कैमरे ने नेताओं के होश उडाए हुए हैं। कैमरे की खूबी है आप उसके बिना रह भी नहीं सकते,राजनीतिज्ञ की मुश्किल है वे कैमरे में जी नहीं सकते। कैमरे के प्रबंधन के कौशल में जो माहिर हैं उनको राजनीति प्रबंधन सीखने की जरुरत है। हमारे अधिकांश नेता न तो ठीक से कैमरा प्रबंधन जानते हैं और नहीं राजनीति प्रबंधन कला के उस्ताद हैं। वे कैमरे के सामने खड़ा होना भर जानते हैं। नेताओं के लिए कैमरे के तदर्थ है, जबकि राजनीति के वे होलटाइमर का रवैय्या है। राजनीति में वे पेशेवर नहीं हैं। राजनीति में होलटाइमर बहुत खराब होता है। यह राजनीति का निष्क्रिय तत्व है।राजनीति और कैमरा दोनों ही राजनेताओं से पेशेवर और नाटकीय रवैय्ये की मांग करते हैं।
किरनबेदी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे कैमरा और राजनीति दोनों में तदर्थभाव से काम कर रही हैं। पहले वे स्वयंसेवी राजनीति करती थीं,फिलहाल भाजपा की होलटाइमर हैं। राजनीति और कैमरे के लिहाज से ये दोनों रुप निरर्थक हैं। अप्रासंगिक हैं। कैमरा तब अपील करता है जब आप नाटकीय हों और जनता में हों। कैमरा तब अपील नहीं करता जब आप कैमरे के फ्रेम में हों। किरनबेदी की सारी मुश्किलें यहीं पर हैं। वे पहले कैमरे के फ्रेम में थी,फ्रेम से फ्रेम में उनरा रुपान्तरण निष्क्रिय इमेज का रुपान्तरण है। किरनहेदी तब अपील कर रही थीं, जब वे लोकपाल बिल के समय नाटक कर रही थीं। नाटकीयता ने उनको जनप्रिय बनाया,आंदोलन ने नहीं। लालू को देखें और सीखें। लालू नाटकीयता और भाषिकखेल में मास्टर है,इसलिए कैमरे में वह सबसे सुंदर लगता है। राहुल गांधी-सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह अपील नहीं करते,क्योंकि ये न तो नाटकीय हैं और न ही भाषिकखेल खेलते हैं। इनकी तुलना में मोदी ने नाटकीयता और भाषिकखेल का जमकर इस्तेमाल किया और कैमरे में जगह बना ली।
नरेन्द्र मोदी ने लंबी राजनीतिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद कैमरे के फ्रेम में अपने को फिट किया।मोदी ने इस अवस्था तक पहुँचने के लिए आरएसएस की सालों होलटाइमरी की,झूठ बोलने की कला सीखी,परिवार छोड़ा,पत्नी के बारे में झूठ कहा,फिर पेशवर राजनीति आरंभ की,बादमें पेशेवर राजनेता की तरह राजनीति और कैमरे के प्रबंधन में दक्षता प्राप्त की। पेशेवर होने की पूर्व शर्त्त है वैचारिक ,नाटकीयता,भाषायी कौशल और प्रतिबद्धता।कैमरे को ये चीजें पसंद हैं। जो प्रतिबद्ध है कैमरा उसके साथ खेलने में मजा लेता है खेल ही खेल में खलनायक को नायक और नायक को खलनायक बनाता है।
कैमरे में नायक-खलनायक का खेल थमता नहीं है,बल्कि यह खेल तब ही थमता है जब नेता को कैमरा ,नायक-खलनायक की अवस्था से निकालकर डिजिटल फोटो कब्रिस्तान में ले जाकर महज एक फोटो में रुपान्तरित कर देता है। इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा कोई नहीं कह सकता। यही वह परिप्रेक्ष्य जिसमें केजरीवाल-किरनबेदी के कैमराखेल को देखें।
दिल्ली विधान चुनाव में विगत एक साल में दो चुनाव हुए हैं, एक हो चुका है ,दूसरा होने जा रहा है। कैमरे की मुश्किल यह है कि पुलिस आइकॉन उसमें मृत होते हैं।निष्प्रभावी होते हैं। किरनबेदी कितनी सख्त अफसर रही हैं इससे कैमरा आश्चर्य या रोमांच पैदा नहीं कर सकता। कैमरे के रोमांच के लिए किरनबेदी के पास कोई नौटंकी या नाटकीयता नहीं है। कैमरे का दिल जीतने के लिए नाटकीयता का होना जरुरी है । कैमरे के सामने नए कौशल, नयी भाव-भंगिमा और नए नारे के साथ जब तक आप नहीं जाएंगे कैमरा अपना खेल आरंभ नहीं करता। असल में तो कैमरे के सामने नेता को ही खेलना होता है, मोदी को नायक से महानायक बनाने में नाटकीयता और भाषिकखेल की बड़ी भूमिका रही है। तकरीबन यही पद्धति केजरीवाल की भी है।
केजरीवाल ने अपने फोटो के साथ पहले जगदीशमुखी का फोटो लगाकर प्रचार किया और इमेज युद्ध में जगदीशमुखी को आउट कर दिया। यह स्टायल उसने किरनबेदी के फोटो पर लागू की है। अब दिल्ली में प्रत्येक ऑटो पर केजरीवाल-किरनबेदी का फोटो एक साथ लगा है। आम जनता देख रही है और संदेश ग्रहण कर रही है। इमेज युद्ध की यह कला बेहद आकर्षक और मारक है। इस कला में केजरीवाल ने पहल करके दो काम किए पहला अपना प्रतिद्वंद्वी तय किया दूसरा अपना और विरोधी का वनलाइनर प्रचार आरंभ किया, राजनीति में वनलाइनर जल्दी कम्युनिकेट करता है। सड़क पर चलते वाहन में वनलाइनर नारा यदि फोटो के साथ हो तो वह किसी भी टीवी कवरेज से ज्यादा मारक होता है।
किरन बेदी की दूसरी बड़ी मुश्किल है कि वह टीवी कैमरा देखते ही अपना मुखारबिंद ठीक नहीं रख पाती है। उसकी अति-सजगता उसका विलोम बनाती है। इसके विपरीत केजरीवाल सामान्य बने रहते हैं,व्यंग्यात्मक बने रहते हैं,नाटकीय बने रहते हैं। यही वजह है केजरीवाल का हर फोटो कुछ नया कहता है। राजनेता की नाटकीयता कैमरे को जीवंत बनाती है।
किरनबेदी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे कैमरा और राजनीति दोनों में तदर्थभाव से काम कर रही हैं। पहले वे स्वयंसेवी राजनीति करती थीं,फिलहाल भाजपा की होलटाइमर हैं। राजनीति और कैमरे के लिहाज से ये दोनों रुप निरर्थक हैं। अप्रासंगिक हैं। कैमरा तब अपील करता है जब आप नाटकीय हों और जनता में हों। कैमरा तब अपील नहीं करता जब आप कैमरे के फ्रेम में हों। किरनबेदी की सारी मुश्किलें यहीं पर हैं। वे पहले कैमरे के फ्रेम में थी,फ्रेम से फ्रेम में उनरा रुपान्तरण निष्क्रिय इमेज का रुपान्तरण है। किरनहेदी तब अपील कर रही थीं, जब वे लोकपाल बिल के समय नाटक कर रही थीं। नाटकीयता ने उनको जनप्रिय बनाया,आंदोलन ने नहीं। लालू को देखें और सीखें। लालू नाटकीयता और भाषिकखेल में मास्टर है,इसलिए कैमरे में वह सबसे सुंदर लगता है। राहुल गांधी-सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह अपील नहीं करते,क्योंकि ये न तो नाटकीय हैं और न ही भाषिकखेल खेलते हैं। इनकी तुलना में मोदी ने नाटकीयता और भाषिकखेल का जमकर इस्तेमाल किया और कैमरे में जगह बना ली।
नरेन्द्र मोदी ने लंबी राजनीतिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद कैमरे के फ्रेम में अपने को फिट किया।मोदी ने इस अवस्था तक पहुँचने के लिए आरएसएस की सालों होलटाइमरी की,झूठ बोलने की कला सीखी,परिवार छोड़ा,पत्नी के बारे में झूठ कहा,फिर पेशवर राजनीति आरंभ की,बादमें पेशेवर राजनेता की तरह राजनीति और कैमरे के प्रबंधन में दक्षता प्राप्त की। पेशेवर होने की पूर्व शर्त्त है वैचारिक ,नाटकीयता,भाषायी कौशल और प्रतिबद्धता।कैमरे को ये चीजें पसंद हैं। जो प्रतिबद्ध है कैमरा उसके साथ खेलने में मजा लेता है खेल ही खेल में खलनायक को नायक और नायक को खलनायक बनाता है।
कैमरे में नायक-खलनायक का खेल थमता नहीं है,बल्कि यह खेल तब ही थमता है जब नेता को कैमरा ,नायक-खलनायक की अवस्था से निकालकर डिजिटल फोटो कब्रिस्तान में ले जाकर महज एक फोटो में रुपान्तरित कर देता है। इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा कोई नहीं कह सकता। यही वह परिप्रेक्ष्य जिसमें केजरीवाल-किरनबेदी के कैमराखेल को देखें।
दिल्ली विधान चुनाव में विगत एक साल में दो चुनाव हुए हैं, एक हो चुका है ,दूसरा होने जा रहा है। कैमरे की मुश्किल यह है कि पुलिस आइकॉन उसमें मृत होते हैं।निष्प्रभावी होते हैं। किरनबेदी कितनी सख्त अफसर रही हैं इससे कैमरा आश्चर्य या रोमांच पैदा नहीं कर सकता। कैमरे के रोमांच के लिए किरनबेदी के पास कोई नौटंकी या नाटकीयता नहीं है। कैमरे का दिल जीतने के लिए नाटकीयता का होना जरुरी है । कैमरे के सामने नए कौशल, नयी भाव-भंगिमा और नए नारे के साथ जब तक आप नहीं जाएंगे कैमरा अपना खेल आरंभ नहीं करता। असल में तो कैमरे के सामने नेता को ही खेलना होता है, मोदी को नायक से महानायक बनाने में नाटकीयता और भाषिकखेल की बड़ी भूमिका रही है। तकरीबन यही पद्धति केजरीवाल की भी है।
केजरीवाल ने अपने फोटो के साथ पहले जगदीशमुखी का फोटो लगाकर प्रचार किया और इमेज युद्ध में जगदीशमुखी को आउट कर दिया। यह स्टायल उसने किरनबेदी के फोटो पर लागू की है। अब दिल्ली में प्रत्येक ऑटो पर केजरीवाल-किरनबेदी का फोटो एक साथ लगा है। आम जनता देख रही है और संदेश ग्रहण कर रही है। इमेज युद्ध की यह कला बेहद आकर्षक और मारक है। इस कला में केजरीवाल ने पहल करके दो काम किए पहला अपना प्रतिद्वंद्वी तय किया दूसरा अपना और विरोधी का वनलाइनर प्रचार आरंभ किया, राजनीति में वनलाइनर जल्दी कम्युनिकेट करता है। सड़क पर चलते वाहन में वनलाइनर नारा यदि फोटो के साथ हो तो वह किसी भी टीवी कवरेज से ज्यादा मारक होता है।
किरन बेदी की दूसरी बड़ी मुश्किल है कि वह टीवी कैमरा देखते ही अपना मुखारबिंद ठीक नहीं रख पाती है। उसकी अति-सजगता उसका विलोम बनाती है। इसके विपरीत केजरीवाल सामान्य बने रहते हैं,व्यंग्यात्मक बने रहते हैं,नाटकीय बने रहते हैं। यही वजह है केजरीवाल का हर फोटो कुछ नया कहता है। राजनेता की नाटकीयता कैमरे को जीवंत बनाती है।
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