रविवार, 31 जनवरी 2010

कामुकता का बदलता चरित्र -4- समापन किश्त





हिंदुत्ववादियों की हिंदू धर्म की व्याख्या मूलत: धर्म को जीवनशैली मानकर चलती है। अस्मिता का जीवनशैली से जुड़ना वस्तुत: विश्व पूंजीवादी बाजार के तर्क की जीत है और हिंदू तत्ववादी इसी चीज का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। वे हिंदू धर्म को जीवनशैली मानते हैं। शरीर कैसे जीवनशैली से जुड़ गया? उसे 'डाइटिंग' (नियंत्रित आहार) के आधुनिक अर्थ के साथ जोड़कर देखें। 

'डाइटिंग' का खान-पान के विज्ञान के प्रवेश के साथ संबंध है। पहले खान-पान का विज्ञान के साथ संबंध नहीं था। आज खान-पान का विज्ञान निर्मित हो चुका है। आज व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या खाए? क्या पीए? आज विकसित देशों में प्रत्येक व्यक्ति (अति गरीब को छोड़कर) 'डाइटिंग' करता है। इसके कारण 'डाइटिंग' का 33 बिलियन डॉलर का विश्व बाजार पैदा हो गया है।

  विश्वव्यापी पूंजीवादी व्यवस्था के उदय के साथ खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें बाजार में उपलब्ध हुईं। 'डाइटिंग' उद्योग ने इसे नई बुलंदियों तक पहुंचाया। आज अनेक किस्म की खाने-पीने की चीजें पूरे वर्ष सहज ही उपलब्ध हैं। खान-पान का जीवनशैली से संबंध जुड़ने के कारण दुनिया के प्रति हमारा रवैया बदला। जीवन शैली में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का प्रसार हुआ। 'डाइटिंग' का लक्ष्य युवा औरतें ही होती हैं। इससे ज्यादातर औरतों में तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याएं जन्म ले रही हैं।
भारतीय परंपरा में स्त्री की जो इमेज रही है उसमें मातृभाव हावी रहा है। यहां तक कि पत्नी से जो उम्मीदें की जाती हैं उनका मातृभाव से गहरा संबंध है। इसके कारण पति-पत्नी के बीच का शारीरिक प्रेम अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। उस प्रेम को अच्छा माना जाता है जिसमें शारीरिक प्रेम कम और वायवीय प्रेम ज्यादा हो। पति और पत्नी के बीच के शारीरिक प्रेम के बारे में जो आचार-संहिता बनाई गई उसमें इस बात का खास तौर पर ध्यान रखा गया। प्रेम को आनंद का पर्याय बनाया गया और सेक्स को प्रेम से अलग कर दिया गया।

  भारतीय चिंतकों ने पति के लिए निर्देश दिया कि वह अपनी पत्नी को सिर्फ ऋतु के समय ही प्यार करे। यानी मासिक धर्म से दूसरे मासिक धर्म के बीच के सोलह दिनों को ऋतु कहा गया। इसमें भी पहले चार दिन, ग्यारहवें और तेरहवें दिन संभोग न करें। बाकी रात्रिा में संभोग करे। यानी महीने में मात्र दस दिन संभोग की इजाजत दी गई। इसमें भी सम तिथियों में संभोग करने से पुत्रा और विषय तिथियों में संभोग करने से पुत्राी प्राप्ति का योग बताया गया। जाहिरा तौर पर भारतीय मनोदशा पुत्राी प्राप्ति के पक्ष में नहीं है। इसका परिणाम यह है कि संभोग के
लिए जो दिन सुझाए गए वे सीधे-सीधे घटकर आधे रह गए। इसके अलावा पर्व हैं, अमावस्या है, पूर्णिमा है, या देवी-देवताओं के मेले या त्यौहार हैं जिनके अवसर पर संभोग करना मना है। यदि कोई इन तिथियों में संभोग करता है तो उससे क्या नुकसान हो सकता है इसकी लंबी सूची है। इसके अलावा दिन में सेक्स करना मना है। कहने का मतलब यह कि महीने में संभोग के लिए सुरक्षित बमुश्किल पांच रातें खोजना लॉटरी निकलने के बराबर है। 

इस तरह के प्रावधान बताते हैं कि भारतीय परंपरा विवाहित जीवन में भी सेक्स को पर्याप्त जगह नहीं देती। यानी हम भारतीय हैं कृपया सेक्स की बातें न करें। सेक्स संबंधी रूढ़ियां ्रूहदू समाज में आज भी बहुत मजबूत हैं। यही वजह है कि उच्च जाति की औरतें योनि और जननेंद्री के नाम को नहीं लेतीं। उसके लिए तरह-तरह के छ िर्नांम दे दिए गए हैं। यह मान्यता है कि योनि व जननेंद्री को सही नाम से पुकारेंगे तो वह आकर्षित कर सकती है। स्थिति यह है कि डाक्टर के पास एक उच्च शिक्षा संपन्न व्यक्ति जब अपने उपचार के लिए पहुंचा तो उसे अंग्रेजी में गुप्तांग का नाम बोलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी किंतु ज्यों ही डाक्टर ने उन्हें अपनी मातृभाषा में गुप्तांग का नाम लेने के लिए कहा, उस भाषा में अनूदित करने के लिए कहा जो भाषा उनके शारीरिक अनुभव के करीब हो तो उन महाशय के पास शब्द नहीं थे। 

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू समाज में सेक्स और कामुकता के प्रति अज्ञान के कारण बड़े पैमाने पर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तनाव पैदा हो रहे हैं। इस अज्ञान का सबसे प्रमुख कारण है सेक्स के बारे में खड़ी की गईं सांस्कृतिक बाधाएं।
प्रसिध्द मनोशास्त्री सुधीर कक्कड़ ने लिखा है आम तौर पर यह मिथ है कि निचली जातियों में सांस्कृतिक बाधाएं नहीं होतीं किंतु सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि बड़े पैमाने पर निचली जातियों में सेक्स को लेकर व्यापक असंतोष है। दिल्ली में रहने वाली निचली जातियों की औरतों ने बताया कि सेक्स ने प्यार और लगाव के बजाय उनके मन में वैमनस्य और अलगाव पैदा किया है। इसका प्रधान कारण यह है कि अधिकांश औरतों को प्यार या संभोग जनबहुल कमरे में करना पड़ता है जो चंद मिनट का होता है। इसमें किसी भी किस्म का शारीरिक और मानसिक आनंद नहीं मिलता। अधिकांश औरतों के लिए यह अनुभव पीड़ादायक और अरुचिकर होता है। यदि यह बात कोई औरत बता दे तो उसे शारीरिक उत्पीड़न के भय से गुजरना होता है। स्थिति यहां तक बदतर होती है कि सेक्स के समय कोई भी औरत अपने कपड़े तक नहीं उतार पाती। क्योंकि कपड़े उतारकर सेक्स करने में शर्म महसूस होती है। निचली जाति की जिन औरतों में पति के प्रति समर्पण की भावना पाई जाती है वहां पर सेक्स को मर्द का ही विशेषाधिकार और आवश्यकता माना जाता है। इसे ये औरतें इन शब्दों में बताती हैं 'आदमी बोलना चाहता है।

आम तौर पर हिंदुस्तानी औरतें सेक्स के बारे में रूपकों में बातें करती हैं जैसे 'हफ्ते में एक बार लगवा लेते हैं।' यानी सप्ताह में एक बार इंजेक्शन लगवा लेते हैं। कहने का मतलब यह है कि संभोग पीड़ादायक है किंतु स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। संभोग के लिए सबसे ज्यादा चर्चित पदबंध है, काम और धंधा अर्थात् कार्य और व्यापार। 

निचली जाति की औरतों और पुरुषों में संभोग एक तरह का समझौता और निर्वैयक्तिक विनिमय संबंध है। इसमें एक पक्ष शोषण करता है और आनंद लेता है।

दूसरी ओर मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के पति-पत्नी संबंधों में आम तौर पर आंतरिक लगाव का अभाव मिलेगा। खासतौर पर औरतों में अपने पति के प्रति एक मर्द के तौर पर आंतरिक लगाव अनुपस्थित मिलेगा। पति-पत्नी के बीच में युगल के तौर पर जिस आंतरिकता की बातें की जाती हैं उन्हें जीवन के विभिन्न पड़ावों पर सुनते हुए स्त्रिायां बड़ी होती हैं और ये सारी बातें कल्पना और फैंटेसी से निकली होती हैं। इन मीठी-मीठी बातों के माध्यम से पति-पत्नी के मधुर जगत की सृष्टि की जाती है।

 जबकि जीवन की वास्तविकता यह है कि पति-पत्नी के जीवन में वह सुनहरा दिन कभी नहीं आता जिसकी मधुर बातें सुनते हुए लड़कियां बड़ी होती हैं। इन दोनों के बीच जो असमान संबंध उभरकर आता है। यह असमानता प्रत्येक क्षेत्रा में अभिव्यक्ति पाती है जिसके कारण कभी-कभी आनंद का क्षण आता है और बाकी समय महाभारत चलता रहता है जिसमें असंतोष, दुख, दर्द और कुंठाओं की बार-बार अभिव्यक्ति होती है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीय समाज में सेक्स और कामुकता के प्रति आंतरिक गंभीर भावबोध का अभाव है। इस अभाव की जड़ें हमारे सामाजिक संबंधों की प्रकृति में छिपी हैं। पति-पत्नी के बीच के मौजूदा सामाजिक संबंधों में व्याप्त असमानता, कामुकता और सेक्स के प्रति अवैज्ञानिक रवैए को जब तक नहीं बदलेंगे तब तक नई भावनाओं के साथ हमारा समाज सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा।
परवर्ती पूंजीवाद के दौर में कामुकता की लोकप्रियता ने कामुक पहचान को नया जन्म दिया। इसे उपभोक्तावादी संस्कृति के माध्यम से निर्मित किया। यह परवर्ती पूंजीवाद के विकास की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। आज सेक्स और सेक्सुएलिटी का पूरी तरह वस्तुकरण हो चुका है। उसे वस्तुओं के साथ जोड़ दिया गया है। अब सबकुछ खुला और बाजार में, दिन के उजाले में होता है।

 पूर्व-आधुनिक काल में कामुकता राज्य के संरक्षण में पलती थी। आज वह स्वायत्त और आत्मनिर्भर है। इसे प्रत्यक्षत: सत्ता के संरक्षण की जरूरत नहीं है। इसके विपरीत सत्ता और बाजार इसके सहयोग पर निर्भर हैं। दरबारी सभ्यता ने कामुकता को समृध्दि के प्रदर्शन से जोड़ा। पूंजीवाद ने इसे निर्वस्त्रा करके सत्ताधारी राजनीति के वर्चस्व से जोड़ा और बाजार का सर्वस्व बना डाला।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से संबंध है। पूंजीवाद का अर्ध्दनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध है। 

मध्यकाल में कामुकता की अभिव्यक्ति कलाओं में हुई और कामुक कला-निपुण था। पूंजीवाद ने कामुक को कामुकता की वस्तु बना दिया, उसे कला और कौशल से पृथक किया। अब कामुकता मात्रा देह होकर रह गई। परवर्ती पूंजीवाद ने कामुकता को आम जीवन का सबसे आकर्षक और गतिशील तत्व बना दिया। 

सामंती दौर में कामुकता के क्षेत्र में विशिष्ट जातियों और पेशेवर लोगों का दखल था आज इस पर प्रत्येक नागरिक का दखल है। आज विज्ञापन के मॉडल या पोर्नोग्राफी के मॉडल सुधीजनों या गुणीजनों के परिवारों से नहीं आते अपितु आम शहरी परिवारों से आते हैं। अब गुण के बजाय शरीर के ऊपर जोर है। सामंतवाद में कामुकता दरबार को संबोधित करती थी। 

आधुनिककाल में समस्त सामाजिक समूहों और वर्गों को संबोधित करती है। सामाजिक जीवन से पलायन की ओर ले जाती है। आज कामुकता सबसे बड़ा उद्योग है। भारत में इसका 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार है। आम तौर पर कामुकता पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती है किंतु प्रतिबंध इस समस्या का समाधान नहीं है। प्रतिबंध के बजाय इसके प्रति आलोचनात्मक रवैया पैदा किया जाना चाहिए। उसने नए किस्म की गुलामी और आजादी को जन्म दिया है। यह हमारे निजी जीवन की कामुकता के अधिकार का क्षय है। यह स्वतंत्र कल्पनाशीलता के लिए चुनौती है। यह व्यक्तिगत शैली के लिए गंभीर समस्या है।

हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि हाल के वर्षों में कामुकता और पोर्नोग्राफी के व्यापक प्रचार-प्रसार के पीछे सबसे प्रमुख कारण क्या है? संभवत: कामुकता के बहाने सत्ताधारी वर्गों के द्वारा जनतांत्रिक महिला आंदोलन का प्रत्युत्तर देने की कोशिश की जा रही है। 

औरतों के अंदर जहां एक ओर आत्मविश्वास पैदा हुआ है, वहीं दूसरी ओर स्त्री के प्रति हिंसाचार में वृध्दि हुई है। विभिन्न माध्यमों के जरिए हिंसा को नॉर्मलाइज किया जा रहा है। कामुक सामग्री का सामाजिक जीवन में तेजी से इस्तेमाल बढ़ा है। इससे आक्रामकता, संकीर्णता, प्रतिगामिता में वृध्दि हुई है। साथ ही, सामाजिक परिवर्तन के विरोधी भावबोध का सामाजिक आधार मजबूत हुआ है। जनमाध्यमों में औरतों के मसलों पर चर्चाएं कम हो रही हैं जबकि औरत के परंपरागत सरोकारों मसलन, खाद्य, फैशन, सुंदरता, साज-सज्जा आदि पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इस स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि कामुकता और सेक्स के प्रति पूर्वग्रहों से अपने को मुक्त करें। कामुकता और सेक्स जीवन की वास्तविकता है। इसके प्रति वैज्ञानिक रवैया अपनाएं। साथ ही, साधारण स्त्रिायों के आम सवालों और समस्याओं को चर्चा के केंद्र में लाएं।



2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रवाहशील और गहन आलेख। हिन्दी ब्लॉगरी में एक मील का पत्थर।
    आप ने उन पक्षों पर बहुत सहजता से प्रकाश डाला है जो उपेक्षित रहे हैं या मिसइंटरप्रेट होते रहे हैं।
    कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ हैं, उन्हें सुधार दीजिए।
    आप को सब्सक्राइव करते डर लगता है। इतनी रफ्तार से आप के लेख आते हैं कि उनके साथ चलना कठिन हो जाता है :)

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  2. समापन नहीं अभी तो यह शुरुआत है हिन्दी ब्लागरी में....आश्चर्य है इस बोल्ड लेखन के और मुन्तजिर नहीं हैं !
    क्या नारीवाद और पुरुषवाद यहाँ आकार ठहर जाते हैं?

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