शनिवार, 31 जनवरी 2015

लोकतंत्र के कु-संवादी और पाँच सवाल का झुनझुना

        आज (30जनवरी ) गांधी की हत्या की गयी थी।यह हत्या उस विचार ने की जिसके हिमायती इन दिनों दिल्ली में घर –घर जाकर वोट मांग रहे हैं। गांधी से बड़ा कोई संवादी नहीं था,लेकिन संवाद करने की बजाय हत्यारे ने उनकी ह्त्या कर दी। गांधी की हत्या में जिस संगठन के विचारों की भूमिका थी उसे सारा देश जानता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी के हत्यारे को नायक बनाकर पेश किया जा रहा है। हत्यारे के पूजकों के खिलाफ मोदी सरकार के किसी भी मंत्री या प्रधानमंत्री ने एक बयान तक जारी नहीं किया। सवाल यह है गांधी के हत्यारे का महिमामंडन करने वालों की संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री ने अभी तक निंदा क्यों नहीं की ? यह क्यों नहीं कहा कि देश में हम कहीं पर भी गोडसे की मूर्ति नहीं लगने देंगे।

दिल्ली में गांधी मारे गए और दिल्ली में ही गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाने की तैयारियां हो रही हैं। किरनबेदी साफतौर पर जबाव दें कि यदि वे मुख्यमंत्री बनती हैं तो गांधी के हत्यारे का मंदिर बनेगा या नहीं ? मंदिर बनाने वालों की उन्होंने अभी तक निंदा क्यों नहीं की ? क्या इस उत्तर से काम चलेगा कि कानून अपना काम करेगा ! संघ के नेताओं-सांसदों-मंत्रियों और किरनबेदी से दिल्ली की हर गली में गोड़से के मंदिर बनाए जाने पर सवाल किया जाना चाहिए। संघ परिवार दो-टूक ढ़ंग से गोड़से पूजकों की निंदा करने में असफल रहा है,संघ की चुप्पी का अर्थ यह भी हो सकता है कि संघ उनका समर्थन कर रहा हो ? क्या गोड़से समर्थकों को लोकतंत्र की चौखट(दिल्ली सरकार) में प्रवेश करने की अनुमति दी जा सकती है ?

लोकतंत्र संवाद से समृद्ध होता है। नेता-मंत्री-सांसद या पीएम के भाषण से नहीं। नेता के शामिल होने से दलबल समृद्ध होता है,मीडिया समृद्ध होता है। संवाद के लिए लोकतांत्रिक विवेक और लोकतांत्रिक आचरण का होना पहली शर्त्त है। जिस नेता को संवाद करना है उसके पास लोकतांत्रिक विवेक न हो तो संवाद संभव ही नहीं है।यही वह परिप्रेक्ष्य है जहां से लोकतंत्र में संवाद-विवाद और विचारधारात्मक संघर्षों को देखा जाना चाहिए। संवाद की दूसरी शर्त है सहिष्णुता और जिम्मेदारी। संवाद करने वाला या सवाल करने वाला कितनी जिम्मेदारी से अपनी भूमिका निभाता है ? अपने विचारों के प्रति वह कितना गंभीर है। कितना हास्यास्पद है कि मोदी सरकार एक तरह कारपोरेट घरानों की मदद लेकर अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने में लगी है,लेखकों –कलाकारों को संघी बंदे निशाना बना रहे हैं,ऐसे में भाजपा सवाल पूछने का नाटक कर रही है !

भाजपा और संघ का समूचा आचरण कु-संवादी का है। वे संवाद में विश्वास नहीं करते,संसद में विश्वास नहीं करते, संवाद के नाम पर नॉनसेंस या कु-संवाद करते हैं। यह हास्यास्पद है कि वे सत्ता पाने के बाद सवाल कर रहे हैं ! देश की समस्याओं के समाधान और उन पर संवाद का सिलसिला आरंभ करने की बजाय एक ऐसी पार्टी से सवाल कर रहे हैं जिसका जन्म कुछ साल पहले हुआ है।

सवाल यह है मोदी सरकार-भाजपा ने उन सवालों के समाधान क्यों नहीं खोजे या सुझाए जिनसे दिल्ली की जनता परेशान है? दिल्ली की जनता के प्रति भाजपा और मोदी सरकार जिम्मेदार भाव से पेश आती तो दिल्ली की जनता को एक साल बाद तमाम फजीहत के बाद चुनाव की बजाय तत्काल चुनाव कराके सरकार दी जा सकती थी ! मोदी-भाजपा-संघ जानते थे कि उनके पास सरकार बनाने का बहुमंत नहीं था इसके बावजूद वे एक साल तक जोड़तोड़ में लगे रहे।अंत में झकमारकर उनको चुनाव कराना पड़ा। लोकतंत्र में झकमारकर काम करने वाले नेता या दल को जनविरोधी कहा जाता है। मोदी इस अर्थ में जनविरोधी हैं कि वे दिल्ली की जनता के लिए आठ महिने में कोई कदम नहीं उठा पाए।

भाजपा संभवतः देश का पहला बड़ा दल है जो समग्रता में अविवेकवादी या इरेशनल है। इरेशनल से क्या संवाद संभव है ? भाजपा और मोदी के इरेशनल नजरिए का आदर्श उदाहरण है भाजपा का परमाणु संधि पर यू-टर्न। भाजपा और उसके सभी नेता एकसिरे से संसद के मंच पर परमाणु संधि का विरोध करते रहे और हठात सत्ता में आते ही परमाणु संधि के पक्ष में बयान देने लगे,सबसे बड़ा उपहास तो यह है कि वे उसे अपनी उपलब्धि बता रहे हैं ! संभवतः भारत में इससे बड़ा इरेशनल रुप किसी दल का देश ने नहीं देखा। जिस दल के नेता ने संसद में साफ कहा हो कि वे सत्ता में आएंगे तो परमाणु संधि पर पुनर्विचार करेंगे, लेकिन वे तो उसी विचार की गोद में चले गए जिसका वे विरोध कर रहे थे। इस तरह के इरेशनल दल के साथ संवाद कैसे संभव है ? क्या भाजपानेता दिल्ली चुनाव में जो वायदे कर रहे हैं उनको पूरा करेंगे? विगत लोकसभा चुनाव में उन्होंने जो वायदे किए थे उनमें से एक भी वायदा अभी तक पूरा नहीं किया है। संवाद की मांग है कि संवादी असत्यवादी न हो।

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तेजी से साम्प्रदायिक हमले हो रहे हैं,संघ के संगठनों के नेताओं के घटिया-जनविरोधी-असामाजिक बयानों की मीडिया में बाढ़ आई हुई है। प्रशासन को साम्प्रदायिक संगठनों के प्रति नरम बर्ताब करने,मित्रवत व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। स्थिति उस कदर खराब है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा सरेआम भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर संघ द्वारा किए जा रहे हमलों के खिलाफ बोलकर गए हैं। वे एक तरह से इन हमलों की निंदा करके गए हैं। लेकिन संघ अपने नजरिए पर अड़ा हुआ है। संघ का इस तरह का रुख देश को विभाजित करने वाला है। देश में और दिल्ली में गिरिजाघरों पर हमले बढ़े हैं लेकिन मोदी सरकार ने इन हमलों की कभी निंदा नहीं की। किरनबेदी ने इन हमलों के खिलाफ कोई बयान तक नहीं दिया। सवाल यह है दिल्ली की जनता क्या ऐसे नेता और दल को वोट देगी जो सरेआम धार्मिक स्थलों पर हो रहे हमलों की निन्दा तक न करे।

मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि सीबीआई जैसी संस्था का दंगाईयों को बचाने के लिए खुला दुरुपयोग किया जा रहा है। अमितशाह के मामले में सीबीआई दुरपयोग करती नजर आई है। यह लोकतंत्र के लिए बुरा संकेत है। इस दुरुपयोग के खिलाफ किरनबेदी ने कोई राय व्यक्त नहीं की। जबकि वे सीबीआई को निष्पक्ष बनाने की मांग करती रही हैं लेकिन अवसरवादी नजरिए के चलते ऐसे दल में शामिल हो गयी हैं जिसका नाम सीबीआई के दुरुपयोग में शामिल है।



सच्चाई यह है लोकतंत्र में सु-संवाद आने बंद हो गए हैं। लोकतंत्र के लिए यह कु-संवाद है कितने सांसद या मंत्री प्रचार करने आ रहे हैं, पीएम प्रचार करने आ रहे हैं। सांसदों-मंत्रियों और प्रधानमंत्री की भूमिका सु-संवाद की रही होती तो उनको जनता में आने की जरुरत ही नहीं पड़ती।जनता के पास कान हैं,आँखें हैं और बहुत बड़ा दिल है। जनता जिस उदारता के साथ नेताओं के साथ पेश आती है हमारे नेता उस उदारता के साथ पेश नहीं आते। अंतमें, सवाल पूछने का हक उसको है जो सत्य के पक्ष में खड़ा है। कम से कम भाजपा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती।

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