मंगलवार, 5 जनवरी 2010

मध्यपूर्व और एडवर्ड सईद की संगीतदृष्टि -1-





एडवर्ड सईद को फिलीस्तीन जनता की आजादी की लड़ाई और संप्रभुता से जितना गहरा लगाव था उतना ही गहरा लगाव संगीत और साहित्य से भी था। सईद ने सन् 1986 से लगातार 'नेशन' पत्रिका में संगीत समीक्षाएं लिखीं, इसके अलावा उनके संगीत संबंधी विचारों को उनकी ही दो किताबों 'म्यूजिकल एलोबरेशन'(1991) और डेनियल बर्नबोइम के साथ साक्षात्कार किताब ' पेरेलल्स एंड पैराडॉक्स' (2003) में देखा जा सकता है। 'म्यूजिकल एलोबरेशन' में उनके तीन व्याख्यान हैं। ये व्याख्यान उन्होंने सन् 1989 में वेलेक लाइब्रेरी व्याख्यानमाला के तहत क्रिटिकल थ्योरी इंस्टीट्यूट ,कैलीफोर्निया, में दिए थे। इसी तरह बुध्दिजीवियों की भूमिका पर '' रिप्रिजेंटेशन ऑफ दि इंटेलेक्चुअल''(1996) में बीबीसी लंदन की रीथ व्याख्यानमाला के तहत छह व्याख्यान दिए। इनके माध्यम से उनके बुध्दिजीवीवर्ग संबंधी नजरिए को जाना जा सकता है। इसके अलावा 'दि इंटेलेक्चुअलस एंड दि वार'शीर्षक निबंध भी महत्वपूर्ण है।
       सईद को सबसे ज्यादा किसी चीज का शौक था तो वह कलम संग्रह करने का। उनके पास तरह-तरह के पैन थे। यह आदत उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी। सईद ने लिखा कांट का अनुयायी होने के कारण मुझे कम्प्यूटर से घृणा है। यह भी लिखा  किसी वस्तु को अपने अधिकार में ले लेने से वह प्रेरित नहीं करती। इसी प्रसंग में सईद ने एक और महत्वपूर्ण बात अस्मिता के संदर्भ में कही है। अस्मिता को व्याख्यायित करने के लिए हम उसे स्थान,भाषा,जाति आदि से जोड़ते हैं। 


अस्मिता के निर्माण में इन चीजों की तुलना में 'करेंट' की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 'करेंट' से यहां तात्पर्य है सामयिक जीवनशैली और जीवनदृष्टि। व्यक्ति की सामयिक जीवनदृष्टि उसकी पहचान को निर्मित करती है न कि स्थान विशेष अथवा जाति। अस्मिता के निर्माण में एक नहीं अनेक जीवनदृष्टियों की भूमिका होती है। 'करेंट' तैरता रहता है,इसे किसी स्थान या वस्तुओं के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए। सईद ने अपनी 'आउट ऑफ प्लेस' आत्मकथा को इसी नजरिए से लिखा। 'करेंट' का अर्थ है आप कैसे जीते हैं ? यानी आपकी जीवनशैली क्या है ? इससे आपकी पहचान निर्मित होती है।
     


     सईद ने लिखा इन दिनों लेखक 'स्व' के बारे में ज्यादा लिख रहे हैं, यही अस्मिता को स्थापित करने का आधार भी है। जबकि गोथे 'अन्य' के बारे में सोचता था। आज 'अन्य' के बारे में सोचने वाले कम हैं। 'अन्य' के बारे में सोचने वाले अल्पसंख्यक होकर रह गए हैं। आज अस्मिता को स्थापित करने के लिए लोग अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं।  अपने मूल्य अपनी संस्कृति और अपने लगाव अथवा जुड़ाव के क्षेत्रों की खोज कर रहे हैं। यह बहुत ही मुश्किल काम है कि व्यक्ति अपनी दुनिया के बाहर निकले और व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचे। एक आलोचक को अपनी पहचान अथवा एक संगीतकार को अपनी पहचान को 'अन्य' की खोज करते समय किनारे रखना चाहिए।




सईद ने कहा अमरीका सचमुच में आप्रवासियों का देश है। जब लोगों ने हाल ही में अमरीका में परंपरा,युग आदि का निर्धारण करने की कोशिश की तो बेहद मुश्किलें सामने आयीं। लोग समझ ही नहीं पाए कि आखिरकार अमरीका को बांधे रखने वाली चीज क्या है ? यहां जर्मनों की तरह का राष्ट्रवाद नहीं है। 


   अमरीका का सबसे आकर्षक पक्ष है उसका हमेशा प्रवाह में रहना। यहां निरंतर अनिश्चितता बनी रहती है। यहां कोई भी चीज स्थिर,ठहरी हुई नहीं है। विश्वविद्यालयों में आदर्श स्थिति यह है कि लोग खोज करते रहते हैं। बनाए रखने,टिकाऊ रखने में व्यस्त नहीं रहते।


 सईद ने कहा  मेरी भूमंडलीय इकसारता के खिलाफ  दो बुनियादी आपत्तियां हैं।प्रथम, अमरीका में सभी पर आरोपित भूमंडलीय वातावरण से स्वयं की हिमायत करनी होती है,रक्षा करनी होती है। ज्यादातर लोगों के पास अतीत के प्रतीक होते हैं। मसलन् इस्लामिक जगत में ज्यादातर लोग परंपरागत वस्त्र पहनते हैं। ऐसा वे सुंदर दिखने के लिए नहीं बल्कि भूमंडलीय तरंगों का प्रतिरोध करने के लिए पहनते हैं। 


दूसरा कारण है साम्राज्य की विरासत। ब्रिटिश के संदर्भ में ध्यान दें उन्हें जब भी कोई देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है उन्होंने देश के टुकड़े किए हैं ,जैसा उन्होंने भारत में किया। अब यह फिलीस्तीन में हो रहा है। यह साइप्रस में हुआ। यह आयरलैण्ड में हुआ। बहुस्तरीय राष्ट्रीयताओं में समस्याओं के तुरंत समाधान के नाम पर विभाजन या फूट को उपाय के तौर पर लागू किया गया। 


कुछ लोग कहते हैं संगीत को जैसे छोटे छोटे यूनिटों में बांट देते हैं और अचानक उन्हें जब एक कर देते हैं तो संगीत बन जाता है। चीजें इस तरह काम नहीं करतीं। जब आप किसी चीज को बांट देते हैं, तो उसे फिर दुबारा जोड़ना मुश्किल होता है। ये दोनों ही कारण हैं जो उन्माद और अस्मिता के अन्तर्विरोधों को जन्म देते हैं। ये आधुनिकता का परिणाम हैं और बेहद खतरनाक हैं।
    
   'पेरेलल्स एंड पैराडॉक्स' के अपने पहले साक्षात्कार के अंत में सईद ने कहा  डेनियल और मेरे बीच में इतिहास पर मतभेद हैं। यह वह इतिहास है जिसका हम दोनों हिस्सा रहे हैं। डेनियल इतिहास को भिन्न नजरिए से देखता है जबकि मैं फिलीस्तीन के नजरिए से देखता हूँ। इस भिन्नता को बनाए रखने में कुछ मूल्य हैं जो हमारी मदद करते हैं। इतिहास के बारे में यदि हमारा नजरिया एक-दूसरे से मिल जाता है अथवा एकमत हो जाते तो यह अच्छा नहीं होता मैं समझता हूँ तनाव का बने रहना शुभ लक्षण है। 


 मध्यपूर्व शांति प्रक्रिया के बारे में मेरी आलोचना यह है कि यह शांति प्रक्रिया टेलीविजन पर दिखाई जाती है। टेलीविजन दृश्यों के जरिए बातचीत की टेबिल पर लोग बैठे नजर आते हैं। यह वस्तुत:अनैतिहासिक है। यह प्रक्रिया ज्यों ही आगे जाती है फिलीस्तीनियों के आख्यान के बारे में हमें कुछ भी नहीं बताती। यह भी नहीं बताते कि आखिरकार फिलीस्तीन क्या चाहते हैं ? उनके इतिहास को न जानने का भाव,उसकी जटिलताओं और ब्यौरों को जाने बगैर वे शांति स्थापित करना चाहते हैं जबकि लोग अपने इतिहास के साथ जीते हैं। इस अर्थ में यदि कोई यह कहे कि इतिहास महत्वपूर्ण नहीं है तो गलत होगा। हमें किसी न किसी तरह जमीनी यथार्थ से बात शुरू करनी होगी। 
     
जनता का इतिहास जटिल चीज है उसमें न्याय और दमन के विचार भी शामिल होते हैं। जरूरी नहीं है सभी लोग सहमत ही हों। जब  हम समान रूप से भिन्न मतों की मौजूदगी को स्वीकार करते हैं  तो वही हमारे लिए महत्व की चीज है। हम एक-दूसरे के नजरिए का सम्मान करें,एक-दूसरे के इतिहास के प्रति सहिष्णु हों। 
  
   डेनियल ने कहा हम दुनिया के बहुत छोटे से हिस्से के बारे में बातें कर रहे हैं। इसमें लोगों को बांटने वाला विचार काम नहीं कर सकता। ज्योंही आप लोगों के साथ मुक्केबाजी शुरू करेंगे तो आप उनमें असुरक्षाबोध पैदा करेंगे। इससे और भी पागलपन पैदा होगा। मेरी राय है इससे और भी विकृतियां पैदा होंगी। यह बात यह अन्य चीजों पर भी लागू होती है।  आप लेबनान के गृहयुध्द की कहानी जानते हैं यह शुरू हुआ बृहत्तर क्षेत्र के विवाद को लेकर और इसका समापन सड़कों पर व्यक्तिगत हिंसाचार में हुआ। ये सब चीजें कहां ले जाती हैं ? कहीं पर भी नहीं । भिन्न के विचार के संदर्भ में इतिहास का हस्तक्षेप विमर्श के लिए बेहद जरूरी है। यह इसलिए जरूरी नहीं है कि आप एक-दूसरे में ले जाकर इसके समाधान खोजें।
      
एडवर्ड सईद का मानना है साहित्य में प्रिफॉर्मर की असल में किसी से तुलना नहीं की जा सकती। लेखक जनता के सामने वाचन कर सकता है, किंतु लेखक का तार्किक लक्ष्य है चुप्पियों क़ा उद्धाटन। चुपचाप रीडिंग। डेनियल ने कहा पियानो वादक के साथ लेखक की तुलना करना सही नहीं है चाहो तो कम्पोजर से लेखक की तुलना कर सकते हो। क्योंकि उसका अंतत: लक्ष्य है कि प्रिफार्मेंस सामने आए। संगीत की तैयारी और प्रस्तुति की प्रक्रिया का लेखन की प्रक्रिया के साथ मौलिक अंतर है। प्रिफार्मेंस के दौरान आप तब तक नहीं रूकते जब तक कोई अपरिहार्य नाटकीय बाधा उपस्थित न हो जाए। ज्योंही प्रस्तुति शुरू होती है तो फिर वह समाप्त होकर ही खत्म होती है। इस तरह संगीत की प्रस्तुति की कुछ अपरिहार्य प्रक्रिया है जिससे उसकी गति ,ध्वनि और मात्रा निर्धारित होती है। किंतु यह चीज रिहर्सल के दौरान नहीं होती।
      


रिहर्सल में आप रोककर बेहतर की तैयारी शुरू करते है। जबकि प्रिफॉर्मेंस की सिर्फ एक ही संभावना है। दूसरे शब्दों में ध्वनि की प्रकृति अस्थायी होती है। एक बार निकली और खत्म। तैयारी की प्रक्रिया में इन सब चीजों का ख्याल रखा जाना चाहिए। सच यह है कि उसे अपने लक्ष्य तक जाना होता है। संक्षेप में कहें तो उसकी तुलना मनुष्य के जीवन अथवा पौधे से कर सकते हैं जो शून्य से शुरू होता है और शून्य पर खत्म होता है।[1] सईद ने कहा चुप्पी (साईलेंस) से चुप्पी की ओर। डेनियल ने सम्मति में कहा जी हां, चुप्पी से चुप्पी की ओर। और आप समापन होने के पहले रोक नहीं सकते।
  ( फोटो- एडवर्ड सईद)
  (लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह)

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