दर्शक जब हिंसा देखता है तो उसमें नकारात्मक भाव पैदा होते हैं। मन में सोचता है। आक्रामक एक्शन की कैद में होता है। ऐसी अवस्था में हथियार ,प्रतीक या नाम वगैरह की उपस्थिति एक्शन के लिए तैयार कर सकती है। इससे दर्शक में भय पैदा होता है। यह हिंसा का तात्कालिक असर है। साथ ही भावनात्मक प्रतिक्रिया,बेचैनी और हताशा पैदा करती है। तात्कालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कई अन्य कारण भी प्रभावित करते हैं। जैसे लक्ष्य के साथ में स्वयं को जोड़कर देखना,मसलन् चरित्र आकर्षक हो,बहादुर हो,अथवा दर्शक के सोच से मिलता-जुलता हो। ऐसी स्थितियों में तदनुभूति पैदा होती है। जब किसी हिंसा के शिकार चरित्र के साथ दर्शक अपने को जोड़कर देखता है तो भय में बढ़ोतरी होती है। इस तरह की अवस्था में उसका आनंद भी प्रभावित हो सकता है। पी.एच.तेन्नेवुम और इ.पी.गीर ने ''मूड चेंज एज ए फंक्शन ऑफ स्ट्रेस ऑफ प्रोटागोनिस्ट एण्ड डिग्री ऑफ आइडेंटीफिकेशन इन फिल्म व्यूइंग सिचुएशन''(1965) में लिखा है कि जो दर्शक हीरो के साथ जोड़कर देखते हैं उन्हें ज्यादा तनाव में रहना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए सुखान्त राहत पहुँचाता है। इसके विपरीत दुखान्त या अनिश्चित अंत तनाव में वृध्दि करता है। यदि किसी बच्चे को वास्तविक हिंसा का अनुभव हो तो बाद में वह घटना और चित्रण को तुलना करके देखने लगता है। इससे भय पैदा होता है। जब कोई दर्शक माध्यम हिंसा को वास्तव जीवन में देखने की कल्पना करता है तो उसे तत्काल भय होने लगता है।
माध्यम हिंसा के एक्सपोजर के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग कारण होते हैं।कुछ कारण ऐसे होते हैं जिनके कारण भय की संभावनाओं को कम किया जा सकता है।यदि लोग मनोरंजन के कारण हिंसा के कार्यक्रम देख रहे हैं तो उनके अंदर भय की संभावनाएं कम होती हैं। उत्तेजना में भय की अनुभूति ज्यादा होती है। बच्चों की ज्ञान क्षमता कम होती है। वे प्लाट का सही अनुमान नहीं कर पाते। फलत:वे मीडिया हिंसा से ज्यादा प्रभावित होते हैं। अन्य दर्शकों की तुलना में बच्चों में कुछ हिंसक फैंटेसी रूपों को समझने की क्षमता नहीं होती। माध्यमों में तीन किस्म की प्रवृत्तियां नजर आती हैं।पहली प्रवृत्ति में खतरनाक और क्षतिकारक रुप आते हैं। मसलन् ऐसी घटना का चित्रण जिसमें व्यापक क्षति हुई हो। इसमें प्राकृतिक आपदा, विभिन्न किस्म के जानवरों के हमले, बड़े पैमाने की दुर्घटना आदि शामिल है। दूसरी कोटि में प्राकृतिक रूपों की विकृतियां,इसमें शरीर में दिखनेवाली विकृतियां,विरूपताएं,जन्मगत विकृतियां आदि शामिल हैं। तीसरी कोटि में अन्य से उत्पन्न खतरे एवं तद्जनित भय का रूपायन मिलता है। मसलन् अन्यायपूर्ण हिंसा का चित्रण भय पैदा करता है। व्यापकस्तर पर खुल्लमखुल्ला या विस्तृत हिंसा का चित्रण भय को विस्तार देता है। जब हिंसा करने वालों को दण्डित नहीं किया है तो दर्शकों को ज्यादा भय होता है। हिंसा का लाइव एक्शन कार्टून हिंसा की तुलना में ज्यादा उत्तेजित करता है। मीडिया हिंसा का बार-बार एक्सपोजर संवेदनाशून्य बनाता है।
मीडिया में हिंसा सबसे आकर्षक लगती है। मीडिया उद्योग आज सबसे जनप्रिय और सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला उद्योग है।कुछ लोग इसे पापुकल्चर कहते हैं ,कुछ लोग इसे संस्कृति उद्योग कहते हैं।सारी दुनिया में मीडिया उद्योग का मुखिया अमेरिका है।नए आंकड़े बताते हैं कि सारी दुनिया में सन् 2001 में 14 विलियन डालर सिनेमा देखने पर खर्च किया गया। इसमें अकेले अमेरिका के घरेलू बॉक्स ऑफिस पर 9 विलियन डालर खर्च किए गए। इसके अलावा यदि ग्लोबल स्तर पर मीडिया संगीत की बिक्री पर नजर डालें तो पाएंगे कि मीडिया की सबसे बड़ी मार्केट है संगीत। सन् 2000 में मीडिया संगीत की बिक्री का आंकडा 37 विलियन डालर पार कर गया। वीडियो गेम की बिक्री सन् 2002 में 31 विलियन डालर आंकी गयी। अमेरिकी मीडिया कंपनियों का आधे से ज्यादा बाजार अमेरिका के बाहर है। यह बाजार लगातार बढ़ रहा है। आज अमेरिकी मीडिया मालों से सारी दुनिया के बाजार भरे पड़े हैं। टीवी,वीसीआर ,सैटेलाईट डिश आदि की बाजार में बिक्री लगातार बढ़ रही है। अमेरिकी फिल्में 150 से ज्यादा देशों में दिखाई जा रही हैं। अमेरिकी टेलीविजन कार्यक्रमों का 125 से ज्यादा देशों में प्रसारण होता है। अमेरिकी फिल्म उद्योग 'जी' (जनरल)केटेगरी और 'पीजी' (पेरेण्टल गाइडेंस)केटेगरी की फिल्मों को देखने वालों की संख्या लगातार घट रही है और 'आर' केटेगरी की फिल्मों की संख्या बढ़ रही है। हॉलीवुड के द्वारा सन् 2001 में दो-तिहाई से ज्यादा 'आर' केटेगरी की फिल्में बनायी गयीं।इसके अलावा एक्शन फिल्मों की विदेशों में मांग ज्यादा है। एक्शन फिल्म के लिए जटिल प्लाट और चरित्रों की जरूरत नहीं होती। वहां तो सिर्फ मारधाड, हत्या, स्पेशल प्रभाव और विस्फोटों के माध्यम से जनता को बांधे रखा जाता है। जबकि कॉमेडी और नाटक में अच्छी कहानी चाहिए,गहरा व्यंग्य चाहिए,प्रामाणिक चरित्र चाहिए, ये सारी चीजें विशिष्ट संस्कृति केन्द्रित होती हैं,इसके विपरीत एक्शन फिल्म के लिए अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छी एक्टिंग से ही काम चल जाता है। क्योंकि एक्शन फिल्म सरल होती है। उसे सारी दुनिया में कोई भी समझ सकता है। इसमें ज्यादा संवाद नहीं होते। एक ही वाक्य में कहें तो एक्शन फिल्म में 'संवाद कम धडकन ज्यादा होती है।' हॉलीवुड उद्योग सामाजिक मसलों पर फिल्म बनाने पर खर्चा नहीं करना चाहता। बल्कि एक्शन फिल्मों पर ज्यादा खर्चा करना चाहता है।
अमेरिकी फिल्मों की जनप्रियता ने सारी दुनिया में फिल्मों का एक नया ट्रेंड विकसित किया है। अब ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी फिल्मों की तर्ज पर कहानी और एक्शन की मांग उठ रही है। अमेरिकी फिल्मों के प्रभाव के कारण ही संगीत में हिंसा और कामुकता की बाढ़ आयी है। अब वीडियो संगीत में हिंसक और असामाजिक इमेजों की ज्यादा खपत हो रही है। इससे सामाजिक जीवन में घृणा का प्रसार हो रहा है। घृणा आज सबसे पवित्र और बिकाऊ माल बन गया है। दुनिया की सबसे बड़ी संगीत कंपनी यूनीवर्सल म्यूजिक ग्रुप ने अपनी समूची मार्केटिंग शक्ति झोंक दी है और सभी नामी अश्वेत गायकों को मैदान में उतार दिया है। चर्चित गायकों में इमीनिम,डीआर,डीआरइ,लिम्प बिजकिट के नाम प्रमुख हैं। इन अश्वेत गायकों के द्वारा गाए गए अधिकांश गाने हिंसा और घृणा से भरे होते हैं। इनमें निशाने पर औरतें ,समलैंगिक और लेस्बियन होते हैं। इस तरह का हिंसा प्रदर्शन अपने चरमोत्कर्ष पर सन् 2001 में तब पहुँचा जब अमेरिका के प्रसिध्द ग्रेमी एवार्ड के लिए इमीनेम को चार पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया। इस गायक की सीडी दि 'इमीनेम शो' ने सन् 2002 में बाजार में आते ही पहले ही महिने में 3.63 मिलियन डालर की बिक्री की। यही स्थिति कमोबेश रेप संगीत की है।इसने पॉप म्यूजिक को पछाड़ दिया है। रेप में व्यापक पैमाने पर हिंसक गीत और हिंसक जीवन शैली का रूपायन हो रहा है। यही स्थिति वीडियो गेम की है।
चंद वर्षों में वीडियो गेम हिंसा के पर्याय बनकर रह गए हैं। आज विश्व मीडिया उद्योग में वीडियो गेम दूसरा सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला क्षेत्र है। अनुसंधान बताते हैं कि 'आर' केटेगरी की फिल्मों ,वीडियो गेम, कामुक वीडियो के सबसे बड़े उपभोक्ता युवा हैं। मीडिया हिंसा के बारे में विगत पचास साल में किए गए अनुसंधान एक स्वर से यह रेखांकित करते हैं कि मीडिया हिंसा का बच्चों पर गहरा असर होता है, खासकर जब वे बड़े हो जाते हैं तो इस असर को देखा जा सकता है। उनके व्यवहार में आक्रामकता आ जाती है। मीडिया में हिंसा के प्रभाव को लेकर सबसे पहले विवाद हिंसा की परिभाषा को लेकर हुआ। मीडिया हिंसा के महान् अध्येता और टेंपिल यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर जॉर्ज गर्बनर ने लिखा ऐसा अभिनय ,भूमिका या धमकी जिससे किसी की हत्या हो या क्षति हो ,उसे हिंसा कहते हैं। इसको देखने के पैमाने अलग-अलग हैं।इसमें कार्टून हिंसा को भी शामिल करना चाहिए। जबकि कुछ मीडिया विशेषज्ञ यह मानते हैं कि कार्टून हिंसा को मीडिया हिंसा में शामिल नहीं करना चाहिए,क्योंकि वे व्यंग्यात्मक और अयथार्थ होते हैं । जो लोग यह मानते हैं कि मीडिया हिंसा आक्रामकता पैदा करती है ,उनसे भी असहमत विशेषज्ञ हैं।इन लोगों का मानना है कि ये दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं किन्तु इन दोनों में अनौपचारिक संबंध है।यह संबंध तब इस बात पर निर्भर करता है कि बच्चे कैसे सीखते हैं।
( जनतंत्र डॉट कॉम पर 30 सितम्बर 2009 को 'विशेष रिपोर्ट' के रूप में प्रकाशित )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
बुधवार, 30 सितंबर 2009
लालगढ का हिंसाचार और प्रमोद मल्लिक का हिंसा प्रेम
प्रमोद मल्लिक साहब,वाममोर्चा जब सन्77 में सत्ता में आया था तो मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज बुलंद करके ही आया था और उस नीति का लंबे समय उसने पालन भी किया। आज उन इलाकों में जाएं जहां पर तृणमूल कांग्रेस के लोग पंचायतों से लेकर संसद तक जीते हैं तो आपको उनकी कार्यप्रणाली देखकर हैरानी होगी। माओवादी लालगढ इलाके में हफता वसूली से लेकर तथाकथित जनअदालतों के जरिए आम लोगों को बिना किसी कारण के दण्डित कर रहे हैं। विश्वास न हो तो एकबार नंदीग्राम की यात्रा जरूर कर लें। किस तरह का विकल्प माओवादी,कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर तैयार किया है उसकी श्ाक्ल देखकर बिहार का माफिया राज भी बौना नजर आएगा। बंदूक की नोंक पर माकपा के सदस्यों और हमदर्दों को माकपा का साथ छोडने के लिए दबाव डाला जा रहा है, आतंकित किया जा रहा है, ऐसा नहीं करने पर गले में जूतों की माला पहनाकर जुलूस निकाले जा रहे हैं,जुर्माना ठोका जा रहा है। जहां पर ऐसा नहीं कर पा रहे हैं वहॉं सरेआम कत्ल किया जा रहा है। विगत चार महीनों से हिंसा का ताण्डव चल रहा है। गरीब किसानों और आदिवासियों की रक्षा करने में माकपा भी असमर्थ है,माओवादी हिंसा में मारे गए ज्यादातर लोग गरीब हैं। माओवादियों का यदि जनता में व्यापक समर्थन है तो उन्होंने हिंसाचार और असंवैधानिक सत्ताकेन्द्रों की स्थापना के जरिए लालगढ में आतंक का राज क्यों कायम किया हुआ है ? आतंक और हिंसा के हथियार की माओवादियों को जन समर्थन के अभाव में ही जरूरत पडी है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या माकपा के आतंक का विकल्प माओवादी आतंक है?
प्रमोद मल्िल्ाक साहब,नक्सल अथवा माओवादियों की आलोचना करना घृणा अभियान में शामिल होना नहीं है। समस्या यह भी नहीं है कि नक्सलवादियों का वर्चस्व क्यों है,समस्या क्रांति होने में भी नहीं है। समस्या है निर्दोष लोगों की हत्या वे क्यों कर रहे हैं। नक्सल चुनाव जीतें या हारें,इलाके में जनता उनका साथ दे या न दे,माकपा को खदेड दे,इन सबमें किसी भी नागरिक को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन यदि हिंसाचार के कंधे पर सवार होकर यदि क्रांति और माओवादी आएंगे तो इस पर सभी शांति पसंद नागरिकों को विरोध करना चाहिए। कल क्रांति होगी या नहीं होगी,यह तो क्रांतिकारी संगठनों को भी पता नहीं है। लेकिन क्रांति के नाम पर ,पुलिस और माकपा एजेण्ट के नाम पर माओवादी हिंसा जरूर हो रही है इसमें प्रतिदिन निर्दोष ग्रामीण मारे जा रहे हैं। माओवादियों को यदि जनता का समर्थन होता तो वे हिंसा नहीं करते। जिन्हें जनसमर्थन हासिल होता है वे कम से कम हिंसा करते हैं। जिन्हें कम जनसमर्थन हासिल होता है वे ज्यादा हिंसा करते हैं। गुजरात का अनुभव सामने है वहां साम्प्रदायिक ताकतों ने इतनी व्यापक हिंसा की थी अब मोदी के खिलाफ आवाज तक नहीं निकलती। आप अच्छी तरह जानते हैं उग्रवादी हिंसा जिन इलाकों में रही है वहॉं जनता की आवाज सुनाई नहीं देती,सिर्फ आतंकी संगठनों की ही आवाज सुनाई देती है। पंजाब से लेकर असम,कश्मीर से लेकर नागालैण्ड तक का यही तजुर्बा है। आप जिस जनसमर्थन की बातें कर रहे हैं वैसा जनसमर्थन तो तालिबान को भी मिला हुआ है,क्या आतंक के कारण सतह पर जनता की चुप्पी को माओवादियों के लिए जनसमर्थन कहना सही होगा। आप जानते हैं कि अफगानिस्तान में लाखों नाटो सैनिकों के बावजूद तालिबान आज भी खत्म नहीं हुआ है। माओवादी संगठन क्रांतिकारी संगठन नहीं है। बल्कि अपराधी कर्मों में लगे हिंसक गिरोह हैं। आपको पूरा हक है उनकी हिमायत करें। लेकिन यह सोचकर करें कि भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र माओवादियों की देन नहीं है। माओवादी लोकतंत्र से नफरत करते हैं। यह खुला सच है यह घृणा का प्रचार नहीं है बल्कि इस तथ्य और सत्य को माओवादी स्वयं स्वीकार करते हैं। जिस चीज को वे स्वीकार करते हैं,मैं तो उसी को दोहरा रहा हूँ,इसमें किसी दल विशेष की हिमायत करना कहाँ से आ गया। आपकी माकपा के प्रति जितनी आलोचनाएं हो सकती हैं उससे ज्यादा हमारी भी हैं। लेकिन ये आलोचनाएं भक्ति और घृणा के भाव से परे होकर सत्य के आधार पर निर्मित हुई हैं। आपकी क्रांति की भक्ति स्वागतयोग्य है, अपराधियों की भक्ति आलोचना के लायक है।
( मोहल्ला लाइव पर छत्रधर महतो की गिरफतारी पर चली बहस में प्रमोद मल्लिक के विचारों पर व्यक्त टिप्पणी)
प्रमोद मल्िल्ाक साहब,नक्सल अथवा माओवादियों की आलोचना करना घृणा अभियान में शामिल होना नहीं है। समस्या यह भी नहीं है कि नक्सलवादियों का वर्चस्व क्यों है,समस्या क्रांति होने में भी नहीं है। समस्या है निर्दोष लोगों की हत्या वे क्यों कर रहे हैं। नक्सल चुनाव जीतें या हारें,इलाके में जनता उनका साथ दे या न दे,माकपा को खदेड दे,इन सबमें किसी भी नागरिक को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन यदि हिंसाचार के कंधे पर सवार होकर यदि क्रांति और माओवादी आएंगे तो इस पर सभी शांति पसंद नागरिकों को विरोध करना चाहिए। कल क्रांति होगी या नहीं होगी,यह तो क्रांतिकारी संगठनों को भी पता नहीं है। लेकिन क्रांति के नाम पर ,पुलिस और माकपा एजेण्ट के नाम पर माओवादी हिंसा जरूर हो रही है इसमें प्रतिदिन निर्दोष ग्रामीण मारे जा रहे हैं। माओवादियों को यदि जनता का समर्थन होता तो वे हिंसा नहीं करते। जिन्हें जनसमर्थन हासिल होता है वे कम से कम हिंसा करते हैं। जिन्हें कम जनसमर्थन हासिल होता है वे ज्यादा हिंसा करते हैं। गुजरात का अनुभव सामने है वहां साम्प्रदायिक ताकतों ने इतनी व्यापक हिंसा की थी अब मोदी के खिलाफ आवाज तक नहीं निकलती। आप अच्छी तरह जानते हैं उग्रवादी हिंसा जिन इलाकों में रही है वहॉं जनता की आवाज सुनाई नहीं देती,सिर्फ आतंकी संगठनों की ही आवाज सुनाई देती है। पंजाब से लेकर असम,कश्मीर से लेकर नागालैण्ड तक का यही तजुर्बा है। आप जिस जनसमर्थन की बातें कर रहे हैं वैसा जनसमर्थन तो तालिबान को भी मिला हुआ है,क्या आतंक के कारण सतह पर जनता की चुप्पी को माओवादियों के लिए जनसमर्थन कहना सही होगा। आप जानते हैं कि अफगानिस्तान में लाखों नाटो सैनिकों के बावजूद तालिबान आज भी खत्म नहीं हुआ है। माओवादी संगठन क्रांतिकारी संगठन नहीं है। बल्कि अपराधी कर्मों में लगे हिंसक गिरोह हैं। आपको पूरा हक है उनकी हिमायत करें। लेकिन यह सोचकर करें कि भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र माओवादियों की देन नहीं है। माओवादी लोकतंत्र से नफरत करते हैं। यह खुला सच है यह घृणा का प्रचार नहीं है बल्कि इस तथ्य और सत्य को माओवादी स्वयं स्वीकार करते हैं। जिस चीज को वे स्वीकार करते हैं,मैं तो उसी को दोहरा रहा हूँ,इसमें किसी दल विशेष की हिमायत करना कहाँ से आ गया। आपकी माकपा के प्रति जितनी आलोचनाएं हो सकती हैं उससे ज्यादा हमारी भी हैं। लेकिन ये आलोचनाएं भक्ति और घृणा के भाव से परे होकर सत्य के आधार पर निर्मित हुई हैं। आपकी क्रांति की भक्ति स्वागतयोग्य है, अपराधियों की भक्ति आलोचना के लायक है।
( मोहल्ला लाइव पर छत्रधर महतो की गिरफतारी पर चली बहस में प्रमोद मल्लिक के विचारों पर व्यक्त टिप्पणी)
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
सामयिक युवा संस्कृति के बिना 'नयापथ'
जनवादी लेखक संघ कमाल का संगठन है यह संगठन सामयिक संसार के साथ संवाद कम से कम करता है। विगत छह महीनों में इस संगठन की साहित्यिक पत्रिका 'नयापथ' के दो 'युवा अंक' आए हैं। इन दोनों अंकों के सम्पादकीय और प्रकाशित सामग्री को देखकर यह महसूस होगा कि भारत के युवाओं की कोई समस्या नहीं है। उनकी एकमात्र समस्या है क्रांतिकारी प्रेरणा का अभाव। इस अभाव की पूर्ति को केन्द्र में रखकर दोनों अंक तैयार किए गए हैं। विचारणीय सवाल यह है कि अगर हिन्दी-उर्दू लेखकों की पत्रिका में युवालेखन के मूल्यांकन के नाम पर यदि शून्य है तो भारत का भविष्य क्या होगा ? क्या हिन्दी-उर्दू के युवा लेखकों के मूल्यांकन की जरूरत नहीं है ? सवाल उठता है कि हिन्दी-उर्दू से लेकर भारत की किसी भी भाषा के सामयिक युवा लेखन को संपादकों ने मूल्यांकन योग्य क्यों नहीं समझा ? युवा लेखन के प्रति इस उपेक्षाभाव की जमकर आलोचना की जानी चाहिए। अप्रैल-जून 2009 के अंक में एकमात्र बजरंग बिहारी तिवारी का '' भारतीय दलित लेखन:मौजूदा परिदृश्य''नामक लेख है। दो अंकों में युवालेखन के मूल्यांकन पर मात्र चार पन्ने। अनेक युवा लेखकों की रचनाएं दोनों अंकों में हैं। लेकिन मूल्यांकन नहीं है। हिन्दी उर्दू का कोई युवा आलोचक भी उन्हें नहीं मिला जिसकी आलोचना पर चर्चा कर लेते।
सवाल यह है कि क्या भारत के युवा को सिर्फ प्रेरक पुरूषों की जरूरत है ? युवाओं को प्रेरणा देने का तरीका आज पूरी तरह पिट चुका है। युवाओं के दिल,दिमाग, जीवनशैली ,विचारधारा आदि को प्रेरक पुरूषों के संस्मरण लेखन से प्रभावित नहीं किया जा सकता । आज के युवा समुदाय की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है,आज वह ज्यादा यथार्थवादी और व्यवहारवादी है। क्या उसकी समस्याओं पर चर्चा किए बगैर उसका दिल जीता जा सकता है ? ऐसा क्यों हुआ कि जनवादी लेखक संघ के संपादकद्वय (मुरली मनोहरप्रसाद सिंह और चंचल चौहान) अतिथि संपादक संजीव कुमार, युवाओं की किसी भी समस्या को विवेचन लायक नहीं समझते ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि युवाओं के सामने समस्याओं की जो फेहरिस्त संपादकद्वय ने गिनायी है उसमें से किसी भी समस्या को विश्लेषित करने योग्य क्यों नहीं समझा गया ? क्या राजनीतिक दलों की तरह युवा समस्या का वर्णनात्मक गद्य ही युवाओं के प्रति सही समझ बनाने के लिए काफी है ? युवा समस्याओं को यदि राजनीतिक नारेबाजी की शक्ल में प्रस्तुत किया जाएगा तो न तो समस्या समझ में आएगी और न युवावर्ग ही समझ में आएगा। भारत के युवावर्ग के दिलो-दिमाग और सर्जनात्मकता के मूल्यांकन में दोनों अंक एकदम विफल रहे हैं। इस पहलू को लेकर कोई भी सामग्री इन दोनों अंकों में नहीं है। दूसरी ओर इन दोनों अंकों में भारत के युवावर्ग के प्रति अवैज्ञानिक समझ का जमकर महिमामंडन किया गया है। युवाओं की सर्जनात्मकता ,आनंद,मनोरंजन, जीवनशैली के प्रति अविश्वास,संशय, हिकारत और धिक्कार भाव व्यक्त हुआ है। संपादक द्वय ने लिखा है '' युवा वे ही देख पा रहे हैं जो इस भूमंडलीय वित्तीय पूंजी का निर्लज्जतापूर्वक प्रचार करने वाले मीडिया तंत्र द्वारा दिखाया जा रहा है।यह तंत्र युवाओं को बता रहा है कि उनके लिए सत्य केवल पैसा और पद है और इसी के पीछे भागते जाना ही वास्तविक संघर्ष है और इसके लिए दूसरों को धोखा देना बौद्धिक प्रतिभा का सही उपयोग है। जीवन की सार्थकता उसकी सफलता में है,चाहे उसे कैसे भी हासिल किया जाए। यदि आज हम सफल हैं तो दुनिया कल रहे या न रहे,यह हमारी चिन्ता क्यों बने।क्या इस स्वार्थ-लोलुप विकृत मानसिकता के साथ एक बेहतर दुनिया का निर्माण संभव है ?''
इन दोनों अंकों की सबसे बड़ी कमजोरी है युवा अस्मिता और युवा संस्कृति को स्वतंत्र रूप में न देख पाना। जनवादी पहले चाहते हैं कि युवा कैसे बनें और इसके लिए उन्होंने अपने पसंदीदा आदर्श पुरूषों का विवेचन पेश किया है। युवाओं के प्रति यह नजरिया सही नहीं कहा जा सकता। यह तो वैसे ही हुआ कि पहले युवा फिदेल कास्त्रो,भगतसिंह आदि जैसे बनें ,क्रांतिकारी बनें, अथवा पूर्ण स्वाधीनता के मार्ग को अर्जित करें। उसके बाद वे अपने बारे में सोचें। इस तरह देखने से युवाओं के दिल,दिमाग,जिंदगी का हमने बाह्य उद्देश्यों के साथ संबंध जोड दिया है। क्या युवाओं का अभीप्सित लक्ष्य क्रांति हो सकता है ? क्या युवाओं का लक्ष्य खद्दरधारियों का देश निर्मित करना लक्ष्य हो सकता है ? क्या युवाओं को चरखे, राष्ट्रीय ध्वज आदि के साथ नत्थी किया जा सकता है। क्या युवाओं का एकमात्र लक्ष्य अपने देश के गौरवमय इतिहास को याद रखना और उसका पारायण करते रहना है ? क्या युवाओं को बाह्य सवालों और सरोकारों से बांधकर सही मार्ग पर लाया जा सकता है ? हम अपने युवा में पूर्ण मनुष्यत्व का उदबोधन क्यों नहीं करना चाहते, क्या पूर्ण मनुष्यत्व के आह्वान के बिना युवाओं को जाग्रत किया जा सकता है ? क्या किसी दल विशेष का राजनीतिक एजेण्डा युवाशक्ति को पूर्णत: जाग्रत कर सकता है ? जी नहीं, हमने युवाओं में पूर्ण मनुष्यत्व का विवेक पैदा करने की कभी कोशिश ही नहीं की। दलीय एजेण्डे के साथ युवाशक्ति का कल्याण हो जाता तो युवाओं को दलीय एजेण्डे के बाहर जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती, दलीय एजेंडे से युवा शक्ति को पूर्ण मनुष्यता नहीं मिलती। यह बात में हमें सोवियत संघ के पराभव और चीन के बदलावों से सीखने की जरूरत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आज युवाओं को क्रांतिकारी पाठ पढाने की स्थिति में नहीं है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का युवा संगठन तो समाप्त ही हो गया है। युवाओं को यदि आप सिर्फ बाह्य एजेण्डे से बांधेंगे तो इससे युवा शक्ति जगने वाली नहीं है। हमें युवाशक्ति को समग्रता में वर्गीय और दलीय एजेण्डे से भिन्न बृहत्तर मानवीय लक्ष्यों की ओर ले जाना होगा। भारत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वामदलों का पश्चिम बंगाल के युवा समुदाय में सबसे बड़ा संगठन है। तकरीबन एक करोड़ युवा वामदलों के विभिन्न युवासंगठनों में हैं,इसके बावजूद स्थिति क्या है ? क्या इन युवाओं में किसी भी किस्म की बृहत्तर मानवीय उदबोधन के भाव का वाम राजनीति निर्माण कर पायी है ? कहने का तात्पर्य यह है कि युवाशक्ति को इच्छित विचारों और लक्ष्यों में ढालकर हमने संकुचित और संकीर्ण बनाया है।
'नयापथ' के संपादक युवाओं को किसी न किसी सामाजिक इकाई के सहयोगी समूह के रूप में देखते हैं। युचावर्ग किसी का सहयोगी या पूरक समुदाय नहीं है। युवाओं के बारे में किसी भी किस्म का सरलीकरण और साधारणीकरण संभव नहीं है। किसी भी देश में युवा समुदाय कैसा और उसका मानसिक-सामाजिक संरचनात्मक स्वरूप क्या है इसे गंभीरता के साथ परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में समझने की जरूरत है। हमें यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि रोजगार,उद्योग-धंधे,शिक्षा,राष्ट्रप्रेम,पार्टी प्रेम,क्रांतिकारिता आदि के खूंटे से बांधकर यदि युवाओं को देखा जाएगा तो हमेशा गलत निष्कर्ष निकलेंगे। हम भारत को सोवियत संघ जैसा बेरोजगारी रहित देश कभी नहीं बना सकते। सोवियत संघ में तकरीबन साठ बरसों तक युवाओं में अशिक्षा,बेकारी आदि का नामोनिशान नहीं था आज क्या स्थिति है वहां के क्रांतिकारी युवा संगठन की ? चीन ने अपने निर्माण काल के दौरान जिस आदर्श को युवाओं का कंठहार बनाया था आज क्या स्थिति है उसकी ? सारी दुनिया के क्रांतिकारी संगठनों से लेकर बुर्जुआ संगठन अपने को परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। लेकिन भारत के क्रांतिकारी यह काम करना नहीं चाहते।
भारत में कभी भी युवा संस्कृति को देखने और परिभाषित करने का प्रयास ही नहीं किया गया। युवासंस्कृति को हमारे जनवादी समझते नहीं हैं। जनवादियों की युवाओं को सीख क्या है ? पहले क्रांतिकारी विचारों को जानो,मानो तब ही असली युवा बनोगे। युवाओं को क्रांतिकारी बनाने से सामाजिक परिवर्तन नहीं आएगा,इससे युवा सुधरने से रहा। इससे देशभक्ति भी पैदा नहीं होगी। युवाओं में मनुष्यता के प्रति आग्रह पैदा किया जाए,उनके स्वायत्त संसार की हर स्थिति में रक्षा,संवर्द्धन किया जाए,युवा संस्कृति के वैविध्यमय संसार को स्वीकृति दी जाए और हजार फूल खिलने दो कि तर्ज पर युवाओं में सांस्कृतिक-राजनीतिक बहुलतावाद की रक्षा की जाए। युवाओं को एक ही सॉंचे में ढालने के अभी तक के सभी प्रयास अंतत: असफल हुए हैं। हमें युवाओं से प्यार करना चाहिए,उन्हें संस्कृति और मूल्यबोध के आधार पर वर्गीकृत करके प्यार नहीं करना चाहिए। हमें युवा संस्कृति के अंदर मौजूद विभिन्न स्तरों और सांस्कृतिक वैविध्य को गंभीरता से लेना चाहिए। युवा संस्कृति को संस्कृति के जरिए अपदस्थ नहीं करना चाहिए। युवा संस्कृति को यदि किसी भी किस्म के स्टीरियोटाईप विचारों के जरिए अपदस्थ किया जाएगा तो युवाओं को आकर्षित नहीं किया जा सकता। हमें भारत में युवा संस्कृति के पैराडाइम की तलाश करनी चाहिए। हमें युवा संस्कृति को मातहत संस्कृति के रूप में ,घृणा और धिक्कार की संस्कृति के रूप में नहीं देखना चाहिए। युवा संस्कृति मूलत: विरेचन की संस्कृति है। हमारे जनवादी संपादक युवाओं को जो चीज परोस रहे हैं उसका युवा संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। युवा को आप किसी एक विचारधारा, संस्कृति और एक ही किस्म की राजनीति और एक ही किस्म के मूल्यबोध में बांधकर देखेंगे तो युवा समुदाय समझ में नहीं आएगा। 'नयापथ' के संपादक खास किस्म के नजरिए के खूंटे से बांधकर युवा को मातहत सामाजिक इकाई के रूप में देखते हैं। फलत: उन्हें न तो भारत का युवा नजर आया और नहीं युवा संस्कृति ही दिखाई दी।
हमें विचार करना चाहिए कि भारत में क्रांतिकारियों,जनवादियों और प्रगतिशीलों ने युवा संस्कृति और युवा अस्मिता को स्वतंत्र सामाजिक इकाई के रूप में क्यों नहीं देखा, जब भी युवा संस्कृति के सवाल आते हैं वे 'पतन हो गया' 'पतन हो गया' का राग अलापना क्यों शुरू कर देते हैं ? युवा संस्कृति का बुनियादी आधार संस्कृति और क्रांति के तथाकथित पैराडाइम के बाहर है। उसे संस्कृति के परंपरागत पैराडाइम में लाकर जब भी देखा जाएगा उससे न तो युवा समझ में आएगा और न युवा संस्कृति ही समझ में आएगी। क्या युवा संस्कृति का कोई भी विमर्श मासकल्चर के बिना संभव है ?
युवा संस्कृति पर कोई भी चर्चा मासकल्चर के प्रति अविवेकपूर्ण नजरिए से आरंभ नहीं हो सकती। 'नयापथ' के दोनों 'युवाअंक' मासकल्चर और युवा के अन्तस्संबंध को देख ही नहीं पाते। वे यह भी नहीं देख पाते कि युवा संस्कृति में अनेक उपसंस्कृतियां भी हैं। इनके शास्त्र हैं। युवा संस्कृति के अज्ञान का परम सौंदर्य को इन दोनों अंकों के संपादकीय में भरा पड़ा है। हमारे संपादकगण भूल ही गए हैं कि युवाओं में किसी खास विचार, विचारक,क्रांति आदि का असर क्षणिक होता है,दीर्घकालिक प्रभाव युवा संस्कृति का होता है, युवा अस्मिता का होता है। इसकी धुरी है मासकल्चर।
सवाल यह है कि क्या भारत के युवा को सिर्फ प्रेरक पुरूषों की जरूरत है ? युवाओं को प्रेरणा देने का तरीका आज पूरी तरह पिट चुका है। युवाओं के दिल,दिमाग, जीवनशैली ,विचारधारा आदि को प्रेरक पुरूषों के संस्मरण लेखन से प्रभावित नहीं किया जा सकता । आज के युवा समुदाय की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है,आज वह ज्यादा यथार्थवादी और व्यवहारवादी है। क्या उसकी समस्याओं पर चर्चा किए बगैर उसका दिल जीता जा सकता है ? ऐसा क्यों हुआ कि जनवादी लेखक संघ के संपादकद्वय (मुरली मनोहरप्रसाद सिंह और चंचल चौहान) अतिथि संपादक संजीव कुमार, युवाओं की किसी भी समस्या को विवेचन लायक नहीं समझते ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि युवाओं के सामने समस्याओं की जो फेहरिस्त संपादकद्वय ने गिनायी है उसमें से किसी भी समस्या को विश्लेषित करने योग्य क्यों नहीं समझा गया ? क्या राजनीतिक दलों की तरह युवा समस्या का वर्णनात्मक गद्य ही युवाओं के प्रति सही समझ बनाने के लिए काफी है ? युवा समस्याओं को यदि राजनीतिक नारेबाजी की शक्ल में प्रस्तुत किया जाएगा तो न तो समस्या समझ में आएगी और न युवावर्ग ही समझ में आएगा। भारत के युवावर्ग के दिलो-दिमाग और सर्जनात्मकता के मूल्यांकन में दोनों अंक एकदम विफल रहे हैं। इस पहलू को लेकर कोई भी सामग्री इन दोनों अंकों में नहीं है। दूसरी ओर इन दोनों अंकों में भारत के युवावर्ग के प्रति अवैज्ञानिक समझ का जमकर महिमामंडन किया गया है। युवाओं की सर्जनात्मकता ,आनंद,मनोरंजन, जीवनशैली के प्रति अविश्वास,संशय, हिकारत और धिक्कार भाव व्यक्त हुआ है। संपादक द्वय ने लिखा है '' युवा वे ही देख पा रहे हैं जो इस भूमंडलीय वित्तीय पूंजी का निर्लज्जतापूर्वक प्रचार करने वाले मीडिया तंत्र द्वारा दिखाया जा रहा है।यह तंत्र युवाओं को बता रहा है कि उनके लिए सत्य केवल पैसा और पद है और इसी के पीछे भागते जाना ही वास्तविक संघर्ष है और इसके लिए दूसरों को धोखा देना बौद्धिक प्रतिभा का सही उपयोग है। जीवन की सार्थकता उसकी सफलता में है,चाहे उसे कैसे भी हासिल किया जाए। यदि आज हम सफल हैं तो दुनिया कल रहे या न रहे,यह हमारी चिन्ता क्यों बने।क्या इस स्वार्थ-लोलुप विकृत मानसिकता के साथ एक बेहतर दुनिया का निर्माण संभव है ?''
इन दोनों अंकों की सबसे बड़ी कमजोरी है युवा अस्मिता और युवा संस्कृति को स्वतंत्र रूप में न देख पाना। जनवादी पहले चाहते हैं कि युवा कैसे बनें और इसके लिए उन्होंने अपने पसंदीदा आदर्श पुरूषों का विवेचन पेश किया है। युवाओं के प्रति यह नजरिया सही नहीं कहा जा सकता। यह तो वैसे ही हुआ कि पहले युवा फिदेल कास्त्रो,भगतसिंह आदि जैसे बनें ,क्रांतिकारी बनें, अथवा पूर्ण स्वाधीनता के मार्ग को अर्जित करें। उसके बाद वे अपने बारे में सोचें। इस तरह देखने से युवाओं के दिल,दिमाग,जिंदगी का हमने बाह्य उद्देश्यों के साथ संबंध जोड दिया है। क्या युवाओं का अभीप्सित लक्ष्य क्रांति हो सकता है ? क्या युवाओं का लक्ष्य खद्दरधारियों का देश निर्मित करना लक्ष्य हो सकता है ? क्या युवाओं को चरखे, राष्ट्रीय ध्वज आदि के साथ नत्थी किया जा सकता है। क्या युवाओं का एकमात्र लक्ष्य अपने देश के गौरवमय इतिहास को याद रखना और उसका पारायण करते रहना है ? क्या युवाओं को बाह्य सवालों और सरोकारों से बांधकर सही मार्ग पर लाया जा सकता है ? हम अपने युवा में पूर्ण मनुष्यत्व का उदबोधन क्यों नहीं करना चाहते, क्या पूर्ण मनुष्यत्व के आह्वान के बिना युवाओं को जाग्रत किया जा सकता है ? क्या किसी दल विशेष का राजनीतिक एजेण्डा युवाशक्ति को पूर्णत: जाग्रत कर सकता है ? जी नहीं, हमने युवाओं में पूर्ण मनुष्यत्व का विवेक पैदा करने की कभी कोशिश ही नहीं की। दलीय एजेण्डे के साथ युवाशक्ति का कल्याण हो जाता तो युवाओं को दलीय एजेण्डे के बाहर जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती, दलीय एजेंडे से युवा शक्ति को पूर्ण मनुष्यता नहीं मिलती। यह बात में हमें सोवियत संघ के पराभव और चीन के बदलावों से सीखने की जरूरत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आज युवाओं को क्रांतिकारी पाठ पढाने की स्थिति में नहीं है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का युवा संगठन तो समाप्त ही हो गया है। युवाओं को यदि आप सिर्फ बाह्य एजेण्डे से बांधेंगे तो इससे युवा शक्ति जगने वाली नहीं है। हमें युवाशक्ति को समग्रता में वर्गीय और दलीय एजेण्डे से भिन्न बृहत्तर मानवीय लक्ष्यों की ओर ले जाना होगा। भारत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वामदलों का पश्चिम बंगाल के युवा समुदाय में सबसे बड़ा संगठन है। तकरीबन एक करोड़ युवा वामदलों के विभिन्न युवासंगठनों में हैं,इसके बावजूद स्थिति क्या है ? क्या इन युवाओं में किसी भी किस्म की बृहत्तर मानवीय उदबोधन के भाव का वाम राजनीति निर्माण कर पायी है ? कहने का तात्पर्य यह है कि युवाशक्ति को इच्छित विचारों और लक्ष्यों में ढालकर हमने संकुचित और संकीर्ण बनाया है।
'नयापथ' के संपादक युवाओं को किसी न किसी सामाजिक इकाई के सहयोगी समूह के रूप में देखते हैं। युचावर्ग किसी का सहयोगी या पूरक समुदाय नहीं है। युवाओं के बारे में किसी भी किस्म का सरलीकरण और साधारणीकरण संभव नहीं है। किसी भी देश में युवा समुदाय कैसा और उसका मानसिक-सामाजिक संरचनात्मक स्वरूप क्या है इसे गंभीरता के साथ परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में समझने की जरूरत है। हमें यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि रोजगार,उद्योग-धंधे,शिक्षा,राष्ट्रप्रेम,पार्टी प्रेम,क्रांतिकारिता आदि के खूंटे से बांधकर यदि युवाओं को देखा जाएगा तो हमेशा गलत निष्कर्ष निकलेंगे। हम भारत को सोवियत संघ जैसा बेरोजगारी रहित देश कभी नहीं बना सकते। सोवियत संघ में तकरीबन साठ बरसों तक युवाओं में अशिक्षा,बेकारी आदि का नामोनिशान नहीं था आज क्या स्थिति है वहां के क्रांतिकारी युवा संगठन की ? चीन ने अपने निर्माण काल के दौरान जिस आदर्श को युवाओं का कंठहार बनाया था आज क्या स्थिति है उसकी ? सारी दुनिया के क्रांतिकारी संगठनों से लेकर बुर्जुआ संगठन अपने को परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। लेकिन भारत के क्रांतिकारी यह काम करना नहीं चाहते।
भारत में कभी भी युवा संस्कृति को देखने और परिभाषित करने का प्रयास ही नहीं किया गया। युवासंस्कृति को हमारे जनवादी समझते नहीं हैं। जनवादियों की युवाओं को सीख क्या है ? पहले क्रांतिकारी विचारों को जानो,मानो तब ही असली युवा बनोगे। युवाओं को क्रांतिकारी बनाने से सामाजिक परिवर्तन नहीं आएगा,इससे युवा सुधरने से रहा। इससे देशभक्ति भी पैदा नहीं होगी। युवाओं में मनुष्यता के प्रति आग्रह पैदा किया जाए,उनके स्वायत्त संसार की हर स्थिति में रक्षा,संवर्द्धन किया जाए,युवा संस्कृति के वैविध्यमय संसार को स्वीकृति दी जाए और हजार फूल खिलने दो कि तर्ज पर युवाओं में सांस्कृतिक-राजनीतिक बहुलतावाद की रक्षा की जाए। युवाओं को एक ही सॉंचे में ढालने के अभी तक के सभी प्रयास अंतत: असफल हुए हैं। हमें युवाओं से प्यार करना चाहिए,उन्हें संस्कृति और मूल्यबोध के आधार पर वर्गीकृत करके प्यार नहीं करना चाहिए। हमें युवा संस्कृति के अंदर मौजूद विभिन्न स्तरों और सांस्कृतिक वैविध्य को गंभीरता से लेना चाहिए। युवा संस्कृति को संस्कृति के जरिए अपदस्थ नहीं करना चाहिए। युवा संस्कृति को यदि किसी भी किस्म के स्टीरियोटाईप विचारों के जरिए अपदस्थ किया जाएगा तो युवाओं को आकर्षित नहीं किया जा सकता। हमें भारत में युवा संस्कृति के पैराडाइम की तलाश करनी चाहिए। हमें युवा संस्कृति को मातहत संस्कृति के रूप में ,घृणा और धिक्कार की संस्कृति के रूप में नहीं देखना चाहिए। युवा संस्कृति मूलत: विरेचन की संस्कृति है। हमारे जनवादी संपादक युवाओं को जो चीज परोस रहे हैं उसका युवा संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। युवा को आप किसी एक विचारधारा, संस्कृति और एक ही किस्म की राजनीति और एक ही किस्म के मूल्यबोध में बांधकर देखेंगे तो युवा समुदाय समझ में नहीं आएगा। 'नयापथ' के संपादक खास किस्म के नजरिए के खूंटे से बांधकर युवा को मातहत सामाजिक इकाई के रूप में देखते हैं। फलत: उन्हें न तो भारत का युवा नजर आया और नहीं युवा संस्कृति ही दिखाई दी।
हमें विचार करना चाहिए कि भारत में क्रांतिकारियों,जनवादियों और प्रगतिशीलों ने युवा संस्कृति और युवा अस्मिता को स्वतंत्र सामाजिक इकाई के रूप में क्यों नहीं देखा, जब भी युवा संस्कृति के सवाल आते हैं वे 'पतन हो गया' 'पतन हो गया' का राग अलापना क्यों शुरू कर देते हैं ? युवा संस्कृति का बुनियादी आधार संस्कृति और क्रांति के तथाकथित पैराडाइम के बाहर है। उसे संस्कृति के परंपरागत पैराडाइम में लाकर जब भी देखा जाएगा उससे न तो युवा समझ में आएगा और न युवा संस्कृति ही समझ में आएगी। क्या युवा संस्कृति का कोई भी विमर्श मासकल्चर के बिना संभव है ?
युवा संस्कृति पर कोई भी चर्चा मासकल्चर के प्रति अविवेकपूर्ण नजरिए से आरंभ नहीं हो सकती। 'नयापथ' के दोनों 'युवाअंक' मासकल्चर और युवा के अन्तस्संबंध को देख ही नहीं पाते। वे यह भी नहीं देख पाते कि युवा संस्कृति में अनेक उपसंस्कृतियां भी हैं। इनके शास्त्र हैं। युवा संस्कृति के अज्ञान का परम सौंदर्य को इन दोनों अंकों के संपादकीय में भरा पड़ा है। हमारे संपादकगण भूल ही गए हैं कि युवाओं में किसी खास विचार, विचारक,क्रांति आदि का असर क्षणिक होता है,दीर्घकालिक प्रभाव युवा संस्कृति का होता है, युवा अस्मिता का होता है। इसकी धुरी है मासकल्चर।
गुरुवार, 24 सितंबर 2009
तकनीक के तंत्र में जनतंत्र
आज विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर की टिप्पणी चर्चा में है। ऐसा क्यों है कि एक मंत्री का साधारण आदमी से बात करना भी नीतिगत समझ माना जाए,क्या एक मंत्री को अपनी निजी बातचीत का हक नहीं है, क्या तकनीक हमारे बोलने के हक को छीन लेती है,क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सही टिप्पणी की, इस सभी सवालों के जबाव इस तथ्य पर निर्भर करते हैं कि आपकी संचार तकनीक की क्या समझ है।
संचार तकनीक समानतापंथी होती है। सबको शिरकत का समान अवसर देती है। इसका इस्तेमाल करते समय चिन्तित या परेशान होने की जरूरत नहीं है। तकनीक को भय की भाषा में नहीं समझा जा सकता। अब तक संचार तकनीक के मानव सभ्यता ने जो खेल देखे हैं वे यही संदेश देते हैं कि तकनीक से बडा समानतावादी कोई नहीं है। संचार तकनीक उन सबकी मदद करती है जो इसमें शिरकत करते हैं,चाहे उनकी विचारधारा कुछ भी हो, वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों। किसी भी जाति या नस्ल के हों। तकनीक सबकी होती है और सबकी मदद करती है। संचार तकनीक अपनी शिरकत वाली भूमिका के कारण लोकतंत्र का सबसे प्रभावशाली अस्त्र भी है।
संचार तकनीक की सर्वोत्तम कृति है इंटरनेट। इंटरनेट के आने के बाद तो तकनीक की शिरकत वाली भूमिका अपने चर्मोत्कर्ष पर दिखाई दे रही है। तकनीक तब ही लोकतांत्रिक भूमिका अदा करती है जब वह सहज रूप से आम लोगों की पहुँच के दायरे में हो। समाज में धीरे धीरे डिजिटल विभाजन कम हो रहा है। डिजिटल संचार तकनीक आज साधारण आदमी के पास पहुँच रही है,हो सकता है अगले पांच-दस सालों में यह विभाजन गुणात्मक रूप से कम हो जाए। क्योंकि डिजिटल जगत में प्रवेश और शिरकत को विभिन्न स्रोतों के जरिए बढावा दिया जा रहा है।
हाल ही में 'माई स्पेस' बनाम 'फेसबुक' के बीच की बहस सामने आई है। सारी दुनिया में 'माईस्पेस' से 'फेसबुक' जाने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है। दो सप्ताह पहले 'कॉम स्कोर' ने अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' के बारे में आए बदलावों के बारे में आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों को देखकर यही लगता है कि 'माई स्पेस' के अब दिन लद गए हैं और लोग तेजी से 'फेसबुक' में जा रहे हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि 'माई स्पेस' के यूजरों के आंकडों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि 'फेसबुक' में जाने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है जबकि 'माईस्पेस' के यूजरों की तादाद जितनी विगत वर्ष थी वह आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। अमरीका में 70 मिलियन लोगों ने 'माईस्पेस' की यात्रा की। यह संख्या बहुत बड़ी है। आज यह भी माना जा रहा है कि 'माई स्पेस' बंद गली है,कठमुल्लेपन का रास्ता है, घेटो है। इसकी तुलना में 'फेसबुक' खुला मार्ग है। यहां आप ज्यादा खुला संवाद करते हैं। आदान-प्रदान करते हैं। भारत में 'माईस्पेस' में ज्यादा रमण कर रहे हैं आम यूजर। जबकि अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' की तगडी प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है। तमाम किस्म की सोशल साइटस 'माईस्पेस' में चल रही हैं जहां लोग मिल रहे हैं, आदान प्रदान कर रहे हें। लेकिन 'फेसबुक' में बडे ग्रुप बन रहे हैं। भारत में बड़े ग्रुप अभी बनने शुरू नहीं हुए हैं। अभी हमारे यूजर 'माईस्पेस' में रमण कर रहे हैं,खासकर तरूणों का बड़ा तबका है जो रमण कर रहा है। 'माईस्पेस' में व्यक्तिगत संवाद ज्यादा हो रहा है। जबकि 'फेसबुक' में व्यापक सामाजिक संवाद हो रहा है। अमेरिका में स्कूली बच्चों के पूरे के पूरे स्कूल 'फेसबुक' में जा रहे हैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी एक निबंध की तरह तरह से व्याख्याएं कर रहे हैं, उनके सवालों के जबाव विद्वान लोग दे रहे हैं। निबंध की व्याख्या में विद्वानों के गुटों का शामिल होना, एक बृहत्तर विमर्श को जन्म दे रहा है।
इंटरनेट की दुनिया में 'माईस्पेस' पहले आया बाद में 'फेसबुक' आया। जो लोग 'माईस्पेस' का इस्तेमाल कर रहे थे वे पूरी तरह बोर हो चुके थे ऐसे में 'फेसबुक' का पदार्पण हुआ तो चीजें दूसरी दिशा में आकर्षित करने लगीं। अपनी अभिव्यक्ति की सीमाओं को तोड़ने के लिए लोग तेजी से 'फेसबुक' की ओर मुखातिब हुए हैं। भारत में 'माईस्पेस' का युवा ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। न्यूनतम लोग हैं जो 'फेसबुक' में दाखिल हुए हैं। तुलना करें तो पाएंगे 'माई स्पेस' खतरों के खिलाड़ियों का संसार है जबकि 'फेसबुक' कल्पना का स्वर्ग है। विदेश राज्यमंत्री की टिविटर में लिखी प्रतिक्रिया उस खतरे के संसार की झलक मात्र है बाकी जो लोग उसमें रमण करते रहते हैं वे खूब आनंद भी लेते हैं और अनेक लोग हैं ,खासकर तरूणों को अनेक बार खतरों का भी सामना करना पड़ता है।
तरूणों द्वारा जिस भाषा का 'माईस्पेस' में इस्तेमाल किया जा रहा है वह चौंकाने वाली है। इसके विपरीत 'फेसबुक' में भद्रता का साम्राज्य है। 'माईस्पेस' की समूची संस्कृति को काले लोगों के प्रतिवादी स्वरों ने घेर लिया है, वहां भाषा,संस्कृति,राजनीति,पापुलर कल्चर आदि के क्षेत्र में भाषायी ताण्डव चल रहा है उसे देखकर पंडितों की हवा निकली हुई है। हिंदी के कई ब्लाग और वेबसाइट हैं जहां पर हिंदीप्रेमियों की आक्रामक भाषा देखकर किसी भी विद्वान का मन खट्टा हो सकता है और कोई विद्वान् यह सहज ही तय कर लेगा कि अब मैं इंटरनेट पर संवाद करने नहीं जाऊँगा ।
पिछले दिनों नामवर सिंह,राजेन्द्र यादव और प्रभाष जोशी के लिखे को लेकर जो बहस चली है उसने भाषा के भदेस रूपों को इतने आक्रामक रूप में व्यक्त किया है कि पंडितों के होश उड़े हुए हैं। कुछ लोग जो अपने ब्लाग पर लिखते थे वे डरकर लिखना बंद कर चुके हैं।यह बहुत ही अच्छा भाषिक अध्ययन होगा कि किस तरह की हिंदी नेट के विभिन्न रूपों में इस्तेमाल की जा रही है। उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है। तरूणों की भाषा में अस्वीकार का स्वर प्रबल रहा है। इनमें ज्यादातर ऐसे भी हैं जो प्रविलेज सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं आए हैं और जीवन की कठिन जद्दोजहद करते रहे हैं। जाहिर है ऐसी पृष्ठभूमि से आने वाले तरूणों की भाषा में आक्रोश,अविश्वास और अनास्था के स्वर ज्यादा व्यक्त होंगे, इसकी तुलना में जो संपन्न है और प्रविलेज अवस्था में हैं उनकी भाषा में शालीनता ज्यादा व्यक्त होती है। सम्पन्न और विपन्न के बीच की भाषा का यह अंतर इंटरनेट पर साफ दिखाई देता है। यह भाषिक अंतर 'माई स्पेस' के द्वारा सृजित संस्कृति का अभिन्न अंग है। इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइट को लेकर तरूणों में यह दुविधा रहती है कि उन पर जाएं या न जाएं। चाटरूम में जाएं या न जाएं,जाएं तो किस भाषा में बात करें। 'माई स्पेस' में जाने वाले रमण करने वाले जानते हैं कि 'जैसी चौखट होती है वैसे ही किबाड़ फिट होते हैं।' यूजर की जैसी अभिरूचि है वह वैसे ही लोगों से बातें करता है,नेट पर मिलता है। अभिरूचियों का संसार आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि से भी जुडा है,उम्र से भी जुडा है। फलत: सिर्फ अभिरूचियां ही नहीं अन्य चीजें भी प्रकारान्तर से आपके संसार में दाखिल हो जाती हैं।
इंटरनेट मौजूदा सामाजिक यथार्थ का आईना है । प्रचलित सामाजिक गतिशीलता की अभिव्यक्ति भी है। फलत: वह ऐसे वैविध्यमय यथार्थ को व्यक्त कर रहा है जिसे पहले कभी देखा ही नहीं गया है। इंटरनेट के संसार में जाति और नस्ल के भेद अब चौंकाते नहीं हैं। यहॉं पर जिन लोगों को हम बातें करते पाते हैं ,भावनात्मक आदान प्रदान करते पाते हैं,वे साक्षात रूप में कभी एक दूसरे से नहीं मिलेंगे। यानी जो भावनात्मक स्पेस में सहभागिता निभा रहा है वह सामाजिक अथवा कायिक स्पेस में सहभागिता नहीं निभा रहा होता है। कायिक स्पेस और भावनात्मक रूप में अलग बने रहते हैं।
'फेसबुक' में जाने वाले आमतौर पर अभिजन ही हैं,ये वे लोग हैं जो आम जनता के साथ ,विभिन्न किस्म के जनसमूहों के साथ संवाद करना चाहते हैं। कोई भी राजनेता जो सार्वजनिक जीवन में है और कम्प्यूटर तकनीक के प्रयोगों से वाकिफ है उसके लिए 'फेसबुक' एक अच्छा माध्यम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं 'फेसबुक' में नहीं जाते किंतु उनके सहकर्मी मंत्री यदि उसमें शामिल होते हैं तो उन्हें कोई एतराज भी नहीं है। 'फेसबुक' का संवाद अनौपचारिक संवाद है। यह वैसा ही संवाद है जैसा अमूमन नेतागण अभी बैठक में मिलने वालों ,दोस्तों और परिचितों में करते हैं, और उस दौरान वे अनेक ऐसी भी बातें करते हैं जिनका सार्वजनिक तौरपर कभी उद्घाटन करना संभव नहीं होता। ये 'ऑफ द रिकार्ड ' बातें होती हैं और इन पर कभी सार्वजनिक विवाद नहीं होता। लेकिन 'फेसबुक' ने निजी बैठकों में होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं को सार्वजनिक कर दिया है। ये व्यक्तिगत संवाद की कोटि में आती हैं। इनमें किसी भी किस्म की राजनीति,नीति, औपचारिकता खोजना बेवकूफी है। इसी चीज को मद्देनजर रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने विदेशराज्यमंत्री की तथाकथित टिप्पणी पर कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई करने से मना कर दिया। स्वयं विदेश राज्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांग ली। लेकिन कांग्रेस जैसे तकनीकी ज्ञान संपन्न दल और उसके प्रवक्ता ने शशिथरूर की आलोचना करके अपनी राजनीतिक और नेट तकनीक संबंधी अपरिवक्पता का ही परिचय दिया है।
भारतीय राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे आम जनता के साथ खुलकर संवाद नहीं करते,संचार क्रांति अभी उनके दफ्तर में भी पूरी तरह घुस नहीं पायी है। वे अभी भी संचार के परंपरागत रूपों का ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में इंटरनेट पर संवाद करने वाले शशि थरूर की संवादात्मक भूमिका को वे समझ ही नहीं पाएंगे।शशि थरूर का लेखन जिन लोगों ने पढा है,उनके नीतिगत नजरिए को जो लोग जानते हैं वे सहज रूप में समझ सकते हैं कि उनके अंदर गरीब जनता,पिछडी जनता अथवा गैर अभिजन समुदायों के प्रति किसी भी तरह का भेदभावपूर्ण नजरिया नहीं है।
कायदे से हमारे मंत्रियों,सांसदों,विधायकों को अनिवार्यत: नेट पर अपनी जनता के साथ अहर्निश संवाद,संपर्क और संप्रेषण की प्रक्रिया में रहना चाहिए। इस कार्य के लिए भारत की गरीब जनता उन्हें मुफ्त में संचार की तमाम सुविधाएं देती है,जिसमें फ्री फोन से लेकर सचिव रखने तक की सुविधाएं शामिल हैं। इसके बावजूद वे कभी रीयल टाइम में अपनी जनता के संपर्क और संवाद के दायरे में नहीं होते। कायदे से केन्द्र सरकार को राजनीतिक पारदर्शिता पैदा करने,राजनेता और जनता के बीच में संवाद और संपर्क को पुख्ता करने के लिए सभी मंत्रियों,सांसदों,विधायकों आदि के लिए 'फेसबुक' में जाना और संवाद करना अनिवार्य कर देना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रणाली को इससे बल मिलेगा।
संचार तकनीक समानतापंथी होती है। सबको शिरकत का समान अवसर देती है। इसका इस्तेमाल करते समय चिन्तित या परेशान होने की जरूरत नहीं है। तकनीक को भय की भाषा में नहीं समझा जा सकता। अब तक संचार तकनीक के मानव सभ्यता ने जो खेल देखे हैं वे यही संदेश देते हैं कि तकनीक से बडा समानतावादी कोई नहीं है। संचार तकनीक उन सबकी मदद करती है जो इसमें शिरकत करते हैं,चाहे उनकी विचारधारा कुछ भी हो, वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों। किसी भी जाति या नस्ल के हों। तकनीक सबकी होती है और सबकी मदद करती है। संचार तकनीक अपनी शिरकत वाली भूमिका के कारण लोकतंत्र का सबसे प्रभावशाली अस्त्र भी है।
संचार तकनीक की सर्वोत्तम कृति है इंटरनेट। इंटरनेट के आने के बाद तो तकनीक की शिरकत वाली भूमिका अपने चर्मोत्कर्ष पर दिखाई दे रही है। तकनीक तब ही लोकतांत्रिक भूमिका अदा करती है जब वह सहज रूप से आम लोगों की पहुँच के दायरे में हो। समाज में धीरे धीरे डिजिटल विभाजन कम हो रहा है। डिजिटल संचार तकनीक आज साधारण आदमी के पास पहुँच रही है,हो सकता है अगले पांच-दस सालों में यह विभाजन गुणात्मक रूप से कम हो जाए। क्योंकि डिजिटल जगत में प्रवेश और शिरकत को विभिन्न स्रोतों के जरिए बढावा दिया जा रहा है।
हाल ही में 'माई स्पेस' बनाम 'फेसबुक' के बीच की बहस सामने आई है। सारी दुनिया में 'माईस्पेस' से 'फेसबुक' जाने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है। दो सप्ताह पहले 'कॉम स्कोर' ने अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' के बारे में आए बदलावों के बारे में आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों को देखकर यही लगता है कि 'माई स्पेस' के अब दिन लद गए हैं और लोग तेजी से 'फेसबुक' में जा रहे हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि 'माई स्पेस' के यूजरों के आंकडों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि 'फेसबुक' में जाने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है जबकि 'माईस्पेस' के यूजरों की तादाद जितनी विगत वर्ष थी वह आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। अमरीका में 70 मिलियन लोगों ने 'माईस्पेस' की यात्रा की। यह संख्या बहुत बड़ी है। आज यह भी माना जा रहा है कि 'माई स्पेस' बंद गली है,कठमुल्लेपन का रास्ता है, घेटो है। इसकी तुलना में 'फेसबुक' खुला मार्ग है। यहां आप ज्यादा खुला संवाद करते हैं। आदान-प्रदान करते हैं। भारत में 'माईस्पेस' में ज्यादा रमण कर रहे हैं आम यूजर। जबकि अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' की तगडी प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है। तमाम किस्म की सोशल साइटस 'माईस्पेस' में चल रही हैं जहां लोग मिल रहे हैं, आदान प्रदान कर रहे हें। लेकिन 'फेसबुक' में बडे ग्रुप बन रहे हैं। भारत में बड़े ग्रुप अभी बनने शुरू नहीं हुए हैं। अभी हमारे यूजर 'माईस्पेस' में रमण कर रहे हैं,खासकर तरूणों का बड़ा तबका है जो रमण कर रहा है। 'माईस्पेस' में व्यक्तिगत संवाद ज्यादा हो रहा है। जबकि 'फेसबुक' में व्यापक सामाजिक संवाद हो रहा है। अमेरिका में स्कूली बच्चों के पूरे के पूरे स्कूल 'फेसबुक' में जा रहे हैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी एक निबंध की तरह तरह से व्याख्याएं कर रहे हैं, उनके सवालों के जबाव विद्वान लोग दे रहे हैं। निबंध की व्याख्या में विद्वानों के गुटों का शामिल होना, एक बृहत्तर विमर्श को जन्म दे रहा है।
इंटरनेट की दुनिया में 'माईस्पेस' पहले आया बाद में 'फेसबुक' आया। जो लोग 'माईस्पेस' का इस्तेमाल कर रहे थे वे पूरी तरह बोर हो चुके थे ऐसे में 'फेसबुक' का पदार्पण हुआ तो चीजें दूसरी दिशा में आकर्षित करने लगीं। अपनी अभिव्यक्ति की सीमाओं को तोड़ने के लिए लोग तेजी से 'फेसबुक' की ओर मुखातिब हुए हैं। भारत में 'माईस्पेस' का युवा ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। न्यूनतम लोग हैं जो 'फेसबुक' में दाखिल हुए हैं। तुलना करें तो पाएंगे 'माई स्पेस' खतरों के खिलाड़ियों का संसार है जबकि 'फेसबुक' कल्पना का स्वर्ग है। विदेश राज्यमंत्री की टिविटर में लिखी प्रतिक्रिया उस खतरे के संसार की झलक मात्र है बाकी जो लोग उसमें रमण करते रहते हैं वे खूब आनंद भी लेते हैं और अनेक लोग हैं ,खासकर तरूणों को अनेक बार खतरों का भी सामना करना पड़ता है।
तरूणों द्वारा जिस भाषा का 'माईस्पेस' में इस्तेमाल किया जा रहा है वह चौंकाने वाली है। इसके विपरीत 'फेसबुक' में भद्रता का साम्राज्य है। 'माईस्पेस' की समूची संस्कृति को काले लोगों के प्रतिवादी स्वरों ने घेर लिया है, वहां भाषा,संस्कृति,राजनीति,पापुलर कल्चर आदि के क्षेत्र में भाषायी ताण्डव चल रहा है उसे देखकर पंडितों की हवा निकली हुई है। हिंदी के कई ब्लाग और वेबसाइट हैं जहां पर हिंदीप्रेमियों की आक्रामक भाषा देखकर किसी भी विद्वान का मन खट्टा हो सकता है और कोई विद्वान् यह सहज ही तय कर लेगा कि अब मैं इंटरनेट पर संवाद करने नहीं जाऊँगा ।
पिछले दिनों नामवर सिंह,राजेन्द्र यादव और प्रभाष जोशी के लिखे को लेकर जो बहस चली है उसने भाषा के भदेस रूपों को इतने आक्रामक रूप में व्यक्त किया है कि पंडितों के होश उड़े हुए हैं। कुछ लोग जो अपने ब्लाग पर लिखते थे वे डरकर लिखना बंद कर चुके हैं।यह बहुत ही अच्छा भाषिक अध्ययन होगा कि किस तरह की हिंदी नेट के विभिन्न रूपों में इस्तेमाल की जा रही है। उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है। तरूणों की भाषा में अस्वीकार का स्वर प्रबल रहा है। इनमें ज्यादातर ऐसे भी हैं जो प्रविलेज सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं आए हैं और जीवन की कठिन जद्दोजहद करते रहे हैं। जाहिर है ऐसी पृष्ठभूमि से आने वाले तरूणों की भाषा में आक्रोश,अविश्वास और अनास्था के स्वर ज्यादा व्यक्त होंगे, इसकी तुलना में जो संपन्न है और प्रविलेज अवस्था में हैं उनकी भाषा में शालीनता ज्यादा व्यक्त होती है। सम्पन्न और विपन्न के बीच की भाषा का यह अंतर इंटरनेट पर साफ दिखाई देता है। यह भाषिक अंतर 'माई स्पेस' के द्वारा सृजित संस्कृति का अभिन्न अंग है। इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइट को लेकर तरूणों में यह दुविधा रहती है कि उन पर जाएं या न जाएं। चाटरूम में जाएं या न जाएं,जाएं तो किस भाषा में बात करें। 'माई स्पेस' में जाने वाले रमण करने वाले जानते हैं कि 'जैसी चौखट होती है वैसे ही किबाड़ फिट होते हैं।' यूजर की जैसी अभिरूचि है वह वैसे ही लोगों से बातें करता है,नेट पर मिलता है। अभिरूचियों का संसार आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि से भी जुडा है,उम्र से भी जुडा है। फलत: सिर्फ अभिरूचियां ही नहीं अन्य चीजें भी प्रकारान्तर से आपके संसार में दाखिल हो जाती हैं।
इंटरनेट मौजूदा सामाजिक यथार्थ का आईना है । प्रचलित सामाजिक गतिशीलता की अभिव्यक्ति भी है। फलत: वह ऐसे वैविध्यमय यथार्थ को व्यक्त कर रहा है जिसे पहले कभी देखा ही नहीं गया है। इंटरनेट के संसार में जाति और नस्ल के भेद अब चौंकाते नहीं हैं। यहॉं पर जिन लोगों को हम बातें करते पाते हैं ,भावनात्मक आदान प्रदान करते पाते हैं,वे साक्षात रूप में कभी एक दूसरे से नहीं मिलेंगे। यानी जो भावनात्मक स्पेस में सहभागिता निभा रहा है वह सामाजिक अथवा कायिक स्पेस में सहभागिता नहीं निभा रहा होता है। कायिक स्पेस और भावनात्मक रूप में अलग बने रहते हैं।
'फेसबुक' में जाने वाले आमतौर पर अभिजन ही हैं,ये वे लोग हैं जो आम जनता के साथ ,विभिन्न किस्म के जनसमूहों के साथ संवाद करना चाहते हैं। कोई भी राजनेता जो सार्वजनिक जीवन में है और कम्प्यूटर तकनीक के प्रयोगों से वाकिफ है उसके लिए 'फेसबुक' एक अच्छा माध्यम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं 'फेसबुक' में नहीं जाते किंतु उनके सहकर्मी मंत्री यदि उसमें शामिल होते हैं तो उन्हें कोई एतराज भी नहीं है। 'फेसबुक' का संवाद अनौपचारिक संवाद है। यह वैसा ही संवाद है जैसा अमूमन नेतागण अभी बैठक में मिलने वालों ,दोस्तों और परिचितों में करते हैं, और उस दौरान वे अनेक ऐसी भी बातें करते हैं जिनका सार्वजनिक तौरपर कभी उद्घाटन करना संभव नहीं होता। ये 'ऑफ द रिकार्ड ' बातें होती हैं और इन पर कभी सार्वजनिक विवाद नहीं होता। लेकिन 'फेसबुक' ने निजी बैठकों में होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं को सार्वजनिक कर दिया है। ये व्यक्तिगत संवाद की कोटि में आती हैं। इनमें किसी भी किस्म की राजनीति,नीति, औपचारिकता खोजना बेवकूफी है। इसी चीज को मद्देनजर रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने विदेशराज्यमंत्री की तथाकथित टिप्पणी पर कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई करने से मना कर दिया। स्वयं विदेश राज्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांग ली। लेकिन कांग्रेस जैसे तकनीकी ज्ञान संपन्न दल और उसके प्रवक्ता ने शशिथरूर की आलोचना करके अपनी राजनीतिक और नेट तकनीक संबंधी अपरिवक्पता का ही परिचय दिया है।
भारतीय राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे आम जनता के साथ खुलकर संवाद नहीं करते,संचार क्रांति अभी उनके दफ्तर में भी पूरी तरह घुस नहीं पायी है। वे अभी भी संचार के परंपरागत रूपों का ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में इंटरनेट पर संवाद करने वाले शशि थरूर की संवादात्मक भूमिका को वे समझ ही नहीं पाएंगे।शशि थरूर का लेखन जिन लोगों ने पढा है,उनके नीतिगत नजरिए को जो लोग जानते हैं वे सहज रूप में समझ सकते हैं कि उनके अंदर गरीब जनता,पिछडी जनता अथवा गैर अभिजन समुदायों के प्रति किसी भी तरह का भेदभावपूर्ण नजरिया नहीं है।
कायदे से हमारे मंत्रियों,सांसदों,विधायकों को अनिवार्यत: नेट पर अपनी जनता के साथ अहर्निश संवाद,संपर्क और संप्रेषण की प्रक्रिया में रहना चाहिए। इस कार्य के लिए भारत की गरीब जनता उन्हें मुफ्त में संचार की तमाम सुविधाएं देती है,जिसमें फ्री फोन से लेकर सचिव रखने तक की सुविधाएं शामिल हैं। इसके बावजूद वे कभी रीयल टाइम में अपनी जनता के संपर्क और संवाद के दायरे में नहीं होते। कायदे से केन्द्र सरकार को राजनीतिक पारदर्शिता पैदा करने,राजनेता और जनता के बीच में संवाद और संपर्क को पुख्ता करने के लिए सभी मंत्रियों,सांसदों,विधायकों आदि के लिए 'फेसबुक' में जाना और संवाद करना अनिवार्य कर देना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रणाली को इससे बल मिलेगा।
बुधवार, 23 सितंबर 2009
डिजिटल संस्कृति की संभावनाएं
डिजिटल तकनीक आने के बाद संस्कृति का आसान ऊँचा हुआ है,संस्कृति दीर्घायु हुई है।संस्कृति के प्राचीन रूपों के पुनरूत्थान की संभावनाएं प्रबल हुई हैं। इसने संस्कृति और तकनीकी के बीच मित्रता को और भी प्रगाढ़ बनाया है।वे लोग जो संस्कृति और तकनीकी में तनाव और अन्तर्विरोध देखते रहे हैं,आज वे भी डिजिटल के जादू पर मंत्रमुग्ध हैं।तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध पर विचार करते हुए हमेशा यह समस्या रही है कि बौध्दिकों का एक बड़ा हिस्सा तकनीकी के विकास का अंध विरोधी रहा है।किंतु डिजिटल के आने के बाद वे भी चुप हैं और डिजिटल के जरिए पुरानी संस्कृति के नवीकृत रूपों का आनंद ले रहे हैं। तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध पर विचार करते समय तथ्य ध्यान रखें कि ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं,साथ ही इनका स्वायत्ता संसार भी है।हम ऐसी संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें तकनीकी का इस्तेमाल न किया गया हो, इसी तरह हम ऐसी तकनीकी की कल्पना नहीं कर सकते जिसके निर्माण में संस्कृति की निर्णायक भूमिका न रही हो। यह बात दीगर है कि शोषण पर टिकी व्यवस्थाओं में शासकवर्ग तकनीकी और संस्कृति के बीच कृत्रिम टकराव पैदा करते हैं और दोनों को ही अपने अधिकार में ले जाता है। किंतु बौध्दिकों,संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों में जैसे-जैसे तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध को लेकर पुख्ता समझ बनती चली जाती है,तकनीकी और संस्कृति दोनों ही वर्चस्वशाली ताकतों के खिलाफ संघर्ष का हथियार बनती चली जाती हैं।इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम डिजिटल युग में संस्कृति की अवस्था, रूपों,समस्याओं और संभावनाओं पर गंभीरता से विचार करें तो अनेक नए तथ्यों से दो-चार होना पड़ेगा।
साइबर स्पेस वैकल्पिक चेतना है।यह दूसरी प्रकृति है। अब लोग 'साइबोर्ग' होते जा रहे हैं। साइबर स्पेस में खोजते रहते हैं,विचरण करते हैं, पढ़ते हैं ,आनंद लेते हैं, अपनी इच्छित इमेज बनाते रहते हैं। आज व्यक्ति के अस्तित्व के लिए अनंत विकल्प सइबर स्पेस दे रहा है। ये विकल्प मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में उदार बना रहे हैं। साइबर स्पेस में विचरण करने का अर्थ है संकीर्णता की मौत । यहां निर्मिति पर जोर है। एक जमाना था जब निर्मिति को मनुष्य के लिए औपचारिकता के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। साइबर स्पेस में अनौपचारिक प्रतिक्रिया के अर्थ में इस्तेमाल किया जा रहा है। आज हम देख रहे हैं कि कम्प्यूटर व्यक्ति की अस्मिता के निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरकर सामने आया है। कुछ लोग मानते हैं कि यह व्यक्ति की अस्मिता का मर्म भी तय कर रहा है। साइबर स्पेस के बारे में मारकोस नोवाक का मानना है कि यह ग्लोबल सूचन प्रोसेसिंग सिस्टम की सभी सूचनाओं का विशिष्ट दृश्यांकन है। वर्तमान और भविष्य का संचार नेटवर्क है। यह बहुस्तरीय यूजरों की एक साथ मौजूदगी और संपर्क का केन्द्र है। यहां सामग्री जोड़ी या घटायी जा सकती है। वास्तव जगत की नकल है।वर्चुअल रियलिटी है। इसमें दूर से डाटा संकलन किया जा सकता है।दूरसंचार के जरिए दूर से ही नियंत्रण किया जा सकता है।चीजों को अन्तर्गृथित करता है।बौध्दिकतापूर्ण मालों और माहौल को रीयल स्पेस में पहुँचाता है। साइबर स्पेस मौजूदा संपर्क रूपों के एकदम विपरीत है। यह कम्प्यूटरीकृत सूचना से युक्त है। सामान्य तौर पर हम सूचना के बाहर होते हैं। किन्तु साइबर स्पेस में हम सूचना के अंदर होते हैं। ऐसा करने के लिए हमें वाइट्स में अपना रूपान्तरण करना होता है। वाइट्स में रूपान्तरण करते ही व्यक्ति स्वयं सूचना बन जाता है। आज तक वह सूचना के बाहर था किन्तु इंटरनेट आने के बाद वह सूचना के अंदर आ जाता है। व्यक्ति का सूचना में रूपान्तरण विलक्षण परिघटना है। वाइट्स में रूपान्तरित सूचना की रक्षा के लिए ही प्राइवेसी के कानूनों की जरूरत होती है। बाइट्स में रूपान्तरित होने के बाद सूचना स्वायत्त हो जाती है। यदि वह सुरक्षा के घेरे में कैद नहीं है तो उसके दुरूपयोग की अनंत संभावनाएं हैं। सुरक्षा घेरे में रहने के कारण वह बंद रहती है। किन्तु सुरक्षा घेरा हटते ही सूचना का अन्य वस्तुओं में रूपान्तरण हो सकता है। साइबर स्पेस में सूचना की स्वायत्तता तर्क को अतर्क और अतर्क को तर्क बना देती है। यहां औपचारिकता का अनौपचारिकता में और अनौपचारिकता का औपचारिकता में रूपान्तरण्ा हो जाता है। समय की धारणा खत्म हो जाती है।सब कुछ रीयल टाइम या यथार्थ समय में घटित होता है। अब जो सिस्टम का प्रिनिधित्व करेगा वह बाइट्स बन जाता है।
साइबर स्पेस डाटा, सूचना, एवं फॉर्म आदि को डिजिटल तकनीकी में विस्तार देता है। समृध्द करता है। पृथक् करता है। अनंत संभावनाओं के द्वार खोलता है। अब हम प्रतिनिधित्व के युग में पहुँच चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि साइबर स्पेस कल्पना का स्वर्ग है। चरमोत्कर्ष है। यह कविता के तत्वों को भी आत्मसात् कर लेता है। रेखीय चिन्तन कविता की बुनियाद है। उसका क्रमिक स्मृति से संबंध है। इसमें प्रत्येक चीज संचित की जा सकती है। किन्तु इसे खोजने के लिए समय की जरूरत होगी। अत: इसके लिए चिर-परिचित रणनीति अपनायी जाती है। जिससे सूचना हासिल की जा सके। साइबर स्पेस वह जगह है जहां सचेत स्वप्न और अचेत स्वप्न की मुलाकात होती रहती है। यह तर्कपूर्ण जादू की दुनिया है। रहस्य का तर्क है। यह दरिद्रता के ऊपर कविता की विजय है।
साइबर स्पेस तेजी से फैल रहा है।उसकी स्वायत्त दुनिया है। साइबर स्पेस का आज कोई भी विवाद जब उठता है तो उसे एकाकी फिनोमिना के रूप में देखा जाता है। साइबर में स्थानीयता का अभाव है। क्योंकि उसके नेट के दायरे में सारा भूमंडल आता है। कुछ देश आज भी यह सोचते हैं कि इस भूमंडलीय नेटवर्क से काटकर अपना विकास कर लेंगे। उसके प्रत्येक कार्यक्रम की जांच करेंगे। उस पर निगरानी रखेंगे। जो आपत्तिजनक साइट हैं उन्हें प्रतिबंधित करेंगे। ये सारी चीजें असंभव हैं। प्रसिध्द संचार शास्त्री निकोलस नीग्रोपॉण्टी ने लिखा है कि कानूनी नियंत्रण हमेशा स्थानीय होता है। चूंकि यह माध्यम विकासशील है अत: इसके बारे में कोई भी कानून स्थायी तौर पर बनाना असंभव है। इसके विपरीत कानून स्थानीय होते हैं। उनमें स्थानवश भेद होता है। किंतु साइबर स्पेस का मामला थोड़ा भिन्न है। साइबर स्पेस भू-राजनय जगत नहीं है। बल्कि टोपोलॉजी है। यह टोपोग्राफी नहीं है। इसका कोई कायिक आधार नहीं है। यही वजह है कि डिजिटल युग में संप्रभुता बेमानी है। अर्थहीन है। संप्रभुता की असली परीक्षा श्लील अथवा अश्लील के आधार पर संभव नहीं है। नैतिकता के आधार पर नहीं होती। बल्कि पैसे के आधार होती है। सवाल यह है कि डिजिटल से लोग कितना कमाते हैं। जो जितना ज्यादा कमाता है वह अपने राष्ट्र की पहचान से जुड़ने लगता है।
साइबर स्पेस वैकल्पिक चेतना है।यह दूसरी प्रकृति है। अब लोग 'साइबोर्ग' होते जा रहे हैं। साइबर स्पेस में खोजते रहते हैं,विचरण करते हैं, पढ़ते हैं ,आनंद लेते हैं, अपनी इच्छित इमेज बनाते रहते हैं। आज व्यक्ति के अस्तित्व के लिए अनंत विकल्प सइबर स्पेस दे रहा है। ये विकल्प मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में उदार बना रहे हैं। साइबर स्पेस में विचरण करने का अर्थ है संकीर्णता की मौत । यहां निर्मिति पर जोर है। एक जमाना था जब निर्मिति को मनुष्य के लिए औपचारिकता के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। साइबर स्पेस में अनौपचारिक प्रतिक्रिया के अर्थ में इस्तेमाल किया जा रहा है। आज हम देख रहे हैं कि कम्प्यूटर व्यक्ति की अस्मिता के निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरकर सामने आया है। कुछ लोग मानते हैं कि यह व्यक्ति की अस्मिता का मर्म भी तय कर रहा है। साइबर स्पेस के बारे में मारकोस नोवाक का मानना है कि यह ग्लोबल सूचन प्रोसेसिंग सिस्टम की सभी सूचनाओं का विशिष्ट दृश्यांकन है। वर्तमान और भविष्य का संचार नेटवर्क है। यह बहुस्तरीय यूजरों की एक साथ मौजूदगी और संपर्क का केन्द्र है। यहां सामग्री जोड़ी या घटायी जा सकती है। वास्तव जगत की नकल है।वर्चुअल रियलिटी है। इसमें दूर से डाटा संकलन किया जा सकता है।दूरसंचार के जरिए दूर से ही नियंत्रण किया जा सकता है।चीजों को अन्तर्गृथित करता है।बौध्दिकतापूर्ण मालों और माहौल को रीयल स्पेस में पहुँचाता है। साइबर स्पेस मौजूदा संपर्क रूपों के एकदम विपरीत है। यह कम्प्यूटरीकृत सूचना से युक्त है। सामान्य तौर पर हम सूचना के बाहर होते हैं। किन्तु साइबर स्पेस में हम सूचना के अंदर होते हैं। ऐसा करने के लिए हमें वाइट्स में अपना रूपान्तरण करना होता है। वाइट्स में रूपान्तरण करते ही व्यक्ति स्वयं सूचना बन जाता है। आज तक वह सूचना के बाहर था किन्तु इंटरनेट आने के बाद वह सूचना के अंदर आ जाता है। व्यक्ति का सूचना में रूपान्तरण विलक्षण परिघटना है। वाइट्स में रूपान्तरित सूचना की रक्षा के लिए ही प्राइवेसी के कानूनों की जरूरत होती है। बाइट्स में रूपान्तरित होने के बाद सूचना स्वायत्त हो जाती है। यदि वह सुरक्षा के घेरे में कैद नहीं है तो उसके दुरूपयोग की अनंत संभावनाएं हैं। सुरक्षा घेरे में रहने के कारण वह बंद रहती है। किन्तु सुरक्षा घेरा हटते ही सूचना का अन्य वस्तुओं में रूपान्तरण हो सकता है। साइबर स्पेस में सूचना की स्वायत्तता तर्क को अतर्क और अतर्क को तर्क बना देती है। यहां औपचारिकता का अनौपचारिकता में और अनौपचारिकता का औपचारिकता में रूपान्तरण्ा हो जाता है। समय की धारणा खत्म हो जाती है।सब कुछ रीयल टाइम या यथार्थ समय में घटित होता है। अब जो सिस्टम का प्रिनिधित्व करेगा वह बाइट्स बन जाता है।
साइबर स्पेस डाटा, सूचना, एवं फॉर्म आदि को डिजिटल तकनीकी में विस्तार देता है। समृध्द करता है। पृथक् करता है। अनंत संभावनाओं के द्वार खोलता है। अब हम प्रतिनिधित्व के युग में पहुँच चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि साइबर स्पेस कल्पना का स्वर्ग है। चरमोत्कर्ष है। यह कविता के तत्वों को भी आत्मसात् कर लेता है। रेखीय चिन्तन कविता की बुनियाद है। उसका क्रमिक स्मृति से संबंध है। इसमें प्रत्येक चीज संचित की जा सकती है। किन्तु इसे खोजने के लिए समय की जरूरत होगी। अत: इसके लिए चिर-परिचित रणनीति अपनायी जाती है। जिससे सूचना हासिल की जा सके। साइबर स्पेस वह जगह है जहां सचेत स्वप्न और अचेत स्वप्न की मुलाकात होती रहती है। यह तर्कपूर्ण जादू की दुनिया है। रहस्य का तर्क है। यह दरिद्रता के ऊपर कविता की विजय है।
साइबर स्पेस तेजी से फैल रहा है।उसकी स्वायत्त दुनिया है। साइबर स्पेस का आज कोई भी विवाद जब उठता है तो उसे एकाकी फिनोमिना के रूप में देखा जाता है। साइबर में स्थानीयता का अभाव है। क्योंकि उसके नेट के दायरे में सारा भूमंडल आता है। कुछ देश आज भी यह सोचते हैं कि इस भूमंडलीय नेटवर्क से काटकर अपना विकास कर लेंगे। उसके प्रत्येक कार्यक्रम की जांच करेंगे। उस पर निगरानी रखेंगे। जो आपत्तिजनक साइट हैं उन्हें प्रतिबंधित करेंगे। ये सारी चीजें असंभव हैं। प्रसिध्द संचार शास्त्री निकोलस नीग्रोपॉण्टी ने लिखा है कि कानूनी नियंत्रण हमेशा स्थानीय होता है। चूंकि यह माध्यम विकासशील है अत: इसके बारे में कोई भी कानून स्थायी तौर पर बनाना असंभव है। इसके विपरीत कानून स्थानीय होते हैं। उनमें स्थानवश भेद होता है। किंतु साइबर स्पेस का मामला थोड़ा भिन्न है। साइबर स्पेस भू-राजनय जगत नहीं है। बल्कि टोपोलॉजी है। यह टोपोग्राफी नहीं है। इसका कोई कायिक आधार नहीं है। यही वजह है कि डिजिटल युग में संप्रभुता बेमानी है। अर्थहीन है। संप्रभुता की असली परीक्षा श्लील अथवा अश्लील के आधार पर संभव नहीं है। नैतिकता के आधार पर नहीं होती। बल्कि पैसे के आधार होती है। सवाल यह है कि डिजिटल से लोग कितना कमाते हैं। जो जितना ज्यादा कमाता है वह अपने राष्ट्र की पहचान से जुड़ने लगता है।
इंटरनेट युग में भाषाओं का भविष्य
आज दुनिया में तकरीबन 200 देश हैं। जिनमें पांच हजार एथनिक समूह रहते हैं। दो-तिहाई देशों में एकाधिक एथनिक और धार्मिक समूह हैं जो कुल जनसंख्या का 10 फीसदी अंश हैं। अनेक देशों में बड़ी संख्या में मूल बाशिंदे रहते हैं जिन्हें उपनिवेशिकरण और बाद के विकास ने हाशिए पर पहुँचा दिया है। समस्या यह है कि क्या अमेरिकी कंपनियां ,खासकर मीडिया और उपभोक्ता सामान की कंपनियां इस वैविध्य को उपभोक्तावाद की तेज लहर पैदा करके नष्ट कर रही हैं या नहीं ? क्या इंटरनेट मौजूदा उपभोक्तावादी रूझानों से अलग हटकर नई परंपरा शुरू करके जिन्दा रह सकता है ? क्या इंटरनेट का विज्ञापन और उपभोक्तावाद के विकास के लिए इस्तेमाल रोका जा सकता है ? इंटरनेट के लिए अबाधित संप्रसारण अधिकार चाहिए, उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण चाहिए और इन सबके कारण कारपोरेट घरानों के मुनाफों में वृध्दि होगी। वैषम्य बढ़ेगा।सामाजिक-राजनीति तनाव में इजाफा होगा।इंटरनेट और कम्प्यूटर तकनीकी के विकास के दौर में अल्पसख्यकों को सबसे ज्यादा संकटों का सामना करना पड़ रहा है। प्रशासन से लेकर राजनीति सभी स्थानों पर उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है। उनकी भाषा,संस्कृति,संस्कार आदि पर हमले बढ़े हैं।उनके प्रति घृणा अभियान तेज हुआ है। इसके लिए बड़े पैमाने पर सूचना और मीडिया क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन संगठनों को पैसा देती रही हैं जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अभियान में सक्रिय हैं। हमारे देश में आरएसएस के सहयोगी संगठनों को घृणा फैलाने के काम के लिए जिन कंपनियों ने पैसा दिया उनमें सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां सर्वोपरि हैं।इस संदर्भ में पहला सवाल यह है कि सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति क्या रूख है ? जनतांत्रिक व्यवस्था में वे किस तरह की राजनीतिक शक्तियों के साथ होती हैं ? अल्पसंख्यकों के प्रति उनका क्या रूख है ? अब तक के विश्व अनुभव से साफ तथ्य सामने आए हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति बैर भाव रहा है। हम यह भी सोचें कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जनता जब संघर्ष के लिए मैदान में आ जाती है तब मीडिया और संचार के बड़े संस्थान किसके साथ होते हैं ? तनाव की स्थिति में साधारण जनता के पास क्या विकल्प होंगे ? इन सवालों पर विस्तार से सोचने की जरूरत है।
अभी तक का विश्व अनुभव रहा है कि ग्लोबल मीडिया ने देशज सांस्कृतिक अस्मिताओं की उपेक्षा की है।उन्हें हाशिए पर ठेला है। सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग का अल्पसंख्यक अस्मिताओं के साथ भेदभाव भरा रवैयया रहा है। यह भेदभाव नौकरी, शिक्षा, मकान,स्वास्थ्य,राजनीतिक अभिव्यक्ति के अधिकार और ऐसी बहुत सारी सुविधाएं जो मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उनके वितरण में अल्संख्यकों के प्रति भेदभाव बरता गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खूबी है कि उनके द्वारा निर्मित तकनीकी में जनतंत्र होता है किंतु राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में ये कंपनियां तबाही मचाती रहती हैं, हमें सोचना होगा कि हम इनकी लूट और तबाही के खिलाफ संघर्ष करें या इस भ्रम में जिएं कि इंटरनेट ने जनतंत्र पैदा किया है ? अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के अवसर पैदा किए हैं ? हाल ही में इण्डोनेशिया में जनतंत्र की स्थापना के संघर्ष के लिए इंटरनेट का वहां छात्रों ने जमकर इस्तेमाल किया था उसे अमेरिका ने पसंद नहीं किया।उसने बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों पर दबाव डाला है कि इंटरनेट का राजनीतिक तौर पर इस तरह का दुरूपयोग नहीं हो इसके लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए। क्योंकि इण्डोनेशिया के तानाशाह को अमेरिका और पश्चिमी धनी देशों का खुला समर्थन था। संचार और मीडिया के नाम पर जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपार दौलत बटोर रही हैं उनके लिए जनतंत्र और मानव विकास का अर्थ उनके मुनाफे का खात्मा।यह स्थिति वे कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं होगे। इंटरनेट जनतंत्र उन्हीं के लिए है जो साधन-सम्पन्न हैं। इसका इस्तेमाल करने की न्यूनतम सुविधाओं से लैस हैं। सच्चाई यह है कि विश्व की अधिकांश जनता उन स्थितियों में नहीं पहुँच पायी है जहां उसे सामान्य शिक्षा मिली हो। अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता की स्थिति में वेब का साधारण जनतंत्र जनता के लिए यूटोपिया है किंतु मध्यवर्ग के लिए सच्चाई है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषणकारी रूप पर पर्दा डालने का साधन है। आज भी सारी दुनिया में 1.8 विलियन लोग ऐसी स्थितियों में रहते हैं जहां जनतंत्र के औपचारिक बुनियादी तत्वों का अभाव है। सारी दुनिया के अल्पसंख्यकों में से 359 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का एक रूप है आम आदमी को उसकी मातृभाषा के इस्तेमाल से वंचित करना। मातृभाषा में शिक्षा,राजनीति,न्याय आदि हासिल करने से वंचित करना। इसके लिए सामान्यत: लोगों पर दबाव डाला जाता है कि वे प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति को अपना लें। सारी दुनिया में लम्बे समय से दस हजार से ज्यादा भाषाएं चली आ रही थीं। किंतु विगत दो सौ वर्षों में प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति अपनाने का यह दुष्परिणाम निकला है कि तकरीबन चार हजार भाषाएं खत्म हो गई हैं।अब मात्र छह हजार भाषाएं बची हैं। मानव विकास रिपोर्ट 2004में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 100 वर्षों में इनमें से 50-90 फीसदी भाषाओं का लोप हो जाएगा। आज भाषायी वैविध्य के सामने मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है। समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाने के लिए अफ्रीकी देशों की स्थिति पर सोचें तो पाएंगे कि वहां 2,500 भाषाएं थीं। इनमें अनेक भाषाएं ऐसी भी थीं जिनमें अनेक सामान्य तत्व थे। जिनके सहारे लोग शिक्षा और राज्य के कामों में इन भाषाओं का सीमित रूप में इस्तेमाल कर सकते थे। इस क्षेत्र के तीस से ज्यादा देशों में जिनकी जनसंख्या 518 मिलियन थी,यानी कुल जनसंख्या का अस्सी फीसदी हिस्सा, ये लोग सामान्य तौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे उससे भिन्न इनकी सरकारी भाषा थी। इस क्षेत्र के देशों के मात्र 13 फीसदी बच्चे मातृभाषा में शिक्षा हासिल कर पाते हैं। सवाल यह है कि क्या मातृभाषा में शिक्षा हासिल न करने से विकास बाधित होता है ? अनेक अनुसंधान बताते हैं कि हां। अनुसंधान बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चों की भूमिका अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों से काफी बेहतर रही है। मातृभाषा का सार्वजनिक और निजी जीवन में प्रयोग बहुत महत्व रखता है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने त्रिभाषा फार्मूला सुझाया है जिसके तहत 1. एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा हो, अधिकांश पूर्व उपनिवेशों में यह प्रशासन की भाषा रही है, किंतु भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में कम से कम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सामान्य ज्ञान जरूरी है। जिससे आप ग्लोबल अर्थव्यवस्था और नेटवर्क में शिरकत कर सकें। 2. एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा हो , इस भाषा के जरिए स्थानीय स्तर पर विभिन्न भाषाभाषी लोगों के साथ संपर्क किया जा सके। 3. मातृभाषा, लोग अपनी मातृभाषा का उस समय इस्तेमाल कर सकें जब वो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर संपर्क में न हों । यूनेस्को की सिफारिश है कि इन तीनों भाषाओं को हमें सरकारी स्तर पर स्वीकृति देनी चाहिए। साथ ही भिन्न परिस्थितियों में इनके भिन्न किस्म के प्रयोग के बारे में भी सोचना चाहिए। हमें एक ही भाषा में शिक्षा की बजाय एकाधिक भाषा में शिक्षा के प्रति आग्रह पैदा करना होगा।
अभी तक का विश्व अनुभव रहा है कि ग्लोबल मीडिया ने देशज सांस्कृतिक अस्मिताओं की उपेक्षा की है।उन्हें हाशिए पर ठेला है। सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग का अल्पसंख्यक अस्मिताओं के साथ भेदभाव भरा रवैयया रहा है। यह भेदभाव नौकरी, शिक्षा, मकान,स्वास्थ्य,राजनीतिक अभिव्यक्ति के अधिकार और ऐसी बहुत सारी सुविधाएं जो मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उनके वितरण में अल्संख्यकों के प्रति भेदभाव बरता गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खूबी है कि उनके द्वारा निर्मित तकनीकी में जनतंत्र होता है किंतु राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में ये कंपनियां तबाही मचाती रहती हैं, हमें सोचना होगा कि हम इनकी लूट और तबाही के खिलाफ संघर्ष करें या इस भ्रम में जिएं कि इंटरनेट ने जनतंत्र पैदा किया है ? अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के अवसर पैदा किए हैं ? हाल ही में इण्डोनेशिया में जनतंत्र की स्थापना के संघर्ष के लिए इंटरनेट का वहां छात्रों ने जमकर इस्तेमाल किया था उसे अमेरिका ने पसंद नहीं किया।उसने बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों पर दबाव डाला है कि इंटरनेट का राजनीतिक तौर पर इस तरह का दुरूपयोग नहीं हो इसके लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए। क्योंकि इण्डोनेशिया के तानाशाह को अमेरिका और पश्चिमी धनी देशों का खुला समर्थन था। संचार और मीडिया के नाम पर जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपार दौलत बटोर रही हैं उनके लिए जनतंत्र और मानव विकास का अर्थ उनके मुनाफे का खात्मा।यह स्थिति वे कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं होगे। इंटरनेट जनतंत्र उन्हीं के लिए है जो साधन-सम्पन्न हैं। इसका इस्तेमाल करने की न्यूनतम सुविधाओं से लैस हैं। सच्चाई यह है कि विश्व की अधिकांश जनता उन स्थितियों में नहीं पहुँच पायी है जहां उसे सामान्य शिक्षा मिली हो। अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता की स्थिति में वेब का साधारण जनतंत्र जनता के लिए यूटोपिया है किंतु मध्यवर्ग के लिए सच्चाई है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषणकारी रूप पर पर्दा डालने का साधन है। आज भी सारी दुनिया में 1.8 विलियन लोग ऐसी स्थितियों में रहते हैं जहां जनतंत्र के औपचारिक बुनियादी तत्वों का अभाव है। सारी दुनिया के अल्पसंख्यकों में से 359 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का एक रूप है आम आदमी को उसकी मातृभाषा के इस्तेमाल से वंचित करना। मातृभाषा में शिक्षा,राजनीति,न्याय आदि हासिल करने से वंचित करना। इसके लिए सामान्यत: लोगों पर दबाव डाला जाता है कि वे प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति को अपना लें। सारी दुनिया में लम्बे समय से दस हजार से ज्यादा भाषाएं चली आ रही थीं। किंतु विगत दो सौ वर्षों में प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति अपनाने का यह दुष्परिणाम निकला है कि तकरीबन चार हजार भाषाएं खत्म हो गई हैं।अब मात्र छह हजार भाषाएं बची हैं। मानव विकास रिपोर्ट 2004में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 100 वर्षों में इनमें से 50-90 फीसदी भाषाओं का लोप हो जाएगा। आज भाषायी वैविध्य के सामने मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है। समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाने के लिए अफ्रीकी देशों की स्थिति पर सोचें तो पाएंगे कि वहां 2,500 भाषाएं थीं। इनमें अनेक भाषाएं ऐसी भी थीं जिनमें अनेक सामान्य तत्व थे। जिनके सहारे लोग शिक्षा और राज्य के कामों में इन भाषाओं का सीमित रूप में इस्तेमाल कर सकते थे। इस क्षेत्र के तीस से ज्यादा देशों में जिनकी जनसंख्या 518 मिलियन थी,यानी कुल जनसंख्या का अस्सी फीसदी हिस्सा, ये लोग सामान्य तौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे उससे भिन्न इनकी सरकारी भाषा थी। इस क्षेत्र के देशों के मात्र 13 फीसदी बच्चे मातृभाषा में शिक्षा हासिल कर पाते हैं। सवाल यह है कि क्या मातृभाषा में शिक्षा हासिल न करने से विकास बाधित होता है ? अनेक अनुसंधान बताते हैं कि हां। अनुसंधान बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चों की भूमिका अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों से काफी बेहतर रही है। मातृभाषा का सार्वजनिक और निजी जीवन में प्रयोग बहुत महत्व रखता है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने त्रिभाषा फार्मूला सुझाया है जिसके तहत 1. एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा हो, अधिकांश पूर्व उपनिवेशों में यह प्रशासन की भाषा रही है, किंतु भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में कम से कम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सामान्य ज्ञान जरूरी है। जिससे आप ग्लोबल अर्थव्यवस्था और नेटवर्क में शिरकत कर सकें। 2. एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा हो , इस भाषा के जरिए स्थानीय स्तर पर विभिन्न भाषाभाषी लोगों के साथ संपर्क किया जा सके। 3. मातृभाषा, लोग अपनी मातृभाषा का उस समय इस्तेमाल कर सकें जब वो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर संपर्क में न हों । यूनेस्को की सिफारिश है कि इन तीनों भाषाओं को हमें सरकारी स्तर पर स्वीकृति देनी चाहिए। साथ ही भिन्न परिस्थितियों में इनके भिन्न किस्म के प्रयोग के बारे में भी सोचना चाहिए। हमें एक ही भाषा में शिक्षा की बजाय एकाधिक भाषा में शिक्षा के प्रति आग्रह पैदा करना होगा।
रविवार, 20 सितंबर 2009
इंटरनेट ,जनान्दोलन और भारतीयता
इंटरनेट के प्रसार ने एकदम नए किस्म के सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक जन-जागरण की शुरूआत की है।ग्लोबल स्तर पर विचारों के आदान-प्रदान के साथ ग्लोबल स्तर के नए सामाजिक आंदोलनों के लिए जनता की शिरकत की अपार संभावनाओं को खोला है। ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ विश्वस्तर पर जनता और स्वैच्छिक संगठनों की लामबंदी को एकदम नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया है।जनतंत्र के एकदम नए अध्याय की शुरूआत की है।
ग्लोबलाइजेशन विरोधी,युध्द विरोधी,पर्यावरणवादी,स्त्रीवादी और जनतंत्रवादी संघर्षों के पक्ष में विश्वस्तर पर जनता और संगठनों को गोलबंद करने और जागृति पैदा करने में इंटरनेट सबसे आगे है। इंटरनेट उस अमूर्त्त जनता को जगाता है जिसे अभी तक देखा नहीं है।उन्हें एकजुट करता है जो हाशिए पर थे।सामाजिक,राजनीतिक,पर्यावरण,शांति आदि के सवालों पर साधारण जनता को अपने विचार व्यक्त करने और चेतना विकसित करने का मौका देता है।आम जनता को ज्वलंत सवालों पर विवादों में शामिल करता है।यह असल में डिजिटल नागरिकता है। यह राष्ट्र-राज्य के दायरे को तोड़ती है।
राष्ट्र-राज्य ने नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी को सीमाबध्द किया।जबकि डिजिटल जनतंत्र इन सीमाओं को तोड़ता है।वह ग्लोबल नागरिकता,ग्लोबल अस्मिता,ग्लोबल राज्य,ग्लोबल प्रशासन और ग्लोबल ध्रुवीकरण और लामबंदी को संभव बनाता है।इस पहलू का आदर्श नमूना है पर्यावरणवादी ग्रीन मूवमेंट।
आज समस्त दुनिया गंभीर प्रशासनिक एवं राजनीतिक संकट से गुजर रही है। कामकाज,प्रशासन के पुराने तरीके और कानून पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए हैं।इस स्थिति का बहुराष्ट्रीय कंपनियां तेजी से लाभ उठा रही हैं।सरकारों को कमजोर बनाया जा रहा है।आंतरिक तनावों को हवा दी जा रही है।राष्ट्र-राज्य के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का संकट पैदा हो गया है।ऐसी अवस्था में इंटरनेट ने सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी की अनंत संभावनाओं को पैदा किया है।सोई हुई जनता की आशाओं को जागृत किया है।राष्ट्र-राज्य के अप्रासंगिक होने के क्रम में कम्युनिकेशन के क्षेत्र में गहरी अनास्था पैदा हुई।साधारण लोगों का विश्वास डिगा।किंतु इंटरनेट ने इस कमजोर स्थिति में प्रभावी हस्तक्षेप की संभावनाओं को पैदा करके हमें नए सिरे से संप्रेषित करने,अपने विचारों के आदान-प्रदान को प्रेरित किया है।पुस्तक और पढ़ने की आदत को संजीवनी दी है।जनतंत्र के संबंध में कमजोर पड़ती जा रही धारणा को खत्म किया है।
आज जितने भी नए आंदोलन उठकर सामने आ रहे हैं वे सब राष्ट्र-राज्य की सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं।आज ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दल और स्वैच्छिक संगठन इंटरनेट और कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इंटरनेट के आने के बाद इ-मीडिया के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसारण की संभावनाएं बढ़ गई हैं।आज हमें स्थानीय रेडियो स्टेशनों के माध्यम से इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम सामग्री के ज्यादा से ज्यादा उपयोग की संभावनाओं पर सोचना होगा।
इंटरनेट पर काम करने के लिए साइबर पध्दतियों के बारे में हमें अपनी समझ साफ रखनी होगी।इंटरनेट के चार काम हैं। 1.अभिव्यक्त करना,2.संरक्षण करना,3.सूचना संकलन और 4.हस्तक्षेप करना।अभिव्यक्त करने के कामों में ई मेल,चाट,वेबसाइड अपलोडिंग,फाइल शेयरिंग।संरक्षण कार्यों में प्रमाणीकरण,फिल्टरिंग,इन्क्रिपटिंग, रीमेलिंग। सूचना संग्रह में वब ब्राउजिंग,वेब डाटा संकलन, हेकिंग पर नजर रखना,जासूसी।हस्तक्षेप करने के क्षेत्र में हासिल न करने देना,सेवा देने से इंकार,वेबसाइड को हटाना,विकृत कोड भेजना,डोमेन को कब्जे में लेना,तोड़फोड़ करना।
आज इंटरनेट ग्लोबल फिनोमिना है।जनतांत्रिक सोच,जनतांत्रिक प्रक्रिया और अधिकारबोध को पैदा करने और सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाने में सबसे आगे है।यह भी संभव है कि इंटरनेट के जरिए जनता को गकया जाए।जातीय और जनजातीय सामाजिक समूहों में चेतना का विस्तार करने ,उनके अतीत का ज्ञान कराने का महत्वपूर्ण उपकरण है।ग्लोबलाइजेशन ने समुदाय और अस्मिता के सवालों को हमारे घरों तक पहुँचा दिया है।पहले ये दोनों राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य से बंधे थे।किंतु ग्लोबलाइजेशन के कारण राष्ट्र-राज्य अपनी सीमाओं को तोड़ने को मजबूर हुआ।आज वह ग्लोबल अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।आज उसे ग्लोबल अर्थव्यवस्था के विश्वासों पर खरा उतरना है।ग्लोबल अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलने के कारण पूंजी ,जनता की सीमापार यात्राएं,शरणार्थी सवस्या,देश की सीमा का अतिक्रमण आदि मसले प्रमुख हो उठे हैं।
दूसरी ओर ग्लोबल पूंजी अपने प्रतिस्पर्धीभाव में तेजी से इजाफा कर रही है।पुराने राष्ट्र-राज्य ने एक खास तरह के कामकाज का अंदाज,आदतें,संस्कार बनाया था।संचार और संप्रेषण के तौर-तरीके विकसित किए थे।किंतु नई परिस्थितियों ने इन सब क्षेत्रों में तब्दीलियां कर दी हैं।यही वजह है कि नई संचार तकनीकी के प्रति जगह-जगह प्रतिरोध भी व्यक्त हो रहा है।किंतु इस तरह के प्रतिरोध के ज्यादा समय तक टिके रहने की संभावनाएं नहीं है।समाज के उत्पादक वर्गों में बदलती हुई सच्चाईयों ने तेजी से असर छोड़ा है।आज मजदूरवर्ग तेजी से नई तकनीकी के अनुरूप अपने को ढ़ाल रहा है।नई तकनीकी के आने के कारण वह अपने पुराने परिवेश की यादों,पुराने राष्ट्र-राज्य के गौरवपूर्ण अतीत की स्मृतियों को नए जगत में किसी न किसी रूप में संजोए रखना चाहता है।
आज बड़े पैमाने पर लोगों को अपने स्थान से बेदखल होकर जाना पड़ रहा है।जो लोग अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं।हटाए जा चुके हैं।वे अपनी छोटी सी नई दुनिया में अतीत की स्मृतियों को संजोए हुए हैं।यह नये युग के परिवर्तनों का आम लक्षण है।इसे अनेक उत्तर औपनिवेशिक लेखकों ने महिमा मंडित किया है।उनका मानना है कि नया अंतर्राष्ट्रीयतावाद भूगोल और जनसंख्या की रिहाइश में मूलगामी परिवर्तन पैदा कर रहा है।यह मूलत: उत्तर औपनिवेशिक माईग्रेशन है।इसमें अस्मिता के जो रूप निर्मित हो रहे हैं उन्हें आप राष्ट्र-राज्य के दायरे में बांध नहीं सकते।
आज भारतीय और भारतीयता के सवाल केन्द्र में आ गए हैं।एक तरफ उनकी समस्याएं हैं जो यहां रहते हैं।दूसरी तरफ उनकी समस्याएं हैं जो भारत के बाहर रहते हैं।एनआरआई हैं।उन्हें अपनी भारतीयता के बोध ने सताया हुआ है।अस्मिता की पहचान के इन दोनों रूपों के बीच संवाद,संघर्ष और विरेचन की प्रक्रिया एक साथ चल रही है।इससे यह भी पता चलता है कि अस्मिता कोई बनी-बनायी चीज नहीं है।बल्कि निरंतर निर्मित होनेवाली चीज है।यह बहुस्तरीय है।हमें यह भी देखना होगा कि भारत में एनआरआई का पूंजी निवेश,रूचि आदि इंटरनेट और ग्लोबल अर्थव्यवस्था आने के बाद किस तरह बढ़े हैं।खासकर 1985-86 के बाद से इनके रूझान बदले हैं।इसमें इंटरनेट की बड़ी भूमिका है।उसने राष्ट्रवाद को नई अंतर्वस्तु दी है।पहले राष्ट्रवाद का झंड़ा उठाने वाले देसी लोग ही होते थे।आज राष्ट्रवाद का झंड़ा अप्रवासी भारतीयों ने उठाया हुआ है।उनके अंदर हिन्दुत्व की तेज लहर चल रही है।ज्यादातर आप्रवासियों का हिन्दुत्ववादी संगठनों से गहरा संबंध है।वे आज उनके सबसे बड़े वित्तीय समर्थक भी हैं।आप्रवासियों में राष्ट्रवाद की लहर ने भारतीय और भारतीयता के सवालों को केन्द्रीय स्थान दिला दिया है।सोनिया के देसी-विदेशी के विवाद में भारतीय और भारतीयता के सवाल छिपे हैं।
भारतीय और भारतीयता में भारतीयता पाखंड है।छद्म है।इसका कहीं अस्तित्व नहीं है।भारतीय का आधार है।जबकि भारतीयता परिस्थितियों पर निर्भर है।इसकी परिभाषाएं बदलती रही हैं। भारतीयता को विखंडित करके पढें तो शायद उसके अंदर छिपे खोखलेपन को समझ सकते हैं। भारतीयता की पहचान की उन्हें जरूरत है जो भारतीय नहीं हैं।जो भारतीयता की हिमायत में खड़े हैं वे शायद नहीं जानते कि अस्मिता के निर्माण के कुछ ऐतिहासिक और भौतिक आधार होते हैं।जबकि भारतीयता का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।इसके विपरीत भारतीय का ऐतिहासिक और भौतिक आधार है।इसे कानून और संविधान ने परिभाषित किया है।भारतीयता को इनमें से किसी ने भी परिभाषित नहीं किया।प्रवासी भारतीयों या 'एनआरआई' पदबंध में तात्पर्य उन लोगों से है जो अपनी इच्छा से देश छोड़कर चले गए अथवा बल प्रयोग के कारण देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर हुए।गुलाम बनाकर इन्हें भारत से बाहर ले जाया गया।किंतु किसी न किसी रूप में देश से जुड़े रहे।
आज जो भारतीय विदेशों में हैं उनकी कई किस्म की पहचान है।वे अपने-अपने देश में अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान कर रहे हैं।इनमें कुछ लोग हैं जिन्हें अतीत याद आता है।भारतीय संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें जाति संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे हैं जो पश्चिमी संस्कृति में पूरी तरह रंग चुके हैं।इन्हें न अपनी संस्कृति याद आती है और न देश याद आता है।किंतु इनकी पहचान के इन सब रूपों को राष्ट्र अपने अंदर समाहित कर सकता है।वे जिस देश में रह रहे हैं वहां पर इन सब चीजों के लिए खूब जगह है।
ध्यान रहे अस्मिता भाषा से बनती है।आप्रवासी भारतीयों की मुश्किल यह है कि वे अपनी जातीयभाषा,जातीय संस्कारों से घृणा करते हैं या ये दोनों तत्व उनके लिए गैर-जरूरी हैं।आज भारतीयता के नाम पर अस्मिता की राजनीति का जो खेल चल रहा है।उसने जातीयभाषा के तौर पर हिन्दी के सामने विभाजन का खतरा पैदा कर दिया है।उत्तरांचल और झारखण्ड के गठन से इन राज्यों में हिन्दी की बजाय स्थानीय बोलियों को राज की भाषा बनाने की मांग तेजी से जोर पकड़ती जा रही है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीयता के नाम पर जो विदेशी पूंजी आ रही है वह यहां निवेश के लिए कम और मुनाफे और ज्यादा ब्याज दर के कारण ज्यादा आ रही है।इसका राष्ट्र प्रेम से कोई संबंध नहीं है।आप्रवासी भारतीयों के बारे में एक बात ध्यान में रखनी होगी।कि उनके लिए देश सिर्फ कल्पना की चीज है।वास्तविकता तो यह है कि वे जहां रह रहे हैं।वही उनका देश है।देश का संबंध रहने से है।देश का संबंध्र कल्पना से कम है।कल्पना का देश अवास्तविक होता है।कहानी-कविता-उपन्यास में अच्छा लगता है।किंतु वास्तव जीवन में काल्पनिक देश के प्रति प्रेम खोखला प्रेम है।आप्रवासी भारतीय किसी एक जातीय समूह के लोग नहीं हैं।बल्कि भिन्न जातीय समूहों के लोग हैं।इनकी जातीय संस्कृति,जातीय भाषा,जातीय संस्कार आदि सब कुछ अलग-अलग हैं।यह भिन्नता ही इनकी विशेषता है।भारतीयता के नाम पर इस भिन्नता को हम अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते।बल्कि 'भिन्नता' ही आप्रवासी और भारतीय की धुरी है।भारतीयता इस भिन्नता को छिपाती है,अस्वीकार करती है,इसके लिए हिन्दुत्व की तर्कप्रणाली और विचारधारा का इस्तेमाल करती है।
ग्लोबलाइजेशन विरोधी,युध्द विरोधी,पर्यावरणवादी,स्त्रीवादी और जनतंत्रवादी संघर्षों के पक्ष में विश्वस्तर पर जनता और संगठनों को गोलबंद करने और जागृति पैदा करने में इंटरनेट सबसे आगे है। इंटरनेट उस अमूर्त्त जनता को जगाता है जिसे अभी तक देखा नहीं है।उन्हें एकजुट करता है जो हाशिए पर थे।सामाजिक,राजनीतिक,पर्यावरण,शांति आदि के सवालों पर साधारण जनता को अपने विचार व्यक्त करने और चेतना विकसित करने का मौका देता है।आम जनता को ज्वलंत सवालों पर विवादों में शामिल करता है।यह असल में डिजिटल नागरिकता है। यह राष्ट्र-राज्य के दायरे को तोड़ती है।
राष्ट्र-राज्य ने नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी को सीमाबध्द किया।जबकि डिजिटल जनतंत्र इन सीमाओं को तोड़ता है।वह ग्लोबल नागरिकता,ग्लोबल अस्मिता,ग्लोबल राज्य,ग्लोबल प्रशासन और ग्लोबल ध्रुवीकरण और लामबंदी को संभव बनाता है।इस पहलू का आदर्श नमूना है पर्यावरणवादी ग्रीन मूवमेंट।
आज समस्त दुनिया गंभीर प्रशासनिक एवं राजनीतिक संकट से गुजर रही है। कामकाज,प्रशासन के पुराने तरीके और कानून पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए हैं।इस स्थिति का बहुराष्ट्रीय कंपनियां तेजी से लाभ उठा रही हैं।सरकारों को कमजोर बनाया जा रहा है।आंतरिक तनावों को हवा दी जा रही है।राष्ट्र-राज्य के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का संकट पैदा हो गया है।ऐसी अवस्था में इंटरनेट ने सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी की अनंत संभावनाओं को पैदा किया है।सोई हुई जनता की आशाओं को जागृत किया है।राष्ट्र-राज्य के अप्रासंगिक होने के क्रम में कम्युनिकेशन के क्षेत्र में गहरी अनास्था पैदा हुई।साधारण लोगों का विश्वास डिगा।किंतु इंटरनेट ने इस कमजोर स्थिति में प्रभावी हस्तक्षेप की संभावनाओं को पैदा करके हमें नए सिरे से संप्रेषित करने,अपने विचारों के आदान-प्रदान को प्रेरित किया है।पुस्तक और पढ़ने की आदत को संजीवनी दी है।जनतंत्र के संबंध में कमजोर पड़ती जा रही धारणा को खत्म किया है।
आज जितने भी नए आंदोलन उठकर सामने आ रहे हैं वे सब राष्ट्र-राज्य की सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं।आज ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दल और स्वैच्छिक संगठन इंटरनेट और कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इंटरनेट के आने के बाद इ-मीडिया के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसारण की संभावनाएं बढ़ गई हैं।आज हमें स्थानीय रेडियो स्टेशनों के माध्यम से इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम सामग्री के ज्यादा से ज्यादा उपयोग की संभावनाओं पर सोचना होगा।
इंटरनेट पर काम करने के लिए साइबर पध्दतियों के बारे में हमें अपनी समझ साफ रखनी होगी।इंटरनेट के चार काम हैं। 1.अभिव्यक्त करना,2.संरक्षण करना,3.सूचना संकलन और 4.हस्तक्षेप करना।अभिव्यक्त करने के कामों में ई मेल,चाट,वेबसाइड अपलोडिंग,फाइल शेयरिंग।संरक्षण कार्यों में प्रमाणीकरण,फिल्टरिंग,इन्क्रिपटिंग, रीमेलिंग। सूचना संग्रह में वब ब्राउजिंग,वेब डाटा संकलन, हेकिंग पर नजर रखना,जासूसी।हस्तक्षेप करने के क्षेत्र में हासिल न करने देना,सेवा देने से इंकार,वेबसाइड को हटाना,विकृत कोड भेजना,डोमेन को कब्जे में लेना,तोड़फोड़ करना।
आज इंटरनेट ग्लोबल फिनोमिना है।जनतांत्रिक सोच,जनतांत्रिक प्रक्रिया और अधिकारबोध को पैदा करने और सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाने में सबसे आगे है।यह भी संभव है कि इंटरनेट के जरिए जनता को गकया जाए।जातीय और जनजातीय सामाजिक समूहों में चेतना का विस्तार करने ,उनके अतीत का ज्ञान कराने का महत्वपूर्ण उपकरण है।ग्लोबलाइजेशन ने समुदाय और अस्मिता के सवालों को हमारे घरों तक पहुँचा दिया है।पहले ये दोनों राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य से बंधे थे।किंतु ग्लोबलाइजेशन के कारण राष्ट्र-राज्य अपनी सीमाओं को तोड़ने को मजबूर हुआ।आज वह ग्लोबल अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।आज उसे ग्लोबल अर्थव्यवस्था के विश्वासों पर खरा उतरना है।ग्लोबल अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलने के कारण पूंजी ,जनता की सीमापार यात्राएं,शरणार्थी सवस्या,देश की सीमा का अतिक्रमण आदि मसले प्रमुख हो उठे हैं।
दूसरी ओर ग्लोबल पूंजी अपने प्रतिस्पर्धीभाव में तेजी से इजाफा कर रही है।पुराने राष्ट्र-राज्य ने एक खास तरह के कामकाज का अंदाज,आदतें,संस्कार बनाया था।संचार और संप्रेषण के तौर-तरीके विकसित किए थे।किंतु नई परिस्थितियों ने इन सब क्षेत्रों में तब्दीलियां कर दी हैं।यही वजह है कि नई संचार तकनीकी के प्रति जगह-जगह प्रतिरोध भी व्यक्त हो रहा है।किंतु इस तरह के प्रतिरोध के ज्यादा समय तक टिके रहने की संभावनाएं नहीं है।समाज के उत्पादक वर्गों में बदलती हुई सच्चाईयों ने तेजी से असर छोड़ा है।आज मजदूरवर्ग तेजी से नई तकनीकी के अनुरूप अपने को ढ़ाल रहा है।नई तकनीकी के आने के कारण वह अपने पुराने परिवेश की यादों,पुराने राष्ट्र-राज्य के गौरवपूर्ण अतीत की स्मृतियों को नए जगत में किसी न किसी रूप में संजोए रखना चाहता है।
आज बड़े पैमाने पर लोगों को अपने स्थान से बेदखल होकर जाना पड़ रहा है।जो लोग अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं।हटाए जा चुके हैं।वे अपनी छोटी सी नई दुनिया में अतीत की स्मृतियों को संजोए हुए हैं।यह नये युग के परिवर्तनों का आम लक्षण है।इसे अनेक उत्तर औपनिवेशिक लेखकों ने महिमा मंडित किया है।उनका मानना है कि नया अंतर्राष्ट्रीयतावाद भूगोल और जनसंख्या की रिहाइश में मूलगामी परिवर्तन पैदा कर रहा है।यह मूलत: उत्तर औपनिवेशिक माईग्रेशन है।इसमें अस्मिता के जो रूप निर्मित हो रहे हैं उन्हें आप राष्ट्र-राज्य के दायरे में बांध नहीं सकते।
आज भारतीय और भारतीयता के सवाल केन्द्र में आ गए हैं।एक तरफ उनकी समस्याएं हैं जो यहां रहते हैं।दूसरी तरफ उनकी समस्याएं हैं जो भारत के बाहर रहते हैं।एनआरआई हैं।उन्हें अपनी भारतीयता के बोध ने सताया हुआ है।अस्मिता की पहचान के इन दोनों रूपों के बीच संवाद,संघर्ष और विरेचन की प्रक्रिया एक साथ चल रही है।इससे यह भी पता चलता है कि अस्मिता कोई बनी-बनायी चीज नहीं है।बल्कि निरंतर निर्मित होनेवाली चीज है।यह बहुस्तरीय है।हमें यह भी देखना होगा कि भारत में एनआरआई का पूंजी निवेश,रूचि आदि इंटरनेट और ग्लोबल अर्थव्यवस्था आने के बाद किस तरह बढ़े हैं।खासकर 1985-86 के बाद से इनके रूझान बदले हैं।इसमें इंटरनेट की बड़ी भूमिका है।उसने राष्ट्रवाद को नई अंतर्वस्तु दी है।पहले राष्ट्रवाद का झंड़ा उठाने वाले देसी लोग ही होते थे।आज राष्ट्रवाद का झंड़ा अप्रवासी भारतीयों ने उठाया हुआ है।उनके अंदर हिन्दुत्व की तेज लहर चल रही है।ज्यादातर आप्रवासियों का हिन्दुत्ववादी संगठनों से गहरा संबंध है।वे आज उनके सबसे बड़े वित्तीय समर्थक भी हैं।आप्रवासियों में राष्ट्रवाद की लहर ने भारतीय और भारतीयता के सवालों को केन्द्रीय स्थान दिला दिया है।सोनिया के देसी-विदेशी के विवाद में भारतीय और भारतीयता के सवाल छिपे हैं।
भारतीय और भारतीयता में भारतीयता पाखंड है।छद्म है।इसका कहीं अस्तित्व नहीं है।भारतीय का आधार है।जबकि भारतीयता परिस्थितियों पर निर्भर है।इसकी परिभाषाएं बदलती रही हैं। भारतीयता को विखंडित करके पढें तो शायद उसके अंदर छिपे खोखलेपन को समझ सकते हैं। भारतीयता की पहचान की उन्हें जरूरत है जो भारतीय नहीं हैं।जो भारतीयता की हिमायत में खड़े हैं वे शायद नहीं जानते कि अस्मिता के निर्माण के कुछ ऐतिहासिक और भौतिक आधार होते हैं।जबकि भारतीयता का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।इसके विपरीत भारतीय का ऐतिहासिक और भौतिक आधार है।इसे कानून और संविधान ने परिभाषित किया है।भारतीयता को इनमें से किसी ने भी परिभाषित नहीं किया।प्रवासी भारतीयों या 'एनआरआई' पदबंध में तात्पर्य उन लोगों से है जो अपनी इच्छा से देश छोड़कर चले गए अथवा बल प्रयोग के कारण देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर हुए।गुलाम बनाकर इन्हें भारत से बाहर ले जाया गया।किंतु किसी न किसी रूप में देश से जुड़े रहे।
आज जो भारतीय विदेशों में हैं उनकी कई किस्म की पहचान है।वे अपने-अपने देश में अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान कर रहे हैं।इनमें कुछ लोग हैं जिन्हें अतीत याद आता है।भारतीय संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें जाति संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे हैं जो पश्चिमी संस्कृति में पूरी तरह रंग चुके हैं।इन्हें न अपनी संस्कृति याद आती है और न देश याद आता है।किंतु इनकी पहचान के इन सब रूपों को राष्ट्र अपने अंदर समाहित कर सकता है।वे जिस देश में रह रहे हैं वहां पर इन सब चीजों के लिए खूब जगह है।
ध्यान रहे अस्मिता भाषा से बनती है।आप्रवासी भारतीयों की मुश्किल यह है कि वे अपनी जातीयभाषा,जातीय संस्कारों से घृणा करते हैं या ये दोनों तत्व उनके लिए गैर-जरूरी हैं।आज भारतीयता के नाम पर अस्मिता की राजनीति का जो खेल चल रहा है।उसने जातीयभाषा के तौर पर हिन्दी के सामने विभाजन का खतरा पैदा कर दिया है।उत्तरांचल और झारखण्ड के गठन से इन राज्यों में हिन्दी की बजाय स्थानीय बोलियों को राज की भाषा बनाने की मांग तेजी से जोर पकड़ती जा रही है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीयता के नाम पर जो विदेशी पूंजी आ रही है वह यहां निवेश के लिए कम और मुनाफे और ज्यादा ब्याज दर के कारण ज्यादा आ रही है।इसका राष्ट्र प्रेम से कोई संबंध नहीं है।आप्रवासी भारतीयों के बारे में एक बात ध्यान में रखनी होगी।कि उनके लिए देश सिर्फ कल्पना की चीज है।वास्तविकता तो यह है कि वे जहां रह रहे हैं।वही उनका देश है।देश का संबंध रहने से है।देश का संबंध्र कल्पना से कम है।कल्पना का देश अवास्तविक होता है।कहानी-कविता-उपन्यास में अच्छा लगता है।किंतु वास्तव जीवन में काल्पनिक देश के प्रति प्रेम खोखला प्रेम है।आप्रवासी भारतीय किसी एक जातीय समूह के लोग नहीं हैं।बल्कि भिन्न जातीय समूहों के लोग हैं।इनकी जातीय संस्कृति,जातीय भाषा,जातीय संस्कार आदि सब कुछ अलग-अलग हैं।यह भिन्नता ही इनकी विशेषता है।भारतीयता के नाम पर इस भिन्नता को हम अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते।बल्कि 'भिन्नता' ही आप्रवासी और भारतीय की धुरी है।भारतीयता इस भिन्नता को छिपाती है,अस्वीकार करती है,इसके लिए हिन्दुत्व की तर्कप्रणाली और विचारधारा का इस्तेमाल करती है।
शनिवार, 19 सितंबर 2009
हिंदी की पहली स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान
प्रभा खेतान की मौत को आज एक साल हो गया है। आज ही अचानक उनकी मौत की खबर अरूण माहेश्वरी ने दी थी। सोचा था कभी मौका मिलेगा तो जरूर लिखूँगा। कई बार दोस्तों ने भी अनुरोध किया था किंतु लिख ही नहीं पाया। प्रभाजी की मौत मेरी व्यक्तिगत क्षति थी। मेरे साथ उनका बीस सालों से गहरा संबंध था। बीस सालों में उनके सुख-दुख के तमाम क्षणों में शामिल होने का मौका भी मिला था। प्रभाजी से मिलने के बाद कोलकाता के हिंदीभाषी समाज का अमानवीय चेहरा भी देखने में आया। आरंभ में प्रभाजी को यहां के तमाम लेखक और तथाकथित बुद्धिजीवी बुरी नजर से देखते थे। जबकि आरंभ से ही प्रभाजी ने अपनी लेखिका के रूप में पहचान बनानी शुरू कर दी थी।
प्रभाजी कैसे स्त्रीवाद के मार्ग पर आयीं और उनके साथ हिंदी के समर्थ लेखकों के कितने गहरे संबंध थे,यह तथ्य सभी लोग जानते हैं। लेकिन प्रभाखेतान स्त्रीवादी कैसे बनी यह संभवत: कम ही लोग जानते हैं। राजेन्द्र यादव और उनके जैसे बड़े लेखकों की उनके लेखन के पीछे प्रेरणा थी,स्त्रीवाद का मार्ग पकड़ने के बाद प्रभाजी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हिंदी में गर्व के साथ अपने को स्त्रीवादी कहना उन्हें अच्छा लगता था,जबकि आज भी अनेक नामी लेखिकाएं स्त्रीवादी कहने में अपमानित महसूस करती हैं। प्रभाखेतान आजादी के बाद की पहली बड़ी हिंदी लेखिका थी जो गर्व के साथ स्त्रीवादी कहती थी और कमोबेश स्त्रीवाद को व्यवहार में जीने की भी कोशिश करती थी।
प्रभा खेतान ने स्त्रीवाद के सर्वोत्तम पक्ष अन्य के प्रति संवेदनशीलता को अपनी शक्ति बनाया। उनके लिए स्त्रीवाद कोई किताबी सिद्धान्तमात्र नहीं था। उनके द्वारा 'अन्य के प्रति संवेदनशीलता' का जो रूप मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा है वह हिंदी साहित्य में विरल है। मसलन् प्रभाजी को यदि यह बोल दिया जाए कि फलां लेखक बीमार है उसे मदद की जरूरत है, उसका हॉस्पीटल का बिल भुगतान नहीं हुआ है, कोई कैंसर का मरीज है उसे दवा वगैरह के लिए मदद की जरूरत है,प्रभाजी एक पैर से निस्वार्थ भाव से मदद करती थीं। यह पूछती ही नहीं थीं कि तुमने इस लेखक के बारे में अथवा इस साधारणजन के बारे में मदद के लिए क्यों कहा,वह तुम्हारा कौन लगता है,तुम क्या जानते हो,हमें इसकी मदद से क्या मिलेगा इत्यादि तमाम किस्म के सवाल वे कभी नहीं पूछती थीं।
लेखकों के द्वारा लेखन और पत्रिकाओं के लिए आए दिन मदद के लिए पत्र आते थे और पूछती थीं कि क्या करूँ, 'हंस' जैसी पत्रिका संकट में है क्या करूँ,वे चाहती थीं मदद करना लेकिन मुझे अपनी सलाह का हिस्सा बनाकर यह काम करती थीं। व्यक्तिगत तौर पर मुझसे बेइंतिहा प्यार करती थीं। सप्ताह में एक दो दिन हम लोगों का मिलना,बैठना बातें करना होता था।बाद में सुंदर भोजन के साथ देर रात गए बैठक खत्म होती थी। कुछ साल बाद हम दोनों की मंडली में अरूण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी भी शामिल हुए। अब हम चारों लगातार बैठते और विभिन्न किस्म के विषयों पर बातें करते। अरूण और सरला मार्क्सवादी हैं और प्रभाजी स्त्रीवादी । अनेक बार मार्क्सवाद और सीपीएम से जुड़े सवालों पर तेज बहस भी हो जाती थी इतनी तेज की देखते ही बनता था। लेकिन प्रभाजी कभी तेज बहसों की वजह से संबंध नहीं तोड़ती थीं। बल्कि हुआ उलटा ये बहसें प्रभाजी के लिए विचारधारात्मक आनंद देने का काम करने लगीं और वे लेखन में और भी ज्यादा आक्रामक होती चली गयीं। प्रभाजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि ,स्त्रीवाद और लेखन के बीच तीन-तेरह का रिश्ता था। इस रिश्ते को उन्होंने बड़े ही सदभाव के साथ निभाया। इस संबंध की खूबी यह थी कि उनके वर्गीय नजरिए के साथ विचारधारात्मक प्रतिबद्धता कभी आड़े नहीं आयी। प्रभाजी मारवाडी परिवार के धनियों के साथ सादगी और ठाट के साथ मिलती थीं। उनके पास पैसा काफी था लेकिन अमीरों में वे पैसे के कारण नहीं लेखन के कारण खासतौर पर स्त्रीवादी उपन्यास लेखिका के रूप में सम्मान के साथ स्वीकृत थीं।
मारवाडी अमीर उनके लेखन की संपदा,चमक और वैभव के सामने फीके नजर आते थे, उनके इस फीकेपन को वे आनंद भाव से लेती थीं। प्रभाजी की सबसे बडी शक्ति उनकी दौलत नहीं लेखन था। लेखक के नाते जिस गंभीर संवेदनशीलता की जरूरत होती है उसे उन्होंने अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया था। यह संवेदनशीलता कभी कभी कष्ट भी देती थी,इसके बावजूद अपने संवेदनशील स्वभाव को उन्होंने त्यागा नहीं।
प्रभाजी के लेखन का सबसे उज्ज्वल पक्ष है हिंदी में स्त्रीवाद । हिंदी में स्त्रीवाद जनप्रिय बने और राजेन्द्र यादव 'हंस' के जरिए यह काम करें। यह कीड़ा प्रभाजी के दिमाग की ही उपज था। उल्लेखनीय है राजेन्द्र यादव जब जमकर कथा साहित्य लिख रहे थे तब वे स्त्रीवाद के उतने भक्त नहीं थे, जितने वे 'हंस' के प्रकाशन के बाद बने। राजेन्द्र यादव को स्त्रीवाद के मार्ग पर लाने वाली मुख्यप्रेरणा प्रभाजी ही थीं। दलितों और स्त्रियों के प्रति 'हंस' पत्रिका के प्रतिबद्धभाव को बनाने में प्रभाजी ने मुख्यप्रेरक की भूमिका अदा थी। संभवत: आज उनके मरने के बाद राजेन्द्र यादव प्रभाजी के इस कर्ज को न मानें। लेकिन मैं उन तमाम अंतरंग क्षणों का गवाह हूँ जब प्रभाजी ने 'हंस' को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की थी तो उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, एक ही स्वार्थ था राजेन्द्र यादव जैसा बड़ा लेखक स्त्रियों और दलितों के सवाल पर साहित्य के मैदान में डटा रहे। हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका के रूप में 'हंस' को लिया जाए और इस आकांक्षा को साकार करने के लिए उन्होंने 'हंस' की हर संभव मदद की।
प्रभाजी की आंतरिक इच्छा थी कि हिंदी में स्त्रीवादी लेखन ज्यादा से ज्यादा हो,वे स्वयं भी इस काम को करती थीं ,अन्य लोगों को भी प्रेरित करती थीं। मेरी आरंभ में उनसे जब मुलाकात हुई तो उनके पास स्त्रीवाद और गंभीर लेखन से संबंधित बहुत कम किताबें थीं बाद में लगातार बातें करते करते उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी समृद्ध कर डाली। मेरे देखते ही देखते सैंकड़ों किताबें खरीद डालीं। एक लेखिका में नए विचारों को जानने का यह आग्रह अपने आपमें प्रशंसा की चीज है। कलकत्ते में अधिकांश मारवाडी और हिंदी लेखकों के यहां अत्याधुनिक विषयों की गिनती की दो-चार किताबें ही मुश्किल से मिलेंगी। प्रभाजी के पास तमाम किस्म की अत्याधुनिक किताबों का जखीरा था। नए विषयों की गंभीर किताबों से प्रेम और अन्य के प्रति संवेदनशीलता ये दोनों ही तत्व उन्हें अपने वर्गीय दायरे के बाहर जाकर निजी विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए अर्जित करने पड़े।
मैं जब सन् 1989 में कोलकाता में नौकरी करने आया था तो यहां एक-दो लेखकों को ही जानता था। बाकी शहर नया था। अचानक एक गोष्ठी में मुझे युवाओं के बीच बोलने के लिए बुलाया गया मैं गया ,वहां पर प्रभाजी भी थीं। वहीं पर पहली भेंट हुई और यह पक्की दोस्ती में तब्दील हो गयी। उस समय तक वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य नहीं थीं। मैंने उनसे जब लेखक संघ की सदस्यता लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं जानती ही नहीं हूँ कि जनवादी लेखक संघ क्या है। मजेदार बात यह है उस समय जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजेन्द्र यादव हुआ करते थे और वे उनके सबसे करीबी थे। मैंने कहा कि आपको कभी राजेन्द्र यादव ने जनवादी लेखक संघ की सदस्यता लेने के लिए नहीं कहा,तो उन्होंने कहा नहीं। सबसे दिलचस्प सूचना यह कि सन् 1989 के पहले कोलकाता में जनवादी लेखकसंघ के तत्वावधान में एक सात दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी उसमें देशभर के नामी लेखक आए थे, लेकिन प्रभाजी को उस गोष्ठी का निमंत्रण पत्र तक नहीं मिला था। वे जनवादी लेखक संघ के कार्यक्रमों की सामान्य सूचना पाने वालों की सूची तक में दर्ज नहीं थीं। ऐसा क्यों हुआ यह तो जलेस के लोग ही जानें। लेकिन मेरे लिए प्रभाजी की यह बात आज भी चुभती रही है कि जलेस के लोग मुझे लेखिका ही नहीं मानते। मेरे कहने के बाद वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य बनीं और अंत तक उससे जुडी रहीं। मेरे साथ कोलकाता जिला की उपाध्यक्ष भी रहीं। यह वह प्रस्थान बिंदु है जहां से प्रभाजी मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों के सीधे संपर्क में आयीं। इसके बाद उनकी मार्क्सवाद और स्त्रीवाद को लेकर साझा यात्रा चलती रही और इसका उन्होंने अंतिम दिन तक पालन किया। प्रभाजी की ही क्षमता दी थी उन्होंने ऐसे समय में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की खुलकर मदद की जब आमतौर पर बुद्धिजीवी माकपा,मार्क्सवाद,वामपंथ से नंदीग्राम और दूसरे मसलों की वजह से भाग रहे थे, ऐसे समय में उन्होंने माकपा की जो मदद की वह बेमिसाल है। वे नंदीग्राम सिंगूर के मसले पर माकपा के नजरिए से असहमत थीं लेकिन यह भी कहती थीं कि मार्क्सवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं है।नंदीग्राम की फायरिंग की घटना से भयानक उद्वेलित थीं इसके बावजूद उन्होंने माकपा का जमकर साथ दिया। यह काम वे क्यों कर रही थीं, उनका क्या स्वार्थ था,कोई नहीं जानता। लेकिन अन्य की मदद में मार्क्सवादी संगठन का आना वह भी ऐसे व्यक्ति के व्यवहार में जो पार्टी मेम्बर नहीं है,स्वयं में उनकी सामाजिक बेचैनी का प्रतिफलन था।
मार्क्सवादियों में अरूण माहेश्वरी,सरला माहेश्वरी और मैं ही उनके एकमात्र दोस्तों में थे, बाकी दूर दूर कोई मार्क्सवादी उनका दोस्त नहीं था,यहां तक कि माकपा के प्रति राजेन्द्र यादव का भी रूझान बदल चुका था। इस सबके बावजूद स्थानीय स्तर पर मार्क्सवाद के प्रचार में मदद और राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रीवाद के प्रचार में मदद करना ये दो लक्ष्य पूरी निष्ठा के साथ चल रहे थे।
उनके स्त्रीवादी नजरिए से सैंकड़ों पाठक प्रभावित हुए हैं। लेखकों में स्त्रीवाद को सम्मान की नजर से देखा जाने लगा। स्त्रीवाद और मार्क्सवाद को स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य के साथ साधने का एक फायदा यह हुआ कि कोलकाता में भी उनके जितने निंदक थे, उनके खिलाफ घृणा का प्रचार करने वाले थे उन्हें भी प्रभाजी के व्यक्तित्व का लोहा मानना पड़ा। प्रभाजी जानती थीं कि कौन लेखक अथवा व्यक्ति उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार करता है वह व्यक्ति जब उनके सामने आता था तो उससे बडे ही प्यार से मिलती थीं उसका जमकर स्वागत सत्कार करती थीं। उनके इस व्यवहार को देखकर घृणा के प्रचारक पानी-पानी हो जाते थे। इस समूची प्रक्रिया का आनंद के क्षणों में विस्तार से वर्णन करके भी सुनाती थीं। बाकी फिर कभी।
प्रभाजी कैसे स्त्रीवाद के मार्ग पर आयीं और उनके साथ हिंदी के समर्थ लेखकों के कितने गहरे संबंध थे,यह तथ्य सभी लोग जानते हैं। लेकिन प्रभाखेतान स्त्रीवादी कैसे बनी यह संभवत: कम ही लोग जानते हैं। राजेन्द्र यादव और उनके जैसे बड़े लेखकों की उनके लेखन के पीछे प्रेरणा थी,स्त्रीवाद का मार्ग पकड़ने के बाद प्रभाजी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हिंदी में गर्व के साथ अपने को स्त्रीवादी कहना उन्हें अच्छा लगता था,जबकि आज भी अनेक नामी लेखिकाएं स्त्रीवादी कहने में अपमानित महसूस करती हैं। प्रभाखेतान आजादी के बाद की पहली बड़ी हिंदी लेखिका थी जो गर्व के साथ स्त्रीवादी कहती थी और कमोबेश स्त्रीवाद को व्यवहार में जीने की भी कोशिश करती थी।
प्रभा खेतान ने स्त्रीवाद के सर्वोत्तम पक्ष अन्य के प्रति संवेदनशीलता को अपनी शक्ति बनाया। उनके लिए स्त्रीवाद कोई किताबी सिद्धान्तमात्र नहीं था। उनके द्वारा 'अन्य के प्रति संवेदनशीलता' का जो रूप मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा है वह हिंदी साहित्य में विरल है। मसलन् प्रभाजी को यदि यह बोल दिया जाए कि फलां लेखक बीमार है उसे मदद की जरूरत है, उसका हॉस्पीटल का बिल भुगतान नहीं हुआ है, कोई कैंसर का मरीज है उसे दवा वगैरह के लिए मदद की जरूरत है,प्रभाजी एक पैर से निस्वार्थ भाव से मदद करती थीं। यह पूछती ही नहीं थीं कि तुमने इस लेखक के बारे में अथवा इस साधारणजन के बारे में मदद के लिए क्यों कहा,वह तुम्हारा कौन लगता है,तुम क्या जानते हो,हमें इसकी मदद से क्या मिलेगा इत्यादि तमाम किस्म के सवाल वे कभी नहीं पूछती थीं।
लेखकों के द्वारा लेखन और पत्रिकाओं के लिए आए दिन मदद के लिए पत्र आते थे और पूछती थीं कि क्या करूँ, 'हंस' जैसी पत्रिका संकट में है क्या करूँ,वे चाहती थीं मदद करना लेकिन मुझे अपनी सलाह का हिस्सा बनाकर यह काम करती थीं। व्यक्तिगत तौर पर मुझसे बेइंतिहा प्यार करती थीं। सप्ताह में एक दो दिन हम लोगों का मिलना,बैठना बातें करना होता था।बाद में सुंदर भोजन के साथ देर रात गए बैठक खत्म होती थी। कुछ साल बाद हम दोनों की मंडली में अरूण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी भी शामिल हुए। अब हम चारों लगातार बैठते और विभिन्न किस्म के विषयों पर बातें करते। अरूण और सरला मार्क्सवादी हैं और प्रभाजी स्त्रीवादी । अनेक बार मार्क्सवाद और सीपीएम से जुड़े सवालों पर तेज बहस भी हो जाती थी इतनी तेज की देखते ही बनता था। लेकिन प्रभाजी कभी तेज बहसों की वजह से संबंध नहीं तोड़ती थीं। बल्कि हुआ उलटा ये बहसें प्रभाजी के लिए विचारधारात्मक आनंद देने का काम करने लगीं और वे लेखन में और भी ज्यादा आक्रामक होती चली गयीं। प्रभाजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि ,स्त्रीवाद और लेखन के बीच तीन-तेरह का रिश्ता था। इस रिश्ते को उन्होंने बड़े ही सदभाव के साथ निभाया। इस संबंध की खूबी यह थी कि उनके वर्गीय नजरिए के साथ विचारधारात्मक प्रतिबद्धता कभी आड़े नहीं आयी। प्रभाजी मारवाडी परिवार के धनियों के साथ सादगी और ठाट के साथ मिलती थीं। उनके पास पैसा काफी था लेकिन अमीरों में वे पैसे के कारण नहीं लेखन के कारण खासतौर पर स्त्रीवादी उपन्यास लेखिका के रूप में सम्मान के साथ स्वीकृत थीं।
मारवाडी अमीर उनके लेखन की संपदा,चमक और वैभव के सामने फीके नजर आते थे, उनके इस फीकेपन को वे आनंद भाव से लेती थीं। प्रभाजी की सबसे बडी शक्ति उनकी दौलत नहीं लेखन था। लेखक के नाते जिस गंभीर संवेदनशीलता की जरूरत होती है उसे उन्होंने अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया था। यह संवेदनशीलता कभी कभी कष्ट भी देती थी,इसके बावजूद अपने संवेदनशील स्वभाव को उन्होंने त्यागा नहीं।
प्रभाजी के लेखन का सबसे उज्ज्वल पक्ष है हिंदी में स्त्रीवाद । हिंदी में स्त्रीवाद जनप्रिय बने और राजेन्द्र यादव 'हंस' के जरिए यह काम करें। यह कीड़ा प्रभाजी के दिमाग की ही उपज था। उल्लेखनीय है राजेन्द्र यादव जब जमकर कथा साहित्य लिख रहे थे तब वे स्त्रीवाद के उतने भक्त नहीं थे, जितने वे 'हंस' के प्रकाशन के बाद बने। राजेन्द्र यादव को स्त्रीवाद के मार्ग पर लाने वाली मुख्यप्रेरणा प्रभाजी ही थीं। दलितों और स्त्रियों के प्रति 'हंस' पत्रिका के प्रतिबद्धभाव को बनाने में प्रभाजी ने मुख्यप्रेरक की भूमिका अदा थी। संभवत: आज उनके मरने के बाद राजेन्द्र यादव प्रभाजी के इस कर्ज को न मानें। लेकिन मैं उन तमाम अंतरंग क्षणों का गवाह हूँ जब प्रभाजी ने 'हंस' को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की थी तो उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, एक ही स्वार्थ था राजेन्द्र यादव जैसा बड़ा लेखक स्त्रियों और दलितों के सवाल पर साहित्य के मैदान में डटा रहे। हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका के रूप में 'हंस' को लिया जाए और इस आकांक्षा को साकार करने के लिए उन्होंने 'हंस' की हर संभव मदद की।
प्रभाजी की आंतरिक इच्छा थी कि हिंदी में स्त्रीवादी लेखन ज्यादा से ज्यादा हो,वे स्वयं भी इस काम को करती थीं ,अन्य लोगों को भी प्रेरित करती थीं। मेरी आरंभ में उनसे जब मुलाकात हुई तो उनके पास स्त्रीवाद और गंभीर लेखन से संबंधित बहुत कम किताबें थीं बाद में लगातार बातें करते करते उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी समृद्ध कर डाली। मेरे देखते ही देखते सैंकड़ों किताबें खरीद डालीं। एक लेखिका में नए विचारों को जानने का यह आग्रह अपने आपमें प्रशंसा की चीज है। कलकत्ते में अधिकांश मारवाडी और हिंदी लेखकों के यहां अत्याधुनिक विषयों की गिनती की दो-चार किताबें ही मुश्किल से मिलेंगी। प्रभाजी के पास तमाम किस्म की अत्याधुनिक किताबों का जखीरा था। नए विषयों की गंभीर किताबों से प्रेम और अन्य के प्रति संवेदनशीलता ये दोनों ही तत्व उन्हें अपने वर्गीय दायरे के बाहर जाकर निजी विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए अर्जित करने पड़े।
मैं जब सन् 1989 में कोलकाता में नौकरी करने आया था तो यहां एक-दो लेखकों को ही जानता था। बाकी शहर नया था। अचानक एक गोष्ठी में मुझे युवाओं के बीच बोलने के लिए बुलाया गया मैं गया ,वहां पर प्रभाजी भी थीं। वहीं पर पहली भेंट हुई और यह पक्की दोस्ती में तब्दील हो गयी। उस समय तक वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य नहीं थीं। मैंने उनसे जब लेखक संघ की सदस्यता लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं जानती ही नहीं हूँ कि जनवादी लेखक संघ क्या है। मजेदार बात यह है उस समय जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजेन्द्र यादव हुआ करते थे और वे उनके सबसे करीबी थे। मैंने कहा कि आपको कभी राजेन्द्र यादव ने जनवादी लेखक संघ की सदस्यता लेने के लिए नहीं कहा,तो उन्होंने कहा नहीं। सबसे दिलचस्प सूचना यह कि सन् 1989 के पहले कोलकाता में जनवादी लेखकसंघ के तत्वावधान में एक सात दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी उसमें देशभर के नामी लेखक आए थे, लेकिन प्रभाजी को उस गोष्ठी का निमंत्रण पत्र तक नहीं मिला था। वे जनवादी लेखक संघ के कार्यक्रमों की सामान्य सूचना पाने वालों की सूची तक में दर्ज नहीं थीं। ऐसा क्यों हुआ यह तो जलेस के लोग ही जानें। लेकिन मेरे लिए प्रभाजी की यह बात आज भी चुभती रही है कि जलेस के लोग मुझे लेखिका ही नहीं मानते। मेरे कहने के बाद वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य बनीं और अंत तक उससे जुडी रहीं। मेरे साथ कोलकाता जिला की उपाध्यक्ष भी रहीं। यह वह प्रस्थान बिंदु है जहां से प्रभाजी मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों के सीधे संपर्क में आयीं। इसके बाद उनकी मार्क्सवाद और स्त्रीवाद को लेकर साझा यात्रा चलती रही और इसका उन्होंने अंतिम दिन तक पालन किया। प्रभाजी की ही क्षमता दी थी उन्होंने ऐसे समय में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की खुलकर मदद की जब आमतौर पर बुद्धिजीवी माकपा,मार्क्सवाद,वामपंथ से नंदीग्राम और दूसरे मसलों की वजह से भाग रहे थे, ऐसे समय में उन्होंने माकपा की जो मदद की वह बेमिसाल है। वे नंदीग्राम सिंगूर के मसले पर माकपा के नजरिए से असहमत थीं लेकिन यह भी कहती थीं कि मार्क्सवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं है।नंदीग्राम की फायरिंग की घटना से भयानक उद्वेलित थीं इसके बावजूद उन्होंने माकपा का जमकर साथ दिया। यह काम वे क्यों कर रही थीं, उनका क्या स्वार्थ था,कोई नहीं जानता। लेकिन अन्य की मदद में मार्क्सवादी संगठन का आना वह भी ऐसे व्यक्ति के व्यवहार में जो पार्टी मेम्बर नहीं है,स्वयं में उनकी सामाजिक बेचैनी का प्रतिफलन था।
मार्क्सवादियों में अरूण माहेश्वरी,सरला माहेश्वरी और मैं ही उनके एकमात्र दोस्तों में थे, बाकी दूर दूर कोई मार्क्सवादी उनका दोस्त नहीं था,यहां तक कि माकपा के प्रति राजेन्द्र यादव का भी रूझान बदल चुका था। इस सबके बावजूद स्थानीय स्तर पर मार्क्सवाद के प्रचार में मदद और राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रीवाद के प्रचार में मदद करना ये दो लक्ष्य पूरी निष्ठा के साथ चल रहे थे।
उनके स्त्रीवादी नजरिए से सैंकड़ों पाठक प्रभावित हुए हैं। लेखकों में स्त्रीवाद को सम्मान की नजर से देखा जाने लगा। स्त्रीवाद और मार्क्सवाद को स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य के साथ साधने का एक फायदा यह हुआ कि कोलकाता में भी उनके जितने निंदक थे, उनके खिलाफ घृणा का प्रचार करने वाले थे उन्हें भी प्रभाजी के व्यक्तित्व का लोहा मानना पड़ा। प्रभाजी जानती थीं कि कौन लेखक अथवा व्यक्ति उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार करता है वह व्यक्ति जब उनके सामने आता था तो उससे बडे ही प्यार से मिलती थीं उसका जमकर स्वागत सत्कार करती थीं। उनके इस व्यवहार को देखकर घृणा के प्रचारक पानी-पानी हो जाते थे। इस समूची प्रक्रिया का आनंद के क्षणों में विस्तार से वर्णन करके भी सुनाती थीं। बाकी फिर कभी।
जूते वाला क्रांतिकारी
मुतादर अल जैदी आखिरकार जेल से बाहर आ ही गए। जेल से बाहर आते ही उन्होंने खुदा का शुक्रिया अदा किया और दुख व्यक्त किया कि उनका देश अभी अमेरिकी गुलामी और सेना के जूतों तले कराह रहा है। उल्लेखनीय है यह वही पत्रकार है जिसने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूता फेंका था और उन्हें इराकी सेना ने गिरफ्तार कर लिया था और सजा भी दी थी,अब मुतादर जेल के बाहर है। जेल से बाहर आते ही उसने एक बयान में कहा है , मैं कैद से मुक्त हो गया हूँ किन्तु मेरा देश अभी भी युद्ध में कैद है। मेरे प्रतिवाद के समय जिन लोगों ने मेरा साथ दिया था,चाहे वो देश अंदर या बाहर हों,मैं उन सबका धन्यवाद करता हूँ। मेरा वह प्रतीकात्मक प्रतिवाद था।
मुतादर ने अपने देश की दुर्दशा देखकर दुस्साहसिक फैसला लिया और बुश के ऊपर अपना जूता फेंककर मारा था। अपने बयान में उसने कहा है मेरे देश की जनता के साथ जिस तरह का अन्याय हो रहा है,देश पर कब्जा जमाने वालों ने हमारी मातृभूमि को जूतों तले रौंदकर जिस तरह अपमानित किया है,उसके कारण ही मैंने जूता फेंककर प्रतिवाद करने का फैसला लिया था। विगत चंद सालों में दस लाख से ज्यादा लोग कब्जा करने वालों की गोलियों से मारे गए हैं।तकरीबन पचास लाख इराकी शरणार्थी हो गए हैं। लाखों औरतें विधवा हो गयी हैं।लाखों बच्चे अनाथ हो गए हैं।देश के अंदर और बाहर विस्थापन के कारण लाखों लोगों के घर-द्वार नष्ट हो गए हैं।
मुतादर ने कहा कि हमारी एकता और धैर्य ने हमें दमन को भूलने नहीं दिया है। हमारे देश में विदेशी कब्जे के पहले मुक्ति का विभ्रम था,लेकिन देश पर विदेशियों का कब्जा हो जाने के बाद भाई भाई का दुश्मन हो गया । पड़ोसी पड़ोसी का दुश्मन हो गया । बेटा अपने चाचा का शत्रु हो गया। हमारे घर अहर्निश जलने वाली चिताओं के श्मशान बनकर रह गए हैं। पार्क और सड़कों पर कब्रगाह फैल गए हैं। यह प्लेग है। यह कब्जा है जो हमारी हत्या कर रहा है। हमारे घरों और मस्जिदों की पवित्रता नष्ट कर दी गयी है और उन्हें जेलखानों में तब्दील कर दिया गया है।
मुतादर न लिखा है मैं हीरो नहीं हूँ लेकिन मेरे पास नजरिया है।मेरे पास उदाहरण है। यह मेरा और मेरे देश का अपमान है। मैं बगदाद को जलते हुए देख रहा हूँ। मेरे लोग मारे जा रहे हैं। हजारों त्रासद तस्वीरें मेरे दिमाग में बसी हुई हैं। वे मुझे लगातार सही रास्ते की ओर ठेलती हैं। संघर्ष के रास्ते पर ठेलती हैं। अन्याय ,वंचना,दुरंगेपन को अस्वीकार करने के मार्ग पर ठेल रही हैं। ये मुझे चैन की नींद से वंचित कर रही हैं।मैंने पिछले साल अपने जलते हुए देश का दौरा किया था और अपनी आंखों से पीड़ितों के दर्द,पीड़ा,कष्ट,आंसुओं को देखा था।मुझे अपनी शक्तिहीनता पर शर्म आ रही थी।यही वह क्षण था जब मैंने जार्ज बुश पर जूता फेंकने का फैसला किया। मुतादर ने लिखा जब सभी मूल्यों का उल्लंघन हो जाए तो जूता ही एकमात्र उपयुक्त अस्त्र है। मैंने जब अपराधी बुश के मुँह पर जब जूता फेंका था, तो मैं अपने देश पर कब्जा जमाने के बारे में व्यक्त किए गए असत्य का खंडन कर रहा था। यह मेरा अपने लोगों की हत्या का अस्वीकार था।यह इराकी संपदा को नष्ट करने और लूटने का अस्वीकार था। इराकी जनता को लूटने,हत्या करने,अपमानित करने,इराकी समाज को बर्बाद करने वाला पीड़ितों से बदले में विदायी के फूल लेने आया था। कब्जा जमाने वाले के लिए जूता ही मेरे हाथ में फूल था। उल्लेखनीय है मुतादर ने जब जूता फेंका था तो उसे टेलीविजन चैनलों ने व्यापक कवरेज दिया।अतिरंजित प्रस्तुति की हद तक ले जाकर उसे छोड़ा था।मुतादर की जूता फेंकने की घटना प्रतिवाद की क्रांतिकारी शैली का आदर्श इराकी उदाहरण बन गयी।
टीवी प्रस्तुतियां तकनीकी कौशल की देन हैं। इनमें बेचैनी, प्रेरणा और परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। ये महज प्रस्तुतियां हैं। जितना जल्दी संप्रेषित होती हैं उतनी ही जल्दी गायब हो जाती हैं। प्रस्तुतियां आनंद देती हैं,मनोरंजन करती हैं और खाली समय भरती हैं। इनके जरिए राजनीतिक यथार्थ समझ में नहीं आता। राजनीतिक यथार्थ तो टीवी प्रस्तुतियों के बाहर होता है।टीवी जिन्हें 'महानायक' बनाता है उनकी इमेज का विलोम भी वह स्वयं तैयार करता है, जिस मीडिया ने बुश को 'महानायक' बनाया था वही बुश एक ही झटके में अपना विलोम बनते हुए मीडिया में देख रहा था। टीवी की यह वैचारिक विशेषता है कि वह जिसे आइकॉन बनाता है फिर उसकी इमेज का विलोम भी तैयार करता है।
यथार्थ की कठोर वास्तविकता ने बुश की 'महानायक' वाली फैण्टेसीमय इमेज को जूते फेंकने वाली घटना ने एक ही झटके में खत्म कर दिया। अपने आखिरी इराकी दौरे के समय एक प्रेस कॉफ्रेस में एक पत्रकार ने जब बुश के ऊपर प्रतिवाद स्वरूप जूता फेंककर मारा तो सारी दुनिया में जूते फेंकने वाले के पक्ष में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। अमरीकी मीडिया में भी इस घटना का प्रभावशाली रूपायन हुआ और अमरीकी राजनीतिक सर्किल में बुश के पक्ष में कोई बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ।
एक पत्रकार के जूते के सामने बुश बौने लग रहे थे,जूते की मार से बचने के लिए सिर झुका रहे थे। डिजिटल फोटो में इराकी जूता ऊपर था जॉर्ज बुश का सिर नीचे था। यह बुश की प्रतीकात्मक पराजय थी। महायथार्थ के फैंटेसीमय महाख्यान का शानदार ग्लोबल अंत था। अब बुश महान नहीं थे । बुश सद्दाम से जीत गए किंतु इराकी जूते से हार गए। जूते का सच इराकी सच है। यह उन तमाम तर्कों का अंत है जो बुश को वैध बनाते हैं,महान् बनाते हैं। यह उस सेंसरशिप का भी अंत है जो अमरीकी मीडिया में इराक को लेकर जारी है। संदेश यह है कि इराकी जूता सच है अमरीकी प्रशासन गलत है। इराक को लेकर अमरीकी नीतियां गलत हैं। इराक विजय से आरंभ हुआ बुश आख्यान इराकी जूते के आगमन से खत्म हुआ। एक जूता अमरीका की विशाल सेना पर भारी पड़ा, यह साधारण इराकी का जूता था और इसे भी ओबामा की जीत के बाद ही पड़ना था। तात्पर्य यह कि मीडिया निर्मित फैंटेसी नकली होती है, उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। एक स्थिति के बाद यह गायब हो जाती है।
महायथार्थ ( वर्चुअल रिसलिटी) की धुरी है विवरण,ब्यौरे और सुनियोजित फैंटेसीमय प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां संवाद नहीं करती बल्कि इकतरफा प्रचार करती हैं। दर्शक के पास ग्रहण करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाता। महायथार्थ की आंतरिक संरचना में नागरिक की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया जाता है। आकांक्षाओं को समाहित कर लेने के कारण नागरिक को बोलने,हस्तक्षेप, प्रतिवाद और सवाल पूछने की जरूरत नहीं होती। नागरिक को निष्क्रिय बनाकर महायथार्थ के फ्रेम में प्रचार चलता है । चर्चा का नकली वातावरण बनता है । सामाजिक जीवन में बहस एकसिरे से गायब हो जाती है। मुतादर अल जैदी की कहानी भी महायथार्थ के फ्रेम में आई और व्यापक प्रभाव छोड़कर चली गयी। उसका प्रतीकात्मक प्रतिवाद क्रांतिकारी कार्रवाई है। वह साधारण जूता फेंकने वाली कार्रवाई नहीं है। इराकी जनता का प्रत्येक प्रतिवाद हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ जंग की प्रेरणा देता है। जबकि टीवी के लिए यह महज घटनामात्र है।
मुतादर ने अपने देश की दुर्दशा देखकर दुस्साहसिक फैसला लिया और बुश के ऊपर अपना जूता फेंककर मारा था। अपने बयान में उसने कहा है मेरे देश की जनता के साथ जिस तरह का अन्याय हो रहा है,देश पर कब्जा जमाने वालों ने हमारी मातृभूमि को जूतों तले रौंदकर जिस तरह अपमानित किया है,उसके कारण ही मैंने जूता फेंककर प्रतिवाद करने का फैसला लिया था। विगत चंद सालों में दस लाख से ज्यादा लोग कब्जा करने वालों की गोलियों से मारे गए हैं।तकरीबन पचास लाख इराकी शरणार्थी हो गए हैं। लाखों औरतें विधवा हो गयी हैं।लाखों बच्चे अनाथ हो गए हैं।देश के अंदर और बाहर विस्थापन के कारण लाखों लोगों के घर-द्वार नष्ट हो गए हैं।
मुतादर ने कहा कि हमारी एकता और धैर्य ने हमें दमन को भूलने नहीं दिया है। हमारे देश में विदेशी कब्जे के पहले मुक्ति का विभ्रम था,लेकिन देश पर विदेशियों का कब्जा हो जाने के बाद भाई भाई का दुश्मन हो गया । पड़ोसी पड़ोसी का दुश्मन हो गया । बेटा अपने चाचा का शत्रु हो गया। हमारे घर अहर्निश जलने वाली चिताओं के श्मशान बनकर रह गए हैं। पार्क और सड़कों पर कब्रगाह फैल गए हैं। यह प्लेग है। यह कब्जा है जो हमारी हत्या कर रहा है। हमारे घरों और मस्जिदों की पवित्रता नष्ट कर दी गयी है और उन्हें जेलखानों में तब्दील कर दिया गया है।
मुतादर न लिखा है मैं हीरो नहीं हूँ लेकिन मेरे पास नजरिया है।मेरे पास उदाहरण है। यह मेरा और मेरे देश का अपमान है। मैं बगदाद को जलते हुए देख रहा हूँ। मेरे लोग मारे जा रहे हैं। हजारों त्रासद तस्वीरें मेरे दिमाग में बसी हुई हैं। वे मुझे लगातार सही रास्ते की ओर ठेलती हैं। संघर्ष के रास्ते पर ठेलती हैं। अन्याय ,वंचना,दुरंगेपन को अस्वीकार करने के मार्ग पर ठेल रही हैं। ये मुझे चैन की नींद से वंचित कर रही हैं।मैंने पिछले साल अपने जलते हुए देश का दौरा किया था और अपनी आंखों से पीड़ितों के दर्द,पीड़ा,कष्ट,आंसुओं को देखा था।मुझे अपनी शक्तिहीनता पर शर्म आ रही थी।यही वह क्षण था जब मैंने जार्ज बुश पर जूता फेंकने का फैसला किया। मुतादर ने लिखा जब सभी मूल्यों का उल्लंघन हो जाए तो जूता ही एकमात्र उपयुक्त अस्त्र है। मैंने जब अपराधी बुश के मुँह पर जब जूता फेंका था, तो मैं अपने देश पर कब्जा जमाने के बारे में व्यक्त किए गए असत्य का खंडन कर रहा था। यह मेरा अपने लोगों की हत्या का अस्वीकार था।यह इराकी संपदा को नष्ट करने और लूटने का अस्वीकार था। इराकी जनता को लूटने,हत्या करने,अपमानित करने,इराकी समाज को बर्बाद करने वाला पीड़ितों से बदले में विदायी के फूल लेने आया था। कब्जा जमाने वाले के लिए जूता ही मेरे हाथ में फूल था। उल्लेखनीय है मुतादर ने जब जूता फेंका था तो उसे टेलीविजन चैनलों ने व्यापक कवरेज दिया।अतिरंजित प्रस्तुति की हद तक ले जाकर उसे छोड़ा था।मुतादर की जूता फेंकने की घटना प्रतिवाद की क्रांतिकारी शैली का आदर्श इराकी उदाहरण बन गयी।
टीवी प्रस्तुतियां तकनीकी कौशल की देन हैं। इनमें बेचैनी, प्रेरणा और परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। ये महज प्रस्तुतियां हैं। जितना जल्दी संप्रेषित होती हैं उतनी ही जल्दी गायब हो जाती हैं। प्रस्तुतियां आनंद देती हैं,मनोरंजन करती हैं और खाली समय भरती हैं। इनके जरिए राजनीतिक यथार्थ समझ में नहीं आता। राजनीतिक यथार्थ तो टीवी प्रस्तुतियों के बाहर होता है।टीवी जिन्हें 'महानायक' बनाता है उनकी इमेज का विलोम भी वह स्वयं तैयार करता है, जिस मीडिया ने बुश को 'महानायक' बनाया था वही बुश एक ही झटके में अपना विलोम बनते हुए मीडिया में देख रहा था। टीवी की यह वैचारिक विशेषता है कि वह जिसे आइकॉन बनाता है फिर उसकी इमेज का विलोम भी तैयार करता है।
यथार्थ की कठोर वास्तविकता ने बुश की 'महानायक' वाली फैण्टेसीमय इमेज को जूते फेंकने वाली घटना ने एक ही झटके में खत्म कर दिया। अपने आखिरी इराकी दौरे के समय एक प्रेस कॉफ्रेस में एक पत्रकार ने जब बुश के ऊपर प्रतिवाद स्वरूप जूता फेंककर मारा तो सारी दुनिया में जूते फेंकने वाले के पक्ष में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। अमरीकी मीडिया में भी इस घटना का प्रभावशाली रूपायन हुआ और अमरीकी राजनीतिक सर्किल में बुश के पक्ष में कोई बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ।
एक पत्रकार के जूते के सामने बुश बौने लग रहे थे,जूते की मार से बचने के लिए सिर झुका रहे थे। डिजिटल फोटो में इराकी जूता ऊपर था जॉर्ज बुश का सिर नीचे था। यह बुश की प्रतीकात्मक पराजय थी। महायथार्थ के फैंटेसीमय महाख्यान का शानदार ग्लोबल अंत था। अब बुश महान नहीं थे । बुश सद्दाम से जीत गए किंतु इराकी जूते से हार गए। जूते का सच इराकी सच है। यह उन तमाम तर्कों का अंत है जो बुश को वैध बनाते हैं,महान् बनाते हैं। यह उस सेंसरशिप का भी अंत है जो अमरीकी मीडिया में इराक को लेकर जारी है। संदेश यह है कि इराकी जूता सच है अमरीकी प्रशासन गलत है। इराक को लेकर अमरीकी नीतियां गलत हैं। इराक विजय से आरंभ हुआ बुश आख्यान इराकी जूते के आगमन से खत्म हुआ। एक जूता अमरीका की विशाल सेना पर भारी पड़ा, यह साधारण इराकी का जूता था और इसे भी ओबामा की जीत के बाद ही पड़ना था। तात्पर्य यह कि मीडिया निर्मित फैंटेसी नकली होती है, उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। एक स्थिति के बाद यह गायब हो जाती है।
महायथार्थ ( वर्चुअल रिसलिटी) की धुरी है विवरण,ब्यौरे और सुनियोजित फैंटेसीमय प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां संवाद नहीं करती बल्कि इकतरफा प्रचार करती हैं। दर्शक के पास ग्रहण करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाता। महायथार्थ की आंतरिक संरचना में नागरिक की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया जाता है। आकांक्षाओं को समाहित कर लेने के कारण नागरिक को बोलने,हस्तक्षेप, प्रतिवाद और सवाल पूछने की जरूरत नहीं होती। नागरिक को निष्क्रिय बनाकर महायथार्थ के फ्रेम में प्रचार चलता है । चर्चा का नकली वातावरण बनता है । सामाजिक जीवन में बहस एकसिरे से गायब हो जाती है। मुतादर अल जैदी की कहानी भी महायथार्थ के फ्रेम में आई और व्यापक प्रभाव छोड़कर चली गयी। उसका प्रतीकात्मक प्रतिवाद क्रांतिकारी कार्रवाई है। वह साधारण जूता फेंकने वाली कार्रवाई नहीं है। इराकी जनता का प्रत्येक प्रतिवाद हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ जंग की प्रेरणा देता है। जबकि टीवी के लिए यह महज घटनामात्र है।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
हाईटेक औरत का गहना है विश्वास
मैत्रेयी पुष्पा बड़ी लेखिका हैं। उनका लिखा वजनदार होता है। लेकिन जिस तरह से उन्होंने 'देशकाल' पर एक लेख में प्रतिक्रिया दी है। वह स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने जो बातें कही हैं, वह औरत ,स्त्री विमर्श ,स्त्रीभाषा और स्त्रीवाद के संदर्भ में पुंसवादी हैं। संयम, बंदिश, उपदेश, भविष्य,इतिहास,मूल्य,मान-मर्यादा,परंपरा,रीति-रिवाज , सुकून, स्थास्थ्य, अकलमंदी, बुद्धिमानी इत्यादि पदबंध औरत के सामने आकर दम तोड़ देते हैं। औरत की दुनिया अनुभूति की दुनिया है। उसके यहाँ सारे फैसले अनुभूति के आधार पर ही लिए जाते हैं। अनुभूति की कसौटी पर ही वह सारी दुनिया को कसकर देखती है।
ज्ञान,विवेक,मूल्य,मान-मर्यादा आदि पदबंधों से औरत को कोई लेना देना नहीं है। ये पुंसवादी विमर्श और स्त्री को पुंसवादी घेरे में बांधने वाले पदबंध हैं। जिस विज्ञापन की भाषा का मैत्रेयी जी ने अपने लेख में जिक्र किया है वह विज्ञापन है और विज्ञापन की भाषा उसकी शब्दरचना में नहीं होती। उसके अन्तर्निहित संदेश में होती है। यहां संदेश या सूचना गोली की है, आनंद की नहीं। मैत्रेयी जी की उपदेश और शापग्रस्त भाषा समूचे लेख में छायी हुई है। यह भाषा स्त्री को अब तक दण्डित करती रही है। मैत्रेयी जी का मानना है ''नई तकनीक ने बहुत सारी सुविधाएं दीं-मोबाइल फोन, रसोई के साधन, सफाई के लिए डिटर्जेंट। सचमुच यह औरत की दुनिया में क्रांति है।'' यानी औरत को कैसी होना चाहिए और क्या करना चाहिए ,औरत की तथाकथित क्रांतिकारी दुनिया क्या है ? उपरोक्त पंक्तियां बहुत साफ हैं,किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। एक बडी लेखिका के मुँह से इस कदर मर्द भाषा तकलीफ देती है। यह स्त्री के असम्मान की भाषा है। यह ऐसी भाषा है जिसका स्त्री के यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है। वे जिस गोली और उसकी भाषा को लेकर परेशान हैं,काश वह गोली प्रत्येक औरत के पास होती।
औरतें अनचाहे गर्भ के कारण आज भी सबसे ज्यादा तकलीफ उठाती हैं। यहां तक कि प्रतिवर्ष हजारों औरतें मर जाती हैं। लाखों औरतों को गर्भपात के चक्कर में अनेक नीम हकीमों के हाथों स्थायी बीमारियों को अपने शरीर में लेकर घर लौटना होता है। औरत प्यार करे, कैसे करे, प्यार करे या नहीं करे,बच्चा धारण करे या न करे,बॉयफ्रेंड रखे या न रखे, हम कौन हैं जो उसे सलाह दे रहे हैं। हमारा सलाह देना ही स्त्री के जीवन में हस्तक्षेप है। हम उसकी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को शक की निगाह से क्यों देखते हैं। औरत को स्वतंत्रता खैरात में नहीं मिली है,यह किसी की दया का परिणाम भी नहीं है। दिन-प्रतिदिन की कुर्बानियों के बाद औरत को स्वतंत्रता की थोडी सी संभावनाएं दिख रही हैं उन्हें भी हम सहन नहीं कर पा रहे हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है ' हाईटेक शताब्दी की युवतियों की ट्रेजैडी यही है'। औरतों के बारे में खासकर हाईटेक औरतों के बारे में यह स्टीरियोटाईप समझ मैत्रेयीजी को कहां से मिली ? क्या उनकी जैसी बड़ी लेखिका जिसकी औरत के मन पर विद्वत्ता की हद तक पकड़ है। उल्लिखित निष्कर्ष सही है।यह एकदम तथ्यहीन है। पहली बात यह कि हाईटेक औरत स्वच्छंद,उच्छृंखल और गर्भपात की शिकार नहीं है। यह निष्कर्ष हाइटेक औरत के तथ्य और सत्य से मेल नहीं खाता। हाइटेक औरतें कैसी होती हैं और क्या करती हैं,कैसे शाम गुजारती हैं,कैसा और कितना परिश्रम करती हैं,वे कितना अपने लिए समय निकाल पाती हैं,यह सब कुछ देखने के लिए थोड़ा सा समय निकालकर बंगलौर या हैदराबाद अथवा अमेरिका के किसी हाईटेक हब में चले जाएं तो शायद ऐसा नहीं सोचेंगे।
असल में मैत्रेयी जी का औरत पर विश्वास ही नहीं है। विश्वास के अभाव के कारण ही वे हाईटेक औरत को संदेह की नजर से देखती हैं। मैत्रेयी जी प्रच्छन्नत: यही कह रही हैं कि हाईटेक औरतों के पास सेक्स करने के अलावा और कोई काम नहीं है। सेक्स करने के लिए हाईटेक होने जरूरत नहीं है। सेक्स तो बगैर हाईटेक हुए ही सदियों से चला आ रहा है। इससे भी बड़ी समस्या है कि वे नैतिकता के पैमाने पर रखकर औरत की गतिविधियों को देख रही हैं। नैतिकता औरत की सबसे मजबूत बेड़ी है। इसे जितना जल्दी औरतें तोड़ दें उतना ही अच्छा है। गर्भनिरोधक गोलियां परिवार नियोजन के अनेक उपायों में से एक उपाय है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। परिवार नियोजन के उपायों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल परंपरागत औरतें करती हैं। गर्भनिरोधक गोलियां हों अथवा गर्भ गिराने वाली गोलियां हों इन सबने औरत को कष्ट दिए हैं। लेकिन औरत के जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति से मुक्ति दिलाने में मदद की है। औरत को 'संयम','स्वतंत्रता', 'गुलामी' आदि कुछ भी नहीं चाहिए उसे सिर्फ अपने मन की करने दो, औरत पर विश्वास करो।वह गलती करेगी तो दुरूस्त भी कर लेगी। लेकिन संदेह और अविश्वास की नजर से औरत को नहीं देखा जाना चाहिए। औरत खरगोश नहीं है। उसके पास अपना विवेक है हमें उस पर विश्वास करना चाहिए। औरत को हमारा समाज अविश्वास और संदेह के कारण खोता रहा है। अविश्वास के आधार पर औरत से संवाद संभव नहीं है। अविश्वास और संदेह करने वालों को औरत अपने मन के पास फटकने नहीं देती। गर्भनिरोधक गोलियॉं या परिवार नियोजन के उपाय औरत पर मनुष्य की आस्था को पुख्ता बनाते हैं। हमें औरतों को 'पुरूषों को चलाने' की चालाकियों के बुढ़िया पुराण के नजरिए से भी नहीं देखना चाहिए।
औरत है ,उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। स्वायत्त संसार है। उसे उपदेश की नहीं हमारे विश्वास की जरूरत है,वह कुछ भी करे हमें उस पर विश्वास करना चाहिए। वह हमारी है। हम अविश्वास और संदेह व्यक्त करके उसे परायी न बनाएं। औरत के प्रति पराएभाव ने उसे समाज का हिस्सा ही नहीं बनने दिया।औरत के प्रति संशय की नहीं विश्वास की जरूरत है।वह भोली,मासूम,नादान,चालाक कुछ भी नहीं है वह तो औरत है उसके पास मन है, दिल है और दुनिया को बदलने की आकांक्षा है हमें सिर्फ अपना विश्वास उसे देना है उपदेश नहीं।हम सिर्फ यही कहें स्त्री कुछ भी करे हम उसके साथ हैं। औरत को आज के दौर में हमारा विश्वास चाहिए। उस पर अविश्वास करने वाली बातें उसे आहत करती हैं। हमें इससे बचना चाहिए।
ज्ञान,विवेक,मूल्य,मान-मर्यादा आदि पदबंधों से औरत को कोई लेना देना नहीं है। ये पुंसवादी विमर्श और स्त्री को पुंसवादी घेरे में बांधने वाले पदबंध हैं। जिस विज्ञापन की भाषा का मैत्रेयी जी ने अपने लेख में जिक्र किया है वह विज्ञापन है और विज्ञापन की भाषा उसकी शब्दरचना में नहीं होती। उसके अन्तर्निहित संदेश में होती है। यहां संदेश या सूचना गोली की है, आनंद की नहीं। मैत्रेयी जी की उपदेश और शापग्रस्त भाषा समूचे लेख में छायी हुई है। यह भाषा स्त्री को अब तक दण्डित करती रही है। मैत्रेयी जी का मानना है ''नई तकनीक ने बहुत सारी सुविधाएं दीं-मोबाइल फोन, रसोई के साधन, सफाई के लिए डिटर्जेंट। सचमुच यह औरत की दुनिया में क्रांति है।'' यानी औरत को कैसी होना चाहिए और क्या करना चाहिए ,औरत की तथाकथित क्रांतिकारी दुनिया क्या है ? उपरोक्त पंक्तियां बहुत साफ हैं,किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। एक बडी लेखिका के मुँह से इस कदर मर्द भाषा तकलीफ देती है। यह स्त्री के असम्मान की भाषा है। यह ऐसी भाषा है जिसका स्त्री के यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है। वे जिस गोली और उसकी भाषा को लेकर परेशान हैं,काश वह गोली प्रत्येक औरत के पास होती।
औरतें अनचाहे गर्भ के कारण आज भी सबसे ज्यादा तकलीफ उठाती हैं। यहां तक कि प्रतिवर्ष हजारों औरतें मर जाती हैं। लाखों औरतों को गर्भपात के चक्कर में अनेक नीम हकीमों के हाथों स्थायी बीमारियों को अपने शरीर में लेकर घर लौटना होता है। औरत प्यार करे, कैसे करे, प्यार करे या नहीं करे,बच्चा धारण करे या न करे,बॉयफ्रेंड रखे या न रखे, हम कौन हैं जो उसे सलाह दे रहे हैं। हमारा सलाह देना ही स्त्री के जीवन में हस्तक्षेप है। हम उसकी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को शक की निगाह से क्यों देखते हैं। औरत को स्वतंत्रता खैरात में नहीं मिली है,यह किसी की दया का परिणाम भी नहीं है। दिन-प्रतिदिन की कुर्बानियों के बाद औरत को स्वतंत्रता की थोडी सी संभावनाएं दिख रही हैं उन्हें भी हम सहन नहीं कर पा रहे हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है ' हाईटेक शताब्दी की युवतियों की ट्रेजैडी यही है'। औरतों के बारे में खासकर हाईटेक औरतों के बारे में यह स्टीरियोटाईप समझ मैत्रेयीजी को कहां से मिली ? क्या उनकी जैसी बड़ी लेखिका जिसकी औरत के मन पर विद्वत्ता की हद तक पकड़ है। उल्लिखित निष्कर्ष सही है।यह एकदम तथ्यहीन है। पहली बात यह कि हाईटेक औरत स्वच्छंद,उच्छृंखल और गर्भपात की शिकार नहीं है। यह निष्कर्ष हाइटेक औरत के तथ्य और सत्य से मेल नहीं खाता। हाइटेक औरतें कैसी होती हैं और क्या करती हैं,कैसे शाम गुजारती हैं,कैसा और कितना परिश्रम करती हैं,वे कितना अपने लिए समय निकाल पाती हैं,यह सब कुछ देखने के लिए थोड़ा सा समय निकालकर बंगलौर या हैदराबाद अथवा अमेरिका के किसी हाईटेक हब में चले जाएं तो शायद ऐसा नहीं सोचेंगे।
असल में मैत्रेयी जी का औरत पर विश्वास ही नहीं है। विश्वास के अभाव के कारण ही वे हाईटेक औरत को संदेह की नजर से देखती हैं। मैत्रेयी जी प्रच्छन्नत: यही कह रही हैं कि हाईटेक औरतों के पास सेक्स करने के अलावा और कोई काम नहीं है। सेक्स करने के लिए हाईटेक होने जरूरत नहीं है। सेक्स तो बगैर हाईटेक हुए ही सदियों से चला आ रहा है। इससे भी बड़ी समस्या है कि वे नैतिकता के पैमाने पर रखकर औरत की गतिविधियों को देख रही हैं। नैतिकता औरत की सबसे मजबूत बेड़ी है। इसे जितना जल्दी औरतें तोड़ दें उतना ही अच्छा है। गर्भनिरोधक गोलियां परिवार नियोजन के अनेक उपायों में से एक उपाय है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। परिवार नियोजन के उपायों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल परंपरागत औरतें करती हैं। गर्भनिरोधक गोलियां हों अथवा गर्भ गिराने वाली गोलियां हों इन सबने औरत को कष्ट दिए हैं। लेकिन औरत के जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति से मुक्ति दिलाने में मदद की है। औरत को 'संयम','स्वतंत्रता', 'गुलामी' आदि कुछ भी नहीं चाहिए उसे सिर्फ अपने मन की करने दो, औरत पर विश्वास करो।वह गलती करेगी तो दुरूस्त भी कर लेगी। लेकिन संदेह और अविश्वास की नजर से औरत को नहीं देखा जाना चाहिए। औरत खरगोश नहीं है। उसके पास अपना विवेक है हमें उस पर विश्वास करना चाहिए। औरत को हमारा समाज अविश्वास और संदेह के कारण खोता रहा है। अविश्वास के आधार पर औरत से संवाद संभव नहीं है। अविश्वास और संदेह करने वालों को औरत अपने मन के पास फटकने नहीं देती। गर्भनिरोधक गोलियॉं या परिवार नियोजन के उपाय औरत पर मनुष्य की आस्था को पुख्ता बनाते हैं। हमें औरतों को 'पुरूषों को चलाने' की चालाकियों के बुढ़िया पुराण के नजरिए से भी नहीं देखना चाहिए।
औरत है ,उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। स्वायत्त संसार है। उसे उपदेश की नहीं हमारे विश्वास की जरूरत है,वह कुछ भी करे हमें उस पर विश्वास करना चाहिए। वह हमारी है। हम अविश्वास और संदेह व्यक्त करके उसे परायी न बनाएं। औरत के प्रति पराएभाव ने उसे समाज का हिस्सा ही नहीं बनने दिया।औरत के प्रति संशय की नहीं विश्वास की जरूरत है।वह भोली,मासूम,नादान,चालाक कुछ भी नहीं है वह तो औरत है उसके पास मन है, दिल है और दुनिया को बदलने की आकांक्षा है हमें सिर्फ अपना विश्वास उसे देना है उपदेश नहीं।हम सिर्फ यही कहें स्त्री कुछ भी करे हम उसके साथ हैं। औरत को आज के दौर में हमारा विश्वास चाहिए। उस पर अविश्वास करने वाली बातें उसे आहत करती हैं। हमें इससे बचना चाहिए।
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
प्रायोजित लोकतंत्र का प्रहसन
अफगानिस्तान में पश्चिमी लोकतंत्र का प्रहसन चल रहा है। हाल ही में वहां पर राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुए हैं और यह कहा जा रहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है। पहली बात यह कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र नहीं नाटो का सेनातंत्र है। नाटो लोकतंत्र पश्चिम का नया फिनोमिना है। सैन्य मौजूदगी और अफगानी जनता की संप्रभुता को रौंदते हुए राष्ट्रपति चुनाव सम्पन्न हुए हैं। यहां पर पक्ष-विपक्ष दोनों का ही फैसला पेंटागन और सीआईए के नीति निर्धारकों ने किया था। इस चुनाव को जनतंत्र कहना और अफगानिस्तान प्रशासन को संप्रभु सुशासन का नाम देना सही नहीं होगा।
20 अगस्त 2009 को राष्ट्रपति के पद के लिए मतदान हुआ और अभी तक ( 16 सितम्बर 2009) परिणाम नहीं आए हैं। विदेशी पर्यवेक्षकों से भरा निगरानी कमीशन 2,740 शिकायतों की जांच कर रहा है। उन तमाम मतदान केन्द्रों पर दोबारा मतगणना के आदेश दिए गए हैं जहां पर राष्ट्रपति करजई को शत-प्रतिशत मत मिले हैं। उल्लेखनीय है कि जिन मतदान केन्द्रों पर 600 से ज्यादा वोट पड़े हैं उन सभी मतदान केन्द्रों पर करजई को शत-प्रतिशत वोट मिले हैं।
8 सितम्बर को 92 प्रतिशत वोटों की गिनती के बाद जारी प्राथमिक परिणामों में करजई को 54 प्रतिशत,मुख्य विपक्षी उम्मीदवार अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 28.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। 'डेमोक्रेटिक इंस्टीटयूशन एंड ह्यूमन राइटस' संगठन का कहना है कि गणना किए गए मतों में से कुल 1,253,806 वोट जाली पाए गए हैं। यानी 23 प्रतिशत जाली मत ड़ाले गए हैं। यदि जाली मतों को करजई के मतों में से निकाल दिया जाए तो उन्हें मात्र 47.48 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए हैं। जो उन्हें विजयी घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। विजयी घोषित करने के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा मत प्राप्त करना जरूरी है। मजेदार तथ्य यह है कि तकरीबन चार मिलियन मतदाताओं ने वोट ड़ाले हैं इनमें मात्र 17 मिलियन रजिस्टर्ड मतदाता हैं। सवाल यह है कि गैर रजिस्टर्ड मतदाताओं ने वोट कैसे डाले ? यह सीधे चुनावी धांधली है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में लोकतंत्र का जो नाटक किया है वैसा नाटक वह और भी अनेक देशों में कर चुका है। इसमें पक्ष और विपक्ष कौन होगा,क्या मसले होंगे,कौन वोट देगा और कौन जीतेगा इत्यादि फैसले मतदान के पहले ही सीआईए के द्वारा ले लिए जाते हैं और मतदान के परिणामों के बहाने उनकी घोषणा कर दी जाती है। अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों की सेना का कब्जा बुनियादी तौर पर अवैध है,यह इन दोनों देशों की संप्रभुता का हनन है। अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठने वाला कोई हो वह अमेरिका की कठपुतली की तरह काम करने के लिए मजबूर है। लैटिन अमेरिका के देशों में कठपुतलियों को नचाने का अमेरिका को गाढ़ा तजुर्बा है। लैटिन अमेरिका में ही सेना और भाड़े के सैनिकों बलबूते पर लोकतंत्र का नाटक भी वर्षों चला है। अफगानिस्तान में लैटिन अमेरिका का प्रयोग ही दोहराया जा रहा है।
अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं के रहते हुए अफगानी तालिबानों के हमले बढे हैं। विभिन्न इलाकों में उनकी हमलावर कार्रवाईयों में तेजी आयी है। अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं की संख्या बढी है,भाड़े के सैनिकों की संख्या में बढोतरी हुई है।अफगानिस्तान का सन् 2007-08 की मानव विकास रिपोर्ट में शामिल 178 देशों में से 174वां स्थान है। यह दशा तब है जब अफगानिस्तान पर नाटो के कब्जे को आठ साल हो चुके हैं।
विभिन्न बहुराष्ट्रीय जनमाध्यमों के पत्रकार अपनी खबरों में अफगानिस्तान के चुनाव की प्रक्रिया पर ही लिखते रहे जबकि अफगानिस्तान में समस्या चुनावी प्रक्रिया की नहीं उसकी संप्रभुता की है। अफगानिस्तान जब तक नाटो सेनाओं के कब्जे में है किसी भी किस्म के चुनाव का कोई अर्थ नहीं है चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी हो अथवा किसी अन्य की निगरानी में हो। चुनाव की महत्ता तब है जब अफगानिस्तान विदेशी सेनाओं की कैद से मुक्त हो जाए। उसके बाद वहां की जनता तय करे कि शासनप्रणाली कैसी हो।
अफगानिस्तान की आंतरिक जनसंख्या संरचना में 42 फीसदी पख्तून जनजाति के लोग हैं। लेकिन इनका शासन में कोई खास दखल नहीं है। बल्कि शासन की मशीनरी जैसे पुलिस,सेना,गुप्तचर सेवा आदि प्रशासनिक हल्कों में ताजिक जाति का ही वर्चस्व है। ताजिक जाति अल्पसंख्यक हैं। मोहम्मद करजई का प्रशासन ताजिकों पर पूरी तरह निर्भर है। अभी तक तालिबान का अफगानिस्तान में प्रभाव बने रहने का बड़ा कारण पख्तून जनजाति में तालिबान का बने रहना। पख्तूनों में तालिबानों की पकड़ अभी भी बरकरार है। करजई प्रशासन ने विगत पांच सालों में पख्तूनों का दिल जीतने के लिए कोई भी प्रभावशाली कदम नहीं उठाया और इस उपेक्षा को तालिबान ने अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है।
20 अगस्त 2009 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में व्यापक धांधली के आरोप लगाए गए हैं। राष्ट्रपति करजई के खिलाफ आधा दर्जन उम्मीदवार खड़े हुए थे इनमें भू.पू. विदेशीमंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे और इन सभी विपक्षी उम्मीदवारों ने चुनाव में व्यापक पैमाने पर धांधली का आरोप लगाया है। किस माहौल में चुनाव हुआ है इसका आदर्श उदाहरण है दक्षिणी अफगानिस्तान के दो प्रांत कंधहार और हिलमंद । इन दोनों प्रान्तों में नाटो सेना और गुरिल्लाओं के बीच घमासान युद्ध चल रहा था और उसी दौरान मतदान भी चल रहा था। युद्ध के दौरान लोग घर से नहीं निकल पाए थे।विभिन्न पर्यवेक्षकों और मीडिया वालों ने भी रिपोर्ट किया कि मतदान पांच प्रतिशत से भी कम हुआ है। लेकिन राष्ट्रपति करजई ने घोषणा की कि इन दोनों राज्यों में 40 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। स्वतंत्र में मीडिया में धांधली की व्यापक खबरें प्रकाशित हुईं इसके बावजूद ओबामा प्रशासन ने मतदान में व्यापकस्तर पर जनता की शिरकत का दावा किया है। व्यापक धांधली की शिकायतों को अमेरिकी प्रशासन के द्वारा लोकतंत्र के दर्द की संज्ञा दी गयी।अफगानिस्तान में धांधली के वीडियो प्रमाण दिखाए जाने के बावजूद अमेरिकी प्रशासन ने अफगानिस्तान के चुनाव को निष्पक्ष कहा है। इसके विपरीत ईरान में 12 जून 2009 को सम्पन्न हुए चुनाव के बारे में मतदान खत्म होते ही बहुराष्ट्रीय मीडिया और ओबामा प्रशासन ने हंगामा आरंभ कर दिया और कहा कि ईरान के चुनावों में व्यापक पैमाने पर धांधली हुई है। मतदान खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनिजात के विरोधी उम्मीदवार मीर हुसैन मासवी ने,जिसे अमेरिका समर्थन और पैसा दोनों हासिल था,उसने अपने को विजयी घोषित भी कर दिया था। अमेरिका से यह सवाल किया जाना चाहिए कि अफगानिस्तान और ईरान के लिए दो तरह पैमाने क्यों अपनाए गए ? अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के द्वारा नियुक्त विशेषदूत हॉलब्रुक ने कहा कि अफगानिस्तान में यदि 10 प्रतिशत मतों की गिनती न किए जाने को कोई धांधली नहीं माना जाए। इसके विपरीत ईरान में चुनाव मतपत्रों की गणना शुरू होने के पहले ही अमेरिकी प्रशासन ने ईरान के चुनावों में धांधली का हल्ला शुरू कर दिया। आखिरकार अफगानिस्तान और ईरान को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण का अमेरिकी प्रशासन ने परिचय क्यों दिया ?
ईरान और अफगानिस्तान के चुनाव में दूसरी महत्वपूर्ण समानता यह है कि ईरान के राष्ट्रपति के समर्थकों ने मतों की गिनती शुरू होने के कुछ ही घंटे बाद दो-तिहाई मतों से जीत की घोषणा कर दी। अमरीकी मीडिया ने ईरान में चुनावी धांधली का इसे सबसे बड़ा प्रमाण माना और विदेशी माध्यमों में यह प्रचार आरंभ हो गया कि वोटों की गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति को दो-तिहाई मतों से ईरानी प्रशासन ने विजयी कैसे घोषित कर दिया । मीडिया के अनुसार यह सीधे धांधली है। मजेदार बात यह है कि ईरान के राष्ट्रपति पद के अमेरिका समर्थित विपक्षी उम्मीदवार ने मतदान के खत्म होने के पहले ही अपने को विजयी घोषित कर दिया था। इसी तरह अफगानिस्तान में करजई प्रशासन में वित्तमंत्री हजरत उमर जखीलवाल ने मतदान खत्म होने के तीन दिन बाद ही 23 अगस्त को ही प्रेस को विस्तार के साथ बता दिया कि करजई जीत गए हैं। उन्हें 68 प्रतिशत वोट मिले हैं,साथ ही उन्होंने मीडिया को सटीक वोटों का विस्तार के साथ ब्यौरा भी दे दिया। उन्होंने कहा कि करजई को तकरीबन तीन मिलियन वोट यानी 68 प्रतिशत वोट मिले हैं। जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 1.5 मिलियन वोट मिले हैं। अन्य उम्मीदवारों को पांच फीसद से भी कम वोट मिले हैं। समूचे चुनाव में पांच मिलियन वोट पड़े थे। हजरत उमर साहब ने जिस समय मीडिया को ये जीत के आंकड़े जारी किए उस समय तक साढ़े चार लाख वोटों की गिनती होनी बाकी थी। समस्या यह है कि गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति के चुनाव परिणाम की घोषणा को बहुराष्ट्रीय मीडिया ने चुनावी धांधली करार दिया लेकिन अफगानिस्तान के वित्तमंत्री की गिनती खत्म होने के पहले करजई की जीत की घोषणा को चुनावी धांधली नहीं माना। अफगानिस्तान में छह हजार मतदान केन्द्र बनाए गए जिनमें से मात्र 500 मतदान केन्द्रों के मतों की गणना के आधार पर ही करजई को निर्वाचित घोषित कर दिया गया।इन सब तथ्यों की ओर से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय मीडिया आंखें बंद किए रहा। इसी को कहते हैं कारपोरेट मीडिया की अमेरिकी हितों की पक्षधरता। अमेरिकी कारपोरेट मीडिया का अमरीका की विदेशनीति से नाभिनालबद्ध संबंध है। यह तथ्य भी इससे पुष्ट होता है।
( मोहल्ला लाइव पर भी प्रकाशित)
20 अगस्त 2009 को राष्ट्रपति के पद के लिए मतदान हुआ और अभी तक ( 16 सितम्बर 2009) परिणाम नहीं आए हैं। विदेशी पर्यवेक्षकों से भरा निगरानी कमीशन 2,740 शिकायतों की जांच कर रहा है। उन तमाम मतदान केन्द्रों पर दोबारा मतगणना के आदेश दिए गए हैं जहां पर राष्ट्रपति करजई को शत-प्रतिशत मत मिले हैं। उल्लेखनीय है कि जिन मतदान केन्द्रों पर 600 से ज्यादा वोट पड़े हैं उन सभी मतदान केन्द्रों पर करजई को शत-प्रतिशत वोट मिले हैं।
8 सितम्बर को 92 प्रतिशत वोटों की गिनती के बाद जारी प्राथमिक परिणामों में करजई को 54 प्रतिशत,मुख्य विपक्षी उम्मीदवार अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 28.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। 'डेमोक्रेटिक इंस्टीटयूशन एंड ह्यूमन राइटस' संगठन का कहना है कि गणना किए गए मतों में से कुल 1,253,806 वोट जाली पाए गए हैं। यानी 23 प्रतिशत जाली मत ड़ाले गए हैं। यदि जाली मतों को करजई के मतों में से निकाल दिया जाए तो उन्हें मात्र 47.48 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए हैं। जो उन्हें विजयी घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। विजयी घोषित करने के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा मत प्राप्त करना जरूरी है। मजेदार तथ्य यह है कि तकरीबन चार मिलियन मतदाताओं ने वोट ड़ाले हैं इनमें मात्र 17 मिलियन रजिस्टर्ड मतदाता हैं। सवाल यह है कि गैर रजिस्टर्ड मतदाताओं ने वोट कैसे डाले ? यह सीधे चुनावी धांधली है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में लोकतंत्र का जो नाटक किया है वैसा नाटक वह और भी अनेक देशों में कर चुका है। इसमें पक्ष और विपक्ष कौन होगा,क्या मसले होंगे,कौन वोट देगा और कौन जीतेगा इत्यादि फैसले मतदान के पहले ही सीआईए के द्वारा ले लिए जाते हैं और मतदान के परिणामों के बहाने उनकी घोषणा कर दी जाती है। अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों की सेना का कब्जा बुनियादी तौर पर अवैध है,यह इन दोनों देशों की संप्रभुता का हनन है। अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठने वाला कोई हो वह अमेरिका की कठपुतली की तरह काम करने के लिए मजबूर है। लैटिन अमेरिका के देशों में कठपुतलियों को नचाने का अमेरिका को गाढ़ा तजुर्बा है। लैटिन अमेरिका में ही सेना और भाड़े के सैनिकों बलबूते पर लोकतंत्र का नाटक भी वर्षों चला है। अफगानिस्तान में लैटिन अमेरिका का प्रयोग ही दोहराया जा रहा है।
अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं के रहते हुए अफगानी तालिबानों के हमले बढे हैं। विभिन्न इलाकों में उनकी हमलावर कार्रवाईयों में तेजी आयी है। अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं की संख्या बढी है,भाड़े के सैनिकों की संख्या में बढोतरी हुई है।अफगानिस्तान का सन् 2007-08 की मानव विकास रिपोर्ट में शामिल 178 देशों में से 174वां स्थान है। यह दशा तब है जब अफगानिस्तान पर नाटो के कब्जे को आठ साल हो चुके हैं।
विभिन्न बहुराष्ट्रीय जनमाध्यमों के पत्रकार अपनी खबरों में अफगानिस्तान के चुनाव की प्रक्रिया पर ही लिखते रहे जबकि अफगानिस्तान में समस्या चुनावी प्रक्रिया की नहीं उसकी संप्रभुता की है। अफगानिस्तान जब तक नाटो सेनाओं के कब्जे में है किसी भी किस्म के चुनाव का कोई अर्थ नहीं है चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी हो अथवा किसी अन्य की निगरानी में हो। चुनाव की महत्ता तब है जब अफगानिस्तान विदेशी सेनाओं की कैद से मुक्त हो जाए। उसके बाद वहां की जनता तय करे कि शासनप्रणाली कैसी हो।
अफगानिस्तान की आंतरिक जनसंख्या संरचना में 42 फीसदी पख्तून जनजाति के लोग हैं। लेकिन इनका शासन में कोई खास दखल नहीं है। बल्कि शासन की मशीनरी जैसे पुलिस,सेना,गुप्तचर सेवा आदि प्रशासनिक हल्कों में ताजिक जाति का ही वर्चस्व है। ताजिक जाति अल्पसंख्यक हैं। मोहम्मद करजई का प्रशासन ताजिकों पर पूरी तरह निर्भर है। अभी तक तालिबान का अफगानिस्तान में प्रभाव बने रहने का बड़ा कारण पख्तून जनजाति में तालिबान का बने रहना। पख्तूनों में तालिबानों की पकड़ अभी भी बरकरार है। करजई प्रशासन ने विगत पांच सालों में पख्तूनों का दिल जीतने के लिए कोई भी प्रभावशाली कदम नहीं उठाया और इस उपेक्षा को तालिबान ने अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है।
20 अगस्त 2009 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में व्यापक धांधली के आरोप लगाए गए हैं। राष्ट्रपति करजई के खिलाफ आधा दर्जन उम्मीदवार खड़े हुए थे इनमें भू.पू. विदेशीमंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे और इन सभी विपक्षी उम्मीदवारों ने चुनाव में व्यापक पैमाने पर धांधली का आरोप लगाया है। किस माहौल में चुनाव हुआ है इसका आदर्श उदाहरण है दक्षिणी अफगानिस्तान के दो प्रांत कंधहार और हिलमंद । इन दोनों प्रान्तों में नाटो सेना और गुरिल्लाओं के बीच घमासान युद्ध चल रहा था और उसी दौरान मतदान भी चल रहा था। युद्ध के दौरान लोग घर से नहीं निकल पाए थे।विभिन्न पर्यवेक्षकों और मीडिया वालों ने भी रिपोर्ट किया कि मतदान पांच प्रतिशत से भी कम हुआ है। लेकिन राष्ट्रपति करजई ने घोषणा की कि इन दोनों राज्यों में 40 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। स्वतंत्र में मीडिया में धांधली की व्यापक खबरें प्रकाशित हुईं इसके बावजूद ओबामा प्रशासन ने मतदान में व्यापकस्तर पर जनता की शिरकत का दावा किया है। व्यापक धांधली की शिकायतों को अमेरिकी प्रशासन के द्वारा लोकतंत्र के दर्द की संज्ञा दी गयी।अफगानिस्तान में धांधली के वीडियो प्रमाण दिखाए जाने के बावजूद अमेरिकी प्रशासन ने अफगानिस्तान के चुनाव को निष्पक्ष कहा है। इसके विपरीत ईरान में 12 जून 2009 को सम्पन्न हुए चुनाव के बारे में मतदान खत्म होते ही बहुराष्ट्रीय मीडिया और ओबामा प्रशासन ने हंगामा आरंभ कर दिया और कहा कि ईरान के चुनावों में व्यापक पैमाने पर धांधली हुई है। मतदान खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनिजात के विरोधी उम्मीदवार मीर हुसैन मासवी ने,जिसे अमेरिका समर्थन और पैसा दोनों हासिल था,उसने अपने को विजयी घोषित भी कर दिया था। अमेरिका से यह सवाल किया जाना चाहिए कि अफगानिस्तान और ईरान के लिए दो तरह पैमाने क्यों अपनाए गए ? अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के द्वारा नियुक्त विशेषदूत हॉलब्रुक ने कहा कि अफगानिस्तान में यदि 10 प्रतिशत मतों की गिनती न किए जाने को कोई धांधली नहीं माना जाए। इसके विपरीत ईरान में चुनाव मतपत्रों की गणना शुरू होने के पहले ही अमेरिकी प्रशासन ने ईरान के चुनावों में धांधली का हल्ला शुरू कर दिया। आखिरकार अफगानिस्तान और ईरान को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण का अमेरिकी प्रशासन ने परिचय क्यों दिया ?
ईरान और अफगानिस्तान के चुनाव में दूसरी महत्वपूर्ण समानता यह है कि ईरान के राष्ट्रपति के समर्थकों ने मतों की गिनती शुरू होने के कुछ ही घंटे बाद दो-तिहाई मतों से जीत की घोषणा कर दी। अमरीकी मीडिया ने ईरान में चुनावी धांधली का इसे सबसे बड़ा प्रमाण माना और विदेशी माध्यमों में यह प्रचार आरंभ हो गया कि वोटों की गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति को दो-तिहाई मतों से ईरानी प्रशासन ने विजयी कैसे घोषित कर दिया । मीडिया के अनुसार यह सीधे धांधली है। मजेदार बात यह है कि ईरान के राष्ट्रपति पद के अमेरिका समर्थित विपक्षी उम्मीदवार ने मतदान के खत्म होने के पहले ही अपने को विजयी घोषित कर दिया था। इसी तरह अफगानिस्तान में करजई प्रशासन में वित्तमंत्री हजरत उमर जखीलवाल ने मतदान खत्म होने के तीन दिन बाद ही 23 अगस्त को ही प्रेस को विस्तार के साथ बता दिया कि करजई जीत गए हैं। उन्हें 68 प्रतिशत वोट मिले हैं,साथ ही उन्होंने मीडिया को सटीक वोटों का विस्तार के साथ ब्यौरा भी दे दिया। उन्होंने कहा कि करजई को तकरीबन तीन मिलियन वोट यानी 68 प्रतिशत वोट मिले हैं। जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 1.5 मिलियन वोट मिले हैं। अन्य उम्मीदवारों को पांच फीसद से भी कम वोट मिले हैं। समूचे चुनाव में पांच मिलियन वोट पड़े थे। हजरत उमर साहब ने जिस समय मीडिया को ये जीत के आंकड़े जारी किए उस समय तक साढ़े चार लाख वोटों की गिनती होनी बाकी थी। समस्या यह है कि गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति के चुनाव परिणाम की घोषणा को बहुराष्ट्रीय मीडिया ने चुनावी धांधली करार दिया लेकिन अफगानिस्तान के वित्तमंत्री की गिनती खत्म होने के पहले करजई की जीत की घोषणा को चुनावी धांधली नहीं माना। अफगानिस्तान में छह हजार मतदान केन्द्र बनाए गए जिनमें से मात्र 500 मतदान केन्द्रों के मतों की गणना के आधार पर ही करजई को निर्वाचित घोषित कर दिया गया।इन सब तथ्यों की ओर से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय मीडिया आंखें बंद किए रहा। इसी को कहते हैं कारपोरेट मीडिया की अमेरिकी हितों की पक्षधरता। अमेरिकी कारपोरेट मीडिया का अमरीका की विदेशनीति से नाभिनालबद्ध संबंध है। यह तथ्य भी इससे पुष्ट होता है।
( मोहल्ला लाइव पर भी प्रकाशित)
सभ्य देश का झूठा राष्ट्रपति
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही में स्वास्थ्य और चिकित्सा की अमेरिका में स्थिति को लेकर हाल ही में अपने देश की सीनेट में जब बयान दिया तब उस बयान को लेकर सीनेटरों ने ओबामा को झूठा तक करार दे दिया। यह मामला थमा ही नहीं था कि भू.पू.राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने आग में घी डालने वाला बयान दे डाला कि ओबामा के खिलाफ जो लोग हल्ला मचा रहे हैं वे ओबामा के प्रति रंगेभेदीय घृणा व्यक्त कर रहे हैं। कार्टर साहब के बयान में सच का लेशमात्र भी अंश नहीं है । सच यह है कि राष्ट्रपति ओबामा ने सीनेट में असत्य कहा था। ओबामा ने अपनी 40 मिनट के भाषण की शुरूआत ही इस वाक्य से की थी 'एक चिन्ता की खबर है', ' यह पता चला है कि 65 साल की उम्र के तकरीबन आधे से ज्यादा अमरीकी आगामी 10 सालों अपनी स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी खो देंगे।'' और '' एक-तिहाई से ज्यादा लोगों के पास एक वर्ष से भी ज्यादा समय तक कोई स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी नहीं होगी।'' सीनेटरों ने चीखकर ओबामा के बयान का प्रतिवाद किया और कहा कि राष्ट्रपति झूठ बोल रहे हैं। तथ्य ओबामा के बयान की पुष्टि नहीं करते।
मिशिंगन विश्वविद्यालय के द्वारा सन्1997- 2006 के बीच 17 हजार लोगों में सर्वे किया गया। उससे यह तथ्य सामने आया है कि उपरोक्त दशक के दौरान 47.7 प्रतिशत लोगों ने अपनी स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी खो दी। इसी अवधि में 36 फीसद ऐसे भी लोग थे जिनके पास एक वर्ष तक कोई स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी नहीं थी। असल में ओबामा ने इस सर्वे के आंकड़ों का दुरूपयोग किया है और कहा कि ऐसा भविष्य में हो सकता है। जबकि यह सर्वे भविष्य के बारे में नहीं था अतीत के बारे में था। मजेदार बात यह है कि इस तर्क वितर्क का काले गोरे से कोई संबंध नहीं है। इसके बावजूद भू.पू.जिमी कार्टर जैसे दिग्गज नेता ने इस बहस को रंगभेदीय रंग दे दिया। जिमी कार्टर जो कह रहे हैं उसमें सत्य यही है कि अमेरिका में अभी भी रंगभेद है। रंगभेदीय उत्पीडन अभी भी जारी है। लेकिन ओबामा के खिलाफ हाल ही में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें ज्यादातर नस्लभेदीय नहीं हैं। मजेदार बात यह है जिस दिन जिमी कार्टर ने अपना बयान दिया उसी दिन स्कूली बच्चों की एक बस में बच्चों के बीच मारपीट हो गयी और उसे एक नस्लभेदीय नजरिए से प्रेस में हवा दे दी गयी। प्रेस में छपे बयान में कहा गया कि बस में सफर करने वाले गोरे बच्चे अब काले बच्चों के हाथों सुरक्षित नहीं हैं।
सच यह है कि ओबामा को गोरे-काले सभी रंगत के लोगों से व्यापक जनमर्थन मिला था,इसके बावजूद उनकी जीत को सुनिश्चित बनाने में श्वेत फंडामेंटलिस्टों और ईसाई फंडामेंटलिस्टों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
जिमी कार्टर का बयान ओबामा को पुन: अस्मिता की राजनीति के विवाद में ले जा सकता है, इससे अमेरिका में अस्मिता की बहस फिर से जोर पकड़ सकती है।
'अस्मिता के सम्मोहन' के साँचे में सजाकर जब चीजें पेश की जाती हैं तो आप आलोचनात्मक नजरिए से मूल्यांकन करने में असमर्थ होते हैं। 'अस्मिता सम्मोहन' की राजनीति में आकर्षण और सम्मोहन दोनों है। इसके आधार पर विरोधियों को सम्मोहित करते हैं। छलते हैं। निरूत्तर करते हैं। यह खोखला सम्मोहन है। वह विरोधी को 'सम्मोहन' के नियमों के अनुसार खेलने के लिए मजबूर करता है। 'सम्मोहन' में वही देखते हैं जो दिखाया जाता है।
मीडिया प्रचार में ओबामा अश्वेत है, अश्वेत का अमरीका में जीतना सारी दुनिया में अश्वेतों या दलितों या वंचितों को प्रेरणा देता है। ओबामा अश्वेत है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अश्वेत होने के नाते वह युवाओं और राजनीति का आदर्श प्रेरक के रूप में उभर कर आए थे । लेकिन औबामा जिस विचारधारा और राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं वह श्वेतों की राजनीति है। ओबामा अमरीका की अश्वेत राजनीतिक परंपरा का हिस्सा नहीं है, वे कारपोरेट राजनीति के प्रतिनिधि हैं। कारपोरेट राजनीति के बिना ओबामा की कोई हैसियत नहीं है। ओबामा को लोग राष्ट्रपति के रूप में जानते हैं न कि अश्वेत नेता के रूप में। अश्वेत असंतोष को ओबामा ने राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है। जिस तरह अन्य रिपब्लिकन नेता अश्वेत राजनीति के फल भोगते रहे हैं उसी तरह ओबामा भी फल भोग रहे हैं।
राजनीति सत्ता का खेल है । व्यक्ति जब एकबार सत्ता के खेल में शामिल हो जाता है तो उसकी श्वेत,अश्वेत,हिन्दू,मुसलमान, दलित,नारी आदि की पहचान गायब हो जाती है। राजनीति की अपनी स्वतंत्र पहचान और राजनीतिक प्रक्रियाएं होती हैं जिसमें सिर्फ एक ही पहचान बचती है वह है राजनेता की और एक ही खेल होता है सत्ता का खेल। बाकी सब नाटक है।
राजनेता की पहचान व्यक्ति की समस्त अस्मिताओं को हजम कर जाती है। राजनेता कभी भी सत्ता के खेल के बाहर नहीं होता। श्वेत,अश्वेत,नारी,दलित आदि रूप सामाजिक जीवन में असर दिखाते हैं। व्यक्ति जब राजनीति करने लगता है तो वह सामाजिक पैराडाइम के बाहर चला जाता है। राजनीति उसका मूल पैराडाइम होता है। राजनीति पावर का क्षेत्र है अस्मिता का नहीं।
आंबेडकर दलित थे किंतु अंतत राजनीति का हिस्सा बने। राजनीति के पावरगेम का हिस्सा बने। दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी कांग्रेस अश्वेतों का दल है,एक से बढ़कर एक अश्वेत क्रांतिकारी नेता इस दल ने पैदा किए हैं किंतु अंतत: अफ्रीकी कांग्रेस को राजनीति करनी है तो पावरगेम का हिस्सा बनना होगा और अश्वेत भावबोध को त्यागना होगा। आज अफ्रीकी कांग्रेस सत्ता की राजनीति कर रही है उसके कार्यकलापों का अस्मिता के कार्यकलापों के साथ प्रतीकात्मक संबंध है , निर्णायक संबंध पावरगेम के साथ है। श्रीमती इंदिरागांधी स्त्री थीं किंतु राजनीति के पावरगेम का हिस्सा थीं। यही दशा मायावती,ममता बनर्जी, जयललिता आदि नेत्रियों की है। सत्ता की राजनीति की चौपड़ में जब अस्मिता शामिल हो जाती है तो अस्मिता नहीं रहती बल्कि राजनीतिक पावरगेम में रूपान्तरित हो जाती है।
ओबामा अब काले नहीं हैं,डेमोक्रेट भी नहीं हैं। अमरीकी राजनीति के पावरगेम के नायक हैं। पावरगेम, नायक के द्वारा नहीं पावरगेम के मदारियों के द्वारा संचालित होता है। पावर वह है जो व्यक्ति पर प्रभुत्व स्थापित करता है। पावर के सामने व्यक्ति को समर्पण करना जरूरी है। पावर के सामने व्यक्ति का समर्पण ही राजनीति की धुरी है।
राजनीति के पावरगेम में शामिल होने के बाद व्यक्ति एक ऑब्जेक्ट बनकर रह जाता है। पावरगेम का अपना अनुशासन है। वह व्यक्ति के सामान्य कार्यव्यापार को इस तरह निर्देशित करता है जिससे सबको स्वाभाविक लगे। वह राजनीति के एथिक्स,व्यवहार आदि सीखता है। व्यक्ति आज्ञाकारी और ज्यादा उपयोगी हो जाता है। ओबामा ने कारपोरेट हितों और अमरीका की प्रचलित नव्य उदार नीतियों के सामने समर्पण किया है और वे वही सब काम कर रहे हैं जो विगत राष्ट्रपति बुश कर रहे थे। इसका ही यह दुष्परिणाम है कि अमेरिका में ओबामा की जनप्रियता में तेजी से गिरावट आयी है।
मिशिंगन विश्वविद्यालय के द्वारा सन्1997- 2006 के बीच 17 हजार लोगों में सर्वे किया गया। उससे यह तथ्य सामने आया है कि उपरोक्त दशक के दौरान 47.7 प्रतिशत लोगों ने अपनी स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी खो दी। इसी अवधि में 36 फीसद ऐसे भी लोग थे जिनके पास एक वर्ष तक कोई स्वास्थ्य सुरक्षा गारंटी नहीं थी। असल में ओबामा ने इस सर्वे के आंकड़ों का दुरूपयोग किया है और कहा कि ऐसा भविष्य में हो सकता है। जबकि यह सर्वे भविष्य के बारे में नहीं था अतीत के बारे में था। मजेदार बात यह है कि इस तर्क वितर्क का काले गोरे से कोई संबंध नहीं है। इसके बावजूद भू.पू.जिमी कार्टर जैसे दिग्गज नेता ने इस बहस को रंगभेदीय रंग दे दिया। जिमी कार्टर जो कह रहे हैं उसमें सत्य यही है कि अमेरिका में अभी भी रंगभेद है। रंगभेदीय उत्पीडन अभी भी जारी है। लेकिन ओबामा के खिलाफ हाल ही में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें ज्यादातर नस्लभेदीय नहीं हैं। मजेदार बात यह है जिस दिन जिमी कार्टर ने अपना बयान दिया उसी दिन स्कूली बच्चों की एक बस में बच्चों के बीच मारपीट हो गयी और उसे एक नस्लभेदीय नजरिए से प्रेस में हवा दे दी गयी। प्रेस में छपे बयान में कहा गया कि बस में सफर करने वाले गोरे बच्चे अब काले बच्चों के हाथों सुरक्षित नहीं हैं।
सच यह है कि ओबामा को गोरे-काले सभी रंगत के लोगों से व्यापक जनमर्थन मिला था,इसके बावजूद उनकी जीत को सुनिश्चित बनाने में श्वेत फंडामेंटलिस्टों और ईसाई फंडामेंटलिस्टों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
जिमी कार्टर का बयान ओबामा को पुन: अस्मिता की राजनीति के विवाद में ले जा सकता है, इससे अमेरिका में अस्मिता की बहस फिर से जोर पकड़ सकती है।
'अस्मिता के सम्मोहन' के साँचे में सजाकर जब चीजें पेश की जाती हैं तो आप आलोचनात्मक नजरिए से मूल्यांकन करने में असमर्थ होते हैं। 'अस्मिता सम्मोहन' की राजनीति में आकर्षण और सम्मोहन दोनों है। इसके आधार पर विरोधियों को सम्मोहित करते हैं। छलते हैं। निरूत्तर करते हैं। यह खोखला सम्मोहन है। वह विरोधी को 'सम्मोहन' के नियमों के अनुसार खेलने के लिए मजबूर करता है। 'सम्मोहन' में वही देखते हैं जो दिखाया जाता है।
मीडिया प्रचार में ओबामा अश्वेत है, अश्वेत का अमरीका में जीतना सारी दुनिया में अश्वेतों या दलितों या वंचितों को प्रेरणा देता है। ओबामा अश्वेत है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अश्वेत होने के नाते वह युवाओं और राजनीति का आदर्श प्रेरक के रूप में उभर कर आए थे । लेकिन औबामा जिस विचारधारा और राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं वह श्वेतों की राजनीति है। ओबामा अमरीका की अश्वेत राजनीतिक परंपरा का हिस्सा नहीं है, वे कारपोरेट राजनीति के प्रतिनिधि हैं। कारपोरेट राजनीति के बिना ओबामा की कोई हैसियत नहीं है। ओबामा को लोग राष्ट्रपति के रूप में जानते हैं न कि अश्वेत नेता के रूप में। अश्वेत असंतोष को ओबामा ने राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है। जिस तरह अन्य रिपब्लिकन नेता अश्वेत राजनीति के फल भोगते रहे हैं उसी तरह ओबामा भी फल भोग रहे हैं।
राजनीति सत्ता का खेल है । व्यक्ति जब एकबार सत्ता के खेल में शामिल हो जाता है तो उसकी श्वेत,अश्वेत,हिन्दू,मुसलमान, दलित,नारी आदि की पहचान गायब हो जाती है। राजनीति की अपनी स्वतंत्र पहचान और राजनीतिक प्रक्रियाएं होती हैं जिसमें सिर्फ एक ही पहचान बचती है वह है राजनेता की और एक ही खेल होता है सत्ता का खेल। बाकी सब नाटक है।
राजनेता की पहचान व्यक्ति की समस्त अस्मिताओं को हजम कर जाती है। राजनेता कभी भी सत्ता के खेल के बाहर नहीं होता। श्वेत,अश्वेत,नारी,दलित आदि रूप सामाजिक जीवन में असर दिखाते हैं। व्यक्ति जब राजनीति करने लगता है तो वह सामाजिक पैराडाइम के बाहर चला जाता है। राजनीति उसका मूल पैराडाइम होता है। राजनीति पावर का क्षेत्र है अस्मिता का नहीं।
आंबेडकर दलित थे किंतु अंतत राजनीति का हिस्सा बने। राजनीति के पावरगेम का हिस्सा बने। दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी कांग्रेस अश्वेतों का दल है,एक से बढ़कर एक अश्वेत क्रांतिकारी नेता इस दल ने पैदा किए हैं किंतु अंतत: अफ्रीकी कांग्रेस को राजनीति करनी है तो पावरगेम का हिस्सा बनना होगा और अश्वेत भावबोध को त्यागना होगा। आज अफ्रीकी कांग्रेस सत्ता की राजनीति कर रही है उसके कार्यकलापों का अस्मिता के कार्यकलापों के साथ प्रतीकात्मक संबंध है , निर्णायक संबंध पावरगेम के साथ है। श्रीमती इंदिरागांधी स्त्री थीं किंतु राजनीति के पावरगेम का हिस्सा थीं। यही दशा मायावती,ममता बनर्जी, जयललिता आदि नेत्रियों की है। सत्ता की राजनीति की चौपड़ में जब अस्मिता शामिल हो जाती है तो अस्मिता नहीं रहती बल्कि राजनीतिक पावरगेम में रूपान्तरित हो जाती है।
ओबामा अब काले नहीं हैं,डेमोक्रेट भी नहीं हैं। अमरीकी राजनीति के पावरगेम के नायक हैं। पावरगेम, नायक के द्वारा नहीं पावरगेम के मदारियों के द्वारा संचालित होता है। पावर वह है जो व्यक्ति पर प्रभुत्व स्थापित करता है। पावर के सामने व्यक्ति को समर्पण करना जरूरी है। पावर के सामने व्यक्ति का समर्पण ही राजनीति की धुरी है।
राजनीति के पावरगेम में शामिल होने के बाद व्यक्ति एक ऑब्जेक्ट बनकर रह जाता है। पावरगेम का अपना अनुशासन है। वह व्यक्ति के सामान्य कार्यव्यापार को इस तरह निर्देशित करता है जिससे सबको स्वाभाविक लगे। वह राजनीति के एथिक्स,व्यवहार आदि सीखता है। व्यक्ति आज्ञाकारी और ज्यादा उपयोगी हो जाता है। ओबामा ने कारपोरेट हितों और अमरीका की प्रचलित नव्य उदार नीतियों के सामने समर्पण किया है और वे वही सब काम कर रहे हैं जो विगत राष्ट्रपति बुश कर रहे थे। इसका ही यह दुष्परिणाम है कि अमेरिका में ओबामा की जनप्रियता में तेजी से गिरावट आयी है।
बुधवार, 16 सितंबर 2009
स्वर्ग में गरीबी
गरीबी और भुखमरी विश्वबैंक और अमरीकी कारपोरेट घरानों का सबसे प्रिय विषय है। यह विषय जितना त्रासद है उतना ही उपेक्षा का शिकार भी है। विश्वबैंक की सन् 2008 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सारी दुनिया में सन् 2005 में 350 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या ढाई डालर प्रतिदिन के आधार पर गुजारा कर रही थी। इनमें भी 44 प्रतिशत लोग मात्र सवा डालर प्रतिदिन के आधार पर ही गुजारा कर रहे थे। अब इतनी बड़ी जनसंख्या के पास जब खाने के ही लाले पड़े हैं तो ऐसे में फोन,मोबाइल,घर,दवा,चिकित्सा आदि की बातें तो स्वर्ग की कल्पना नजर आती हैं। सारी दुनिया में प्रतिदिन भूख से तीस हजार लोग मर जाते हैं। इनमें पांच साल से कम उम्र के 85 प्रतिशत बच्चे कुपोषण ,भूख और इलाज होने लायक बीमारियों के कारण ही मर जाते हैं।गैर जरूरी कारणों से मरने वालों की संख्या विगत चालीस सालों में 30लाख का आंकड़ा पार कर गयी है। इन मरने वालों में वे लोग ज्यादा हैं जो अभागे स्थानों में पैदा हुए हैं।
अभागे और भाग्यवानों के बीच में बंटे हुए इस संसार में संपत्ति भी बंटी हुई है। डेविड रूथकॉफ ने 'सुपरक्लास' नामक किताब में लिखा है कि दुनिया के सर्वोच्च दस प्रतिशत वयस्कों के पास सारी दुनिया की 84 प्रतिशत दौलत है। जबकि सबसे नीचे के लोगों के पास एक प्रतिशत दौलत है। इन दस प्रतिशत दौलतमंदों में एक हजार बिलिनियर हैं। अमीरी और गरीबी के बीच का यह आंकडा क्या सिर्फ भाग्य का खेल है ?चांस की बात है ?पूर्वजन्म के पुण्य का फल है ?अथवा कुछ और है ?
सारी दुनिया में किसान सबसे ज्यादा खाद्य पैदा करता है। वह इतना पैदा करता है कि सारी दुनिया का आसानी से पेट भरा जा सके,इसके बावजूद अगर लोग भूख और गरीबी के शिकार हैं तो यह भाग्य और भगवान का खेल तो कम से कम नहीं हो सकता। सन् 2007 में सारी दुनिया में किसानों ने 2.3 बिलियन टन गेंहूँ पैदा किया जो सन् 2006 की पैदावार से चार प्रतिशत ज्यादा था। इसके बावजूद भूखों की तादाद करोडों में पहुँच गयी है।
अब एक नया नारा कारपोरेट जगत में चल निकला है कि 'भूखा रखो अमीर बनो'। अमीरों की अमीरी भाग्य का खेल नहीं है बल्कि अमीरों की संवेदनहीनता और लालसा का खेल है। वे लोग आम आदमी को भूख से मारकर अमीर बन रहे हैं। अमीरी के इस नुस्खे में 'हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखो ही चोखो' की कहावत चरितार्थ हो रही है। ऊपर से चैनलों में बाबा रामदेव से लेकर श्रीश्री रविशंकर तक सभी परलोक, भगवान,भाग्य का उपदेश देते रहते हैं। इन लोगों को कभी यह तथ्य समझ में नहीं आता कि गरीबी और भुखमरी का कारण भाग्य और भगवान नहीं है। यह सवाल पैदा होता है कि कभी ये बाबा ,संत और महंत गरीबी और भुखमरी के लिए अमीरों पर आग बरसाते क्यों नजर नहीं आते ? वस्तुओं की जमाखोरी से पैदा होने वाले बेशुमार धन को कारपोरेट घराने सट्टाबाजार में लगाते हैं और एक के सौ बनाते हैं। अमीरों के लिए अकाल,सूखा और भुखमरी चिंता की चीज नहीं हैं बल्कि उनके लिए आनंद, उल्लास और मुनाफे की खबर है।
अब हम जरा अमीरों के स्वर्ग अमरीका की ओर नजर डालें कि वहां क्या हो रहा है। गरीबी,भुखमरी और बेकारी के प्रति कारपोरेट मीडिया का क्या रवैयया है ? अमरीका की गरीबी और तबाही का सबसे ज्यादा आख्यान वेबसाइट पर उपलब्ध है। चमकीले चैनलों और कारपोरेट प्रेस में अमरीकी तबाही का आख्यान एकसिरे से गायब है। अमेरिका के स्वयंसेवी संगठनों की वेबसाइटें गरीबी और तबाही के आख्यान से भरी हैं।
अक्टूबर 2008 में गरीबों के बारे में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में 28 प्रतिशत से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनके दोनों या एक अभिभावक काम करते हैं और गरीबी में जीने के लिए अभिशप्त हैं। सन् 2004 से 2006 के बीच के श्रम विभाग और जनसंख्या विभाग से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि 9.6 मिलियन परिवार ऐसे हैं जो सबसे कम आमदनी वाली 'अतिगरीब' की केटेगरी में रखे जा सकते हैं। ये वे लोग हैं जो आधिकारिक स्तर पर गरीबी की जो परिभाषा है उससे 200 प्रतिशत कम कमाते हैं। सन् 2002 में तकरीबन 2.1 मिलियन बच्चे 'अतिगरीब' की केटेगरी में आते थे जिनकी संख्या सन् 2006 में बढकर आठ लाख का आंकड़ा पार कर गयी है। सन् 2006 में 29 मिलियन रोजगार 'अतिगरीब' केटेगरी में आते थे, इन लोगों को सरकार द्वारा घोषित वेतनमान से भी कम वेतन दिया जाता था। इन 'अतिगरीब' मजदूरों की संख्या बढकर पांच मिलियन का आंकडा पार कर गयी है। सन् 2002 से 2006 के बीच में अमरीका में परिवारों की आमदनी में असमानता तेजी से बढ़ी है। सन् 2006 में सर्वोच्च 20 प्रतिशत अमरीकी परिवारों की आमदनी सबसे निचले स्तर पर जीने वाले परिवार की आमदनी से 9.2 गुना ज्यादा दर्ज की गई।
सन् 2008 के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में 13.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी में जी रही है। अमेरिका में गरीबी का यह विगत 11 सालों का सर्वोच्च आंकड़ा है। इनमें अफ्रीकन अमेरिकी आबादी में गरीबों की तादाद दुगुना हो गयी है तकरीबन24.7 प्रतिशत आंकी गयी है। मंदी के कारण तकरीबन 31 प्रतिशत अमेरिकियों में गरीबी ने अपने पैर पसारे हैं। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2008 में 39.8 मिलियन लोग अभावपूर्ण अवस्था में जी रहे थे।सन् 1960 के बाद का अभावग्रस्त लोगों का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है।सन् 1999-2008 के दौरान प्रति व्यक्ति अमेरिकी आय में अभूतपूर्व गिरावट आई है। यह स्थिति तब है जब कि युद्ध के बहाने सैन्य उद्योग को चंगा करने की कोशिश की गई और इसके बावजूद आम जनता की जीवनदशा में गिरावट को रोका नहीं जा सका।
आर्थिक मंदी आने के बाद से अमेरिका की सामाजिक असमानता और भी बढी है। आज प्रति आठ में से एक व्यक्ति को गरीबी ने तबाह कर रखा है। तकरीबन 25 लाख लोग सालाना कारखानाबंदी,छंटनी आदि कारणों से लोग अतिगरीबी की केटेगरी में ठेले जा रहे हैं। ये आंकड़े 1998 के गरीबी के स्तर से तुलना करके जारी किए गए हैं।
अश्वेत परिवारों की तुलना में श्वेत परिवारों के पास नौ गुना ज्यादा संपदा है। इसी तरह अश्वेत युवाओं की तुलना में श्वेत युवाओं के पास सात गुना ज्यादा संपदा है। अमरीका में गरीबों में खासकर अफ्रीकी-अमरीकी नागरिकों में बीमारियों ने अपने घर बसा लिए हैं। अमरीका के 75 फीसदी टीवी के शिकार अश्वेत हैं। स्वयं ओबामा के राज्य इलीनोसिस में एचआईवी-एड्स के अधिकांश मरीज अश्वेत हैं। दस में से तीन काले और लातिनी लोग गरीबी में गुजारा कर रहे हैं। इसी तरह गरीब अश्वेत बच्चों की तादाद श्वेत बच्चों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है।
अमरीका के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2007 में बच्चों में भुखमरी 50 फीसद बढ़ी है। अमरीका में सन् 2007 में 691,000 बच्चे भुखमरी के शिकार थे। यह संख्या विगत वर्ष की तुलना में पचास फीसदी ज्यादा है। प्रति आठ अमरीकियों में एक अमरीकी अपना पेट मुश्किल से भर पाता है। तकरीबन 36.2 मिलियन लोग इस वर्ष भूख से लड़ रहे थे। यानी उन्हें किसी एक समय बिना खाए रहना पड़ रहा है। सन् 2007 में भयानक भूख से पीड़ितों की संख्या 11.9 मिलियन थी। यानी सन् 2000 की तुलना में भूखे लोगों की संख्या में 49 फीसद का इजाफा हुआ है।
सन् 2008 की आर्थिक मंदी के बाद भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या और भी ज्यादा होने की संभावना है। चार लोगों के परिवार की आय 21,027 डालर के नीचे है तो उसे गरीब परिवार की केटेगरी में रखा जाता है। इतनी कम आय के लोगों को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है। खाद्य असुरक्षितों की संख्या बढ़कर 37.7 फीसद हो गयी है। इनमें अफ्रीकी-अमेरिकी परिवारों में 22.2 फीसद परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं। 20.1 फीसदी हिसपेनिक परिवार, एकल महिला अभिभावक 30.2 फीसद परिवार और एकल पुरूष अभिभावक परिवारों की संख्या 18 फीसद है। यानी एकल अभिभावक परिवार ज्यादा गरीब हैं।
अमरीका के दक्षिणी राज्यों में ज्यादा खाद्य असुरक्षा है। इनमें मिसीसिपी (17.4 फीसद),न्यू मैक्सिको ( 15 फीसद) ,टेक्सास ( 14.8 फीसद) और अरकन्सास ( 14.4 फीसद) में सबसे ज्यादा गरीबी है। खाद्य असुरक्षा सिर्फ शहर के अंदरूनी इलाकों अथवा महानगरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि गांवों और कम आबादी के इलाकों में भी खाद्य असुरक्षा ने पांव पसार दिए हैं। कम आबादी वाले अलास्का और लोवा में विगत नौ सालों से भयानक खाद्य असुरक्षा चल रही है। उल्लेखनीय है कि अमरीका में खाने पर ही लोग सबसे ज्यादा खर्च करते हैं। नए संकट ने सभी को खाने के बजट में कमी करने को मजबूर किया है।
अभागे और भाग्यवानों के बीच में बंटे हुए इस संसार में संपत्ति भी बंटी हुई है। डेविड रूथकॉफ ने 'सुपरक्लास' नामक किताब में लिखा है कि दुनिया के सर्वोच्च दस प्रतिशत वयस्कों के पास सारी दुनिया की 84 प्रतिशत दौलत है। जबकि सबसे नीचे के लोगों के पास एक प्रतिशत दौलत है। इन दस प्रतिशत दौलतमंदों में एक हजार बिलिनियर हैं। अमीरी और गरीबी के बीच का यह आंकडा क्या सिर्फ भाग्य का खेल है ?चांस की बात है ?पूर्वजन्म के पुण्य का फल है ?अथवा कुछ और है ?
सारी दुनिया में किसान सबसे ज्यादा खाद्य पैदा करता है। वह इतना पैदा करता है कि सारी दुनिया का आसानी से पेट भरा जा सके,इसके बावजूद अगर लोग भूख और गरीबी के शिकार हैं तो यह भाग्य और भगवान का खेल तो कम से कम नहीं हो सकता। सन् 2007 में सारी दुनिया में किसानों ने 2.3 बिलियन टन गेंहूँ पैदा किया जो सन् 2006 की पैदावार से चार प्रतिशत ज्यादा था। इसके बावजूद भूखों की तादाद करोडों में पहुँच गयी है।
अब एक नया नारा कारपोरेट जगत में चल निकला है कि 'भूखा रखो अमीर बनो'। अमीरों की अमीरी भाग्य का खेल नहीं है बल्कि अमीरों की संवेदनहीनता और लालसा का खेल है। वे लोग आम आदमी को भूख से मारकर अमीर बन रहे हैं। अमीरी के इस नुस्खे में 'हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखो ही चोखो' की कहावत चरितार्थ हो रही है। ऊपर से चैनलों में बाबा रामदेव से लेकर श्रीश्री रविशंकर तक सभी परलोक, भगवान,भाग्य का उपदेश देते रहते हैं। इन लोगों को कभी यह तथ्य समझ में नहीं आता कि गरीबी और भुखमरी का कारण भाग्य और भगवान नहीं है। यह सवाल पैदा होता है कि कभी ये बाबा ,संत और महंत गरीबी और भुखमरी के लिए अमीरों पर आग बरसाते क्यों नजर नहीं आते ? वस्तुओं की जमाखोरी से पैदा होने वाले बेशुमार धन को कारपोरेट घराने सट्टाबाजार में लगाते हैं और एक के सौ बनाते हैं। अमीरों के लिए अकाल,सूखा और भुखमरी चिंता की चीज नहीं हैं बल्कि उनके लिए आनंद, उल्लास और मुनाफे की खबर है।
अब हम जरा अमीरों के स्वर्ग अमरीका की ओर नजर डालें कि वहां क्या हो रहा है। गरीबी,भुखमरी और बेकारी के प्रति कारपोरेट मीडिया का क्या रवैयया है ? अमरीका की गरीबी और तबाही का सबसे ज्यादा आख्यान वेबसाइट पर उपलब्ध है। चमकीले चैनलों और कारपोरेट प्रेस में अमरीकी तबाही का आख्यान एकसिरे से गायब है। अमेरिका के स्वयंसेवी संगठनों की वेबसाइटें गरीबी और तबाही के आख्यान से भरी हैं।
अक्टूबर 2008 में गरीबों के बारे में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में 28 प्रतिशत से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनके दोनों या एक अभिभावक काम करते हैं और गरीबी में जीने के लिए अभिशप्त हैं। सन् 2004 से 2006 के बीच के श्रम विभाग और जनसंख्या विभाग से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि 9.6 मिलियन परिवार ऐसे हैं जो सबसे कम आमदनी वाली 'अतिगरीब' की केटेगरी में रखे जा सकते हैं। ये वे लोग हैं जो आधिकारिक स्तर पर गरीबी की जो परिभाषा है उससे 200 प्रतिशत कम कमाते हैं। सन् 2002 में तकरीबन 2.1 मिलियन बच्चे 'अतिगरीब' की केटेगरी में आते थे जिनकी संख्या सन् 2006 में बढकर आठ लाख का आंकड़ा पार कर गयी है। सन् 2006 में 29 मिलियन रोजगार 'अतिगरीब' केटेगरी में आते थे, इन लोगों को सरकार द्वारा घोषित वेतनमान से भी कम वेतन दिया जाता था। इन 'अतिगरीब' मजदूरों की संख्या बढकर पांच मिलियन का आंकडा पार कर गयी है। सन् 2002 से 2006 के बीच में अमरीका में परिवारों की आमदनी में असमानता तेजी से बढ़ी है। सन् 2006 में सर्वोच्च 20 प्रतिशत अमरीकी परिवारों की आमदनी सबसे निचले स्तर पर जीने वाले परिवार की आमदनी से 9.2 गुना ज्यादा दर्ज की गई।
सन् 2008 के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में 13.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी में जी रही है। अमेरिका में गरीबी का यह विगत 11 सालों का सर्वोच्च आंकड़ा है। इनमें अफ्रीकन अमेरिकी आबादी में गरीबों की तादाद दुगुना हो गयी है तकरीबन24.7 प्रतिशत आंकी गयी है। मंदी के कारण तकरीबन 31 प्रतिशत अमेरिकियों में गरीबी ने अपने पैर पसारे हैं। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2008 में 39.8 मिलियन लोग अभावपूर्ण अवस्था में जी रहे थे।सन् 1960 के बाद का अभावग्रस्त लोगों का यह सबसे बड़ा आंकड़ा है।सन् 1999-2008 के दौरान प्रति व्यक्ति अमेरिकी आय में अभूतपूर्व गिरावट आई है। यह स्थिति तब है जब कि युद्ध के बहाने सैन्य उद्योग को चंगा करने की कोशिश की गई और इसके बावजूद आम जनता की जीवनदशा में गिरावट को रोका नहीं जा सका।
आर्थिक मंदी आने के बाद से अमेरिका की सामाजिक असमानता और भी बढी है। आज प्रति आठ में से एक व्यक्ति को गरीबी ने तबाह कर रखा है। तकरीबन 25 लाख लोग सालाना कारखानाबंदी,छंटनी आदि कारणों से लोग अतिगरीबी की केटेगरी में ठेले जा रहे हैं। ये आंकड़े 1998 के गरीबी के स्तर से तुलना करके जारी किए गए हैं।
अश्वेत परिवारों की तुलना में श्वेत परिवारों के पास नौ गुना ज्यादा संपदा है। इसी तरह अश्वेत युवाओं की तुलना में श्वेत युवाओं के पास सात गुना ज्यादा संपदा है। अमरीका में गरीबों में खासकर अफ्रीकी-अमरीकी नागरिकों में बीमारियों ने अपने घर बसा लिए हैं। अमरीका के 75 फीसदी टीवी के शिकार अश्वेत हैं। स्वयं ओबामा के राज्य इलीनोसिस में एचआईवी-एड्स के अधिकांश मरीज अश्वेत हैं। दस में से तीन काले और लातिनी लोग गरीबी में गुजारा कर रहे हैं। इसी तरह गरीब अश्वेत बच्चों की तादाद श्वेत बच्चों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है।
अमरीका के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2007 में बच्चों में भुखमरी 50 फीसद बढ़ी है। अमरीका में सन् 2007 में 691,000 बच्चे भुखमरी के शिकार थे। यह संख्या विगत वर्ष की तुलना में पचास फीसदी ज्यादा है। प्रति आठ अमरीकियों में एक अमरीकी अपना पेट मुश्किल से भर पाता है। तकरीबन 36.2 मिलियन लोग इस वर्ष भूख से लड़ रहे थे। यानी उन्हें किसी एक समय बिना खाए रहना पड़ रहा है। सन् 2007 में भयानक भूख से पीड़ितों की संख्या 11.9 मिलियन थी। यानी सन् 2000 की तुलना में भूखे लोगों की संख्या में 49 फीसद का इजाफा हुआ है।
सन् 2008 की आर्थिक मंदी के बाद भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या और भी ज्यादा होने की संभावना है। चार लोगों के परिवार की आय 21,027 डालर के नीचे है तो उसे गरीब परिवार की केटेगरी में रखा जाता है। इतनी कम आय के लोगों को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है। खाद्य असुरक्षितों की संख्या बढ़कर 37.7 फीसद हो गयी है। इनमें अफ्रीकी-अमेरिकी परिवारों में 22.2 फीसद परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं। 20.1 फीसदी हिसपेनिक परिवार, एकल महिला अभिभावक 30.2 फीसद परिवार और एकल पुरूष अभिभावक परिवारों की संख्या 18 फीसद है। यानी एकल अभिभावक परिवार ज्यादा गरीब हैं।
अमरीका के दक्षिणी राज्यों में ज्यादा खाद्य असुरक्षा है। इनमें मिसीसिपी (17.4 फीसद),न्यू मैक्सिको ( 15 फीसद) ,टेक्सास ( 14.8 फीसद) और अरकन्सास ( 14.4 फीसद) में सबसे ज्यादा गरीबी है। खाद्य असुरक्षा सिर्फ शहर के अंदरूनी इलाकों अथवा महानगरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि गांवों और कम आबादी के इलाकों में भी खाद्य असुरक्षा ने पांव पसार दिए हैं। कम आबादी वाले अलास्का और लोवा में विगत नौ सालों से भयानक खाद्य असुरक्षा चल रही है। उल्लेखनीय है कि अमरीका में खाने पर ही लोग सबसे ज्यादा खर्च करते हैं। नए संकट ने सभी को खाने के बजट में कमी करने को मजबूर किया है।
लेखक अब डर गए हैं: चन्द्रबली सिंह
हाल ही में कोटा से प्रकाशित पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का नया अंक देखने को मिला। इस अंक में हिंदी के सबसे बडे लेखक और आलोचक चन्द्रबली सिंह का एक शानदार साक्षात्कार छपा है। चन्द्रबली सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व हिंदी लेखकों से छिपा नहीं है। वे हिंदी के शिखरपुरूष स्व.रामविलास शर्मा से लेकर जीवित शिखर पुरूष नामवर सिंह के ज्ञानगुरू हैं। हिंदी की वैज्ञानिक आलोचना के निर्माण में उनका बहुमूल्य योगदान रहा है। उनकी मेधा के सामने रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक सभी नतमस्तक होते रहे हैं। चन्द्रबली जी हिंदी के ज्ञानगुरू हैं। हिंदी के लेखक जब भी गंभीर संकट में फंसे हैं उनके पास गए हैं और उनके द्वारा दिशा निर्देश पाते रहे हैं। चन्द्रबली सिंह प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर जनवादी लेखक संघ तक सभी में शिखर नेतृत्व का हिस्सा रहे हैं। पिछले पैंसठ साल से भी ज्यादा समय से प्रगतिशील आलोचना को दिशा देते रहे हैं। इन दिनों चन्द्रबली सिंह अस्वस्थ हैं और बनारस में अपने घर पर ही बिस्तर पर पडे आराम कर रहे हैं। 'अभिव्यक्ति' के संपादक 'शिवराम' ने उनका साक्षात्कार प्रकाशित करके हिंदी की बडी सेवा की है। स्वयं शिवराम भी राजस्थान में सबसे ज्यादा सक्रिय परिवर्तनकामी लोकतांत्रिक नजरिए के लेखक हैं।
अपने साक्षात्कार में चन्द्रबली सिंह ने जो कहा है वह हिंदी के लेखक संगठनों की उदासीनता और बेगानेपन के खिलाफ तल्ख टिप्पणी है। चन्द्रबली जी ने लेखक संगठनों के बारे में कहा है '' लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं,बहुत संतोषजनक तो नहीं है,उनका अस्तित्व औपचारिक हो गया है। '' हिंदी लेखक संगठनों के बारे में यह टिप्पणी ऐसे समय में आयी है जब हिंदी के लेखक सबसे ज्यादा असहाय महसूस कर रहे हैं। लेखक संगठनों की निष्क्रियता, विचारधारात्मक उदासीनता और स्थानीय गुटबंदियां चरमोत्कर्ष पर हैं। अब लेखक संगठन प्रतीकात्मक रूप में काम कर रहे हैं। लेखक संगठन प्रतीक क्यों बनकर रह गए हैं ? औपचारिक संगठन बनकर क्यों रह गए हैं ,उनके अंदर कोई वैचारिक और सर्जनात्मक सरगर्मी नजर क्यों नहीं आती ? हिन्दी में तीन बडे लेखक संगठन हैं,प्रगतिशील लेखक संगठन,जनवादी लेखक संगठन,जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा। इनके अलावा और अनेक स्थानीय स्तर के लेखक संगठन हैं। लेकिन तीन बडे संगठनों में किसी भी किस्म का समन्वय नहीं है। इन संगठनों की कार्यप्रणली में इनके साथ जुडे राजनीतिक दलों की राजनीतिक संकीर्णताएं घुस आयी हैं। इस प्रसंग में चन्द्रबली सिंह ने कहा '' कुछ को ऑर्डिनेशन राजनीतिक तौर पर हुआ है,पर उनकी राजनीति से जुड़े जो सांस्कृतिक संगठन हैं उनमें कोई समन्वय नहीं हुआ है। जहॉं तक कि साहित्यिक मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धिक संगठन में होना चाहिए।... लेखकों का संगठन राजनैतिक संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।'' आगे बड़ी ही प्रासंगिक दिक्कत की ओर ध्यान खींचते हुए चन्द्रबली जी ने कहा '' राजनैतिक पार्टी में तो डेमोक्रेटिक सेन्ट्रलिज्म के नाम पर जो तय हो गया,वह हो गया। पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि फतवा दे दें कि जो ऊपर तय हो गया तो हो गया। दिक्कत तो है। सम्प्रति कोई ऐसी संस्था नहीं है कि समन्वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि इन संगठनों में जो नेतृत्व है वह नेतृत्व भी जो विचार-विमर्श करना चाहिए,वह नहीं करता है।पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि इन समस्याओं की ओर ध्यान दें।
चन्द्रबली सिंह ने एक रहस्योद्घाटन किया है कि लेखक संगठनों की समन्वय समिति बने यह प्रस्ताव नामवर सिंह ने दिया था ,चन्द्रबली जी भी उससे संभवत: सहमत थे। लेकिन पता नहीं क्यों यह प्रस्ताव अमल में अभी तक नहीं आ पाया है। चन्द्रबलीजी ने कहा है, '' मैंने समन्वय समिति का,नामवर ने जो प्रस्ताव रखा था कि यदि एक न हों तो समन्वय समिति हो जाए।पार्टियॉं जो हैं उनमें तो समन्वय समिति बनी ही है। पर लेखक संगठन व्यवहार में यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्वय की प्रक्रिया शुरू करने के लिए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह सम्भव नहीं है। बिना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।'' पुराने जमाने और आज के जमाने के लेखक संगठनों की बहसों की तुलना करते हुए चन्द्रबली जी ने कहा '' ऐसा लगता नहीं है कि जैसी पहले मोर्चाबंदी हुई थी एक जमाने में,वैसी अब होती हो। वैसी अब दिखाई नहीं देती।वैसा वैचारिक संघर्ष दिखाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्थिति है। खास तौर से जो पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं उनमें उस तरह की स्पष्टता और मोर्चाबंदी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि लेखक मंच पर भी व्यक्तियों के साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है। लीडरशिप के नाम पर लेखकों में एक सैक्टेरियन दृष्टिकोण पनपता है।पतनशील प्रवृत्तियों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्तियॉं मौजूद रहती हैं।'' चन्द्रबली सिंह ने एक बडी ही मार्के की बात कही है। '' मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ ,जिसमें ज्यादातर कवि ही हैं। वे कविता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि अपनी कविताऍं,जनता के बीच में जाओ,उन्हें सुनाओ।फिर देखो क्या प्रतिक्रिया होती है। जनता समझती है या नहीं।पाब्लो नेरूदा जैसा कवि जनता के बीच जाकर कविता सुनाता था। जनता को उसकी कविताऍं याद हैं। जनता को जितना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्हें भी तो समझ सकती है।बशर्ते उसकी भाषा में भावों को व्यक्त किया जाए।'' समीक्षा के वर्तमान मठाधीश प्रगतिशील लेखकों की उपेक्षा करते हैं। इस पर चन्द्रबली जी ने कहा '' कहते तो हैं अपने को प्रगतिशील और जनवादी पर कहीं न कहीं कलावादियों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्थ जो आलोचक हैं,नामवरसिंह ,उनके जो प्रतिमान हैं,वे सारे प्रतिमान लेते हैं,विजयनारायण देव साही से।'' चन्द्रबली जी ने बडी ही मार्के की एक अन्य बात कही है '' लेखक अब डर गए हैं।'' लेखकों में यह डर कहां से आया ? प्रगतिशील लेखकों का वैचारिक जुझारूपन कहॉं गायब हो गया,आज वे अपने सपनों और विचारों के लिए तल्खी के साथ लिखते क्यों नहीं हैं ? लेखक अपने विचारों के प्रति जब तक जुझारू नहीं होगा तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं है। लेखकों को अपना डर त्यागना होगा,अपने लेखन और व्यक्तित्व को निहितस्वार्थों के दायरे के बाहर लाकर वैचारिक संघर्ष करना होगा। बुद्धिजीवियों को दलीय विचारधारा के फ्रेम के बाहर निकलकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारधारात्मक सवालों को नए सिरे से खोलना होबा। हिंदी के बुद्धिजीवियों में एक तरु डर है तो दूसरी औ व्यवहारवाद भी गहरी जडें जमाए बैठा है। हम अपने लेखन से किसी को नाराज नहीं करना चाहते। लेखक के नाते हमें यह याद रखना होगा, कि लेखक का काम दिल बहलाना नपहीं है। लेखन की दिल बहलाने वाली भूमिका में अगर हमारा लेखन चला जाता है तो जसने-अनजाने दरबारी सभ्यता और संस्कृति का गुलाम बनकर रह जाएगा। दिल बहलाने वाले साहित्य में जीवन की गंध,दुख,दर्द और प्रतिवाद के स्वर व्यक्त नहीं होते। दिल बहलाने का काम लेखक का नहीं है। दिल बहलाने के लिए खिलौने बाजार में मिलते हैं। हम बाजार जाएं अपने लिए दिल बहलाने का सामान खरीद लाएं और घर बैठे आनंद लें। लेखक का काम आम लोगों को बेचैन करना और स्वयं भी बेचैन रहना,अपना डर निकालना साथ समाज का भी डर निकालना। लेखक किसी एक का नहीं होता वह सबका होता है कठोरता,निर्भीकता और ममता से भरा होता है।
( 16 सितम्बर 2009 को 'मोहल्ला लाइव डॉट कॉम ' और 'भड़ास ब्लाग'पर भी प्रकाशित )
अपने साक्षात्कार में चन्द्रबली सिंह ने जो कहा है वह हिंदी के लेखक संगठनों की उदासीनता और बेगानेपन के खिलाफ तल्ख टिप्पणी है। चन्द्रबली जी ने लेखक संगठनों के बारे में कहा है '' लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं,बहुत संतोषजनक तो नहीं है,उनका अस्तित्व औपचारिक हो गया है। '' हिंदी लेखक संगठनों के बारे में यह टिप्पणी ऐसे समय में आयी है जब हिंदी के लेखक सबसे ज्यादा असहाय महसूस कर रहे हैं। लेखक संगठनों की निष्क्रियता, विचारधारात्मक उदासीनता और स्थानीय गुटबंदियां चरमोत्कर्ष पर हैं। अब लेखक संगठन प्रतीकात्मक रूप में काम कर रहे हैं। लेखक संगठन प्रतीक क्यों बनकर रह गए हैं ? औपचारिक संगठन बनकर क्यों रह गए हैं ,उनके अंदर कोई वैचारिक और सर्जनात्मक सरगर्मी नजर क्यों नहीं आती ? हिन्दी में तीन बडे लेखक संगठन हैं,प्रगतिशील लेखक संगठन,जनवादी लेखक संगठन,जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा। इनके अलावा और अनेक स्थानीय स्तर के लेखक संगठन हैं। लेकिन तीन बडे संगठनों में किसी भी किस्म का समन्वय नहीं है। इन संगठनों की कार्यप्रणली में इनके साथ जुडे राजनीतिक दलों की राजनीतिक संकीर्णताएं घुस आयी हैं। इस प्रसंग में चन्द्रबली सिंह ने कहा '' कुछ को ऑर्डिनेशन राजनीतिक तौर पर हुआ है,पर उनकी राजनीति से जुड़े जो सांस्कृतिक संगठन हैं उनमें कोई समन्वय नहीं हुआ है। जहॉं तक कि साहित्यिक मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धिक संगठन में होना चाहिए।... लेखकों का संगठन राजनैतिक संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।'' आगे बड़ी ही प्रासंगिक दिक्कत की ओर ध्यान खींचते हुए चन्द्रबली जी ने कहा '' राजनैतिक पार्टी में तो डेमोक्रेटिक सेन्ट्रलिज्म के नाम पर जो तय हो गया,वह हो गया। पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि फतवा दे दें कि जो ऊपर तय हो गया तो हो गया। दिक्कत तो है। सम्प्रति कोई ऐसी संस्था नहीं है कि समन्वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि इन संगठनों में जो नेतृत्व है वह नेतृत्व भी जो विचार-विमर्श करना चाहिए,वह नहीं करता है।पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि इन समस्याओं की ओर ध्यान दें।
चन्द्रबली सिंह ने एक रहस्योद्घाटन किया है कि लेखक संगठनों की समन्वय समिति बने यह प्रस्ताव नामवर सिंह ने दिया था ,चन्द्रबली जी भी उससे संभवत: सहमत थे। लेकिन पता नहीं क्यों यह प्रस्ताव अमल में अभी तक नहीं आ पाया है। चन्द्रबलीजी ने कहा है, '' मैंने समन्वय समिति का,नामवर ने जो प्रस्ताव रखा था कि यदि एक न हों तो समन्वय समिति हो जाए।पार्टियॉं जो हैं उनमें तो समन्वय समिति बनी ही है। पर लेखक संगठन व्यवहार में यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्वय की प्रक्रिया शुरू करने के लिए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह सम्भव नहीं है। बिना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।'' पुराने जमाने और आज के जमाने के लेखक संगठनों की बहसों की तुलना करते हुए चन्द्रबली जी ने कहा '' ऐसा लगता नहीं है कि जैसी पहले मोर्चाबंदी हुई थी एक जमाने में,वैसी अब होती हो। वैसी अब दिखाई नहीं देती।वैसा वैचारिक संघर्ष दिखाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्थिति है। खास तौर से जो पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं उनमें उस तरह की स्पष्टता और मोर्चाबंदी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि लेखक मंच पर भी व्यक्तियों के साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है। लीडरशिप के नाम पर लेखकों में एक सैक्टेरियन दृष्टिकोण पनपता है।पतनशील प्रवृत्तियों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्तियॉं मौजूद रहती हैं।'' चन्द्रबली सिंह ने एक बडी ही मार्के की बात कही है। '' मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ ,जिसमें ज्यादातर कवि ही हैं। वे कविता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि अपनी कविताऍं,जनता के बीच में जाओ,उन्हें सुनाओ।फिर देखो क्या प्रतिक्रिया होती है। जनता समझती है या नहीं।पाब्लो नेरूदा जैसा कवि जनता के बीच जाकर कविता सुनाता था। जनता को उसकी कविताऍं याद हैं। जनता को जितना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्हें भी तो समझ सकती है।बशर्ते उसकी भाषा में भावों को व्यक्त किया जाए।'' समीक्षा के वर्तमान मठाधीश प्रगतिशील लेखकों की उपेक्षा करते हैं। इस पर चन्द्रबली जी ने कहा '' कहते तो हैं अपने को प्रगतिशील और जनवादी पर कहीं न कहीं कलावादियों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्थ जो आलोचक हैं,नामवरसिंह ,उनके जो प्रतिमान हैं,वे सारे प्रतिमान लेते हैं,विजयनारायण देव साही से।'' चन्द्रबली जी ने बडी ही मार्के की एक अन्य बात कही है '' लेखक अब डर गए हैं।'' लेखकों में यह डर कहां से आया ? प्रगतिशील लेखकों का वैचारिक जुझारूपन कहॉं गायब हो गया,आज वे अपने सपनों और विचारों के लिए तल्खी के साथ लिखते क्यों नहीं हैं ? लेखक अपने विचारों के प्रति जब तक जुझारू नहीं होगा तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं है। लेखकों को अपना डर त्यागना होगा,अपने लेखन और व्यक्तित्व को निहितस्वार्थों के दायरे के बाहर लाकर वैचारिक संघर्ष करना होगा। बुद्धिजीवियों को दलीय विचारधारा के फ्रेम के बाहर निकलकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारधारात्मक सवालों को नए सिरे से खोलना होबा। हिंदी के बुद्धिजीवियों में एक तरु डर है तो दूसरी औ व्यवहारवाद भी गहरी जडें जमाए बैठा है। हम अपने लेखन से किसी को नाराज नहीं करना चाहते। लेखक के नाते हमें यह याद रखना होगा, कि लेखक का काम दिल बहलाना नपहीं है। लेखन की दिल बहलाने वाली भूमिका में अगर हमारा लेखन चला जाता है तो जसने-अनजाने दरबारी सभ्यता और संस्कृति का गुलाम बनकर रह जाएगा। दिल बहलाने वाले साहित्य में जीवन की गंध,दुख,दर्द और प्रतिवाद के स्वर व्यक्त नहीं होते। दिल बहलाने का काम लेखक का नहीं है। दिल बहलाने के लिए खिलौने बाजार में मिलते हैं। हम बाजार जाएं अपने लिए दिल बहलाने का सामान खरीद लाएं और घर बैठे आनंद लें। लेखक का काम आम लोगों को बेचैन करना और स्वयं भी बेचैन रहना,अपना डर निकालना साथ समाज का भी डर निकालना। लेखक किसी एक का नहीं होता वह सबका होता है कठोरता,निर्भीकता और ममता से भरा होता है।
( 16 सितम्बर 2009 को 'मोहल्ला लाइव डॉट कॉम ' और 'भड़ास ब्लाग'पर भी प्रकाशित )
सोमवार, 14 सितंबर 2009
साइबरयुग में 'ई' निरक्षरता शर्मिंदगी है
बुद्धिजीवी स्वभाव से ठलुआ होता है। भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवी का ठलुआपन अब और भी परेशानी पैदा कर रहा है। यह पढा लिखा अनपढ है। उसने अपनी अपडेटिंग बंद कर दी है। संचार क्रांति के लिए जरूरी है इस ठलुआ बुद्धिजीवी की चौतरफा धुनाई। जिस तरह शिक्षित न होना अपमान की बात मानी जाती थी उसी तरह साइबर शिक्षित न होना भी अपमान की बात है। हमारे पिछडेपन का संकेत है। साइबर पिछडेपन पर वैसे ही हमला बोलना चाहिए जैसे निरक्षरता पर हमला बोलते हैं। निरक्षरता सामाजिक विकास की सबसे बडी बाधा थी तो साइबर निरक्षरता महाबाधा है। साइबर बेगानेपन को किसी भी तर्क से वैधता प्रदान करना देशद्रोह है,सामाजिक परिवर्तन के प्रति बगावत है। इसे किसी भी तर्क से गौरवान्वित नहीं किया जाना चाहिए। अखबार और पत्रिका का संपादक है वह गर्व से कहता है हम कम्प्यूटर पर नहीं लिखते,हम इंटरनेट पर नहीं लिखते। सवाल किया जाना चाहिए क्यों नहीं लिखते ? कम्प्यूटर पर नहीं लिखना,इंटरनेट पर नहीं पढना और नहीं लिखना निरक्षरता है। निरक्षरता पर हमारे बुद्धिजीवी को गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि उसे शर्म आनी चाहिए।
कम्प्यूटर लेखन,इंटरनेट लेखन नये युग की साक्षरता है। अक्षरज्ञान पुराने युग की साक्षरता थी जो आज सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए अपर्याप्त है। साइबर निरक्षर वैसे ही होता है जैसा निरक्षर होता है। कॉलेज,विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों में पढाने वाले शिक्षक अपने साइबर अज्ञान का महिमामंडन करते रहते हैं। आज के युग में साइबर अज्ञानी और कम्प्यूटर पर लिखने से परहेज करने वाला लेखक बुनियादी तौरपर निरक्षर लेखक है।
साइबर संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। हम चाहें या न चाहें साइबर संस्कृति हमारे घर आ गयी है। साइबर संस्कृति के घर आने के साथ ही साइबर भाषाएं भी घर में आने के लिए दस्तक दे रही है। भारतसरकार की मदद से सभी 22 भाषाओं के फॉण्ट मुफत में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के फाण्ट और यूनीकोड सिस्टम के विकास पर तकरीबन 1300 करोड रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है भाषा के निर्माण में अब तक का यह सबसे बडा निवेश है। इसके दूरगामी सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे। भारत सरकार ने हाल ही में अपने एक फैसले के तहत बीस हजार कॉलेजों और पांच हजार शोध संस्थानों को 'सूचना,संचार और तकनीकी मिशन' के तहत ब्रॉडबैण्ड सुविधा मुहैयया कराने का फैसला किया है। इसके अलावा आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के फाँण्ट मुफत में उपलब्ध हैं। कल बंगलौर में बांग्ला,कोंकणी, संथाली, सिन्धी और मणिपुरी भाषा के साफटवेयर को जारी करने बाद आज भारत की सभी 22 भाषाओं में कम्प्यूटर लेखन की व्यवस्था उपलब्ध हो गयी है। इसे आसानी से www.ildc.in से डाउनलोड किया जा सकता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के सात लाख सीडी डाक से भेजे जा चुके हैं। तकरीबन 39 लाख लोगों ने इंटरनेट से डाउनलोड किया है। भारत की जनसंख्या और संभावित कम्प्यूटर यूजरों के लिहाज से यह संख्या बहुत ही कम है। भारतीय भाषाओं के मुफत साफटवेयर की उपलब्धता के कारण इन भाषाओं का इंटरनेट पर इस्तेमाल और भी तेजी से बढेगा। केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार प्रति छह गांवों में से एक गांव में 'कॉमन सर्विस सेंटर' खोला जाएगा,जिसके जरिए जनता को स्थानीय भाषा में ईमेल करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषाओं में कम्प्यूटर का इस्तेमाल तेजी से बढेगा।
भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटरी रूपान्तरण की प्रक्रिया बेहद धीमी और गैर शिरकत वाली है फलत: भारत में अभी भी कम्प्यूटर भाषा में दुरूस्तीकरण धीमी गति से चल रहा है। अनेक भाषाओं के साफटवेयरों के बारे में शिकायतें भी आ रही हैं। ये शिकायतें जायज हैं, लेकिन इनका समाधान तब ही संभव है जब बुद्धिजीवियों खासकर भाषायी बुद्धिजीवियों की कम्प्यूटर भाषा के दुरूस्तीकरण में दिलचस्पी पैदा हो। वे 'ई साक्षर' बनें। भाषायी बुद्धिजीवी अभी तक कम्प्यूटर का न्यूनतम प्रयोग करते हैं। वे अभी भी कलम -कागज के युग के आगे नहीं जा पाए हैं। कम्प्यूटर लेखन को युवाओं का खेल मानते हैं। ब्लागरों को छिछोरा मानते हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी अभी भी कम्प्यूटर सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते।वे साहित्य को तो मानते हैं और जानते हैं लेकिन 'ई' साहित्य को लेकर उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य, मीडिया, रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देती है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर पर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं। शिक्षितों की अज्ञानता का जब यह आलम है तो आम छात्रों तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा ? जरूरत इस बात की है कि 'ई' साक्षरता और 'ई' लेखन को नौकरीपेशा शिक्षकों और वैज्ञानिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जो शिक्षक ,शोधार्थी और वैज्ञानिक नियमित 'ई' लेखन नहीं करे उसकी पगार,स्कालरशिप,तरक्की,इनक्रीमेंट रोक लेने चाहिए। जो लोग भारत सरकार का बौद्धिक उत्पादन के लिए धन पाते हैं उन्हें बदले में अपने विषय में 'ई' लेखन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। भारत की नयी ज्ञान संपदा का बडा हिस्सा अभी भी अंग्रेजी में आ रहा है अत: हमारे बुद्धिजीवियों को अपनी भाषा में कुछ न कुछ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध करानी चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि जगदीशचन्द्र बोस,सत्येन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक बांग्ला में भी विज्ञानलेखन कर लेते थे और आज अमर्त्यसेन जैसा लेखक अपनी मातृभाषा में एकदम नहीं लिखता। अपनी भाषा के प्रति बुद्धिजीवी के इस बेगानेपन से हमें लडना चाहिए।
(मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
कम्प्यूटर लेखन,इंटरनेट लेखन नये युग की साक्षरता है। अक्षरज्ञान पुराने युग की साक्षरता थी जो आज सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए अपर्याप्त है। साइबर निरक्षर वैसे ही होता है जैसा निरक्षर होता है। कॉलेज,विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों में पढाने वाले शिक्षक अपने साइबर अज्ञान का महिमामंडन करते रहते हैं। आज के युग में साइबर अज्ञानी और कम्प्यूटर पर लिखने से परहेज करने वाला लेखक बुनियादी तौरपर निरक्षर लेखक है।
साइबर संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। हम चाहें या न चाहें साइबर संस्कृति हमारे घर आ गयी है। साइबर संस्कृति के घर आने के साथ ही साइबर भाषाएं भी घर में आने के लिए दस्तक दे रही है। भारतसरकार की मदद से सभी 22 भाषाओं के फॉण्ट मुफत में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के फाण्ट और यूनीकोड सिस्टम के विकास पर तकरीबन 1300 करोड रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है भाषा के निर्माण में अब तक का यह सबसे बडा निवेश है। इसके दूरगामी सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे। भारत सरकार ने हाल ही में अपने एक फैसले के तहत बीस हजार कॉलेजों और पांच हजार शोध संस्थानों को 'सूचना,संचार और तकनीकी मिशन' के तहत ब्रॉडबैण्ड सुविधा मुहैयया कराने का फैसला किया है। इसके अलावा आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के फाँण्ट मुफत में उपलब्ध हैं। कल बंगलौर में बांग्ला,कोंकणी, संथाली, सिन्धी और मणिपुरी भाषा के साफटवेयर को जारी करने बाद आज भारत की सभी 22 भाषाओं में कम्प्यूटर लेखन की व्यवस्था उपलब्ध हो गयी है। इसे आसानी से www.ildc.in से डाउनलोड किया जा सकता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के सात लाख सीडी डाक से भेजे जा चुके हैं। तकरीबन 39 लाख लोगों ने इंटरनेट से डाउनलोड किया है। भारत की जनसंख्या और संभावित कम्प्यूटर यूजरों के लिहाज से यह संख्या बहुत ही कम है। भारतीय भाषाओं के मुफत साफटवेयर की उपलब्धता के कारण इन भाषाओं का इंटरनेट पर इस्तेमाल और भी तेजी से बढेगा। केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार प्रति छह गांवों में से एक गांव में 'कॉमन सर्विस सेंटर' खोला जाएगा,जिसके जरिए जनता को स्थानीय भाषा में ईमेल करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषाओं में कम्प्यूटर का इस्तेमाल तेजी से बढेगा।
भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटरी रूपान्तरण की प्रक्रिया बेहद धीमी और गैर शिरकत वाली है फलत: भारत में अभी भी कम्प्यूटर भाषा में दुरूस्तीकरण धीमी गति से चल रहा है। अनेक भाषाओं के साफटवेयरों के बारे में शिकायतें भी आ रही हैं। ये शिकायतें जायज हैं, लेकिन इनका समाधान तब ही संभव है जब बुद्धिजीवियों खासकर भाषायी बुद्धिजीवियों की कम्प्यूटर भाषा के दुरूस्तीकरण में दिलचस्पी पैदा हो। वे 'ई साक्षर' बनें। भाषायी बुद्धिजीवी अभी तक कम्प्यूटर का न्यूनतम प्रयोग करते हैं। वे अभी भी कलम -कागज के युग के आगे नहीं जा पाए हैं। कम्प्यूटर लेखन को युवाओं का खेल मानते हैं। ब्लागरों को छिछोरा मानते हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी अभी भी कम्प्यूटर सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते।वे साहित्य को तो मानते हैं और जानते हैं लेकिन 'ई' साहित्य को लेकर उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य, मीडिया, रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देती है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर पर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं। शिक्षितों की अज्ञानता का जब यह आलम है तो आम छात्रों तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा ? जरूरत इस बात की है कि 'ई' साक्षरता और 'ई' लेखन को नौकरीपेशा शिक्षकों और वैज्ञानिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जो शिक्षक ,शोधार्थी और वैज्ञानिक नियमित 'ई' लेखन नहीं करे उसकी पगार,स्कालरशिप,तरक्की,इनक्रीमेंट रोक लेने चाहिए। जो लोग भारत सरकार का बौद्धिक उत्पादन के लिए धन पाते हैं उन्हें बदले में अपने विषय में 'ई' लेखन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। भारत की नयी ज्ञान संपदा का बडा हिस्सा अभी भी अंग्रेजी में आ रहा है अत: हमारे बुद्धिजीवियों को अपनी भाषा में कुछ न कुछ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध करानी चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि जगदीशचन्द्र बोस,सत्येन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक बांग्ला में भी विज्ञानलेखन कर लेते थे और आज अमर्त्यसेन जैसा लेखक अपनी मातृभाषा में एकदम नहीं लिखता। अपनी भाषा के प्रति बुद्धिजीवी के इस बेगानेपन से हमें लडना चाहिए।
(मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
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