मुसलमान होना वैसे ही समस्यामूलक है जिस तरह हिन्दू होना। हमारे समाज की यही सबसे बड़ी समस्या भी है कि आदमी का धर्म ,जन्म से मृत्यु तक, यहाँ तक कि मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता।मुसलमानों के बारे में सारी दुनिया बहस कर रही है और ख़ासकर मुसलमान समुदाय से जो लोग आतंकी संगठनों में चले गए हैं उनके कारण मुसलमानों के प्रति घृणित प्रचार अभियान चरम पर चल रहा है। फेसबुक पर तो संघियों ने नंगई के सारे मानक तोड़ दिए हैं। संघियों की इस्लामविरोधी पोस्ट मुसलमानों में देशप्रेम पैदा नहीं करती। दुर्भाग्य यह है कि संघियों में शिक्षित ही हैं जो सबसे ज्यादा मुसलमानों के बारे में फैलाए जा रहे ज़हरीले प्रचार से प्रभावित हैं और उस तरह का प्रचार कर रहे हैं।
साम्प्रदायिकता हो या नस्लवाद या आतंकवाद इनका किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है। विभिन्न रंगत के अपराधी तत्व अपने स्वार्थ के लिए इस तरह के समाजविरोधी हिंसाचार में सक्रिय हैं। आतंकवाद या नस्ली हिंसा या साम्प्रदायिक हिंसा वस्तुत: अपराध है , यह धर्म की सेवा नहीं है यह अपराधियों की सेवा है। अपराध को समुदाय या जाति या सम्प्रदाय या धर्म से जोड़कर देखने का नजरिया हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद से विरासत में मिला है। इन दिनों वे ही संगठन यह काम कर रहे हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवाद की सेवा में लगे हैं।
मैं निरंतर हिन्दुत्ववादी संगठनों और उनकी राजनीति की आलोचना करता रहा हूँ, हम चाहते हैं कि संघ के साथ चलने वाले लोग साम्प्रदायिक नजरिया त्यागकर लोकतांत्रिक नज़रिए का राजनीति से लेकर धर्म तक पालन करें। इसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि मुसलमान समुदाय अपने बंद दरवाज़े खोले। भारत के संविधान के आलोक में अपने को नागरिक के रुप में परिभाषित करे और शरीयत या अन्य गैर- संवैधानिक मूल्यों को त्यागने की प्रक्रिया को तेज़ करे।
कोई व्यक्ति जन्म से धार्मिक पैदा नहीं होता बल्कि धार्मिक पहचान तो उसे परिवार के कारण मिलती है, धार्मिक आचरण के कारण मिलती है। लोकतांत्रिक देश के निर्माण के लिए हमें धार्मिक आचरणों और संस्कारों की बजाय लोकतांत्रिक संस्कारों और नज़रिए के विकास पर ज़ोर देना चाहिए। हमारे समाज की नियामक शक्ति और संस्थान तो हमारा संविधान है, कोई धार्मिक किताब हमारे जीवन को नियमित नहीं कर सकती । हम जीवन, राजनीति, संस्कृति, न्याय आदि के बारे में संविधान के जरिए संरक्षण और दिशा -निर्देश पाते रहे हैं। ऐसे में हम संविधान के अनुसार अपनी पहचान को निर्मित करने का काम क्यों नहीं करते ? हम नागरिक की पहचान अर्जित करने की कोशिश क्यों नहीं करते ? हमें एक अच्छे धार्मिक प्राणी की नहीं अच्छे नागरिक की ज़रुरत है। हमें ऐसे नागरिक की ज़रुरत है जो नागरिकचेतना से लैस हो। धर्म के लिए नहीं नागरिक अधिकारों के लिए मर मिटने का जिसके अंदर जज़्बा हो। संविधान की रक्षा और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए जो कोई भी क़ुर्बानी देने को तैयार हो।
फेसबुक पर युवाओं से लेकर प्रौढ़ शिक्षितों तक हम जब धर्म -धर्म, हिन्दू - हिन्दू, मुसलमान -मुसलमान की गुहार लगाती पोस्ट देखते हैं तो यही लगता है भारत में अभी संविधानचेतना और नागरिकचेतना पैदा नहीं हुई है ! तकलीफ़ तब और भी बढ जाती है जब राजनीति करने वाले लोग नागरिक की बजाय जाति, धर्म आदि पहचान के रुपों का इस्तेमाल करते हैं और हम सब पढे लिखे लोग उनकी जय-जयकार करते हैं। शिक्षित फेसबुकिए मित्रों का "हम हिन्दू हम हिन्दू" , "वे मुस्लिम वे मुस्लिम ",की फेसबुक हुंकार यही संदेश देती है कि हमारे मित्रों की चेतना ,पराए संगठनों की विचारधारा के यहाँ गिरवी पड़ी हुई है। नागरिकचेतना के लिए जरुरी है कि व्यक्ति की चेतना अन्य के पास गिरवी न हो।यह मानसिक ग़ुलामी है जो विभिन्न रुपों में हमारे अंदर जड़ें जमाए हुए है।
आधुनिक होने की पहली शर्त है संविधान के आलोक में स्वयं को देखना और स्वयं के विवेक को संविधान के अनुरूप रुपान्तरित करना । हमारे समाज में, फेसबुक में और मीडिया में संविधान के आयामों पर न्यूनतम बहस नहीं दिखती इसके विपरीत संविधान विरोधी सवालों और नज़रिए पर सबसे ज्यादा बहसें चलती रहती हैं। सबसे पहले हम बहसों के पैराडाइम को बदलें। बहसों को संविधान की परंपरा में लाएँ और गैर-संवैधानिक दृष्टियों से मीडिया और समाज से अपदस्थ करें।
आधुनिक होने की दूसरी शर्त है आधुनिक आचरण करना। आचरण का हमारे नज़रिए से संबंध है हम व्यक्ति को नागरिक के रुप में देखें और नागरिक के रुप में उसकी संप्रभु सत्ता को परिभाषित करें , नागरिक के रुप में ही उससे सामाजिक संबंध बनाएँ और विकसित करें।
आधुनिक होने की तीसरी शर्त है असहमति और मित्रता। हम जिनके बीच में रहते हैं उनके विचारों का सम्मान करें, असहमत होते हुए भी बेहतरीन मित्र बनें। असहमति के साथ घृणा का कोई संबंध नहीं है। असहमति के साथ हिंसा का कोई संबंध नहीं है। मनुष्य होने की पहली पहचान मित्र होने में है। जो मित्र नहीं बन सकता वह मनुष्य नहीं बन सकता। जो मित्र है वह मनुष्य है ।
आधुनिक होने की चौथी शर्त है समानता को दैनंदिन आचरण और सामाजिक मूल्य में रुपान्तरित करना। घर से लेकर बाहर तक सभी के साथ समानता के नज़रिए के आधार पर आचरण करना । सभी क़िस्म के सामाजिक भेदों से सचेत रुप से लड़ना ।
आधुनिक होने की पाँचवी शर्त है कायिक और वाचिक हिंसा का हर स्तर पर परित्याग और विरोध। हिंसा तो आधुनिक का नहीं अनाधुनिक का अंग है। हम जब भी कायिक या वाचिक हिंसा करते हैं तो आधुनिक आचरण नहीं करते। आधुनिक मनुष्य ने हिंसा को तर्क के जरिए अपदस्थ किया है। हम तर्क करें , हिंसा न करें ।
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