भारत की शिक्षा प्रणाली खासकर स्कूली शिक्षा पर बातें करते समय हमें बहुत ही कठिन सवालों से गुजरना होगा। मुश्किल यह है कि शिक्षा के कठिन सवालों पर देश में हमने लंबे समय से व्यापक स्तर पर कोई बहस ही नहीं चलायी है, समय-समय पर जब कोई नीति घोषित होती है तो उत्सवधर्मी भाव से कुछ सेमीनार,कन्वेंशन,संगोष्ठियां हो जाती हैं, कुछ प्रस्ताव संसद या विधानसभा में पास हो जाते हैं लेकिन गंभीर विस्तृत चर्चा नहीं होती,जनांदोलन नहीं होता। सवाल यह है कि क्या शिक्षा ऐसा विषय है जिस पर कोई बात ही न की जाए ?
हमने आजादी के बाद शिक्षा का जो ढांचा चुना और नीतिगत रास्ता चुना उस समय भी निचले स्तर पर कोई बड़ी बहस नहीं हुई। बाद में 1990-91 में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के साथ नत्थी होकर हमारे शासकों ने जो शिक्षा का मार्ग चुना उस समय भी जनबहस नहीं हुई,इस बात को कहने का मकसद यह है कि हमारा समाज जानता ही नहीं है कि हमारे यहां शिक्षा का क्या हाल है और उसके सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं।
शिक्षा के विकास का नेहरु मॉडल पूरी तरह देश में असफल रहा,देश के हर कोने में और प्रत्येक समुदाय के पास शिक्षा पहुँचाने में यह मॉडल असफल रहा।इस मॉडल की सबसे बड़ी खामी यही है कि सने आरंभ से ही सीमित शिक्षा के लक्ष्य को सामने रखा । सीमित शिक्षा,सीमितचेतना और सीमित शिरकत यही इस मॉडल की विशेषता थी। “सबको शिक्षा” का नारा महज नारा ही बना रहा। सभी बच्चे स्कूल में हों यह सपना ही रह गया। बच्चों के स्कूल न जाने का अर्थ है उन्हें मानवाधिकार से वंचित रखना। हम इस पहलू पर विचार करें कि शिक्षा के जरिए मानवाधिकारों का हम कहां तक प्रसार करते हैं ?
उल्लेखनीय है मानवाधिकारों पर जिस गति से हमले बढ़ें हैं उस गति से मानवाधिकारों का प्रसार नहीं हुआ है। स्कूली शिक्षा व्यवस्था के स्वरुप पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि भारत सरकार की प्राथमिकताओं में स्कूली शिक्षा कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। जो लोग आए दिन शिक्षा के निजीकरण की हिमायत करते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि स्कूली शिक्षा का समूचा बोझ उठाने या दायित्व पूरा करने में निजी क्षेत्र एकदम असमर्थ है। आज भी स्कूली शिक्षा का मात्र 10फीसदी नेटवर्क निजी क्षेत्र के दायरे में आता है 90फीसदी क्षेत्र सरकारी स्कूलों के दायरे में आता है। आज यदि सारे देश को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाना है तो सालाना 73हजार करोड़ रुपये की हर साल आगामी छह वर्षों तक जरुरत होगी और केन्द्र और राज्य सरकारें यह पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं। अकेले बिहार को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाने के लिए आगामी नौ सालों तक प्रतिवर्ष 9,500करोड़ रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं। इस स्थिति से एक अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं कि स्कूली शिक्षा की अवस्था बहुत बेहतर नहीं है। हमें स्कूली शिक्षा के विकास के लिए सही नीति,समुचित संसाधन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है। आज ज्यादातर स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पैरा टीचर बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं। सारे देश के स्कूलों में तीन लाख से ज्यादा पैराटीचर काम कर रहे हैं। वहीं कॉलेजों में तकरीबन 50फीसदी से ज्यादा पदों पर पार्टटाइम-अतिथि शिक्षक काम कर रहे हैं। यही हाल विश्वविद्यालयों का भी है।यानी देश का बहुत बड़ा हिस्सा ठेके पर काम करने वाले शिक्षकों पर निर्भर है। यही दशा निजी क्षेत्र की है,वहां पर भी कॉन्ट्रेक्ट के आधार पर शिक्षक पढ़ा रहे हैं। स्थिति की भयीवहता का अंदाजा लगाने के लिए एक ही उदाहरण बताना यथेष्ट होगा। पश्चिम बंगाल में कुछ महिने पहले टीइटी शिक्षकों की भर्ती के लिए ऑनलाइन आवेदन मांगे गए थे,उस समय तकरीबन 22लाख छात्रों ने आवेदन किया, राज्य सरकार को इस आंकड़े को देखकर परीक्षा रद्द करनी पड़ी।क्योंकि इतनी बड़ी तादाद में परीक्षा-इंटरव्यू संपन्न करने में तकरीबन दो साल लगते।
शिक्षा ,साक्षरता और उपभोक्ता-
सन् 1990-91 के बाद से देश में स्कूली शिक्षा का अर्थ ही बदल गया है। अब शिक्षा का अर्थ बच्चे के ज्ञान और क्षमता का विकास करना नहीं है। इसके विपरीत शिक्षा का अर्थ है प्रयोजनमूलक शिक्षा या साक्षरता। यानी बाजार की जरुरत के अनुसार पढ़ो,सीखो और बाजार में उतरो। अब साक्षर बनाने पर जोर है, क्षमता बढ़ाने पर जोर नहीं है। जबकि एक जमाने में शिक्षा का अर्थ था बच्चे की ग्रहण क्षमता और ज्ञानक्षमता का विकास करना। लेकिन इन दिनों ये दोनों काम शिक्षाप्रणाली ने छोड़ दिए हैं और अब ज्यादा से ज्यादा साक्षर बनाने पर जोर दिया जा रहा है,इससे स्थिति बेहद खराब हुई है।अब प्रशिक्षित शिक्षकों को पैराटीचरों ने अपदस्थ कर दिया है।मसलन्, बिहार सरकार ने 1991 में घोषित किया कि स्कूल टीचर के लिए प्रशिक्षण आवश्यक नहीं होगा। असल में 1980 के दशक में शिक्षा को साक्षर बनाने की जो प्रक्रिया शुरु हुई वह अपना सारे देश में चक्र पूरा कर चुकी है। आज सारे देश में तकरीबन तीन से लाख से ज्यादा पैरा टीचर हैं। अब शिक्षा पर नहीं साक्षरता पर जोर है।समूची शिक्षा व्यवस्था का वस्तुकरण हो चुका है। अब बच्चों को साक्षर बनाने पर जोर है शिक्षा देकर उनकी बौद्धिक क्षमता बढ़ाने पर जोर नहीं है। जबकि शिक्षा का मकसद है छात्रों में बौद्धिक क्षमता, ग्रहण क्षमता,सामाजिकचेतना और सामाजिक जिम्मेदारी की भावना पैदा करना। आज ये सारे लक्ष्य किनारे कर दिए गए हैं और नौकरी पाना ही प्रधान लक्ष्य है। यही वजह कि अधिकांश छात्र समझ ही नहीं पाते कि समाज में सही या गलत क्या हो रहा है ? वे तो मीडिया से संचालित होकर अपनी राय बनाते हैं। वे मीडिया को ही अपना सर्वे-सर्वा मानते हैं । मीडिया और खासकर विज्ञापन और जनसंपर्क तो उनके लिए खुदा है, उसके हर वाक्य को वे आप्त वाक्य मानते हैं। यही वजह है वे साक्षरता के आगे अपनी चेतना का विकास नहीं कर पाए हैं। उनके पास डिग्री है ,लेकिन चेतना का स्तर साक्षरों के बराबर है।
नई समझ यह बनायी जा रही है कि छात्र को उपभोक्ता मानो। शिक्षा को सेवाक्षेत्र मानो। इस समझ ने छात्र की पहचान को उपभोक्ता की पहचान के जरिए अपदस्थ कर दिया है। शिक्षा का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण हो रहा है ,शिक्षा को बाजार की जरुरतों के साथ जोड़ दिया है। इसके कारण शिक्षा का क्षय तो हुआ ही है,शिक्षकों का भी क्षय हुआ है,एक जमाना था शिक्षक “पब्लिक इंटेलेक्चुअल” हुआ करते थे,लेकिन आज कोई भी शिक्षक इस कोटि में नहीं है।अब शिक्षक भी एक “माल” हैं,स्कूल एक बाजार है और छात्र उसके उपभोक्ता हैं। प्राइवेट स्कूलों से लेकर निजी विश्वविद्यालयों तक छात्रों को उपभोक्ता की तरह सेवाएं प्रदान की जा रही हैं और उनसे हर सेवा के पैसे लिए जाते हैं। इस समूची प्रक्रिया ने छात्र-शिक्षक के संबंध को खत्मकर दिया है. आज शिक्षकों पर दवाब है कि वे बाजार की जरुरतों और मांगों की पूर्ति के लिए पढाएं, इस तरह का पाठ्यक्रम पढाओ जिससे छात्रों को नौकरी मिले,वे काम करे, “काम करने” को इतना महत्व दिया गया है कि सोचने-विचारने के लक्ष्य को बहुत कहीं पीछे छोड़ दिया गया है। इस क्रम में हमने कभी सोचा ही नहीं कि इससे देश ताकतवर बनेगा या कमजोर बनेगा !
सवाल यह है हम लोकतंत्र के लिए “नागरिक” चाहते हैं या “उपभोक्ता” ? यदि “उपभोक्ता” के जरिए लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी.यदि नागरिक के जरिए लोकतंत्र बनाना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी। “उपभोक्ता” और “नागरिक” में गहरा अन्तर्विरोध है। “उपभोक्ता” के “अन्य” के प्रति कोई सामाजिक सरोकार नहीं होते,वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, निहित स्वार्थों को सामाजिकता कहता है।इसके विपरीत “नागरिक” के निजी नहीं सामाजिक स्वार्थ होते हैं,सामाजिक लक्ष्य होते हैं , उसे अपने से ज्यादा “अन्य” की चिन्ता होती है। लोकतंत्र के विकास के लिए हमें “उपभोक्ता”नहीं “नागरिक” चाहिए। लोकतंत्र कभी भी उपभोक्ता के जरिए समृद्ध नहीं होता, नागरिक और नागरिकचेतना के जरिए समृद्ध होता है। शिक्षा के सेवाक्षेत्र में जाने और छात्र के उपभोक्ता बन जाने का प्रकारान्तर से असर यह हुआ कि छात्र-शिक्षक का संबंध खत्म हो गया। दूसरा, “छात्र(उपभोक्ता) हमेशा सही होता है”,इस धारणा को बल मिला। यही वह धारणा है जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि शिक्षकों की भूमिका का छात्र मूल्यांकन करेंगे।यह असल में बाजार की मांग-पूर्ति के गर्भ से उपजा प्रपंच है।तीसरा,दवाब यह है कि शिक्षक वही पढाएं जो छात्र को बाजार में खड़े होने में मदद करे,प्रतिस्पर्धा में खड़े होने में मदद करे। चौथा, यह भ्रम निकाल दें कि निजी स्कूल,निजी क्षेत्र में खुल रहे विश्वविद्यालय आदि शिक्षा के मंदिर हैं ,ये तो “नौकरी” देने वाले संस्थान हैं,शिक्षा देना इनका मकसद नहीं है।निजी क्षेत्र में चल रहे विश्वविद्यालय और स्कूल आदि तो शिक्षा की गुणवत्ता के आधार पर नहीं चल रहे ये तो मीडिया निर्मित इमेज और जनसंपर्क अभियान के जरिए चल रहे हैं। ये कारपोरेट फंडिंग,अनुदान,व्यवसायिक हिस्सेदारी,मुनाफे और नियंत्रण पर आधारित हैं। इन संस्थानों में किसी भी स्तर पर लोकतांत्रिक संरचनाएं और लोकतांत्रिक माहौल नहीं हैं।
देश में स्कूली शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है। कक्षा एक से पांच के बीच पढाई के दौरान बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले विद्यार्थियों की संख्या तकरीबन 61 प्रतिशत है।यही संख्या बिहार में 75प्रतिशत है।इनमें अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों की संख्या काफी ज्यादा है। इनमें अनुसूचित जाति के 70फीसदी और जनजाति के 78प्रतिशत छात्र बीच में ही पढाई छोड़ जाते हैं। आज भी 30प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं पहुँच पाए हैं। बिहार में 50फीसदी बच्चे स्कूल के बाहर हैं। बच्चों को स्कूल से बाहर रखने का अर्थ है उनको मानवाधिकार से वंचित करना। इसी प्रसंग में हम निजी और सरकारी क्षेत्र की भूमिका पर भी सोचें। आज हकीकत यह है कि 90फीसदी स्कूल सरकारी क्षेत्र में हैं और मात्र 10फीसदी स्कूल निजी क्षेत्र में हैं। निजी क्षेत्र में सब बच्चों को पढ़ाने की क्षमता ही नहीं है। मौटे तौर पर स्कूली शिक्षा का स्तर बेहद खराब है।
लोकतांत्रिक शिक्षा व्यवस्था-
सवाल उठता है कि छात्रों को इतिहास,अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ाएंगे तो क्या देश का विकास होगा या देश में लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद मिलेगी ? क्या विज्ञानसम्मत पाठ्यक्रम पढ़ाने मात्र से बेहतर व्यक्ति पैदा होता है ? उत्तर होगा नहीं। वास्तविकता यह है कि हमारे पाठ्यक्रम,छात्र,शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था का “सामाजिक न्याय” की अवधारणा के साथ गहरा अन्तर्विरोध है। हमारे शिक्षक-छात्रों में से अधिकांश कभी सामाजिक न्याय के नजरिए से न तो समाज के बारे में सोचते हैं और न शिक्षा व्यवस्था के बारे में सोचते हैं। हमने तो “मैं” या व्यक्तिवाद के आधार शिक्षा का समूचा ढाँचा तैयार किया है। हम जो पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं वह सामाजिक यथार्थ जोड़ता नहीं है। मसलन्, हमारे छात्र कहीं पर भी यह नहीं जान पाते कि आखिर गेंहूं की बाली कैसी होती है,चमेली का पौधा कैसा होता है। प्रयोजनमूलक किताब और अंततःकिताब ही उनके ज्ञान का सर्वस्व है। इसके कारण एक कमाऊ व्यक्ति तो शिक्षा बना देती है,सिस्टम के लिए आदमी बना देती है लेकिन समाज के लिए “नागरिक” नहीं बना पाती। शिक्षानीति का आधार जब तक “सामाजिक न्याय” और नागरिकचेतना” को नहीं बनाते हम शिक्षा को बाजार के दवाब से मुक्त नहीं कर सकते। समाज में सर्वसत्तावादी राजनीति को हमेशा उपभोक्ता-छात्र से मदद मिलती रही है,यही वह छात्र है जो “अ-राजनीति” की राजनीति रहा है और खुलेआम सर्वसत्तावादी राजनीति के साथ खड़ा नजर आता है।जबकि वैकल्पिक राजनीति करने वालों के लिए जरुरी है कि वे छात्र को नागरिक बनाएं,मानवाधिकारों की चेतना दें,उसे छात्र जीवन में ,शिक्षा में राजनीति करने,शिक्षा के लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का अंग बनाने और लोकतांत्रिक राजनीति करने के लिए तैयार करें। आज बड़े पैमाने पर जिस संविधानविरोधी और धर्मनिरपेक्षताविरोधी चेतना को युवाओं के एक बड़े समूह में सरेआम देख रहे हैं यह असल में वही समुदाय है जिसे उपभोक्ता-छात्र राजनीति ने तैयार किया है। मुश्किल यह है कि सर्वसत्तावाद की राजनीति करने वाले दोनों प्रधान दल कांग्रेस और भाजपा दोनों को “अ-राजनीति” की राजनीति सही लगती है,वे उसकी दैनंदिन अकादमिक जीवन में वकालत करते हैं और इन्हीं दोनों दलों के बीच उपभोक्ता छात्रों का बड़ा समूह आज आपको खड़ा दिखाई देगा।
देशकी शिक्षा नीति राजनीतिक दल और संसद तय कर रहे हैं,फंड भी राजनीतिक नजरिए से तय हो रहा है,संसाधनों का आवंटन भी राजनीति के आधार पर हो रहा है तो फिर स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर छात्रों को राजनीति करने से मना क्यों किया जा रहा है ? कायदे से शिक्षा संस्थानों में संविधानसम्मत राजनीति की गंभीरता के साथ शिक्षा देनी चाहिए। संविधानसम्मत लक्ष्यों के अनुरुप शिक्षकों के दिलो-दिमाग को रुपान्तरित करने, लोकतांत्रिक नजरिया,लोकतांत्रिक संस्कार और आदतें विकसित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। आज देश को संविधानसम्मत विवेक से लैस लोकतांत्रिक शिक्षक चाहिए।
सवाल यह है हम शिक्षा के जरिए किस तरह का व्यक्ति निर्मित करना चाहते हैं ? हम “नागरिक बनाना चाहते हैं या धार्मिक प्राणी या फिर उपभोक्ता बनाना चाहते हैं ? लोकतंत्र के विकास की बुनियाद है “नागरिक” और लोकतंत्र की विचारधारा है मानवाधिकार या संविधानप्रदत्त अधिकार। “नागरिक” बनाए वगैर संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करना संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि शिक्षितों में बहुत बड़ा अंश है जो “नागरिकबोध” से वंचित है,देश में रहते हैं,देश का उपभोग कर रहे हैं लेकिन नागरिकचेतना से शून्य हैं। इसने इफ़रात में मध्यवर्ग के अंदर सर्वसत्तावादी राजनीति का आधार बनाया है।इस तरह के लोग जाने-अनजाने संविधान,लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ आए दिन आचरण करते नजर आते हैं।
आज जो शिक्षित है उसे लोकतंत्र नहीं ,तानाशाही अच्छी लगती है। यही हमारी शिक्षा की आयरनी है। यह वर्ग अपने निहित-स्वार्थों से आगे जाकर देख ही नहीं रहा। यही वह वर्ग है जिसको “सामाजिक न्याय” के नजरिए से चिढ़ है।यही वह वर्ग है जो शिक्षा और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से भागता है। उपेक्षितों से इसने खास दूरी बनायी है। समय-समय उनके हितों पर हमले किए हैं। आज देश में आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सबसे ज्यादा वैचारिक और राजनीतिक हमले इसी वर्ग की ओर से हो रहे हैं और देश के सबसे घृणित राजनीतिक समूह (हिन्दुत्ववादियों) के द्वारा इस समूचे घृणा अभियान को शिक्षितों में नियोजित ढ़ंग से चलाया जा रहा है।एक जमाने में यही वर्ग आपातकाल में श्रीमती इंदिरागांधी और मनमोहन सिंह सरकार के साथ खड़ा था।
लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए जरुरी है कि विश्वविद्यालय से लेकर स्कूल स्तर तक शिक्षा का समूचा तंत्र लोकतांत्रिक,पारदर्शी और जनशिरकत वाला बनाया जाय। शिक्षा में शामिल लोगों की व्यक्तिगत,सामुदायिक और सामाजिक जवाबदेही तय की जाय। आज स्थिति इतनी भयावह है कि सरेआम संविधान प्रदत्त अधिकारों और मूल्यों को चुनौती दी जा रही है और शिक्षितों में से उसका प्रतिवाद नजर नहीं आ रहा,बल्कि उलटे शिक्षितों का बड़ा समूह हमले कर रहा है।आज सतह पर निजीतौर पर जिम्मेदार नागरिक,शिरकत करने वाला नागरिक और न्याय केन्द्रित नागरिक दिख जाएगा। लेकिन हमें तो ऐसा नागरिक चाहिए जो नागरिकचेना के प्रति वचनवद्ध हो। हमें टुकड़ों में नागरिक हकों से प्यार करने वाला नागरिक नहीं चाहिए। एक अन्य चीज है जिस पर गौर करने की जरुरत है वह है अनुकरण और देशभक्ति, ये दोनों तत्व बेहद दुखदायी हैं, इनसे लोकतांत्रिक लक्ष्यों को हासिल करने में मदद नहीं मिलती, उलटे बाधाएं उठ खड़ी होती हैं। इसी तरह पड़ोसी से अच्छा बर्ताव या ईमानदारी पर अतिरिक्त जोर देने की जरुरत नहीं है ये तो लोकतंत्र के अंतर्निहित गुण हैं।
हमारी शिक्षा का तंत्र वस्तुतःगूंगे-बहरों का तंत्र है। इसमें आने वाले समाज की बहसें और मसलों पर वैचारिक सरगर्मी नजर नहीं आती। क्या हम मान बैठे हैं कि यथास्थिति बनाए रखें ? भविष्य में कुछ भी बदलना नहीं चाहते ? भविष्य के सवालों और समस्याओं पर अकादमिक जगत में सन्नाटा बताता है हमारा शिक्षित समुदाय किस कदर समाज निरपेक्ष है और उसे समाज के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है। यह उसके परजीवी विवेक का आदर्श नमूना है। सवाल यह है हमारी शिक्षा व्यवस्था यथास्थितिवादी है या परिवर्तनशील है ? बहुलतावादी संवेदना निर्मित करती है या धार्मिकचेतना निर्मित करती है ? साम्प्रदायिक ,जातिगत और धार्मिकभेदों को यह समाप्त क्यों नहीं कर पाई ? सच तो यही है कि बहुलतावाद के ऊपरी आवरण को हटा दें तो शिक्षा ने जमीनी स्तर पर भेदों की समाप्ति करने की बजाय भेदों की सृष्टि करने वाली संस्कृति,मूल्य और मानसिकता को निर्मित किया है।
लोकतांत्रिक शिक्षा का लक्ष्य है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। जबकि उपभोक्ता केन्द्रित मौजूदा शिक्षा का लक्ष्य है सर्वसत्तावादी विवेक पैदा करना। इसलिए मौजूदा मॉडल को अंदर और बाहर हर स्तर पर आलोचना के केन्द्र में रखने की जरुरत है। लोकतांत्रिक शिक्षा का परिवेश सामाजिक बहस के नए मुद्दों को जन्म दे सकता है,लोकतंत्र में पॉजिटिव भूमिका निभाने का माहौल बना सकता है। शिक्षकों की पॉजिटिव इमेज बना सकता है और छात्र को नागरिक बना सकता है।
लोकतांत्रिक अध्यापक- लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य,लोकतांत्रिक अकादमिक परिवेश और लोकतांत्रिक शिक्षक का होना जरुरी है। लोकतांत्रिक शिक्षक के बिना लोकतांत्रिक छात्र का निर्माण संभव नहीं है। शिक्षा को बदलने के लिए जरुरी है कि शिक्षकों के नजरिए,संस्कार,आदतें आदि को लोकतांत्रिक बनाया जाय, शिक्षक अपना कायाकल्प करें। लोकतंत्र की धारणा को स्पष्ट तौर पर समझें,लोकतंत्र का मतलब अ-राजनीतिक तंत्र नहीं है,वोट देना मात्र नहीं है,लोकतांत्रिक समाज का मतलब अ-राजनीतिक समाज नहीं है। लोकतंत्र का मतलब है राजनीतिक समाज,ऐसा समाज जिसमें समाज के सभी वर्गों और समुदायों के विकास,मूल्य ,आचार-व्यवहार आदि को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर परखा जाय जो मूल्य खरे उतरें उन्हें बचाएं और जो अप्रासंगिक हैं उनको ठुकराएं। समानता, धर्मनिरपेक्षता ,सामाजिक न्याय और समाजवाद इसके भावी लक्ष्य हैं जिनको प्राप्त करना है।
आज हमारे बीच में इस तरह के लोग है जो शिक्षा के लोकतांत्रिकीकरण का खुलकर विरोध करते हैं और कहते हैं कि शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखो। इस तरह के लोगों से यही कहना है कि लोकतंत्र में रहना है तो राजनीतिक होकर रहना होगा। राजनीति के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है। लोकतांत्रिक राजनीतिक शिरकत और लोकतांत्रिक राजनीतिकबोध के बिना संवैधानिक मान्यताओं और मूल्यों की रक्षा करना संभव नहीं है। देश में राजनीतिकदलों और संसद से ऊपर है संविधान और उसकी मान्यताएं,हमें किसी भी कीमत पर संविधान के दर्जे को कम नहीं होने देना चाहिए। आज विभिन्न तरीकों से संविधान प्रदत्त मूल्यों और हकों पर हमले हो रहे हैं इन हमलों के खिलाफ आम जनता के साथ शिक्षित समुदाय को मिलकर संघर्ष करने की जरुरत है।आने वाले समय में मोदी सरकार नई शिक्षा नीति लाने जा रही है ,इस सरकार के रंग-ढ़ंग को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ये लोग किस रास्ते देश की शिक्षा व्यवस्था को ले जाना चाहते हैं। यही वजह है हमें अभी से शिक्षा जगत में विभिन्न स्तरों पर आने वाली शिक्षा नीति के बारे में सचेत होकर जागरण अभियान चलाने की जरुरत है। अब तक के शिक्षा के अनुभवों को शेयर करने की जरुरत है,नए हमलों को विस्तार से अकादमिक जगत को बताने की जरुरत है,क्योंकि यह वर्ग सम-सामयिक यथार्थ से पूरी तरह विच्छिन्न है और उसे सम-सामयिक यथार्थ के लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ने की जरुरत है।
शिक्षा के मौजूदा ढाँचे पर बातें करते समय एक पहलू है सरकारी नीति का,दूसरा पहलू है शिक्षक की अवधारणा का और तीसरा पहलू है छात्र के स्वरुप का। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र के बहुमुखी विकास में मदद करना हमारी शिक्षा प्रणाली का बुनियादी लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए जरुरी है कि हम लोकतंत्र की समझ बेहतर और गंभीर बनाएं।एक शिक्षक को आचार-व्यवहार और परिप्रेक्ष्य के लिहाज से लोकतांत्रिक होना चाहिए।वह अपने विषय़ को गंभीरता से जाने , छात्रों में अध्ययन और श्रम के प्रति गहन रुचि पैदा करने की उसमें क्षमता हो।वह पढ़ाई के अत्याधुनिक तरीकों से वाकिफ हो,अपने काम की जगह स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखना सिखाए,पुस्तकीय सामग्री और कम्युनिकेशन उपकरणों के उपयोग के तरीकों से परिचित हो।छात्रों में सबके साझे कार्यों में शिरकत की भावना पैदा करे, सामाजिक शिरकत और पहलकदमी के लिए प्रेरित करे। साथ ही छात्रों में समाज के प्रति सही दृष्टिकोण पैदा करे। हम यह ध्यान रखें कि शिक्षक के आचार-व्यवहार का छात्रों की सक्रियता पर असर पड़ता है। जो शिक्षक अपने छात्रों को सक्रिय न कर सके ,वह कमजोर शिक्षक माना जाएगा। छात्र में सक्रियता,शिरकत और पहलकदमी की भावना निर्मित करने में स्कूल शिक्षक बुनियाद निर्माण का काम कर सकते हैं। शिक्षा में सक्रियता का अर्थ है बच्चों को सोद्देश्य बौद्धिक क्रियाओं की ओर सक्रिय करना,बौद्धिक क्रिया और वस्तुजगत की एकता पर जोर देना। यदि यह प्रक्रिया एक बार आरंभ हो जाती है तो छात्रों को सही-गलत का फैसला करने में मदद मिलती है। साथ ही श्रम के महत्व को बच्चों के आचरण का अंग बनाना भी जरुरी है। हमारे बच्चे श्रम को पसंद नहीं करते,अपना काम अपने आप नहीं करते।इससे उनके अंदर श्रम विरोधी नजरिया पैदा होता है।