कल भाजपानेत्री-मंत्री और पूर्व जेएनयू छात्रा निर्मला सीतारामन प्रेस को सम्बोधित करके औरतों के सवाल पर अरविंद केजरीवाल को कोस रही थीं तो अजीब और बेतुका लग रहा था। अरविंद केजरीवाल की औरतों के सवालों पर आलोचना आधारहीन है। यह भाजपा के राजनीतिक दिवालिएपन का प्रमाण है। मैं निजी तौर पर निर्मला सीतारामन को छात्र जीवन से जानता हूँ वे भी किरनबेदी की तरह अ-राजनीति की राजनीति किया करती थीं और मुक्तचिंतकों (फ्रीथिंकर संगठन) के दल में थीं,यह बताने की जरुरत नहीं है कि वे क्या नजरिया रखती थीं। उस दौर के सभी जेएनयू मित्र जानते हैं कि उनकी राजनीति में कोई खास रुचि नहीं होती थी। आमतौर पर महिलाओं के सवालों से जुड़े संघर्षों से वे दूर रहती थीं । इस व्यक्तिगत अवगुण के अलावा हम उस समस्या की ओर आएं जिसकी ओर उन्होंने ध्यान खींचा है।
दिल्ली में भाजपा नया दल नहीं है।संघ का सबसे ताकतवर संगठन इस शहर में है ,इसके बावजूद दिल्ली में औरतों के प्रति सामान्य शिष्ट संस्कृति नहीं बची है। संघ के अलावा कांग्रेस का व्यापक जनाधार है। सवाल यह है दिल्ली में औरत के लिए असुरक्षित माहौल बनाने में इन दोनों दलों की कोई भूमिका है या नहीं ? वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से दिल्ली में औरतें सुरक्षित महसूस नहीं करतीं ? दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा की ही सरकारें रही हैं, केजरीवाल की तो मात्र49दिन सरकार रही है। आम आदमी पार्टी की उम्र भी बहुत ज्यादा नहीं है। केजरीवाल को राजनीति में आए कुछ साल ही हुए हैं। इसके अलावा यह भी देखें कि दिल्ली की पुलिस व्यवस्था केन्द्र के तहत रही है। दिल्ली में महिला आंदोलन बेहद कमजोर है। लेकिन दिल्ली राजनीति का केन्द्र है।
निर्मला सीतारामन का राजनीतिक अनुभव भी बहुत ज्यादा नहीं है,भाजपा में आने के बाद ही वे राजनीति में सक्रिय हुई हैं, यही हाल किरनबेदी का है, वे चार दशकों से दिल्ली में रह रही हैं,लेकिन राजनीति में आने की उनकी कभी इच्छा नहीं हुई ,वे राजनीति में क्यों नहीं आईं ? भाजपा तो पहले भी थी ,संघ भी था फिर वे राजनीति में शामिल क्यों नहीं हुईं ? आज जब राजनीति में शामिल हुई हैं तो उनको इसका स्पष्टीकरण देना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दलों से और खासकर भाजपा से दूर क्यों थीं ? किरनबेदी को भाजपा में शामिल होने में इतना समय क्यों लगा ? किसने रोका था ?
राजनीति में कोई औरत क्यों शामिल होती है यह वही बेहतर ढ़ंग से बता सकती है। लेकिन एक बात सच है किरनबेदी अबोध और अज्ञानी नहीं हैं । वे जब भाजपा में शामिल हुई हैं तो उनके ज़ेहन में साफ लक्ष्य है कि वे मुख्यमंत्री बनने के लिए शामिल हुई हैं, एक साल पहले भाजपा उनको इस पद का प्रस्ताव देती तो वे भाजपा में चली जातीं,खैर,भाजपा को एक साल लगा तय करने में ! भाजपा भी मजेदार दल है वे किरनबेदी की ईमानदार -कर्मठ छवि को इतने लंबे समय के बाद पहचान पाए ! किरनबेदी और भाजपा के मेल-मुलाकात-संबंध बनाने में हुई देरी से एक बात साफ है कि भाजपा किसी पवित्र लक्ष्य के तहत किरनबेदी को चुनाव नहीं लड़ा रही है और किरनबेदी भी किसी पुण्य कार्य के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं वे अवसरवादी राजनीति के कारण मिले फायदे का लाभ उठाने के लिए चुनाव लड़ रही हैं। चूँकि मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव मिला है इसलिए लड़ रही हैं, औरतों के हितों की रक्षा का सवाल तो कहीं पर भी सामने नहीं है। बुर्जुआदलों में अधिकतर औरतें अवसर के कारण,पद के कारण या पारिवारिक कारणों से शामिल होती हैं। औरतों के हकों के संघर्ष के लिए वे शामिल नहीं होतीं।
औरतों के हितों के लिए संघर्ष करने का न तो किरनबेदी और न निर्मला सीतारामन का कोई इतिहास है।संघ में औरतों के हितों के लिए लड़ने वाली कोई नेत्री नहीं है। इससे भी बड़ा सवाल यह है औरतों के लिए कौन सी राजनीति करनी चाहिए ? क्या औरतों को ग्लैमर या नेतापद की राजनीति करनी चाहिए? औरतों को वह राजनीति करनी चाहिए जिससे पुंसवाद कमजोर हो और स्त्री ताकतवर बने। भाजपा और संघ तो पुंसवाद के हिमालय पर्वत हैं ।किरनबेदी उसकी पुत्री हैं !
स्त्री की चुनौती है पुंसवाद और पुंसवादी राजनीतिक नजरिया। स्त्री तब तक दिल्ली में या देश में असुरक्षित है जब तक वह पुंसवाद से लड़ने को अपना प्रधान लक्ष्य नहीं बनाती । भाजपा या कांग्रेस में शामिल होने से कोई भी औरत ताकतवर और सुरक्षित नहीं बनती। तंदूरकांड से लेकर सोनिया गांधी तक औरत की अवस्था काफी शोचनीय है। इंदिरा गांधी से ज्यादातर ताकतवर कोई महिला नहीं हो सकती। लेकिन वे भी पुंसवाद से जंग को मुख्य़ जंग नहीं बना पायीं। औरतों पर हमले नहीं रोक पायीं। गुजरात में दंगों में हजारों औरतें ही विधवा हुई हैं या यातना की शिकार हुई हैं,1984 के दंगों में भी औरतें ही हमले के केन्द्र में रही हैं। हत्यारे औरतों को ही विधवा बनाकर गए हैं। औरतों के लिए सुरक्षित विकल्प कम से कम भाजपा और कांग्रेस तो नहीं हो सकते। आपातकालीन अनुभव औरतों के लिए नारकीय अनुभव रहा है, उस दौर में संघ ने आपातकाल का समर्थन किया और संघ प्रमुख ने औरतों पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ कोई बयान तक नहीं दिया। यहां तक कि देवराला सतीकांड के समय संघ और उसके संगठनों ने खुलेआम सतीप्रथा की हिमायत की। हम नहीं जानते किरनबेदी ने उस समय क्या किया था ? क्या संघ की निंदा की थी ? वे थीं लेकिन संघ के खिलाफ कुछ नहीं बोलीं ! एक जागरुक औरत वह है जो औरतों के हकों के लिए हमेशा सचेत रहे। किरनबेदी-निर्मला सीतारामन आदि पदासीन औरतें पुंसवाद का औजार हैं वैसे ही जैसे संघ के दुर्गावाहिनी टाइप संगठनों में काम करने वाली औरतें पुंसवाद की औजार हैं।पुंसवाद का औजार बनकर औरत बेहद खतरनाक भूमिका अदा करती है वह अधिनायकवाद की हद तक जा सकती है । इंदिरा गांधी इसका साक्षात प्रमाण है। दुनिया में और भी उदाहरण हैं।
औरतों के हकों को वे ही संगठन सुरक्षित रख सकते हैं जो उसके लिए समझौताहीन वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष करते रहे हों। औरतों को इसी तरह के संगठनों में शामिल होकर सक्रिय राजनीति करनी चाहिए। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान रहे कि भाजपा आदि दलों के लिए औरतें सिर्फ मतदाता हैं और इससे ज्यादा उनका कोई महत्व नहीं है। हां, इस प्रसंग मे कांग्रेस को यह श्रेय जाता है कि उसने औरतों की रक्षा के तमाम बेहतरीन कानून बनाने में पहल की, औरतों के संगठनों की मांगों पर समय-समय पर सकारात्मक कदम उठाए, हाल ही में निर्भयाकांड के समय भी कांग्रेस ने बलात्कार विरोधी कानून में सही परिवर्तन किया। कांग्रेस को भाजपा की तुलना में स्त्री पक्षधर दल कह सकते हैं, कम से कम औरतों के लिए इसने लिबरल स्पेस,लिबरल शिक्षा और लिबरल माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। औरतों की रक्षा के जितने भी कानून बने हैं वे सब कांग्रेस ने बनाए हैं। कांग्रेस का यह गुण है कि वह जन-आंदोलन,महिला आंदोलन की आवाज को सुनती रही है और उससे उठे सवालों के ईमानदारी के साथ समाधान खोजती रही है। गर्भपात के अधिकार से लेकर, छेड़खानी,दहेजप्रथा विरोधी तमाम कानूनों को कांग्रेस ने महिला आंदोलन के दबाव में बनाया। इसके विपरीत संघ और भाजपा ने हमेशा औरतों के लिबरल स्पेस और माहौल का विरोध किया है औरतों पर हमले किए हैं। गुजरात से लेकर दिल्ली तक इसके सैंकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं।
अरविंद केजरीवाल का महत्व यह नहीं है कि उसके पास कोई नई बातें हैं,नया विचार है, नया नजरिया है । केजरीवाल का महत्व इसमें है कि उसने ईमानदारी को मूल्यवान बनाया है। वह निर्विवाद रुप से ईमानदार है। वह ईमानदारी के साथ औरतों की रक्षा में खड़ा है,औरतों के ऊपर जुल्म के खिलाफ खडे होने के कारण ही उसको आलोचनाएं झेलनी पड़ रही हैं । यह भी सच है केजरीवाल के जीतने से दिल्ली से औरतों के पक्ष में सजगता बढ़ेगी,भाजपा जीतती है तो औरतों पर हमले बढ़ेगे। औरतों को बचाना है तो हमें दिल्ली के लिबरल स्पेस को बचाना है। भाजपा खुलकर लिबरल स्पेस खत्म कर रही है। इससे औरत और भी कमजोर बनेगी।
औरतें दिल्ली में जमकर वोट करें ,हर उम्मीदवार से औरतों के सवालों पर सवाल करें और देखें कि वो औरतों के बारे में कितना जानता है। औरतों के सवाल मात्र बलात्कार के सवाल नहीं हैं, विकास और सांस्कृतिक सुरक्षा के सवाल भी हैं जिन पर औरतें ,स्त्री पक्षधरता की मांग कर रही हैं । अफसोस की बात है सभी राजनीतिक दल इस पहलू पर चुप हैं , सबने मिलकर औरतों के सवालों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कायदे से कांग्रेस,भाजपा और आप तीनों से औरतों के सवालों पर लिखित में आश्वासन देने के लिए दबाव पैदा करने की जरुरत है ।
दिल्ली में भाजपा नया दल नहीं है।संघ का सबसे ताकतवर संगठन इस शहर में है ,इसके बावजूद दिल्ली में औरतों के प्रति सामान्य शिष्ट संस्कृति नहीं बची है। संघ के अलावा कांग्रेस का व्यापक जनाधार है। सवाल यह है दिल्ली में औरत के लिए असुरक्षित माहौल बनाने में इन दोनों दलों की कोई भूमिका है या नहीं ? वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से दिल्ली में औरतें सुरक्षित महसूस नहीं करतीं ? दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा की ही सरकारें रही हैं, केजरीवाल की तो मात्र49दिन सरकार रही है। आम आदमी पार्टी की उम्र भी बहुत ज्यादा नहीं है। केजरीवाल को राजनीति में आए कुछ साल ही हुए हैं। इसके अलावा यह भी देखें कि दिल्ली की पुलिस व्यवस्था केन्द्र के तहत रही है। दिल्ली में महिला आंदोलन बेहद कमजोर है। लेकिन दिल्ली राजनीति का केन्द्र है।
निर्मला सीतारामन का राजनीतिक अनुभव भी बहुत ज्यादा नहीं है,भाजपा में आने के बाद ही वे राजनीति में सक्रिय हुई हैं, यही हाल किरनबेदी का है, वे चार दशकों से दिल्ली में रह रही हैं,लेकिन राजनीति में आने की उनकी कभी इच्छा नहीं हुई ,वे राजनीति में क्यों नहीं आईं ? भाजपा तो पहले भी थी ,संघ भी था फिर वे राजनीति में शामिल क्यों नहीं हुईं ? आज जब राजनीति में शामिल हुई हैं तो उनको इसका स्पष्टीकरण देना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दलों से और खासकर भाजपा से दूर क्यों थीं ? किरनबेदी को भाजपा में शामिल होने में इतना समय क्यों लगा ? किसने रोका था ?
राजनीति में कोई औरत क्यों शामिल होती है यह वही बेहतर ढ़ंग से बता सकती है। लेकिन एक बात सच है किरनबेदी अबोध और अज्ञानी नहीं हैं । वे जब भाजपा में शामिल हुई हैं तो उनके ज़ेहन में साफ लक्ष्य है कि वे मुख्यमंत्री बनने के लिए शामिल हुई हैं, एक साल पहले भाजपा उनको इस पद का प्रस्ताव देती तो वे भाजपा में चली जातीं,खैर,भाजपा को एक साल लगा तय करने में ! भाजपा भी मजेदार दल है वे किरनबेदी की ईमानदार -कर्मठ छवि को इतने लंबे समय के बाद पहचान पाए ! किरनबेदी और भाजपा के मेल-मुलाकात-संबंध बनाने में हुई देरी से एक बात साफ है कि भाजपा किसी पवित्र लक्ष्य के तहत किरनबेदी को चुनाव नहीं लड़ा रही है और किरनबेदी भी किसी पुण्य कार्य के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं वे अवसरवादी राजनीति के कारण मिले फायदे का लाभ उठाने के लिए चुनाव लड़ रही हैं। चूँकि मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव मिला है इसलिए लड़ रही हैं, औरतों के हितों की रक्षा का सवाल तो कहीं पर भी सामने नहीं है। बुर्जुआदलों में अधिकतर औरतें अवसर के कारण,पद के कारण या पारिवारिक कारणों से शामिल होती हैं। औरतों के हकों के संघर्ष के लिए वे शामिल नहीं होतीं।
औरतों के हितों के लिए संघर्ष करने का न तो किरनबेदी और न निर्मला सीतारामन का कोई इतिहास है।संघ में औरतों के हितों के लिए लड़ने वाली कोई नेत्री नहीं है। इससे भी बड़ा सवाल यह है औरतों के लिए कौन सी राजनीति करनी चाहिए ? क्या औरतों को ग्लैमर या नेतापद की राजनीति करनी चाहिए? औरतों को वह राजनीति करनी चाहिए जिससे पुंसवाद कमजोर हो और स्त्री ताकतवर बने। भाजपा और संघ तो पुंसवाद के हिमालय पर्वत हैं ।किरनबेदी उसकी पुत्री हैं !
स्त्री की चुनौती है पुंसवाद और पुंसवादी राजनीतिक नजरिया। स्त्री तब तक दिल्ली में या देश में असुरक्षित है जब तक वह पुंसवाद से लड़ने को अपना प्रधान लक्ष्य नहीं बनाती । भाजपा या कांग्रेस में शामिल होने से कोई भी औरत ताकतवर और सुरक्षित नहीं बनती। तंदूरकांड से लेकर सोनिया गांधी तक औरत की अवस्था काफी शोचनीय है। इंदिरा गांधी से ज्यादातर ताकतवर कोई महिला नहीं हो सकती। लेकिन वे भी पुंसवाद से जंग को मुख्य़ जंग नहीं बना पायीं। औरतों पर हमले नहीं रोक पायीं। गुजरात में दंगों में हजारों औरतें ही विधवा हुई हैं या यातना की शिकार हुई हैं,1984 के दंगों में भी औरतें ही हमले के केन्द्र में रही हैं। हत्यारे औरतों को ही विधवा बनाकर गए हैं। औरतों के लिए सुरक्षित विकल्प कम से कम भाजपा और कांग्रेस तो नहीं हो सकते। आपातकालीन अनुभव औरतों के लिए नारकीय अनुभव रहा है, उस दौर में संघ ने आपातकाल का समर्थन किया और संघ प्रमुख ने औरतों पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ कोई बयान तक नहीं दिया। यहां तक कि देवराला सतीकांड के समय संघ और उसके संगठनों ने खुलेआम सतीप्रथा की हिमायत की। हम नहीं जानते किरनबेदी ने उस समय क्या किया था ? क्या संघ की निंदा की थी ? वे थीं लेकिन संघ के खिलाफ कुछ नहीं बोलीं ! एक जागरुक औरत वह है जो औरतों के हकों के लिए हमेशा सचेत रहे। किरनबेदी-निर्मला सीतारामन आदि पदासीन औरतें पुंसवाद का औजार हैं वैसे ही जैसे संघ के दुर्गावाहिनी टाइप संगठनों में काम करने वाली औरतें पुंसवाद की औजार हैं।पुंसवाद का औजार बनकर औरत बेहद खतरनाक भूमिका अदा करती है वह अधिनायकवाद की हद तक जा सकती है । इंदिरा गांधी इसका साक्षात प्रमाण है। दुनिया में और भी उदाहरण हैं।
औरतों के हकों को वे ही संगठन सुरक्षित रख सकते हैं जो उसके लिए समझौताहीन वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष करते रहे हों। औरतों को इसी तरह के संगठनों में शामिल होकर सक्रिय राजनीति करनी चाहिए। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान रहे कि भाजपा आदि दलों के लिए औरतें सिर्फ मतदाता हैं और इससे ज्यादा उनका कोई महत्व नहीं है। हां, इस प्रसंग मे कांग्रेस को यह श्रेय जाता है कि उसने औरतों की रक्षा के तमाम बेहतरीन कानून बनाने में पहल की, औरतों के संगठनों की मांगों पर समय-समय पर सकारात्मक कदम उठाए, हाल ही में निर्भयाकांड के समय भी कांग्रेस ने बलात्कार विरोधी कानून में सही परिवर्तन किया। कांग्रेस को भाजपा की तुलना में स्त्री पक्षधर दल कह सकते हैं, कम से कम औरतों के लिए इसने लिबरल स्पेस,लिबरल शिक्षा और लिबरल माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। औरतों की रक्षा के जितने भी कानून बने हैं वे सब कांग्रेस ने बनाए हैं। कांग्रेस का यह गुण है कि वह जन-आंदोलन,महिला आंदोलन की आवाज को सुनती रही है और उससे उठे सवालों के ईमानदारी के साथ समाधान खोजती रही है। गर्भपात के अधिकार से लेकर, छेड़खानी,दहेजप्रथा विरोधी तमाम कानूनों को कांग्रेस ने महिला आंदोलन के दबाव में बनाया। इसके विपरीत संघ और भाजपा ने हमेशा औरतों के लिबरल स्पेस और माहौल का विरोध किया है औरतों पर हमले किए हैं। गुजरात से लेकर दिल्ली तक इसके सैंकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं।
अरविंद केजरीवाल का महत्व यह नहीं है कि उसके पास कोई नई बातें हैं,नया विचार है, नया नजरिया है । केजरीवाल का महत्व इसमें है कि उसने ईमानदारी को मूल्यवान बनाया है। वह निर्विवाद रुप से ईमानदार है। वह ईमानदारी के साथ औरतों की रक्षा में खड़ा है,औरतों के ऊपर जुल्म के खिलाफ खडे होने के कारण ही उसको आलोचनाएं झेलनी पड़ रही हैं । यह भी सच है केजरीवाल के जीतने से दिल्ली से औरतों के पक्ष में सजगता बढ़ेगी,भाजपा जीतती है तो औरतों पर हमले बढ़ेगे। औरतों को बचाना है तो हमें दिल्ली के लिबरल स्पेस को बचाना है। भाजपा खुलकर लिबरल स्पेस खत्म कर रही है। इससे औरत और भी कमजोर बनेगी।
औरतें दिल्ली में जमकर वोट करें ,हर उम्मीदवार से औरतों के सवालों पर सवाल करें और देखें कि वो औरतों के बारे में कितना जानता है। औरतों के सवाल मात्र बलात्कार के सवाल नहीं हैं, विकास और सांस्कृतिक सुरक्षा के सवाल भी हैं जिन पर औरतें ,स्त्री पक्षधरता की मांग कर रही हैं । अफसोस की बात है सभी राजनीतिक दल इस पहलू पर चुप हैं , सबने मिलकर औरतों के सवालों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कायदे से कांग्रेस,भाजपा और आप तीनों से औरतों के सवालों पर लिखित में आश्वासन देने के लिए दबाव पैदा करने की जरुरत है ।
सर, पुंसवाद है क्या? इस पर भी रोशनी डालेंगे तो ज्यादा आसानी होगी समझने में।
जवाब देंहटाएंसर, पुंसवाद है क्या? इस पर भी रोशनी डालेंगे तो ज्यादा आसानी होगी समझने में।
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