सोमवार, 19 जनवरी 2015

माकपा बुद्धिजीवियों का संकट


   
       माकपा के साथ जुड़े बुद्धिजीवियों की सार्वजनिक मीडिया में निष्क्रियता हम सबके गले नहीं उतर रही है। आज माकपा जिस तरह हाशिए से बाहर चली गयी है उसे लेकर सार्वजनिक तौर पर ये बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं ? सामाजिक- राजनीतिक सवालों पर इनका हस्तक्षेप कहीं नजर क्यों नहीं आता ? आज स्थिति यह है कि हम सबके बीच में फेसबुक, वेबसाइट, ब्लॉगिंग से लेकर टीवी जैसे ताक़तवर माध्यम हैं । इसके अलावा दैनिक समाचारपत्र और पत्रिकाएँ भी हैं। लेकिन कहीं पर भी माकपा के बुद्धिजीवी सक्रिय नहीं हैं। एक जमाना था उनकी व्यापक हिस्सेदारी होती थी लेकिन विगत दस सालों में उनकी सार्वजनिक कम्युनिकेशन में हिस्सेदारी घटी है। इस गिरावट के कारणों की पहचान करने की ज़रुरत है । यह सच है कि माकपा के पास बेहतरीन नज़रिए वाले बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा है लेकिन इन दिनों वे सब शांत हैं। इनके शांत रहने से लोकतंत्र और वाम ताक़तों को नुक़सान पहुँचा है। 
     माकपा बुद्धिजीवियों में बहुत कम लोग हैं जो मीडिया - सोशलमीडिया में सक्रिय हैं। इनकी निष्क्रियता का बड़ा कारण है नए यथार्थ को सही गति के साथ पकड़ने में असमर्थता। नया यथार्थ परंपरागत कम्युनिस्ट कम्युनिकेशन के उपकरणों से कम्युनिकेट करने नहीं देता। वह संप्रेषण का संकट पैदा करता है। नया यथार्थ नए क़िस्म के मीडियम में कम्युनिकेशन और नए क़िस्म के कम्युनिकेशन संस्कारों की माँग करता है। माकपा बुद्धिजीवियों के अ-कम्युनिकेशन की बुनियादी जड़ यही है । इन बुद्धिजीवियों का पुराना संस्कार और आदतें इस क़दर दिमाग़ को कैद किए हुए है कि नया सच देखकर भी ये लोग अनदेखा करते हैं। नया सच है लिबरल बनो , लिबरल लिखो और लिबरल मीडियम में रचो-बसो। 
      संचारक्रांति पूर्व की अवस्था में माकपा बुद्धिजीवी सक्रिय था और प्रभावशाली था क्योंकि उसके परंपरागत गैर-लिबरल सोच के लिए मीडिया के ढाँचे में जगह थी लेकिन संचार क्रांति के नए कम्युनिकेशन ढाँचे में वह एकदम मिसफ़िट है। संचार क्रांति का नया ढाँचा कम्युनिकेशन के नए संस्कार और एटीट्यूट की माँग करता है। स्थिति यह है कि पहले पार्टी संगठन की अनेक बातें छिपाकर काम करना संभव था लेकिन अब यह संभव नहीं है। नंदीग्राम - सिंगूर की घटना ने पुराने कम्युनिकेशन तंत्र और उसके प्रयोग करनेवाले नेताओं को पूरी तरह उघाड़कर रख दिया। माकपा की पश्चिम बंगाल में स्थानीय स्तर पर चल रही अ-लोकतांत्रिक हरकतों को राष्ट्रीय क्षितिज पर एक ही झटके में ले जाकर रख दिया , पूरा केन्द्रीय नेतृत्व सिर्फ देखता और राज्य पार्टी नेतृत्व की आम जनता के हाथों जमकर धुलाई हुई, पार्टी पर भयानक हमले हुए और हज़ारों कामरेडों को जानोमाल से हाथ धोना पडा लेकिन इस तबाही के खिलाफ माकपा के बुद्धिजीवी आम जनता में अपना नजरिया रखने में असफल रहे, यहाँ तक कि जनवादी लेखक संघ में सक्रिय माकपा सदस्यों ने इस दिशा में कोई ठोस मीडिया लेखन नहीं किया , सिर्फ इलाहाबाद में जलेसं के राष्ट्रीय सम्मेलन में खाना पूर्ति के तौर पर प्रस्ताव पारित कर दिया गया।पश्चिम बंगाल की स्थिति पर नयापथ से लेकर जनसत्ता तक, फेसबुक से लेकर माकपा संचालित वेबसाइट तक माकपा बौद्धिकों की आवाज कहीं पर भी नजर नहीं आ रही। 
          माकपा बौद्धिकों की सबसे चुनौती है तयशुदा दायरे में सोचना, तयशुदा मित्रों में बोलना- लिखना,यानी वे लोग तयशुदा मार्ग के बाहर निकलकर खुले मंचों पर बहस ही नहीं करते। वे डरते हैं कहीं समस्या न हो जाए। माकपा के हमदर्द के नाते हमारी यह अपील है कि माकपा के बौद्धिकजन पार्टी के बंद दायरे के बाहर निकलकर सामाजिक- राजनीतिक सवालों पर खुलकर बहस करें और लिबरल आचरण करें। 
     भारत जैसे देश में मार्क्सवादी क़तारों को लोकतांत्रिक शिरकत और उदारतावाद के आधार पर ही व्यापक रुप से पुख़्ता बनाया जा सकता है। उदारतावाद का मार्ग अपनाने से पार्टीलाइन समृद्ध होगी। अनेक मसले हैं जिन पर पार्टी नहीं सोचती लेकिन माकपा के बौद्धिकजन तो सोच सकते हैं। मसलन् , पार्टी की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सवाल पर दुविधाएँ हो सकती हैं लेकिन लेखक- बुद्धिजीवियों को दुविधाओं के परे निकलकर बोलना चाहिए। हमारे अनेक हिन्दी लेखक हैं जिनका नाम है,वे फेसबुक में भी हैं ,लेकिन पेरिस हिंसाचार पर वे लिखने से भागते रहे हैं। मैं नाम नहीं लिखना चाहता, क्योंकि यह समस्या व्यक्तियों की नहीं है बल्कि उस पूरी मनोदशा की है जिसमें माकपा बौद्धिकजन कैद हैं। माकपा बौद्धिकजन जितनी जल्दी पुरानी कम्युनिकेशन मानसिकता से बाहर निकल आएँगे देश के लिए यह उतना ही लाभप्रद होगा। 
                 मार्क्सवादी बौद्धिकजन चुप क्यों हैं इसका दूसरा बड़ा कारण है उनकी सार्वजनिक माध्यमों के प्रति अछूतदृष्टि। मसलन्, फेसबुक को वे समय की बर्बादी , लंपटता, और तर्कशास्त्र का अंत मानते हैं। इंटरनेट और सोशलमीडिया के बारे में डरे- सहमे से आते हैं और देखकर चले जाते हैं। हम माकपा के मित्रों से कहना चाहते हैं सोशलमीडिया देखने की नहीं कम्युनिकेट करने की जगह है। विचरण या निगरानी या जासूसी का नहीं वैचारिक खेल का खुला मंच है। यहाँ आप अपने विचारों की प्रस्तुति में वह कौशल पैदा करें जिससे वह अन्य का दिल जीत सके। कुछ नहीं तो अन्य को आप अपने विचारों को पढ़ने केलिए प्रेरित करने का भाषिक कौशल पैदा करें। 
       माकपा बुद्धिजीवी अब तक बंद माध्यमों और इकतरफ़ा कम्युनिकेशन में जीते रहे हैं, अपनी कहते रहे हैं। संचार क्रांति ने इकतरफ़ा कम्युनिकेशन और उपदेशपरक कम्युनिकेशन को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया है। यही वजह है कि माकपा बौद्धिकजन इनदिनों अलगाव और अनजानेपन को सोशलमीडिया में महसूस करते हैं। उनकी फेसबुक वॉल पर कोई कम्युनिकेशन नहीं होता, वे अपनी कहते हैं या शेयर करते हैं, वे कहीं बहस नहीं करते और न अपनी वॉल पर कोई बहस चलाते हैं। इस तरह की स्थिति उनको और भी अप्रासंगिक बना रही है।
    सोशलमीडिया वस्तुत: सार्वजनिक बहुआयामी कम्युनिकेशन है। यहाँ वही सफल है जो लिबरल है और अन्य के विचारों को शेयर करने के लिए जिसके पास जगह है। माकपा के बौद्धिकजन अब तक अन्य के ऊपर अपने विचार थोपते रहे हैं, लेकिन सोशलमीडिया में जो विचार थोपता है उसको कोई नहीं पढ़ता।अन्य को पढ़ो और पढ़ाओ । वे तो परिचित में रमण करते रहते थे और अपने विचारों को अपने अनुकूल विचारों के लोगों में ही रखकर विचारों की जंग लड़ते थे लेकिन अब अपरिचितों में कम्युनिकेट करने की चुनौती है और यह ज्यादा मुश्किल काम है। अपरिचित का दिल मार्क्सवाद से नहीं उदारतावादी कम्युनिकेशन के जरिए ही जीता जा सकता है। बेहतर है माकपा बौद्धिकजन मान जाएँ और अपने को बदल लें। वरना जल्द ही लेखन की मौत पर प्रस्ताव लिखना पड़ेगा ! 
                

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