राजनीति के लिए टीवी युग कलियुग है। जो टीवी में गया वह वहीं का होकर रह गया। टीवी में दाखिल होना जितना मुश्किल है उससे जान बचाकर निकलना उससे भी ज्यादा मुश्किल है। सामान्य दर्शक ,टीवी ज्ञान का भूखा होता है। यह वह दर्शक है जो ज्ञान और सूचना से वंचित है और टीवी के जरिए अपने दिमाग़ के स्तर को "ऊँचा "उठाना चाहता है। समाचार टीवी चैनल यह भ्रम पैदा करते हैं कि वे सूचना संपन्न बनाते हैं ,टीवी दर्शक सूचना संपन्न नागरिक है, वे सच के रखवाले हैं!
भारत में टीवी ने लोकतंत्र को ताक़तवर बनाया है लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य को न्यूज़ कंगाल बनाया है। टीवी के टॉकशो हों या धर्म शो हों या इवेंट शो हों वे मन को संतोष देने का , तुरंता प्रचार का काम करते हैं। टीवी शो वस्तुत: "सेल-सेल"की रणनीति की साझा परिणति है। आमतौर पर नेतागण टीवी का इमेज निर्माण के लिए इस्तेमाल करते हैं लेकिन टीवी टॉकशो इमेज नहीं बनाते बल्कि इमेज बिगाड़ते हैं, यही वजह है टीवी टॉकशो में दलीय प्रतिनिधि के तौर पर वे नेता या प्रवक्ता बैठे रहते हैं जिनका कोई जनाधार नहीं है, मसलन् जिनकी संगठन में फ़ोटो से ज्यादा हैसियत नहीं है। ये लोग बुनियादी तौर पर दलीय डमी नेता हैं। जो पिटते और पीटते हैं। लेकिन इनकी वास्तविक हैसियत " सेल- सेल" के बैनर से जैसी होती है। टीवी बहसों में आमतौर पर रीयल दलीयनेता ग़ायब रहता है। क्योंकि वह रीयल है और वह यदि टॉक शो में पिट गया तो बस जनता के हाथों उसके धुने जाने का भी चांस है।
कल से टीवी पर बहस हो रही है केजरीवाल और किरनबेदी एक ही मंच पर आएँ बहस करें, कांग्रेस के अजय माकन भी साथ में आने को तैयार हैं। क्या इस तरह की बहस लोकतंत्र के लिए शुभ होगी ?रेटिंग और राजनीतिक गर्मी पैदा करने के लिहाज़ से ऐसी बहस उपयोगी होती है। इसकी मुश्किल यही है कि इसमें वक़्ता का अहंकार बहुत जल्दी नष्ट होता है। इस तरह का कम्युनिकेशन अशिक्षितों की तुलना में शिक्षित मध्यवर्ग को जल्दी अपील करता है। दुविधाग्रस्त और तटस्थ शिक्षित मतदाताओं को इस तरह की बहस तेज़ी से नेता विशेष के प्रति आकृष्ट करने में सफल रहती है।
दिलचस्प बात यह है कि टीवी पर बहस हो रही है लेकिन रीयल मसलों पर नहीं । रीयल मसलों पर बहस करने में न तो टीवीएंकर की और न नेताओं की दिलचस्पी है। बहस में गैर- जरुरी सवाल वर्चस्व बनाए हुए हैं। मसलन् ,भाजपा में बग़ावत, किरनबेदी को क्यों लाया गया, केजरीवाल ने बनिया क्यों कहा?,इसे टिकट मिला और उसका टिकट कटा, इस नेता ने दल बदला, वह नेता छोड़कर गया, इसका रोड शो या उसका रोड शो। यह सच है कि इस तरह की ख़बरों का समाचार मूल्य है लेकिन चुनाव के असली मुद्दों पर भी तो बातें हों !
मसलन् , दिल्ली में विगत एक साल में क़ानून - व्यवस्था के हालात क्या थे ? , कितने कारख़ाने खुले या बंद हुए ? कितने नए रोज़गारों का जन्म हुआ ? बिजली उत्पादन और सप्लाई में सुधार आया कि गिरावट आई ?दिल्ली के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कितनी नई नियुक्तियाँ हुईं और दाख़िले में कितनी नई सीटें बढी ? दिल्ली में सड़कों की दशा क्या है और कितनी नई सड़कें बनीं ? नए स्वास्थ्य केन्द्र, स्कूल, कॉलेज कितने खुले ? प्रत्येक क्षेत्र के विधायक के विधायक फंड की क्या स्थिति है ? कहाँ और किन क्षेत्रों में विधायक निधि से धन खर्च किया गया ?महंगाई की अवस्था क्या ? दिल्ली पुलिस में नई भर्तियाँ कितनी हुईं ? दिल्ली के पर्यावरण में गिरावट आई या सुधार हुआ ? बिजली और पानी का बिल तो बहस में है लेकिन विगत एक साल की तथ्यपूर्ण सूचनाएँ और आंकडे कहाँ हैं? उन पर बहस होनी चाहिए। दिल्ली की अदालतों की दशा पर बहस हो, उनके इंफ़्रास्ट्रक्चर की समस्याओं पर बहस हो तब ही दिल्ली का असली चेहरा सामने आएगा।
दिल्ली राजधानी है और सारे बडे चैनलों का गढ़ है लेकिन दिल्ली की जनता सबसे ज्यादा सूचना विपन्न है। यह स्थिति कैसे बदले इस दिशा में कौन से कदम जरुरी हैं ? क्या मीडिया घरानों की पेडन्यूज और राजनीतिक विज्ञापनों को लेकर कोई नीति है?
हम दिल्ली में रहते हैं , नेताओं और मीडिया से घिरे रहते हैं, सचेतनता के विभ्रम में रहते हैं लेकिन न्यूनतम सत्य भी नहीं जानते ऐसे मे हम सोचें हम सूचना विपन्न क्यों हैं ? सूचना विपन्नता टीवी सम्पन्नता से दूर नहीं होगी, सूचना संपन्न हम तब बनेंगे जब परंपरागत कम्युनिकेशन पुख़्ता बनाएँगे। परंपरागत कम्युनिकेशन बंद करके हम कभी भी सूचना संपन्न नहीं बन सकते। हम सोचें कि कैसे बिना विज्ञापन के आम लोग लाखों की संख्या में किसी तिथि विशेष पर गंगा स्नान करने चले जाते हैं? करोड़ों लोग कुंभ में चले जाते हैं! लेकिन मतदान केन्द्रों तक हम इतने व्यापक प्रचार के बावजूद कुंभ मेले जैसी लामबंदी नहीं कर पाते !
कहने का आशय यह है कि परंपरागत कम्युनिकेशन जितना ज्यादा होगा लोकतंत्र उतना ही सूचना संपन्न होगा। अमेरिका में देखें वहाँ मीडिया कम्युनिकेशन ख़ूब है, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार टीवी बहसें करते हैं लेकिन आम जनता में आधी आबादी वोट डालने तक नहीं जाती । आमलोगों को विभिन्न मसलों पर कोई जानकारी नहीं होती। समग्रता मे देखें तो पाएँगे कि मीडिया कम्युनिकेशन तब ही प्रभावशाली होता है जब परंपरागत कम्युनिकेशन पुख़्ता हो। परंपरागत कम्युनिकेशन के अभाव में मीडिया कम्युनिकेशन प्रभावहीन होता है।
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