पेरिस हत्याकांड की घटना ने नए सिरे से माध्यमों में अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे से जुड़े सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है। अनेक विचारक सलाह दे रहे हैं अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा होनी चाहिए। वरना अराजकता फैल जाएगी। इस तरह के लोगों के विचारों को सुनकर एक पल के लिए यही लगता है अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा खींचने की जरुरत है। सच यह है अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं तय करना संभव नहीं है।अभिव्यक्ति का लक्ष्य मात्र अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि उसका परम लक्ष्य तो अभिव्यक्ति की सीमाओं का विस्तार करना और तोड़ना है।हर दौर में लेखकों-कलाकारों ने यह काम किया है,वे यह काम आज भी कर रहे हैं।
सामान्य कम्युनिकेशन भी सीमाएं नहीं मानता। एक जमाना था औरतें पर्दे की आड़ लेकर, घूंघट में से बोलती थीं,लेकिन बोलते –बोलते वे आज जहां तक चली आई हैं उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।बोलना या अभिव्यक्ति तो परिवर्तन की प्रक्रिया में,सीमा तोड़ने की प्रक्रिया में शामिल होना है। इसीलिए हिन्दी में कहावत भी है ''बोला और मरा'' । अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में मनुष्य जब भी दाखिल होगा वह देर-सबेर अभिव्यक्ति की सीमाएं तोड़ेगा। एक जमाना था कोई लड़की किसी लड़के से बात करती हुई देख ली जाती थी तो हंगामा हो जाता था लेकिन आज स्थिति यह है कि सामान्य तौर पर शिक्षित लड़कियों के पास अपने मित्र लड़कों के मोबाइल में नम्बर रहते हैं और वे घर में ही आराम से बातें करती रहती हैं। अभिव्यक्ति की विशेषता है कि वह सीमा नहीं मानती। चाहे जितने कानून बनाओ,चाहे जितने आदेश लागूकरो।
अभिव्यक्ति और धर्म केअन्तस्संबंध में एक बात साझा है वह है धर्म भी नियम-सीमा नहीं मानता और अभिव्यक्ति भी नियम –सीमा नहीं मानती। धर्म को यदि प्राचीन नियमों के अनुसार ही चलाया जाय तो धर्म अनाकर्षक होगा। उसकी कोई अपील नहीं होगी। दूसरी बात यह कि प्राचीनकाल में तो धर्म ही कम्युनिकेशन था। कालान्तर में अन्य कम्युनिकेशन के रुप आए हैं। धर्म की भूमिका मूलतः कम्युनिकेशन की ही रही है। कम्युनिकेशन में ज्योंही एक-दूसरे के बीच संवाद आरंभ होगा, कम्युनिकेटर और समाज के बीच में संवाद आरंभ होगा ,अभिव्यक्ति की सीमाएं क्रमशः टूटने लगेंगी। यह अभिव्यक्ति का अंतर्निहित नियम है।
हिन्दू धर्म में भगवान से बड़ा भक्त है। जबकि इस्लाम में अल्ला बड़ा है ,बाकी उसके मातहत हैं। हिन्दूधर्म में भगवान नियंता नहीं है,भक्त नियंता है। हिन्दूधर्म में नियम महत्वपूर्ण नहीं है,आदत या संस्कार महत्वपूर्ण हैं। आदतें महत्वपूर्ण होने से हिन्दूधर्म में किसी भी किस्म के शारीरिक नियंत्रण की संभावनाएं नहीं है। धर्म का लंबे समय से अंदर से रुपान्तरण होता रहा है। हमारे यहां कोई एक नियंता नहीं है। हर नागरिक का अपना-अपना हिन्दूधर्म है। हिन्दू धर्म में यह उदारता या खुलापन बड़े वैचारिक संघर्षों के कारण पैदा हुआ है और यह प्रक्रिया बड़ी श्रम साध्य और त्यागपूर्ण रही है। इसके विपरीत इस्लाम में ऩियंता रहे हैं और नियंता के प्रति हर मुसलमान को समर्पण करना और उसके बनाए नियमों का आचरण करना जरुरी है।वरना उसके प्रति संदेह या अविश्वास पैदा होगा। इसलिए जिन देशों में इस्लाम नियंता और नियामक है वहां पर अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल ही पैदा नहीं होता। अभिव्यक्ति की आजादी के लिए धार्मिक नियंता की अनुपस्थिति जरुरी है। इस्लामिक देशों में चूंकि नियन्ता अल्ला है अतः वहां अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है।
इसके विपरीत भारत में भगवान तो है लेकिन वह नियंता नहीं है। यहां पर भगवान-भक्त का संबंध स्वैच्छिक है।इसमें भक्त बड़ा है ,भगवान से। आराधना के सारे नियम भक्त बनाता है ,भगवान या उसकेनुमाइंदे तय नहीं करते। यही वजह है हिन्दूधर्म में सबसे ज्यादा मत-भिन्नता है,इस्लाम में एक अल्ला है, हमारे यहां तैतीसकरोड़ देवी-देवता हैं,अनेक ईश्वरों के सहस्रनाम हैं। हमने एक भगवान की धारणा कोकभी नहीं माना। जब भगवान एक नहीं है तो नियंता भी एक नहीं है। अमूमन एक ही मंदिरमें अनेक देवी-देवता मिलेंगे। बड़ी तादाद में ऐसे भी मंदिर मिलेंगे जिनमेंआराधक-प्रचारक की भगवान के साथ प्रतिमा लगी हुई है। यानी हमारे यहां भक्त को भगवानके बराबर का दर्जा दिया गया है । इसलिए हिन्दू धर्म की परिस्थितियों के साथ इस्लामकी तुलना करना सही नहीं होगा, इस्लाम के आइने में हिन्दू धर्म को नए सिरे सेसंगठित करना भी सही नहीं है।
हिन्दूधर्म में भगवान कोनियंता के रुप नहीं मानते बल्कि संस्कार के रुप में मानते हैं। आदत है इसीलिए मंदिर के सामने से गुजरते समय सिर झुका लेते हैं. यह आदत मसजिद या गिरिजाघर के सामने से गुजरते समय नहीं होती। ईश्वर कब हमारी आदत या संस्कार में घुलमिल गया हम नहीं जानते। लेकिन इसके बावजूद ईश्वर कभी भी हिन्दू समाज का नियंता नहीं रहा।हिन्दूधर्म के विभिन्न पंथों और सम्प्रदायों के प्रचारकों ने भी कोई संहिता बनाकर उसे लागू करने की कोशिश नहीं की। हिन्दूधर्म के बहुत सारे कोड या संहिताएं सभ्यता के विकास में बहुत बाद में आए,इनके आने के बाद भी समाज में संहिताओं को न मानने की परंपरा बनी रही है। हिन्दू धर्म में ईश प्रशंसा भी कर सकते हैं,ईश-समालोचना भी कर सकते हैं,चाहें तो अपने लिए नया भगवान बना सकते हैं और उसका समूचा ताम-झाम भी खड़ा कर सकते हैं। हिन्दूधर्म में कोई धार्मिक कानूनी किताब नहीं है जिसके आधार पर सामाजिक दण्ड दिए गए हों। यदि किसी ने मनुस्मृति बना दी है तो वह भी रहेगी लेकिन जरुरी नहीं है लोग उसे मानें। भारत में कोई भी ऐसा काल खण्ड नहीं रहा जिसमें मनुस्मृति के हिसाब से समाज को संचालित किया गया हो। समाज संचालन के नियम धार्मिक किताबों के बाहर थे, हो सकता है उनकी किसी लाक्षणिकता का मनुस्मृति से साम्य मिल जाय लेकिन भारत कभी भी मनुस्मृति या धर्मशास्त्र संचालित देश नहीं रहा।भारत में ईश निंदा के लिए किसी की हत्या नहीं की गई। जबकि उनके खिलाफ क्या-क्या किया जाय उसके प्रावधान जरुर हैं ,लेकिन ईश-निन्दा के कारण या नास्तिक होने के कारण किसी को जान से नहीं मारा गया। जबकि इस्लाम में ऐसा नहीं है। ईश-निन्दा हमारी परंपरा में नास्तिकों के संघर्ष के द्वारा अर्जित संस्कार और हक है।
भारत में भगवान का सम्मान करने के लिए कानून को हाथ में लेने की जरुरत नहीं है। कानून के भय से आम जनता में ईश्वर के प्रति सम्मान भावना पैदा नहीं की जा सकती। कानून का काम है सामाजिक नियमन का। ईश्वर के प्रति आस्था पैदा करना कानून का लक्ष्य नहीं है।हमारे यहां ईश्वर है लेकिन वह वैसे ही है जैसे टीवी है,रेडियो,इंटरनेट है। ईश्वर हमेशा से संस्कारों के कम्युनिकेशन का चैनल रहा है और आज भी है,संघ परिवार की भूमिका इसी प्रसंग में सबसे खतरनाक तौर पर उभरकर सामने आई है वे इस्लाम से प्रेरणा लेकर काम कर रहे हैं, हिन्दुओं के सामाजिक नियंता के रुप में ईश्वर की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। इस तरह वे सुचिंतित ढ़ंग से हिन्दूधर्म की परंपराओं और मान्यताओं को फंडामेंटलिस्टों की तरह परिभाषित कर रहे हैं और यदा-कदा लागू करने की कोशिशें भी करते रहे हैं। लवजेहाद,धर्मान्तरण आदि इसी तरह के प्रसंग हैं। सच्चाई यह है कि कौन किस धर्म में जाएगा,किससे शादी करेगा यह हिन्दूधर्म में कभी भी सामाजिक चर्चा के केन्द्र में नहीं रहा। आदि शंकराचार्य के जमाने से लेकर तुलसीदास के जमाने तक यह चीज साफ तौर पर देख सकते हैं कि किससे शादी करोगे और कौन सा धर्ममानोगे यह नागरिक के विवेक पर छोड़ दिया गया था।
मूल बात यह कि धर्म तो कम्युनिकेशन है और कम्युनिकेशन को आप नियमों में बांध नहीं सकते। कम्युनिकेशन का नियम है तोड़ना,वह समाज को तोड़कर बनाने का काम करता है। वह पुराने को नष्ट नहीं करेगा तो नया आएगा कैसे ? हर किस्म का कम्युनिकेशन अपने लिए तोड़ने-बनाने की यह जंग लड़ता है और इसे नियमों में बांधना संभव नहीं है। अभिव्यक्ति का दायरा वहां तक फैला है जहां तक अर्थ का दायरा फैला हुआ है। हम सोचें क्या अभिव्यक्ति के अर्थ की कक्षा तय की जा सकती है ?
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