सोमवार, 6 जून 2011

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कुछ कविताएं




 मैं नहीं चाहता- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह
बाजार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा
एकान्त में किसी सूने वृक्ष के नीच
गिरकर सूख जाना बेहतर है।

मैं नहीं चाहता कि मुझे
झाड़-पोंछकर दूकान पर सजाया जाय,
दिन -भर मोल-तोल के बाद
फिर पेटियों में रख दिया जाय,
और फिर एक खरीदार से
दूसरे खरीदार की प्रतीक्षा में
यह जीवन अर्थहीन हो जाये।


जूता-1- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
मेरा जूता
जगह-जगह से फट गया है
धरती चुभ रही है
मैं रूक गया हूँ
जूते से पूछता हूँ-
' आगे क्यों नहीं चलते ?'
जूता पलटकर जबाब देता है-
' मैं अब भी तैयार हूँ
यदि तुम चलो !'
मैं चुप रह जाता हूँ
कैसे कहूँ कि मैं भी
जगह-जगह से फट गया हूँ।

जूता-2- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
जब से मैंने
नया जूता खरीदा है
मेरी चाल बदल गयी है
पर जमाने की चाल वही है।
दोस्त कहते हैं
मैं बायें पैर पर ज्यादा वजन डालने लगा हूँ
बात यह है
कि दाहिने पैर की तकलीफ टालने लगा हूँ;

जूता-3- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
उसने कहा-
मेरे जूते की पालिश में
तुम अपना चेहरा देख सकते हो।
मैंने तिलमिलाकर सोचा
वे लोग खुशनसीब हैं
जिनके चेहरे नहीं हैं।
फिर ख्याल आया
नहीं वे लोग भले आदमी हैं
जो जूते नहीं पहनते।

रसोई -सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
मैं नहीं जानता
भगौने में क्या पक रहा है ?
और उसके दिल में क्या ?
और क्या उनके विचारों में
जो बाहर सिर झुकाए बैठे हैं ?

केवल इतना जानता हूँ
भगौना गर्म है.
और वह आज उदास नहीं है,
और बाहर बैठे लोग कहीं जाने की
                       तैयारी कर रहे हैं।
वह बार -बार
कुछ गुनगुनाती है,
फिर भगौने का ढक्कन उठा
                     झाँकती है
और आग तेज करती है,
बाहर लोगों के जोर-जोर से
बोलने की आवाज आती हैः
'बहुत हो चुका,अब ऐसे नहीं चलेगा ?'

मैं नहीं जानता
इसके बाद क्या होगा ?






सुर्ख़ हथेलियाँ - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियो में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बन्द करते।
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते...
पहली बार मैंने देखा।





पोस्टमार्टम की रिपोर्ट- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
गोली खाकर
एक के मुँह से निकला-
'राम'

दूसरे मुँह से निकला-
'माओ'

लेकिन तीसरे के मुँह से निकला-
'आलू'

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।





भूख- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।

झपटता बाज,
फन उठाये साँप,
दो पैरों पर खड़ी
काँटों से नन्हीं पत्तियाँ खाती बकरी,
दबे पाँव झाडियों में चलता चीता,
डाल पर उल्टा लटक
फल कुतरता तोता,
या इन सब की जगह
आदमी होता।

जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।




इन्तज़ार-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

इंतजार
शत्रु है
उस पर यकीन मत करो।

वह जाने किन झाडि़यों
और पहाडि़यों में
घात लगाए बैठा रहता है
और हम पत्तियों की चरमराहट पर
कान लगाए रहते हैं।

इन्तज़ार
शत्रु है
उस पर यकीन करो।

वह छापामार सैनिक की तरह
खुद अँधेरे में रहता है
और हमें उजाले में खड़ा देखता रहता है,
मौके की तलाश में
और हम अँधेरे में टॉर्च की रोशनी ही
                         फेंकते रहते हैं।
इन्तज़ार
शत्रु है
उस पर यकीन मत करो।

वह हमें नदी बनाकर
हमारे बीच से ही
मछली की तरह अदेखा तैर जाता है
और हम लहरों के असंख्य हाथों से
उसे टटोलते रहते हैं।

इन्तज़ार
शत्रु है
उस पर यकीन करो।

उस से बचो।
जो पाना है फौरन पा लो,
जो करना है फौरन कर लो।

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