक्ति और उसके लिए कुर्बानी की भावना आरएसएस के लोगों में क्यों नहीं थी ?जबकि अन्य उदार-क्रांतिकारी लोग जो हिन्दू परिवारों से आते थे, बढ़-चढ़कर कुर्बानियां दे रहे थे, शहीद हो रहे थे।संघ उस दौर में क्या कर रहा था ? यही कहना चाहते हैं संघ कम से कम कुर्बानी नहीं दे रहा था। दूसरी ओर सन् 1930-32 के नागरिक अवज्ञा आंदोलन में कम से कम 43मुसलमान नेता-कार्यकर्ता विभिन्न इलाकों में संघर्ष के दौरान पुलिस की गोलियों से घायल हुए और बाद में शहीद हुए। सवाल यह है संघ इस दौर में कहां सोया हुआ था ?
कायदे से भारत के शहीद और क्रांतिकारी मुसलमानों की भूमिका को व्यापक रुप में उभारा गया होता तो आज नौबत ही न आती कि आरएसएस अपने मुस्लिम विरोधी मकसद में सफल हो जाता। मुसलमानों के प्रति वैमनस्य और भेदभावपूर्ण रवैय्ये को बल इसलिए भी मिला कि आजादी के बाद सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने मुसलमानों की जमकर उपेक्षा की।इस उपेक्षा को सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में साफ देख सकते हैं। संघ के प्रचार का कांग्रेस पर दबाव रहा है और कांग्रेस ने कभी मुसलमानों को लेकर दो-टूक रवैय्या नहीं अपनाया। इसका ही यह परिणाम है कि मुसलमान हाशिए पर हैं। संघ ने मुस्लिम तुष्टीकरण का झूठा हल्ला मचाकर कांग्रेस को मुसलमानों के हितों की उपेक्षा करने के लिए मजबूर किया और कांग्रेस ने संघ को जबाव देने के चक्कर में नरम हिन्दुत्व की दिशा ग्रहण की और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा मुसलमानों को उठाना पड़ा।
बुधवार, 10 सितंबर 2014
मध्यवर्गीय जंगलीपन के प्रतिवाद में
मध्यवर्गीय जंगलीपन का नया रुप है 'लव जेहाद' के नाम पर शुरु किया गया राजनीतिक प्रपंच। हमारे समाज में पहले से ही 'प्रेम' को निषिद्ध मानकर बहुत कुछ होता रहा है। मध्यवर्ग ने खाप पंचायतों और सलाशी पंचायतों के जरिए औरतों के ऊपर बेशुमार जुल्म किए हैं। परिवार और पिता की 'इज्जत' के नाम पर लड़कियों को दण्डित किया है, प्यार करने वाले लड़कों की हत्याएं की हैं। हाल ही में बिजनौर में भाजपा सांसद के खिलाफ घटिया किस्म के पोस्टर लगाए गए हैं,जिसमें उसे किसी लड़की के साथ वृन्दावन में घूमते दिखाया गया। संकेत यह है लड़की के साथ घूमना अपराध है!यह उसके अवैध संबंध का प्रतीक है!
चिन्ता की बात है कि 'ऑनरकिलिंग' से लेकर 'लव जेहाद' तक की समूची सांस्कृतिक –आपराधिक कवायद के निशाने पर औरतें और नागरिक स्वाधीनता है। हमारे समाज का मध्यवर्ग इन घटनाओं को मूकदर्शक की तरह देख रहा है या उसमें मजे ले रहा है। स्थिति इतनी भयावह है कि लड़कियों को तरह-तरह के रुपों,बहानों और प्रेरणाओं के नाम पर नए सिरे से बंदी बनाने की कोशिशें तेज हो गयी हैं। अखबारों में इनके पक्ष में लेख प्रकाशित किए जा रहे हैं ,इन आपराधिक कृत्यों को वैध ठहराने का काम मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक तबका खुलेआम कर रहा है। मध्यवर्ग में इस तरह कीड़े-मकोड़े की मानसिकता वाले विचारक अचानक सक्रिय क्यों उठे हैं ? वे कौन से कारक हैं जिनके कारण संघ और उसके संगठन सीधे स्त्री स्वाधीनता पर हमला करने का साहस जुटाने की कोशिश कर रहे हैं ? सबसे शर्मनाक बात यह है कि देश के सम्मानजनक अखबार संतुलन के नाम पर 'लव जेहाद' के पक्ष में लेख तक छाप रहे हैं। यह कौन सा संपादकीय संतुलन है जिसे वे निभा रहे हैं ? 'लव जेहाद' के पक्ष में लेखों को छापना या उसके प्रवक्ताओं को कवरेज में संतुलन के नाम पर टीवी में मंच देना सीधे स्वाधीनता के हमलावरों को स्थान देना है। हम यदि अभी नहीं संभले तो निकट भविष्य में जंगली मध्यवर्गीय संगठन हमारे घरों में घुसकर तय करेंगे कि घर में क्या पकेगा और क्या नहीं पकेगा ? कान पर किया बिकेगा और क्या नहीं बिकेगा ? अभी वे यह कह रहे हैं कि किससे शादी करोगे और किससे शादी नहीं करोगे? अभी वे कह रहे हैं कि किससे प्रेम करोगे ,किससे नहीं करोगे? ये वही लोग हैं जो कल तक खाप पंचायतों के जरिए हिन्दू युवाओं पर हमले कर रहे थे, ये ही वह इलाका है जहां पर 'लव जेहाद' के नाम समूची मशीनरी को फिर से सक्रिय कर दिया गया है। यही वे इलाके,शहर और कस्बे हैं जहां पर कल तक खाप पंचायतों के जरिए हमले किए गए,अब इन हमलों को 'लव जेहाद' के नाम संगठित किया जा रहा है। यह मध्यवर्गीय जंगलीपन है और इसका ग्राम्य बर्बरता से गहरा सम्बन्ध है।
सोमवार, 8 सितंबर 2014
आरएसएस की आदतें ,अविवेकवाद और आधुनिकता
आरएसएस की आदतें ,अविवेकवाद और आधुनिकता
रविवार, 7 सितंबर 2014
इंटरनेट पर वाम-वाम को राम राम
शनिवार, 6 सितंबर 2014
बेमिसाल सुनील गुप्ता
नरेन्द्र मोदी का डिजिटल टाइमपास
मंगलवार, 2 सितंबर 2014
'गुरु' के नए 'कू-भाषी' कॉमेडियन
बेवकूफियों से हास्य पैदा करना,ऊल-जलूल बातों से हास्य पैदा करना, कपिल के कॉमेडी शो की खूबी है। इस कार्यक्रम से बबूल संघ ,उसके साइबर बटुक और मोदी सरकार बहुत प्रभावित है। वे कपिल के कॉमेडी शो को भारत का राजनीतिक कंटेंट बना रहे हैं। देश के हर जलसे,दिवस,नायक,अच्छे नाम,अच्छे गुण आदि को राजनीतिक 'कू-भाषा' से अपदस्थ कर रहे हैं। वे हर अच्छे दिन और अच्छे त्यागी पुरुष को टीवी इवेंट बना रहे हैं ! 'कू' कर रहे हैं।। इस 'कू -कल्चर' के नए नायक इन दिनों टीवी टॉक शो पर आए दिन दिख जाएंगे। फेसबुक में दिख जाएंगे! कपिल के कॉमेडी शो की खूबी है ' कू-भाषा' का हास्य के लिए दुरुपयोग ,वहां हास्य कम और 'कू-भाषा' का दुरुपयोग ज्यादा होता है और यही भाषिक दुरुपयोग सांस्कृतिक भ्रष्टाचार की नई खाद है और इससे आमलोगों में भाषायी कुरुपता पैदा होती। 'कू-भाषा' की संस्कृति का विस्तार होता है।नव्य-आर्थिक उदारीकरण ने सारी दुनिया में 'कू-भाषा' को नए-नए रुपों में प्रसारित किया है।इसके भाषिक प्रयोगों को हम आए दिन युवाओं से लेकर फेसबुक तक देख सकते हैं। 'कू-भाषा' का नया प्रयोग है 'शेल्फी'!
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...