यूपी सरकार के द्वारा "पीके" को मनोरंजन कर से मुक्त करने का फ़ैसला क्या लिया , गोया , संघियों पर बिजली गिर पड़ी है, अपनी संघी पक्षधरता के लिए ख्यात दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता ने ट्विट किया है -
"Akhilesh fanning communalism by making #PK tax free. He continues on his path of Muslim appeasement at cost of hurting Hindu feelings."
संजय गुप्ता के ट्विट को देखकर पहली प्रतिक्रिया तो यही होगी कि यह किसी पेशेवर संपादक की राय नहीं हो सकती, यह तो किसी संघी की राय हो सकती है! किसी फिल्म को राज्य सरकार करमुक्त करती है तो यह आम जनता के हित में लिया गया फ़ैसला ही कहा जाएगा। क्योंकि फिल्म देखने तो सभी धर्म और जाति के लोग जाते हैं, करमुक्त फिल्म का मतलब है निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग के दर्शकों को राहत पहुँचाना । हमें विभिन्न राज्य सरकारों से इस तरह की मदद की ज़रुरत रहती है कि वे साफ़ सुथरी बेहतर मनोरंजक फिल्म को करमुक्त स्क्रीनिंग की सुविधा दें , इससे सिनेमा संस्कृति को बल मिलता है। दूसरी बात यह है कि संजय गुप्ता जानते हैं कि राज्य का काम है विवेकवाद का प्रचार करना, समाज में उन फ़िल्मों को राज्य सरकार प्रमोट करें जो विवेकवाद या वैज्ञानिकचेतना का प्रचार प्रसार करती हों ,धार्मिक नानसेंस को नंगा करती हों, यह काम राज्य और केन्द्र सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी में आता है, क़ायदे से मोदी सरकार को " पीके" को सारे देश में टैक्स फ़्री दिखाने का आदेश देना चाहिए। सामाजिक विकास और औद्योगिक विकास के लिए इस तरह की फ़िल्मों को प्रमोट किया जाना चाहिए।
हमारे अनेक फेसबुक मित्र हैं जो अमीर खान की मोदी से मित्रता को देख रहे हैं। मेरा मानना है " पीके" फिल्म के कलाकारों की राजनीतिक विचारधारा और प्रतिबद्धता से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। "पीके" फिल्म बुनियादी तौर पर नानसेंस को निशाना बनाती है और उसके लिए नाटकीय ढंग से नानसेंस तर्कों का प्रयोग किया गया है, सेंसपूर्ण तर्क उसमें प्रच्छन्नभाव से चले आए हैं, सेंसपूर्ण तर्क तो दर्शक के मन में हैं जिनको फिल्ममेकर नानसेंस हमलों के जरिए उभार देता है। पर्दे पर तो नाटकीयता का पूरा खेल चलता रहता है। धर्म के नानसेंस पर जब भी नानसेंस से हमला होता है तो आम लोग तिलमिलाते हैं और मज़ा भी लेते हैं, जबकि परेश रावल की फिल्म "ओ माई गॉड" में नानसेंस का जबाव सेंस से दिया गया था। इसके विपरीत "पीके" फिल्म में शुरु से आख़िर तक नानसेंस के हलके तर्कों का धार्मिक नानसेंस के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है। यह विज्ञानसम्मत चेतना वाली फिल्म नहीं है, यह सहज ग्राम्यबोध के जरिए धार्मिक पाखण्ड और नानसेंस को उजागर करने वाली फिल्म है।
"Akhilesh fanning communalism by making #PK tax free. He continues on his path of Muslim appeasement at cost of hurting Hindu feelings."
संजय गुप्ता के ट्विट को देखकर पहली प्रतिक्रिया तो यही होगी कि यह किसी पेशेवर संपादक की राय नहीं हो सकती, यह तो किसी संघी की राय हो सकती है! किसी फिल्म को राज्य सरकार करमुक्त करती है तो यह आम जनता के हित में लिया गया फ़ैसला ही कहा जाएगा। क्योंकि फिल्म देखने तो सभी धर्म और जाति के लोग जाते हैं, करमुक्त फिल्म का मतलब है निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग के दर्शकों को राहत पहुँचाना । हमें विभिन्न राज्य सरकारों से इस तरह की मदद की ज़रुरत रहती है कि वे साफ़ सुथरी बेहतर मनोरंजक फिल्म को करमुक्त स्क्रीनिंग की सुविधा दें , इससे सिनेमा संस्कृति को बल मिलता है। दूसरी बात यह है कि संजय गुप्ता जानते हैं कि राज्य का काम है विवेकवाद का प्रचार करना, समाज में उन फ़िल्मों को राज्य सरकार प्रमोट करें जो विवेकवाद या वैज्ञानिकचेतना का प्रचार प्रसार करती हों ,धार्मिक नानसेंस को नंगा करती हों, यह काम राज्य और केन्द्र सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी में आता है, क़ायदे से मोदी सरकार को " पीके" को सारे देश में टैक्स फ़्री दिखाने का आदेश देना चाहिए। सामाजिक विकास और औद्योगिक विकास के लिए इस तरह की फ़िल्मों को प्रमोट किया जाना चाहिए।
हमारे अनेक फेसबुक मित्र हैं जो अमीर खान की मोदी से मित्रता को देख रहे हैं। मेरा मानना है " पीके" फिल्म के कलाकारों की राजनीतिक विचारधारा और प्रतिबद्धता से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। "पीके" फिल्म बुनियादी तौर पर नानसेंस को निशाना बनाती है और उसके लिए नाटकीय ढंग से नानसेंस तर्कों का प्रयोग किया गया है, सेंसपूर्ण तर्क उसमें प्रच्छन्नभाव से चले आए हैं, सेंसपूर्ण तर्क तो दर्शक के मन में हैं जिनको फिल्ममेकर नानसेंस हमलों के जरिए उभार देता है। पर्दे पर तो नाटकीयता का पूरा खेल चलता रहता है। धर्म के नानसेंस पर जब भी नानसेंस से हमला होता है तो आम लोग तिलमिलाते हैं और मज़ा भी लेते हैं, जबकि परेश रावल की फिल्म "ओ माई गॉड" में नानसेंस का जबाव सेंस से दिया गया था। इसके विपरीत "पीके" फिल्म में शुरु से आख़िर तक नानसेंस के हलके तर्कों का धार्मिक नानसेंस के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है। यह विज्ञानसम्मत चेतना वाली फिल्म नहीं है, यह सहज ग्राम्यबोध के जरिए धार्मिक पाखण्ड और नानसेंस को उजागर करने वाली फिल्म है।
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