अस्मिता का सवाल तदर्थ सवाल नहीं है। इसे चलताऊ ढ़ंग से नहीं देखना चाहिए । अस्मिता की पेचीदगियों और वैचारिक सरणियों पर हिन्दी में संवाद कम हो रहा है। खासकर मार्क्सवादी आलोचना ने अस्मिता से जुड़े साहित्यिक सवालों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। अस्मिता पर चलताऊ नजरिए को देखने के लिहाज से नामवरजी के अस्मिता सम्बन्धी विचारों को विश्लेषित करना समीचीन होगा। नामवर सिंह ने लिखा है ,' भारतीय नवजागरण की मूल समस्या है भारतेन्दु के शब्दों में 'स्वत्व निज भारत गहै।' यह 'स्वत्व' वही है जिसे आजकल 'अस्मिता' कहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता इस स्वत्व-प्राप्ति की पहली शर्त है। नवजागरण के उन्नायक इस आवश्यकता का अनुभव न करते रहे होंगे, यह सोचना कठिन है, फिर भी तथ्य यही है कि नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्य में राजनीतिक स्वाधीनता का स्पष्ट स्वर कम ही सुनाई पड़ता है।' ( हिन्दी का गद्यपर्व, 2010, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.87) यह ‘स्वत्व’ भाषायी अस्मिता के संदर्भ में आया है। इसका अस्मिता के विराट फलक के साथ घालमेल नहीं कर सकते। 'स्वत्व' का अर्थ अस्मिता है तो इसका अर्थ यह भी है कि आधुनिककाल के इतिहास का आरंभ 'अस्मिता की राजनीति' से होता है। इतिहासलेखन का यह नया आयाम है। उल्लेखनीय है 'अस्मिता की राजनीति' का पूंजीवाद से माँ-बेटी का रिश्ता है। अस्मिता को पूंजीवाद से अलग करके नहीं देखा जा सकता। 'अस्मिता की राजनीति' और पूंजीवाद अन्तर्ग्रथित हैं। साहित्येतिहास में इसके आयाम अलग होंगे। अस्मिता को इतिहास का हिस्सा बनाने से वे सारे वर्गीकरण समस्यामूलक बन जाते हैं जो अब तक प्रचलन में हैं। अस्मिता के आधार पर देखने का अर्थ है कि हमें इतिहास के लिए नए किस्म के वर्गीकरण बनाने होंगे। नए वर्गीकरण क्या होंगे? इस पर नामवर सिंह चुप हैं । 'अस्मिता' को आधार बनाने से नवजागरण भी समस्यामूलक बन जाता है। 'अस्मिता की राजनीति' के परिप्रेक्ष्य के लिए नवजागरण अप्रासंगिक है। मसलन् स्त्री-साहित्य और दलित-साहित्य के आलोचक नवजागरण की परंपरा से इन साहित्य रुपों को जोड़कर नहीं देखते। भारतेन्दु ने 'स्वत्व' के बहाने जिस अस्मिता की बात कही है वह 'सामुदायिक अस्मिता' है। वह निजी अस्मिता नहीं है। भाषायी अस्मिता का सवाल 'सामुदायिक अस्मिता' से जुडा है। 'सामुदायिक अस्मिता' को आधार बनाकर हमने कभी साहित्य-चर्चा नहीं की है।
हिंदी नवजागरण में सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषायी विविधताओं के लिए कोई स्थान नहीं है । निजभाषा के नाम पर सिर्फ खड़ीबोली हिंदी पर जोर दिया गया। हिंदीभाषीक्षेत्र में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं और बोलियों के साहित्य को इस विमर्श का अंग नहीं बनाया गया । साथ ही अन्य भाषाओं की उपेक्षा हुई । साथ ही दलितों और अल्पसंख्यकों के लेखन और जीवन की उपेक्षा हुई । इस नजरिए से देखें तो हिंदी नवजागरण पर बंगला नवजागरण का असर नजर आता है। बंगला नवजागरण ने दलितों और अल्पसंख्यकों को सम्बोधित नहीं किया उसके केन्द्र में सवर्ण थे। बंगला नवजागरण में दलितलेखन गायब है ,हिन्दी नवजागरण में भी दलित और अल्पसंख्यकों का लेखन नदारत है। उर्दू के प्रति बेगानापन है। अलीगढ़ आंदोलन के बारे में बेरूखी है। हिन्दीभाषी क्षेत्र की खड़ीबोली हिन्दी के अलावा अन्य बोलियों और भाषाओं के विकास की चिन्ता नदारत है।
नामवर सिंह की 'स्वत्व' की धारणा अमूर्त है। अमूर्तता का दुरूपयोग हो सकता है। 'स्वत्व' को सब पर लागू किया जा सकता है। लेकिन मामला सबका नहीं है। 'स्वत्व' का संबंध खड़ीबोली हिन्दी के विकास से है। मजेदार बात यह है कि जातीयभाषा और जातीयसाहित्य की अवधारणा के बहाने भी खड़ीबोली हिन्दी के साहित्य को लेकर ही लिखा गया है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में पूंजीवाद का असमान विकास हुआ है। इसके कारण अस्मिता की राजनीति और अस्मिताओं का भी असमान विकास हुआ है। भाषायी अस्मिता एक अवस्था के बाद बिखरनी आरंभ हो जाती है। उसे सत्तातंत्र, बाजार, विज्ञापन, प्रलोभन, प्रमोशन आदि के आधार पर टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता।
भाषायी अस्मिता का मॉडल वर्चस्ववादी मॉडल है। इसके आधार पर राष्ट्र-राज्य का निर्माण संभव है लेकिन यह मॉडल टिकाऊ नहीं है। इस मॉडल में भाषायी समानता का अभाव है । पूंजीवाद अपने स्वाभाविक विकास क्रम में भाषायी वैषम्य को हवा देता है और यह काम मीडिया, विज्ञापन, संपर्क भाषा, राजभाषा आदि के जरिए करता है । हिन्दीभाषी क्षेत्र में खड़ीबोली हिन्दी को लेकर जो प्रतिवादी स्वर सुनाई दे रहे हैं वे इस धारणा की पुष्टि करते हैं।
'स्वत्व' तो हिन्दी जातीयता है। यह सांस्कृतिक वर्चस्व का नया रुप है । यह सांस्कृतिक असमानता को वैधता प्रदान करता है । जातीयता में वर्चस्व बना रहता है। वर्चस्व खत्म हो इसके लिए जरूरी है कि सभी भाषाओं और बोलियों के समान विकास की बात की जाय । एक नहीं अनेक भाषाओं के इतिहास की बात की जाय। हिन्दी में खड़ीबोली हिन्दी का साहित्य ही इतिहास का अंग है। इस क्षेत्र की अन्य भाषाओं और बोलियों का साहित्य इसमें शामिल नहीं है । फलत: इस क्षेत्र की अन्य भाषाओं और बोलियों के विकास की आधुनिक संरचनाओं का विकास नहीं हो पाया। भाषायी समानता के लिए यह ज़रुरी है कि प्रत्येक भाषा और साहित्य अपना स्वतंत्र इतिहास हो, उनके विकास की स्वतंत्र और स्वायत्त संरचनाएं निर्मित की जाएं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि जातीयता के आधार पर प्रशासनिक संरचनाएं न बनायी जाएं। मसलन् जातीयता के आधार पर राज्यों का गठन अब स्वयं में दिक्कतें खड़ी कर रहा है। जातीयता के आधार की बजाय उदार-व्यावहारिक -प्रशासनिक राज्य संरचनाएं विकसित की जाएं।
नामवर सिंह का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है कि वे घोषित करते हैं कि 'स्वत्व' का अर्थ है-अस्मिता और परिभाषा देते हैं नवजागरण की। सवाल यह है अस्मिता की परिभाषा देने में परेशानी क्या थी ? क्यों नामवर सिंह ने नवजागरण की परिभाषा पर ही केन्द्रित किया ? नवजागरण की परिभाषा के साथ अस्मिता की परिभाषा भी यदि दे दी जाती तो अंततः नवजागरण का सारा विचारतंत्र धराशायी हो जाता। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब भारतेन्दु ने अस्मिता के सवाल से अपने साहित्य और आधुनिककाल के साहित्य का आरंभ किया है तो अस्मिता की अवधारणा पर बहस होनी चाहिए थी लेकिन जैसाकि हिन्दी की परंपरा है मुद्दा कुछ होता है और बहस किसी और मुद्दे पर होती है।
नामवर सिंह जानते हैं नवजागरण की धारणा पर बहस होगी तो परिणाम कुछ और निकलेंगे और अस्मिता की धारणा पर बहस होगी तो परिणाम एकदम भिन्न आएंगे। यहां तक कि आधुनिक आलोचना के समूचे पैराडाइम को ही बदलना पड़ेगा। लेकिन नामवर सिंह ने नवजागरण का मार्ग चुना। अस्मिता का जिक्रभर करके छोड़ दिया। नामवर सिंह की यह शैली है 'ज़िक्र करो और छोड़ दो', जबकि एक आलोचक के नाते उनको अस्मिता के सवाल को गंभीरता के साथ विस्तार में जाकर विश्लेषित करना चाहिए।
नवजागरण की प्रथम शर्त्त है पुराने सामाजिक भेदों और रूढ़ियों का खात्मा और उनकी जगह नए पूंजीवादी भेदों और रूढ़ियों का जन्म। सवाल यह है अस्मिता पुराने किस रूप, रुढ़ि या सामाजिक संबंध का विकल्प है? भारत में पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक भेद बने रहते हैं और नए भेदों और रूढ़ियों का पूंजीवादी असमान विकास के साथ असमान विकास होता है। यहां अनेक क्षेत्रों में नया मूल्य पुराने मूल्य को नष्ट करके जन्म नहीं लेता, बल्कि पुराने के साथ सामंजस्य पैदा करके विकास करता है। इसके कारण विद्रूप सामाजिक जीवनमूल्यों का विकास होता है। यही वजह है हिन्दी में एक ओर नवजागरण है तो दूसरी ओर साहित्यिक भेदभाव भी है। साहित्यिक भेदभाव का आदर्श उदाहरण है स्त्री-साहित्य और दलित-साहित्य की आधुनिककाल के इतिहास लेखन में उपेक्षा। सन् 1980 के पहले साहित्य समीक्षा के मुख्यधारा विमर्श से ये दोनों साहित्य रूप गायब हैं। इस नजरिए का दूसरा आदर्श नमूना है प्रधान और गौण प्रवृत्ति के आधार पर साहित्यिक प्रवृत्तियों का साहित्य के इतिहास और आलोचना में वर्गीकरण । 'स्वत्व' के पर्याय के रूप में खड़ीबोली हिन्दी के साहित्य को समूचे हिन्दीभाषी क्षेत्र की अभिव्यंजना के रूप में व्याख्यायित किया गया। लेकिन खड़ीबोली हिन्दी समूचे हिन्दीक्षेत्र की भाषाओं और बोलियों को प्रतिबिम्बित नहीं करती। खड़ीबोली हिन्दी कॉमन कम्युनिकेशन की भाषा है लेकिन यह हिन्दीभाषी क्षेत्र के वैविध्य को प्रतिबिम्बित नहीं करती। अपने सामाजिक आधार के विकास के लिए इस भाषा के पक्षधरों ने हिन्दीभाषी क्षेत्र की अन्य भाषाओं और बोलियों की घनघोर उपेक्षा की है। इसके कारण भीतर ही भीतर भाषायी विद्वेष पैदा हुआ है। इसके दर्शन हमें झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड में साफ देखने को मिल रहे हैं वहां पर राज्य प्रशासन ने राज्य की प्रथमभाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी को मानने से साफ इंकार कर दिया है।
भाषायी विकास की समान समझ के आधार पर हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं के विकास की ओर राज्य और केन्द्र सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया। यहां तक कि लेखक संगठनों और निजी तौर पर लेखकों ने भी ध्यान नहीं दिया। अस्मिता के आधार पर भोजपुरी, अवधी, मैथिली, ब्रजभाषा आदि को हमने कभी नहीं देखा। हिंदी-उर्दू के लेखकों के लिए 'प्रलेसं' और 'जलेसं' बनाए गए। लेकिन अवधी, भोजपुरी आदि के लेखकों और उनके साहित्य के सवालों को लेखक संगठनों के घोषणापत्रों में कभी नहीं उठाया गया । इससे पता चलता है कि लेखकों के मन में राजनीतिक आग्रहों के कारण हिन्दी- उर्दू के सवाल बहसतलब रहे । साथ ही यह भी संदेश निकलता है कि लेखक संगठन भाषायी समानता के आधार पर नहीं सोच रहे हैं।
यदि नवजागरण के पैमाने से भाषा और उसके साहित्य को देखेंगे तो एक भाषा प्रमुख होगी, बाकी हाशिए पर रहेंगी। सवाल यह भी है कि नवजागरण के जिन पैमानों को खड़ीबोली हिन्दी में लागू किया जाता है वे पैमाने हिन्दीभाषी क्षेत्र की अन्यभाषाओं पर लागू क्यों नहीं किए गए? जबकि अस्मिता के पैमाने समान रूप से सभी भाषाओं और बोलियों पर लागू किए जा सकते हैं। मसलन् अस्मिता में सभी भाषायी अस्मिताएं समान हैं, चाहे उनके बोलने वालों की संख्या कम हो या ज्यादा। सभी भाषाओं और बोलियों का साहित्य समान है। इसमें प्राथमिक और गौण, केन्द्र और हाशिए की धारणा लागू नहीं की जा सकती। किसी भाषा विशेष को खास सुविधाएं नहीं दी जा सकतीं। लेकिन व्यवहार में यही हुआ ।
अस्मिता के आधार पर सभी भाषाओं को समान मानकर मूल्यांकन करेंगे तो एक ही क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं के बीच के भेद, विकास की प्रक्रिया में भेद, भाषायी संरचनाओं में भेद और आम नागरिकों के संस्कार और आदतों में भेद सामने आएंगे। यह धारणा टूटेगी कि हिन्दीभाषी एक जैसे होते हैं। जिस तरह भाषा अस्मिता का अंग है, वैसे ही धर्म और जाति भी अस्मिता का अंग हैं। साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावाद, फंडामेंटलिज्म, पुनरूत्थानवाद, युद्ध और पृथकतावाद भी अस्मिता का अंग है। इनमें कौन सी अस्मिता कब प्रमुखता अर्जित कर लेगी कहना मुश्किल है।
पूंजीवादी आर्थिक विकास की प्रक्रिया अस्मिता को व्यापक अभिव्यक्ति देती है। अस्मिताएं एक-दूसरे में अन्तर्ग्रथित रहती हैं। भाषायी अस्मिता कब धार्मिक पहचान में रुपान्तरित हो जाए कहना मुश्किल है, इसी तरह धार्मिक अस्मिता कब साम्प्रदायिक या पुनर्रुत्थानवादी पहचान में रुपान्तरित हो जाय यह तय करना संभव नहीं है। हिंदी के साथ यह घटा है। हिंदी और उर्दू को धार्मिक पहचान के साथ नत्थी करने में अंग्रेजों को सफलता मिली । हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की अस्मिता के साथ जोड़ा दिया गया । भाषा को यदि धर्म से जोड़ा जाएगा तो इससे सामाजिक विभाजन का खतरा पैदा हो सकता है ।
सामाजिक विभाजन के कई राजनीतिक रुप हैं जैसे साम्प्रदायिकता, अंध क्षेत्रीयतावाद, स्थानीयतावाद आदि । कहने का तात्पर्य है कि भाषाभेद के सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिकभेद में रुपान्तरित होने की संभावनाएं रहती हैं । मूल बात यह कि अस्मिता रपटन है। इस पर स्थिर होकर खड़े नहीं हो सकते। यह अल्पकालिक है इस पर दीर्घकालिक समझ नहीं बनायी जा सकती। भाषा के आधार पर सामाजिक एकीकरण टिकाऊ कम और समस्यामूलक ज़्यादा है । नामवर सिंह जब भारतेन्दु के कथन के आधार पर अस्मिता की बात कहते हैं तो वे सरलीकरणों का सहारा लेते हैं और अस्मिता में निहित अंतर्विरोधों और वर्चस्व की अनदेखी करते हैं ।
अस्मिता का बुनियादी तौर पर बुर्जुआ विचारधारा से अन्तर्विरोध नहीं है बल्कि वह तो उसका अंग है । जो अंतर्विरोध नजर आता है वह सत्ताधारी विचारधारा के पैराडाइम में ही अपना विकास करता है। नामवर सिंह और रामविलास शर्मा में अस्मिता को लेकर मतभेद नहीं है। मतभेद है अस्मिता की प्राथमिकता को लेकर। नामवरसिंह के लिए निजभाषा की अस्मिता प्रमुख है तो रामविलास शर्मा के लिए 1857 का संग्राम प्रमुख है। लेकिन भाषा और युद्ध तो दोनों ही अस्मिता के अंग हैं और दोनों का परिणाम है बुर्जुआ वर्ग और विचारधारा के वर्चस्व का निर्माण करना ।
किसी भी अवधारणा या फिनोमिना पर विचार करते समय उसके सामाजिक-राजनीति-आर्थिक विचारधारात्मक परिणामों को देखा जाना चाहिए । 'स्वत्व' या भाषायी अस्मिता की परिणति या 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की परिणति किसमें होती है, यह देखें। या यों कह सकते हैं कि अस्मिता पर विचार करते हुए हम जाना कहां चाहते हैं और पहुँच कहां रहे हैं, इन दोनों पहलुओं पर विचार करना चाहिए। नवजागरण बंगाल का हो या हिन्दी का वह बुर्जुआ विचारधारा के पैराडाइम का अतिक्रमण नहीं करता। साथ ही अस्मिता के दायरे के बाहर नहीं निकल पाता। अस्मिता के बाहर साहित्य, कला, राजनीति को लाने के प्रयास 20वीं शताब्दी में ही सामने आते हैं।
सन् 1857 का संग्राम जो अंग्रेजों के खिलाफ पहला युद्ध था, उस युद्ध की साहित्यिक अभिव्यक्तियों पर खूब चर्चा हुई है लेकिन युद्ध की तबाही और युद्धजनित सामाजिक अवस्था पर नामवर सिंह एकदम चुप हैं। 1857 से लेखक प्रभावित थे या नहीं, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है युद्ध का व्यापक दीर्घकालिक प्रभाव हमारे साहित्यकारों की नजरों से ओझल क्यों रहा और समीक्षकों ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया? सन् सत्तावन के युद्ध में हम अंग्रेजों से हारे थे। इस युद्ध ने भारतीय सामंती राजतंत्र की कमर तोडकर रख दी थी। इसके अलावा महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उस समय की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में या कालान्तर में आए भारतेन्दुमंडल के लेखन में इस युद्ध के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर कोई खास सामग्री नहीं मिलती। भारतेन्दुयुगीन या उसके पहले का हिंदी मीडिया, इस ओर ध्यान क्यों नहीं दे पाया ? इस युद्ध में भारत की पराजय के बाद भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया। इस युद्ध से उनलोगों को लाभ हुआ जो अंग्रेजों के साथ थे बल्कि आम हिन्दुस्तान के लिए यह गुलामी लेकर आया। नए वर्ग के रूप में पैदा हुए मध्यवर्ग और रैनेसांपंथियों या धार्मिक-समाजसुधारकों के बीच में इस युद्ध में भारत की पराजय को लेकर अंग्रेजों के प्रति घृणा कम नजर आती है। बल्कि यह देखने में आता है कि मध्यवर्ग के अधिकांश बुद्धिजीवी आंखें बंद करके अंग्रेजों की प्रशंसा में लगे थे और युद्ध के बाद जो भारत उभरकर सामने आ रहा था उसकी ओर इनका कम ध्यान था। युद्ध के बाद जो भारत सामने आया उसमें बड़े पैमाने पर गरीबी नजर आती है। अकाल और महामारियां नजर आती हैं। 19वीं सदी में कोलकाता में बड़े पैमाने पर वेश्याओं के कोठे पैदा होते हैं।
अकाल और वेश्यावृत्ति इस दौर के दो बड़े फिनोमिना हैं। जिन पर लेखकों-आलोचकों का ध्यान नहीं गया । वेश्याओं और अकाल पीडितों के सवाल नवजागरण विमर्श से गायब क्यों हैं ? 19वीं सदी में भारतेन्दुमंडल के लेखक किस तरह की स्त्री इमेज पेश कर रहे थे ? क्या वह सामंती या बुर्जुआ स्त्री के रुपों से भिन्न स्त्री इमेज है ?
सन् 1857 का संग्राम सामान्य संग्राम नहीं था इसने व्यापक तौर पर समाज को प्रभावित किया था। मनुष्य और प्रकृति और ईश्वर के बीच में इसने विशाल खाई पैदा कर दी। कायदे से युद्ध और मनुष्य के संबंध पर बहस होनी चाहिए थी, लेकिन बहस हुई समाजसुधारों पर, ईश्वर और धर्म के सुधारवादी रूपों पर। इसके कारण बृहत्तर जनता के जीवनयथार्थ में जो घट रहा था वह साहित्य के केन्द्र में कम है । मध्यवर्ग के जीवन का चित्रण ज्यादा है। उल्लेखनीय है यह वर्ग उस समय जनसंख्या के लिहाज से बहुत छोटा सामाजिक वर्ग है। इसका भारत के किसानों के साथ संबंध कम और अंग्रेजियत से संबंध ज्यादा है ।
अंग्रेजों की सामाजिक नीति का सबसे भयानक परिणाम था नवोदित मध्यवर्ग और किसानों में अलगाव। यह अलगाव आज भी खत्म नहीं हुआ है। किसान के जीवन में ब्रिटिश शासन के आने साथ जो तबाही आई उस पर कम ध्यान गया । साहित्य रुपों और हिंदी भाषा पर ज्यादा ध्यान गया। इतिहास और भाषा की दुनिया एक ऐसी दुनिया थी जिसमें नए सवालों की चुनौतियों से सीधे खतरा कम महसूस हो रहा था। उन प्रकाशनों से ज्यादा खतरा था जो सामाजिक यथार्थ को उदघाटित कर रहे थे। नए मनुष्य की खोज के लिए नई व्याख्याओं का उदय हुआ, पुराने पाठ की नई व्याख्याएं लिखी गयीं। यहां तक कि धार्मिक और सामाजिक सुधार के आंदोलनों में पुराने पाठ के नए भाष्यों को जन्म दिया। असल में ‘क्षमता’ और ‘संभावना’ इन दो की खोज पर समूचा नवजागरण जुट गया। हर क्षेत्र में व्यक्ति की ‘क्षमता’ और ‘संभावनाओं’ की खोज होने लगी। इसके आधार पर लिखी गयी व्याख्याओं के कारण नवोदित आधुनिक संसार अर्थपूर्ण और प्रासंगिक नजर आने लगा। व्याख्याओं को लेकर भी विचारों की टकराहट होने लगी जिसने सरसता और सजीवता पैदा कर दी। व्याख्याओं के नए संसार ने जो विचार पैदा किए वे विचार आज भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। यही वजह है कि नवजागरण के विचार हमेशा प्रासंगिक लगते हैं। किसी को जातीय भाषा, किसी को जातीय साहित्य और किसी को नवजागरण और किसी को 1857 की व्याख्याएं आज भी प्रासंगिक लगती हैं। इस क्रम में हम भूल गए कि युद्ध हमेशा व्याख्या की संभावनाएं पैदा करते हैं। नामवरसिंह जब 1857 की भूमिका को स्वीकार नहीं करते तो उनके ज़ेहन में रामविलास शर्मा हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि युद्ध नए भाष्यऔर नए वर्गों के उदय या विकास की संभावनाओं को पैदा करते हैं।
सन् 1857 के संग्राम को हमने प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में देखा है। इसके कारण उसकी व्याख्या और दिशा अलग रही है। हमने उसे कभी युद्ध के रूप में देखा ही नहीं। 1857 का संग्राम अंततः युद्ध है। युद्ध के बाद हमेशा अस्मिता के सवाल उठे हैं, भारतेन्दु हों या अन्य कोई लेखक हों वे सभी पहचान के सवाल उठाते हैं। यह भी देखा गया है कि हर युद्ध के बाद अस्मिता की नए सिरे से परिभाषा तय करने का काम आरंभ हो जाता है। यह अचानक नहीं है कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भी अस्मिता के सवाल नए रूप में सामने आते हैं। काव्यभाषा के तौर पर ब्रजभाषा का अंत होता है और खड़ीबोली हिन्दी का एकछत्र राज्य स्थापित होता है।
युद्ध के प्रसंग में राममनोहर लोहिया का उल्लेख करना समीचीन होगा। उन्होंने लिखा है, ‘ युद्ध राजनीति का सबसे खराब और अवांछनीय उपकरण होता है किंतु जब राज्य पर लादा जाता है तो इसका एकमात्र प्रयोजन राजनैतिक होता है।’ भारत में 1857 के युद्ध का मकसद था समस्त भारत पर ब्रिटिश शासन की स्थापना करना। नवजागरण पर नामवर सिंह ने जिस तरह लिखा है उससे नवजागरण की चेतना पैदा करने वाली एजेंसियों का अता-पता नहीं चलता। नवजागरणचेतना पैदा करने वाली एजेंसियों की भूमिका को विश्लेषित किए बिना नवजागरण विमर्श वस्तुतः सारतत्ववादी रणनीतियों में फंसकर रह गया है। सारतत्ववादी होने का अर्थ है अंतर्वस्तुवादी होना, इससे चीजें सही परिप्रेक्ष्य में नजर नहीं आतीं। यह नवजागरण को देखने का सीमित नजरिया है।
नामवर सिंह जब नवजागरण की बात करते हैं तो नवजागरण के निर्माण में तत्कालीन एजेंसियों की भूमिका को खोलते नहीं हैं। उन संस्थानों की भूमिका पर रोशनी नहीं डालते जिनकी नवजागरण के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। नवजागरण के निर्माण में तत्कालीन संस्थानों की मंशा क्या थी और परिणाम क्या निकले, इसकी मीमांसा नहीं करते। वे सामान्यीकरणों और सरलीकरणों का इस्तेमाल करते हैं। नवजागरण की चेतना क्यों आई? उसकी प्रक्रिया क्या थी? संस्थानों की भूमिका क्या थी? बाद में नवजागरणचेतना क्यों खत्म हो गई? और इसमें संस्थानों ने क्या भूमिका अदा की? ये सब सवाल नामवर सिंह की आंखों से ओझल रहते हैं। नवजागरण के कारण किस तरह की नीतियों का जन्म हुआ और किस तरह के सामाजिक-आर्थिक संबंध पैदा हुए, किस तरह का परिवार पैदा हुआ और किस तरह की राजसत्ता का उदय हुआ, किस तरह का नागरिक बना आदि महत्वपूर्ण सवाल हैं। न्यायपालिका, राजसत्ता, प्रेस आदि की क्या भूमिका थी इत्यादि सवालों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर खोले बिना संभव ही नहीं है कि आप नवजागरण को विश्लेषित कर पाएं। इसके अलावा नवजागरण के साथ ज्ञान, शिक्षा, साहित्य और स्त्री के लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया भी जुड़ी है।
नवजागरण ने जिस प्रक्रिया को जन्म दिया वह है लोकतांत्रिकीकरण। जिस मनुष्य को जन्म दिया है वह है लोकतांत्रिक मनुष्य । विभिन्न क्षेत्रों में लोकतांत्रिकीकरण किस रूप में रूप में हुआ, क्या सारे देश में या हिन्दीभाषी राज्यों में शिक्षा, स्त्री और ज्ञान के लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया इकसार ढ़ंग से चली है? यदि इस प्रक्रिया में अंतर हैं तो क्यों और किस रूप में? नामवरसिंह ने इन सभी सवालों की एकसिरे से अनदेखी की है। नवजागरण विमर्श की बहस 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के इर्द-गिर्द घूमती है जबकि उसी दौर के कई संग्रामों का हमारे समीक्षकों ने नोटिस ही नहीं लिया। इस प्रसंग में राज्यवार विद्रोह (1857-58) उल्लेखनीय है।
उल्लेखनीय है कि अस्मिता संबंधी झगड़ों में हिन्दीभाषी क्षेत्र ही नहीं समूचा भारत आजादी के बाद अपनी बहुत ज्यादा ऊर्जा बर्बाद कर चुका है। पहले लोग यह सोचते थे भारत आजाद हो जाएगा तो शांति लौट आएगी, लेकिन भाषायी आधार पर राज्यों का गठन, अंग्रेजी हटाओ हिन्दी लाओ, तमिलनाडु का हिन्दी विरोधी आंदोलन, विभिन्न इलाकों में पैदा हुए पृथकतावादी आंदोलन, राममंदिर आंदोलन, पिछडों के आरक्षण का आंदोलन आदि सभी आंदोलन अस्मिता से ही जुड़े आंदोलन हैं। इसके अलावा 1962, 1965 और 1971 का युद्ध भी इसी कोटि में आता है। यही वो अस्मिता विमर्श का वातावरण है जिसमें हिन्दी साहित्य समीक्षा में हिन्दीजाति, हिन्दी जातीयता की बहस जन्म लेती है। हिन्दी में हिन्दीजाति की बहस सबसे पहले विस्तार के साथ सिर्फ रामविलास शर्मा उठाते हैं और यह बहस उनके साथ ही खत्म हो जाती है। एक अवधि के बाद वे भी इस बहस को आगे नहीं ले जा पाते। अन्य हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी उनकी इस बहस में हिस्सा तक नहीं लेते। तकरीबन यही स्थिति नवजागरण संबंधी विमर्श की है।
विगत 40सालों में नवजागरण संबंधी विमर्श लगातार कम होता चला गया है। सन् 1977 के बाद तकरीबन नवजागरण संबंधी बहस समाप्त हो गयी है। किसी भी भारतीय भाषा में नवजागरण को लेकर बहस नहीं हो रही। नवजागरण विमर्श के अवसान का बड़ा कारण है नवजागरण पर नए परिप्रेक्ष्य में सोचने का अभाव और नवजागरण संबंधी नई सामग्री का अभाव। ऐसी अवस्था में हिन्दी में चंद आलोचकों में नवजागरण और हिन्दीजाति पर बहस होती रही है। इन चंद आलोचकों में नामवर सिंह प्रमुख हैं।
अस्मिता विवादों में राजनीतिक आयाम प्रमुख रहा है। ऊपर हमने जो सूची दी है उसे देखकर सहज ही समझा जा सकता है कि अस्मिता का सवाल हमारे यहां सांस्कृतिक की तुलना में राजनीतिक ज्यादा है। अस्मिता की जब भी बातें होती हैं तो उसके पक्ष और विपक्ष में राजनीतिक तर्क ज्यादा दिए जाते हैं, सांस्कृतिक उत्कर्ष या उपलब्धियों के बिंदुओं की चर्चा कम होती है। उल्लेखनीय है भारत में ऊपर बताए सभी अस्मिता आंदोलन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्धीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में जन्म लेते हैं। सारी दुनिया में शीतयुद्ध के दौरान अस्मिता के आंदोलन बड़े आंदोलन रहे हैं और इनका किसी न किसी रूप में एक अंतर्राष्ट्रीय सिरा भी है। हर जाति या समूह अपनी अस्मिता को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है और बार बार ‘मैं’ हूँ, का बोध पैदा किया जा रहा है। इधर के 30 सालों में स्थानीय अस्मिता ने विकास और पिछड़ेपन के सवालों के साथ एकीकृत करके समस्याएं खड़ी की हैं। अस्मिता को पिछड़ेपन से जोड़कर व्याख्यायित करने के कारण हिन्दीभाषी प्रान्तों -यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश- का विभाजन हो गया।
अस्मिता के साथ जातीय विद्वेष भी पृथकतावादी आंदोलनों के साथ उभरा है। खासकर उत्तर-पूर्वी राज्यों में यह स्थिति आज भी बनी हुई है। अस्मिता के साथ जातीय विद्वेष की भावना का परिप्रेक्ष्य हमारे समाज में 1936 के बाद पैदा होता है। मुस्लिम अस्मिता का सवाल पाकिस्तान बनाने की मांग के साथ सामने आता है। अस्मिता के साथ मुस्लिम विद्वेष के आने साथ जितने भी पृथकतावादी आंदोलन पैदा हुए हैं उनमें एक ही इलाके में रहने वाली अन्य जाति, धर्म और भाषा के मानने वालों के ऊपर हिंसक हमले हुए और सामूहिक हिंसाचार हुआ। अस्मिता का एक रूप जातीय, धार्मिक और लैंगिक हिंसा के रूप में सामने आया है। अस्मिता और हिंसा की यह जुगलबंदी अपने आपमें चिन्ता की बात है। स्थिति यह है कि स्त्रीअस्मिता के साथ भी हिंसाचार जुड़ा है। पुरूषों के हिंसाचार ने स्त्री अस्मिता के सवाल को तेजी से उभारने में मदद की। स्त्री अस्मिता की कोई भी बात आज पुंसहिंसा के बिना संभव नहीं है। अस्मिता और हिंसा का यह सहमेल शीतयुद्ध में चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। इसमें खास किस्म की धारावाहिकता है। समाजवाद के पराभव के बाद भी अस्मिताजनित हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही।
एक और आयाम है जिसे ध्यान में रखें, वह है 1857 का संग्राम या युद्ध। इस संग्राम के साथ अस्मिता के सवालों का जन्म होता है लेकिन इसके साथ जुड़ी हिंसा को हमने कभी गंभीरता से नहीं देखा। कहने का आशय यह कि भारत में अस्मिता और हिंसा में चोली-दामन का साथ है। अस्मिता के साथ संस्कृति का विकास कम होता है हिंसा का विकास ज्यादा होता है। यह संयोग की बात है कि सतीप्रथा के विरोध के साथ भारत में स्त्री अस्मिता का सवाल सबसे पहले उठता है लेकिन इस सवाल के साथ जो हिंसाचार जुड़ा था उसकी हमने कभी पड़ताल ही नहीं की। सतीप्रथा में स्त्री के प्रति जो हिंसा निहित है, वह हमारे लिए चिंता नहीं बनी। अस्मिता के सवाल उठेंगे तो हिंसा होगी। यह हिंसा पहले हो या बाद में लेकिन हिंसा होगी।
अस्मिता के बारे में बहस करते समय हिंसा के आयाम को हमारे आलोचकों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। यही दशा जातिप्रथा और दलितसाहित्य की है। जातिप्रथा, दलितसाहित्य और अस्मिता के अन्तस्संबंध में जो भी बहस चल रही है उसमें जाति हिंसाचार को लेकर गंभीर भाव नहीं है। अस्मिता के साथ हिंसा की जुगलबंदी देखनी हो तो श्रीलंका को देखें जहां महात्मा बुद्ध के अनुयायी सिंघलियों ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जातीयहिंसा के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। हजारों तमिलों की हत्या कर दी। इसी तरह इस्लाम मानने वाले पाक में बंगालियों पर जमकर हमले किए और अंत में बंगलादेश का जन्म हुआ। आज धर्मप्रधान देशों में हिंसाचार कॉमन फिनोमिना है। एक बात और देखने की है अस्मिता की हिंसा में मरनेवालों की संख्या क्रमशः बढ़ी है। अस्मिता को हिंसा से पृथक करने के लिए जरूरी है कि अस्मिताओं का लोकतांत्रिकीकरण किया जाय और उनकी एक-दूसरे पर निर्भरता को बढ़ाया जाय। स्वायत्तता और परनिर्भरता में संतुलन पैदा किया जाय।
मजेदार बात यह है कि भारत में लोकतंत्र है और अस्मिता में अ-लोकतंत्र है। फलतः अस्मिता जब भी लोकतंत्र में आवाज उठाती है तो इन दोनों का संघर्ष लोकतंत्र बनाम अ-लोकतंत्र की जंग में तब्दील हो जाता है। लोकतंत्र बनाम अ-लोकतंत्र की जंग से बचने का सबसे सही मार्ग यह है कि अस्मिताएं आत्मनिर्भर बनें। अस्मिताएं आत्मनिर्भर तब ही बन सकती हैं जब वे अन्य की कीमत पर जिंदा रहने का ख्याल त्याग दें। मसलन् हिन्दी आत्मनिर्भर बने लेकिन अंग्रेजी के खिलाफ संघर्ष करके नहीं। अन्य रहेगा, अन्य को खत्म करके अस्मिता को मजबूत नहीं बनाया जा सकता। इसी तरह स्त्री आत्मनिर्भर बने लेकिन अपनी कीमत और शक्ति के आधार पर। पुरूष की शक्ति और कीमत के आधार पर नहीं। अस्मिता बनाम अन्य के संघर्ष और तनावों से बचा जाना चाहिए। इस क्रम में हमें अस्मिता के लिए शांति की भावना से जुड़े नए विचारों को निर्मित करना होगा। उन विचारों को त्यागना होगा जो अशांति पैदा करते हैं। इस क्रम में अस्मिता के सकारात्मक पहलुओं को उभारना होगा, उन पक्षों की चर्चा ज्यादा करनी होगी जो अस्मिताबोध में इजाफा करें। इस क्रम में अस्मिता में निहित प्रतिस्पर्धी भाव को खत्म करना होगा। अस्मिता का प्रतिस्पर्धीभाव अंततः तनाव और संघर्ष पैदा करता है। उन क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए जहां पर तनाव है या हो सकता है। फिर उन उपायों के बारे में सोचना चाहिए जिनसे तनाव कम किए जा सकें।
अस्मिता में एक नहीं अनेक किस्म के तनाव एक ही साथ रहते हैं। अस्मिता को उन्मादी भाषा से सबसे पहले बचाने की जरूरत है। उन्मादी भाषा और विज्ञापन की भाषा अंततः हंगामे से आगे चीजों को विकसित होने नहीं देती। दूसरा, अस्मिता को अन्य की नैतिकता के सवालों से बचाने की जरूरत है। अस्मिता पर जब भी बातें होती हैं नैतिक प्रश्न सामने आकर खड़े हो जाते हैं। अस्मिता के सवाल नैतिकता के सवाल नहीं है। इसे न्यायपूर्ण सामाजिक विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
अस्मिता में हिंसाचार तब दाखिल होता है जब हम न्यायपूर्ण तरीकों और विवेकवादी नज़रिए को मानना बंद कर देते हैं या फिर रेशनल सांस्थानिक फैसलों को नहीं मानते। मसलन् युद्ध से लेकर स्त्री-अस्मिता तक सभी सवालों पर हमें अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय न्यायपूर्ण उपायों और संस्थानों के फैसलों को शांतिपूर्ण ढ़ंग से मान लेना चाहिए। न्यायपूर्ण सांस्थानिक फैसलों के उल्लंघन से भी अस्मिता में तनाव पैदा होता है। इसके अलावा अस्मिताधारियों में शांतिपूर्ण समाधान की ललक हो। शांतिपूर्ण समाधान समय खाते हैं। इस पद्धति से काम करने में समय ज्यादा खर्च होता है।
अस्मिता के सवालों को शार्टकट के जरिए हल नहीं करना चाहिए। इस क्रम में हमें ‘स्व’ की चिन्ताओं के साथ ‘अन्य’ की समस्याओं के प्रति भी हमदर्दी होनी चाहिए। ‘स्व’ की शांति तब ही संभव है जब ‘अन्य’ भी शांति से रहे। ‘अन्य’ को अशांत करके ‘स्व’ को शांति नहीं मिल सकती। मसलन् नामवरसिंह ने ‘स्वत्व’ के बहाने खड़ीबोली हिंदी की समस्याओं को तो सामने रखा और उन पर विचार किया, लेकिन अवधी, भोजपुरी आदि भाषाओं की समस्याओं की उपेक्षा की, इससे समस्या का समाधान कम हुआ। हिन्दी भाषी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही खड़ीबोली हिन्दी आत्मनिर्भर बन सकती है। यह संभव नहीं है हिन्दीभाषी क्षेत्र की अन्यभाषाएं पिछड़ी रह जाएं और खड़ीबोली हिन्दी तरक्की कर जाय। वही अस्मिता अपना विकास करती है जो अन्य की उपेक्षा न करे। अन्य के प्रति समानता और संतुलन के नजरिए से पेश आए।
हिंसा के बिना अस्मिता का विमर्श लिखा नहीं गया है। हालत इस कदर बदतर रहे हैं कि अस्मिता के नाम पर जनसंहार से लेकर साम्प्रदायिक हिंसा तक होती रही हैं। अस्मिता में जो लोग आनंद की खोज कर रहे हैं ,विकल्प खोज रहे हैं। वे असल में अस्मिता में निहित संभावित खतरों की अनदेखी करते हैं और अंत में खतरों में फंसते हैं। अस्मिता का प्रत्येक विवाद संदर्भ विशेष से जुड़ा है। लेकिन उसकी परिस्थितियां हमेशा बहुआयामी ख़तरों से भरी होती हैं। ये परिस्थितियां राजनीतिक-आर्थिक सांस्कृतिक और व्यक्तिगत कारणों से जुड़ी हुई हैं। अस्मिता के सवाल जब भी उठते हैं उनसे व्यक्तिगत और सामाजिक हिंसा किसी न किसी रूप में जुड़ी नजर आती है। स्त्री, दलित, हिन्दू, प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता और पृथकतावाद आदि के प्रसंग में यह बात एकदम खरी साबित हुई है।
एक अन्य पहलू है जिसे ध्यान में रखना होगा वह है- अस्मिता की अंतर्राष्ट्रीयता। अस्मिता के स्त्री, दलित, भाषा, जातीयता, नवजागरण आदि के जितने भी विवाद हैं वे स्थानीय के साथ अंतर्राष्ट्रीय हैं। मसलन् नवजागरण और जाति (नेशनेलिटी) का विवाद अंतर्राष्ट्रीय है। यही हाल बाकी विवादों का भी है। इस विवाद में अस्मिता को समुदाय के रूप में देखना और समुदाय को सुपर पावर के रूप में पेश करने का प्रबल भाव है। हिन्दीजाति को समुदाय के रूप में रामविलास शर्मा ने पेश किया और फिर उसकी शक्तियों का विस्तार के साथ खुलासा किया है। साथ ही हिन्दीजाति को अंतर्राष्ट्रीयस्तर पर घट रहे परिवर्तनों से जोड़ा। फलतः वे हिन्दीसमुदाय की रूपान्तरण की क्षमता को रेखांकित करने में सफल रहे। यही हाल नवजागरण का है। इसे भी स्थानीय रूप में खोलते हुए अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रियाओं के साथ जोड़ने की पद्धति का नामवरसिंह-रामविलास शर्मा ने विकास किया है। स्त्रियों पर लिखते समय तो यह काम इन दिनों धडल्ले से हो रहा है।
अस्मिता का सवाल मानवाधिकारों के दायरे में आता है। यह अस्मिता की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का सवाल भी है। इस क्रम में हमें मूलभूत संवैधानिक स्वतंत्रताओं को सुनिश्चित बनाना होगा। न्याय और समानता के आधार पर मसलों के शांतिपूर्ण ढ़ंग से समाधान खोजने होंगे। सहअस्तित्व, सद्भावना और सहमेल को बढ़ावा देना होगा। सन्1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में सैनिकों में अभूतपूर्व एकता नजर आई। इस एकता की तरह तरह से व्याख्या की गयी लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि 57 के संग्राम में जो एकता है वह हमेशा युद्ध के समय ट्राइवल यूनिटी के रूप में व्यक्त होती है। इसी तरह की एकता सन्1914 के प्रथम विश्वयुद्ध के समय भी देखने को मिली थी।
युद्ध के समय राष्ट्रीयएकता की तुलना में सामुदायिक एकता ज्यादा नजर आती है। हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता इस संग्राम पर एकजुट थी, इसके विपरीत बंगाल के बुद्धिजीवी एकदम भिन्न ढ़ंग से सोच रहे थे। युद्ध के दौरान अस्मिता की राजनीति का यह विशिष्ट लक्षण है कि वहां सामुदायिकचेतना ज्यादा मुखर रूप में व्यक्त होती है। इस तरह के युद्ध में सामुदायिक एकता और सामुदायिक कुर्बानी को रेखांकित करने की जरूरत है। यहां पर राष्ट्र अपने को समुदाय के रूप में व्यक्त करता है। सिपाही विद्रोह की खासियत यह थी कि यह आरंभ हुआ सिपाही विद्रोह से लेकिन इसने जल्द ही हिन्दू-मुस्लिम एकता की शक्ल अर्जित कर ली और कालान्तर में इस सीमा का भी अतिक्रमण कर गया। यह सामान्य मानवीय इच्छा होती है कि वह सीमाओं का अतिक्रमण करे और सन्1857 का संग्राम भी यही करता है। यह महज सिपाही विद्रोह नहीं रहता और प्रथम स्वाधीनता संग्राम में तब्दील हो जाता है। यह चंद सैनिकों की समस्या की अभिव्यक्ति न रहकर प्रथम मुक्ति संग्राम बन जाता है। यह सैनिकों का व्यक्तिगत मसला नहीं रह जाता। जबकि यह आरंभ हुआ था सैनिकों की व्यक्तिगत समस्या से। इस प्रक्रिया में कालांतर में प्रत्येक सैनिक एक बड़ी राष्ट्रीय इकाई का अंग नजर आने लगा। उनमें यह सचेतनता स्वतःस्फूर्त ढ़ंग से पैदा हुई। आरंभ में यह सैनिक समस्या के रूप में सामने आया, बाद में यह समस्या समुदाय और राष्ट्र की समस्या बन गयी।
आरंभ में गाय के चमड़े के कारतूस के इस्तेमाल के खिलाफ सैनिकों ने प्रतिवाद किया। इस प्रथम मुक्ति संग्राम के आरंभ और एकता की अभिव्यक्ति के केन्द्र में पशु (गाय) आया। समाजशास्त्री दुर्खीम ने इस पक्ष की ओर ध्यान खींचा है कि सामुदायिक (ट्राइवल यूनिटी) एकता पशु, पेड़-पौधे, पृथ्वी, स्वर्ग आदि के रूप में व्यक्त होती है। वहीं दूसरी ओर सैनिकों में एक खास किस्म का बागी भाव नजर आता है। वे अपने आत्मविश्वास को खोते नहीं हैं। बल्कि पूरे जोशो-खरोश के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं और अन्य बटालियनों से भी मदद लेते हैं। अपनी छावनी के संघर्ष को बाहर की छावनियों तक फैला देते हैं। एक तरफ ये सैनिक बाहर के सैनिकों से जोड़कर अपना अलगाव कम करते हैं, वहीं दूसरी ओर भगवान से भी अपना संबंध-संपर्क जोड़ते हैं। इस तरह वे आधुनिकता के साथ आए अलगाव का एक समाधान निकाल लेते हैं और व्यापक एकता निर्मित करने में सफल हो जाते हैं। सीमित समस्या से आरंभ हुए विद्रोह को व्यापक अनंत संग्राम से जोड़ देते हैं। कालान्तर में इस संग्राम को लेकर तरह-तरह के नाम रखे गए लेकिन उनकी मंशा एकदम साफ थी।
सन् 57 के संग्राम ने सामाजिक एकता पैदा करने, विचारधारा के आधार पर एकजुट होने का संदेश दिया। इस क्रम ने व्यक्ति और समाज के बीच में नए किस्म की एकता को जन्म दिया। साथ ही इसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध थी। प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने सामाजिक लगाव और हिन्दीभाषी बौद्धिकों में आवयविक एकता पैदा की। समाज में सामंती चेतना के खिलाफ पूंजीवादी सचेतनता पैदा की। पहली बार धर्म और ईश्वर के विकल्प के तौर पर राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। संस्कृति के क्षेत्र में विकल्प की संस्कृति के साथ, बुर्जुआ संस्कृति ने जन्म लिया।
उल्लेखनीय है प्रत्येक युद्ध अंततः सांस्कृतिक परिवर्तनों को जन्म देता है। सांस्कृतिक परिवर्तन के जरिए सत्ताधारी वर्ग अपना वर्चस्व बनाए रखने की कोशिश करते हैं। शिक्षा में खासकर नए परिवर्तन जन्मलेते हैं। प्रेस में नई संस्कृति व्यापक तौर पर अभिव्यक्ति पाती है और नए विधारूप के तौर पर उपन्यास का जन्म होता है। हिन्दी का 'परीक्षागुरू' अंग्रेजी के नॉवेल के पैटर्न का उपन्यास है यह बात आचार्य शुक्ल की तरह नामवर सिंह ने भी रेखांकित की है। ब्रिटिश शासकों की ओर से सचेतढंग से संस्कृति, परंपरा, भाषा और साहित्य की नई बुर्जुआ व्याख्याओं का जन्म होता है, प्राच्यवाद का स्कूल पैदा होता है जिसका प्रधान लक्ष्य था प्राचीन-मध्यकालीन संस्कृति की व्याख्या करना। इस समूची प्रक्रिया में नए किस्म की ब्रिटिशपरस्त अनुभूति और संवेदनशीलता पैदा होती है।
सन् 57 को लेकर हिन्दी में उत्सवधर्मी भाव है ,इसके बहाने बार बार जनता की साझा विरासत, साझा कुर्बानी और साझा समस्याओं पर खूब लिखा गया है। अधिकांश लेखकों और आलोचकों का इस घटना की ओर लौटना इस बात का संकेत है कि इस घटना से कम से कम सामुदायिक एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश जरूर मिलता है। इसी प्रसंग में उल्लेखनीय है कि युद्ध को जब भी याद करते हैं तो सामुदायिकता की भावना, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद की बातें खूब करते हैं। युद्ध की निंदा करते हैं। इस अर्थ में युद्ध हमेशा प्रेरक ऊर्जा का काम भी करता है। कुछ आलोचकों का मानना है शांति की तुलना में युद्ध ने हमेशा सर्जनात्मक प्रेरक की भूमिका अदा की है। सृजन के जरिए युद्ध की पीड़ा से मुक्ति पाते हैं। युद्ध के बाद हमेशा समाज को नए सिरे से ऊर्जस्वित करने में मदद मिलती है। इस संदर्भ को ध्यान में रखकर यदि सन् 57 के युद्ध को देखा जाय तो युद्धजनित परिस्थितियां ज्यादा सर्जनात्मक नजर आएंगी।
पूंजीवाद ने जब से अपने को साम्राज्यवाद के रूप में स्थापित किया और महाशक्ति बनाया उसका एक असर यह हुआ कि महाशक्ति कहलाने वाले देशों में जो भी कुछ घटता था उसका सीधा असर गुलाम दुनिया पर पड़ता था। यह बात 19वीं सदी में जितनी सच थी, आज 21वीं सदी में भी उतनी ही सच है। इसके अलावा धर्म और धार्मिक तत्ववाद का इस्तेमाल करने की परंपरा भी सबसे पहले महाशक्ति कहे जाने वाले देशों में ही दिखाई देती है। खासकर ईसाई फंडामेंटलिज्म का जमकर प्रचार –प्रसार हुआ। ब्रिटेन में उस जमाने में ईसाई कठमुल्लों को विभिन्न तरीकों से सत्ता का संरक्षण प्राप्त था। बाद में यह संरक्षण अन्य धार्मिक संकीर्णतावादियों को भी दिया गया। धर्म के आधार पर राजनीति करने वालों को ब्रिटिश शासकों ने खुला संरक्षण दिया। इसके गर्भ से ही 19वीं सदी में पुनरूत्थानवाद और कालान्तर में साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले संगठनों का जन्म होता है। यह समूची प्रक्रिया हिन्दू-मुस्लिम विभाजन और भारत-पाक विभाजन तक ले जाती है। ताकतवर पश्चिमी देशों का स्वाभाविक रूझान मुस्लिम फंडामेंटलिस्टों की ओर रहा है। ब्रिटेन ने सन् 57 के संग्राम के बाद सचेत रूप से सामाजिक सुधारों की प्रक्रिया को भारत में तिलांजलि दे दी। नवजागरण पर विचार करते समय उसके पुनरूत्थानवादी आयाम को समग्रता में समझने की जरूरत है।
इसी तरह नामवर सिंह ने भारतेन्दु साहित्य के बहाने जिस अस्मिता की बात कही है वह व्यक्तिगत अस्मिता नहीं है बल्कि सामुदायिक अस्मिता है। इसे व्यक्तिगत अस्मिता के सवालों के साथ गड्डमड्ड नहीं करना चाहिए। रामविलास शर्मा ने जिस तरह हिन्दीजाति को पहचान के परम या अंतिम रुप में पेश किया है। पहचान का यह रुप स्वीकार्य नहीं है। अस्मिता में परम या अंतिम पहचान जैसी चीज नहीं होती । हिन्दीजाति को या भाषा को आधार बनाकर अस्मिता की बात जब भी की जाएगी तो उसके गर्भ में से क्या निकलता है यह देखने की जरूरत है। अस्मिता पर बहस करते हुए यदि अस्मिता पर ही पहुँचते हैं तो अस्मिता की यह चक्राकार परिक्रमा अंततः हमें कहीं नहीं ले जाएगी। इसमें एक ही वृत्त में घूमते रहने की संभावनाएं ज्यादा हैं। जैसाकि रामविलास शर्मा ने किया है और नामवर सिंह भी ‘स्वत्व’ के नाम पर जिस अस्मिता की बात करते हैं वह चक्राकार है। वह भाषायी अस्मिता से आरंभ होती है और उसी पर खत्म होती है । यह भी कह सकते हैं कि वह एक ही संदर्भ में एक स्थिर रूप में भाषायी अस्मिता को देखते हैं। जबकि अस्मिता कभी स्थिर नहीं रहती, वह संदर्भ के साथ बदलती रहती है। वह धुरी पर नहीं घूमती। वह एक ही विषय या लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं रहती। अस्मिता में एक अवधि के बाद अन्य की अस्मिता में घुलमिल जाने की प्रवृत्ति होती है। अस्मिता हमेशा कनवर्जन करती है। हिन्दीजाति की अस्मिता 19वीं सदी से लेकर आज तक एक ही स्थिर अवस्था में बरकरार नहीं रही है।
सवाल यह है कि हिन्दीजाति की अस्मिता का किन अस्मिताओं में रूपान्तरण हुआ है ? इसे तुलनात्मक तौर पर हमेशा अन्य अस्मिता रूपों के संदर्भ में देखना चाहिए। मसलन् 19वीं सदी के संदर्भ में स्त्री अस्मिता को भारतेन्दु महत्वपूर्ण नहीं मानते, वे भाषा की अस्मिता को महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन आज भाषायी अस्मिता महत्वपूर्ण नहीं है। स्त्री अस्मिता महत्वपूर्ण है। आधुनिक पूंजीवादी विकास और जनमाध्यमों के विकास के कारण भाषायी अस्मिता धीरे धीरे गौण बन जाती है और अन्य अस्मिताएं उभरकर केन्द्र में आ जाती हैं। यहां तक कि प्रगतिशील आंदोलन के दौरान भाषायी अस्मिता की बजाय वर्गीय अस्मिता को प्रधान माना गया। इसका अर्थ यह भी है कि अस्मिताओं में समानता स्थापित नहीं की जा सकती। एक अस्मिता से दूसरी अस्मिता में भेद है, इनके दायरे अलग हैं, प्रभावक्षेत्र अलग हैं। मसलन् स्त्री के सवालों पर बंगाल के संदर्भ में जो तर्क दिए गए और संघर्ष हुए वैसे संघर्ष हिन्दीभाषी क्षेत्र में नहीं हुए। यही हाल महाराष्ट्र के रैनेसां का है। उसके तर्क और संघर्षों के साथ हिन्दीभाषी क्षेत्र की तुलना नहीं की जा सकती।
हिन्दी की आलोचना में सबसे बड़ी कमी यह है कि यहां विचारों से विचारों की तुलना की जाती है। मसलन्, यह संभव है एक समान विचार हों लेकिन समाज एक जैसा न हो। यह बात बंगाल और हिंदीभाषी क्षेत्र को देखकर आसानी से समझ सकते हैं । नवजागरण मात्र विचार नहीं है बल्कि नया समाज है । एक क्षेत्र में रैनेसां के विचार जो हैं. वे हो सकता है अन्य जातीयक्षेत्र में भी मिल जाएं लेकिन वहां रैनेसां न हो। रैनेसां कोई विचारों का खेलभर नहीं है। रैनेसां एक खास भौतिक परिस्थितियों में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष के साथ नए वर्गों की सामाजिक भूमिका की भी मांग करता है।
नामवर सिंह ने अपने नवजागरण के खेल में विचारों के साम्य के आधार पर नवजागरण की परिभाषा और स्थितियों को देखा है। विचार के आधार पर स्थितियों को देखना भाववादी तरीका है इससे मार्क्सवादी नजरिए का कोई संबंध नहीं है। हिन्दीभाषी क्षेत्र की 19वीं सदी की परिस्थितियां बंगाल और महाराष्ट्र से एकदम भिन्न थीं। यहां न तो फुले जैसा आंदोलन था और न राजाराममोहन राय के नेतृत्व जैसा सतीप्रथा विरोधी आंदोलन था। अतःयहां के बुद्धिजीवियों में वैसी चेतना और उस चेतना के सामाजिक संप्रसार की भी संभावनाएं नहीं थीं। इसके अलावा हिन्दी में पूंजीवाद और मध्यवर्ग का उस तरह विकास नहीं हुआ जिस तरह बंगाल में हुआ था। हिन्दी जातीय क्षेत्र की बौद्धिक और भौतिक परिस्थितियां बंगाल और महाराष्ट्र से एकदम भिन्न थीं। महज विचारों की तुलना के आधार पर नवजागरण का आधार नहीं बनता। एक जैसे विचार यह संकेत देते हैं कि बहुत सीमित दायरे में बंगाल-महाराष्ट्र के नवजागरण के विचारों का असर था। यह असर व्यक्तिगत ज्यादा है, सामाजिक तो एकदम नहीं है। इस नजरिए से देखें तो भारतेन्दुमंडल के लेखकों के यहां जो भी नवजागरण संबंधी विचार मिलते हैं वे लेखकों के व्यक्तिगत विचार हैं और उनका हिन्दीक्षेत्र की परिस्थितियों के साथ बहुत कम संबंध है।
इसी प्रसंग में निजभाषा की उन्नति और ‘स्वत्व’ या अस्मिता के सवाल को ही गंभीरता से लें और देखें कि निजभाषा को लेकर हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी और समाज का रवैय्या क्या बंगाल के बुद्धिजीवी और समाज की तरह ही है? बंगाल,महाराष्ट्र और तमिलनाडु में जातीय भाषाई अस्मिता को लेकर जो सामाजिक संघर्ष चला है वैसा कोई भी आंदोलन हिन्दीभाषी क्षेत्र में न तो 19वीं सदी में चला और नहीं 20वीं सदी में चला। 20वीं सदी में हिन्दीभाषी क्षेत्र के बुद्धिजीवी वर्ग ने सचेत रूप से हिन्दी से अपने को अलगाया है और अंग्रेजी भाषा के साथ जोड़ा है। जबकि बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बंगाल में मध्यवर्ग ने सचेत रूप से बंगलाभाषा का सामाजिक आधार बनाया। इस तरह का आधार हिन्दीक्षेत्र में नहीं बन पाया। बंगाली मध्यवर्ग ने सचेत रूप से बंगाली भद्रजन की भाषा को आम जनता की भाषा में रूपान्तरित किया लेकिन हिन्दीक्षेत्र में अभिजन की भाषा को हम जनभाषा में रूपान्तरित नहीं कर पाए हैं। आज भी हिन्दीभाषी क्षेत्र में स्थानीय बोलियों का बोलबाला है। खड़ीबोली हिन्दी और उससे जुड़ी शिक्षित वर्ग की संस्कृति और सभ्यता को आमजन की संपदा में रूपान्तरित नहीं कर पाए हैं।
मसलन् दिल्ली से 60किलोमीटर दूर हरियाणा में हिन्दी की अभिजन संस्कृति का कोई असर दूर-दूर तक नजर नहीं आएगा, इसके विपरीत बंगाल में एक अभिजन जिस भाषा को बोलता है वही भाषा एक झोंपडपट्टी में रहने वाला गरीब बंगाली भी बोलता नजर आएगा।
आम अभिजन जिस तरह भाषा में गालियां अथवा असभ्य शब्दों के प्रयोग से नफरत करता है वैसी ही ऩफरत आपको आम गरीब बंगाली के यहां भी देखने को मिलेगी। लेकिन हिन्दी में ऐसा आज तक नहीं हो पाया है। भाषा में ‘स्वत्व’ हासिल करें इसके लिए जरूरी है कि अभिजन की भाषा को आमजन की भाषा में तब्दील किया जाय। अभिजन की भाषा के संस्कार, मूल्य और आदतें आमजन में पैदा किए जाएं। लेकिन हिन्दी में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। उसका सामाजिक वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। भाषायी अस्मिता की लडाई यहां के इलाकों में कभी लड़ी ही नहीं गयी। इसके कारण यहां के मध्यवर्ग में अंग्रेजी के प्रति स्वाभाविक आकर्षण नजर आता है। वह अपनी भाषा, उसके मूल्य, साहित्य आदि को लेकर वैसा दीवानापन नहीं है जैसा दीवानापन बंगाली या मराठी या तमिल में है।
यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिन्दी में नवजागरण नहीं हुआ। नवजागरण हुआ होता तो बहस के मुद्दे कुछ और होते। मसलन् नवजागरण के साथ पूंजीवादी मूल्यों और आर्थिक विकास के सवाल इन इलाकों में बहस के केन्द्र में होते। बंगाली और मराठी बुद्धिजीवियों ने नवजागरण के दौरान पूंजीवादी विकास को लेकर जिस तरह की गंभीर बहसें चलायी हैं और अर्थव्यवस्था पर लिखा है वैसा लेखन 19वीं सदी में हिन्दी में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। नवजागरण कोई साहित्य-कला मूल्य नहीं है, उसका अर्थशास्त्र और विज्ञान भी है। हिन्दी में कभी पूंजीवादी अर्थशास्त्र को खोलकर विश्लेषित करने की व्यापक कोशिश नजर नहीं आती। यही हाल विज्ञान के क्षेत्र में नजर आता है। इसके अलावा सबसे बड़ी कमी नजर आती है वह है शिक्षित भाषायी मध्यवर्ग का विकसित न हो पाना। हिन्दीभाषीक्षेत्र में शिक्षित मध्यवर्ग का विकास एकदम भिन्न ढ़ंग से होता है।
हिन्दी आलोचना के नवजागरण संबंधी विमर्श को गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि यहां पर आलोचक पहले एक हाइपोथीसिस बनाता है और फिर उसके आधार पर तर्कों का पहाड़ खड़ा करता है और अनुकूल विचारों और मूल्यों को क्रमशः रखता चला जाता है। वह यह परखने की कोशिश ही नहीं करता कि क्या उसके बताए विचार सामाजिक वास्तविकता से मेल खाते हैं ? इस तरह वह आलोचना को विचारों के अनुमान के आधार पर विकसित करने लगता है। इस क्रम में हम भूल ही गए हैं कि आलोचना कोई हाइपोथीसिस नहीं है। हाइपोथीसिस से बात आरंभ हो सकती है लेकिन अंततः तो सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर हाइपोथीसिस की परीक्षा की जानी चाहिए। भाषा के ‘स्वत्व’ का सवाल बड़ा सवाल है लेकिन देखना होगा कि इसकी वास्तव जमीन किस तरह की है। मजेदार बात यह है कि हिन्दी आलोचकों ने नवजागरण के समय के साहित्य के आधार पर भाषासंबंधी निष्कर्ष निकाले हैं लेकिन समाचारपत्र और पत्रिकाओं में छप रही हिन्दीभाषा को विचार के केन्द्र में नहीं रखा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि प्रेस (मीडिया) को एक संस्थान के रूप में कभी विश्लेषित करने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत यह देखा गया कि लोकप्रिय प्रेस को हिकारत की नजर से देखा गया। मुश्किल यह है कि लोकप्रिय प्रेस को खोले बगैर नवजागरण समझ में नहीं आएगा।
नवजागरण विमर्श मात्र साहित्यविमर्श नहीं है बल्कि उसमें मीडिया और दूरसंचार की भी बड़ी भूमिका है। हिन्दी आलोचक न तो शिक्षा की स्थिति का आकलन करता है और न पूंजीवाद का आकलन करता है, न प्रेस और दूरसंचार का आकलन करता है ऐसी स्थिति में वह बहुत कम सामग्री के साथ नवजागरण के प्रसंग में सिर्फ साहित्य के एक दायरे को खोलता है। यहां पर भी बाजारू साहित्य और श्रेष्ठ साहित्य का भेद साफ नजर आता है। श्रेष्ठ साहित्य में भी उसका दायरा भारतेन्दुमंडल के लेखकों तक ही सीमित है। वे भारतेन्दु के पहले के हिन्दीप्रेस में प्रकाशित साहित्य और गद्य पर बातें नहीं करते। ‘परीक्षागुरु’ उपन्यास पर बातें करते हैं लेकिन देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों पर बात नहीं करते। कहने का अर्थ यह है कि लोकप्रिय उपन्यास, लोकप्रिय कम्युनिकेशन, लोकप्रिय प्रेस के बिना नवजागरण की प्रकृति समझ में नहीं आ सकती। नामवर सिंह के नवजागरण विमर्श में ये सब क्षेत्र कहीं पर भी उल्लेख योग्य स्थान नहीं पाते। सवाल यह है कि अस्मिता का निर्माण क्या पॉपुलर की उपेक्षा करके संभव है ?
कल्चर और पॉपुलरकल्चर के बिना नवजागरण की परतें नहीं खुल सकतीं। हिन्दी समीक्षक को कल्चर पसंद है, पॉपुलरकल्चर नहीं। साहित्य आज भी हिन्दी में कल्चर का हिस्सा है, पॉपुलरकल्चर का हिस्सा नहीं है। पॉपुलर कल्चर से आज भी हिन्दी समीक्षक दूरी बनाए हुए है और पॉपुलर कल्चर को हेय दृष्टि से देखता है। जबकि सच यह है कि वह दैनंदिन जिंदगी तो पॉपुलरकल्चर में जीता है। यह संस्कृति उसके दिलो-दिमाग पर गहरा असर डालती है। नवजागरण के लेखकों की अधिकतर आदतें पॉपुलरकल्चर से जुड़ी हैं और उन आदतों का उनके व्यक्तित्व से गहरा संबंध है। नामवर सिंह से सवाल किया जाना चाहिए क्या लेखक की आदतें उसके भाषा और साहित्य संबंधी संस्कार बनाती हैं या नहीं ? भारतेन्दुमंडल के लेखकों की आदतें पूंजीवादी थीं या सामंती ? या उनके व्यक्तित्व में उन दोनों का मिला-जुला रूप था? क्या इसका उनके साहित्य और समाज पर कोई असर था ?
नवजागरण बुर्जुआ खेल है। बुर्जुआ विचारों और मूल्यों के सृजन में इसकी केन्द्रीय भूमिका रही है। हिन्दी में जो आलोचक नवजागरण के दीवाने हैं और इसे परम पुण्य-साहित्य-सलिला के रूप में देखते हैं, उनके यहां नवजागरण परम सत्य है। हिन्दी आलोचकों में जिनलोगों ने नवजागरण पर विचार किया है उनमें मार्क्सवादी समीक्षकों की बड़ी भूमिका है। सवाल यह है कि नवजागरण की परंपरा बुर्जुआ साहित्य परंपरा है तो फिर उसमें समाजवादी या अन्य रेडीकल साहित्यलेखकों को रखने की कोशिश क्यों की जाती है? नवजागरण का प्रकल्प समाजवादी प्रकल्प नहीं है। वे लेखक जो समाजवाद की परंपरा में आते हैं उनको नवजागरण की परंपरा में रखना सही नहीं है। नवजागरण यदि बुर्जुआ प्रकल्प है तो भारतेन्दुमंडल के लेखकों का लेखन भी बुर्जुआलेखन की कोटि में आता है। भारतेन्दु उदार पूंजीवादी विचारों और मूल्यों के सर्जक के रूप में हिन्दी साहित्य में अवतरित होते हैं। फलतः भारतेन्दु की परंपरा में उन लेखकों को नहीं रखा जा सकता जिन लेखकों ने बुर्जुआ मूल्यों से भिन्न विकल्प का रास्ता चुना है। मसलन् भारतेन्दु की परंपरा में प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि को नहीं रखा जा सकता।
इसी तरह हिन्दी आलोचना में रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना परंपरा बुर्जुआ आलोचना परंपरा है। उसमें रामविलास शर्मा और नामवर सिंह को नहीं रखा जा सकता। हमें बुर्जुआ आलोचना और मार्क्सवादी आलोचना परंपरा में अंतर करना होगा। पहली परंपरा और दूसरी परंपरा के नाम पर जो विभाजन किया गया है वह अवैज्ञानिक है। सवाल यह है कि परंपरा का नामकरण विचारधारा के आधार पर होना चाहिए या अवधारणा या प्रवृत्ति के आधार पर? आलोचकों से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या रामविलास शर्मा सच में रामचन्द्र शुक्ल की परंपरा में आते हैं? क्या नामवर सिंह को हजारीप्रसाद द्विवेदी की परंपरा में रख सकते हैं?
हिन्दी आलोचना में इकहरे ढ़ंग से सोचने की आदत है। भारतेन्दुयुग, महावीरप्रसाद द्विवेदी युग आदि के नामकरण के पीछे सब कुछ को एक ही परंपरा या एक ही नजरिए की श्रृंखला में पिरोकर देखने की आदत रही है। सच है कि हिन्दी में एक नहीं कई साहित्य परंपराएं हैं। एक नहीं अनेक दृष्टिकोण हैं। मसलन् भारतेन्दु की परंपरा में दलितसाहित्य या स्त्रीसाहित्य की परंपरा को नहीं रखा जा सकता। साथ ही ये दोनों परंपराएं नवजागरण के प्रति मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी आलोचकों के नजरिए से अपने को अलगाती हैं। इन दोनों साहित्य परंपराओं का सामाजिक आधार भी भारतेन्दुमंडल के लेखकों से भिन्न है।
हिन्दी आलोचना में नवजागरण की खोज और विमर्श में नवजागरण की खोज पर जितना जोर दिया गया उससे ज्यादा नवजागरण की परंपरा के साथ जुड़ने और नवजागरण के असली वारिस बनने पर जोर दिया गया। इसके कारण मार्क्सवादी आलोचना अपने को बुर्जुआ आलोचनादृष्टि से अलगाने की बजाय बुर्जुआजी के वैचारिक खेल में फंसकर रह गयी। आलोचना के बुर्जुआ खेल में फंसने के कारण मार्क्सवादी आलोचना अपना स्वतंत्र वैचारिक अवधारणात्मक आधार निर्मित नहीं कर पायी।
मार्क्सवादी आलोचना में बुर्जुआ खेल किस तरह चलता रहा है उसका आदर्श नमूना है नामवरसिंह का आलोचना लेखन। नामवरसिंह ने आलोचना में नवजागरण के बारे में अपने विचार ऐसे समय व्यक्त किए जब हिन्दी आलोचना में नवजागरण की चर्चा तकरीबन बंद हो गई थी। इस चर्चा को नए सिरे से उठाते हुए उन्होंने नवजागरण के प्रसंग में अस्मिता की अवधारणा पर जोर दिया, भारतेन्दु के प्रसंग में निजभाषा के सवाल को ‘स्वत्व’ और अस्मिता का सवाल बनाया। अस्मिता का सवाल बुर्जुआ विचारधारा का शीतयुद्धीय राजनीति का सबसे प्रिय सवाल है। अस्मिता के सवाल को उठाते हुए वे परंपरागत आलोचना के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। अस्मिता को राजनीतिक स्वाधीनता या स्वाधीनता से जोड़ते हैं।
उल्लेखनीय है अस्मिता का सवाल आज जिस रूप में उठ रहा है नवजागरण के दौरान उसी रूप में नहीं उठा था। नवजागरण के समय अस्मिता को सामाजिक पहचान के रूप में उठाया गया था। वहां व्यक्ति की निजता, स्वायत्तता और स्वतंत्रता को प्रमुखता नहीं मिल पायी थी। व्यक्ति की स्वायत्तता को नवजागरण के दौर में बहसतलब ही नहीं समझा गया। व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता को परिवार के ढांचे के साथ बांधकर रखा गया था। इसी तरह भाषा की स्वायत्तता और विकास को समानता के नजरिए से नहीं देखा गया। निजभाषा के विकास की बातें अमूर्त रूप में ही सामने आती हैं। निजभाषा के विकास का कोई राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य उस समय स्पष्ट रुप में सामने नहीं था। अस्मिता की अवधारणा को व्याख्यायित करते हुए सबसे प्रमुख हिन्दी समीक्षकों ने अंतर्वस्तु समीक्षा को आधार बनाया है। साथ ही पूंजीवाद की प्रकृति की भी समीक्षा की है। इस क्रम में कई जगह तुलना से काम लिया है। तुलना करके इकसार अंतर्वस्तु को स्थापित करना और उसके आधार पर अवधारणा बनाना सही पैमाना नहीं कहा जा सकता। मसलन् इटली के रैनेसां के साथ आए बुद्धिवाद और भारत के बुद्धिवाद के बीच तुलना करना सही नहीं होगा। इसी तरह यूरोप के नवजागरण के साथ भारत की तुलना करना भी सही नहीं है। अवधारणा तय करते समय तुलना की अवधारणा का इस्तेमाल करना सही नहीं होगा। इसी प्रकार जातीयभाषाओं के बीच में तुलना के आधार पर निष्कर्ष निकालना भी सही नहीं है। प्रत्येक भाषा के विकास की प्रक्रिया अलग है और उसकी समस्याएं भी एक जैसी नहीं हैं। भाषा की अस्मिता के आधार पर तुलनात्मकतौर पर अस्मिता को स्थिर करने का काम हिन्दी में ज्यादा हुआ है और उसमें जातीयता और जातीयभाषा की अवधारणा का इस्तेमाल तुलनात्मक तौर पर किया गया है।
जातीयभाषा को आधार बनाकर दिए गए तर्क अपने आपमें मुश्किलें खड़ी करते हैं। इसमें पहली मुश्किल है भाषा को परम तत्व मान लेने की। कोई भी भाषा परम नहीं है। निष्पन्न नहीं है। प्रत्येकभाषा की विकास परंपरा और सामाजिक आधार या बोलने वाली जनता के साथ उसका रिश्ता भिन्न रुप में निर्मित होता है। यह बोलने वाले की चेतना, सामाजिक संबंधों की स्थिति, कम्युनिकेशन के स्तर और कम्युनिकेशन संस्थानों की अवस्था आदि पर निर्भर होती है जो प्रत्येक समाज में एक जैसी नहीं होती। मसलन् तमिल और बंगला भाषा की तरह खड़ीबोली हिन्दी का विकास नहीं हुआ है। इनके बोलने वाले और संस्थान भिन्न रहे हैं फलतः तमिल या बंगला जातिभाषा की तरह खड़ीबोली हिन्दी के विकास को देखना सही नहीं होगा। उसी तरह यूरोप या सोवियत संघ की जातीयभाषा और जातीयता की अंतर्वस्तु के साथ जोड़कर देखना भी सही नहीं होगा। हमारे यहां सामाजिक समूहों की संरचना जातिप्रथा पर आधारित है और इसके कारण भाषा और उसका विकास भी प्रभावित हुआ है। यहां के जातिसमूहों को यूरोप के सामाजिक समूहों की तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता। भारत में शूद्रों को परिभाषित करते समय ब्राह्मणों को परिभाषित करना जरूरी है। सवर्ण के बिना असवर्ण की पहचान तय नहीं कर सकते। इसी तरह इन दोनों की शैक्षणिक स्थिति को भी ध्यान में रखना होगा।
जिनलोगों की अभिव्यक्ति का माध्यम जनभाषा है वे लोग और जिनकी अभिव्यक्ति की भाषा स्टैंडर्ड या सत्ताधारियों की भाषा है, उनके बीच में भाषिक तुलनाएं करना सही नहीं होगा। यह एक सच्चाई है खड़ीबोली हिन्दी शिक्षितों की भाषा थी और व्यापारियों (खत्री व्यापारियों) के यहां इसका उपयोग होता था। इसके विपरीत मैथिली, अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा आदि की स्थिति एकदम भिन्न थी, ये जनभाषाएं थीं। इसी तरह हिन्दीक्षेत्र में अभिजन और आम आदमी के भाषिक संसाधन अलग-अलग थे। इसके कारण भाषा के स्तर पर सत्य को समझना और व्याख्यायित करने का रूप भिन्न था। एक ही सत्य को खड़ीबोली हिन्दी बोलने वाला जिस रूप में देख रहा था जरूरी नहीं है जनभाषा बोलने वाला व्यक्ति भी वैसे ही देखे ? क्योंकि सत्य के वाक्य-विन्यास की स्थितियां एक जैसी नहीं रहेंगी। यह भी संभव है जो सत्य खड़ीबोली हिन्दी लेखक को नजर आ रहा हो वह जनभाषी को नजर ही न आए।
दो भाषाओं में तुलना करते समय यदि सत्य को व्यक्त करने की भाषा एक जैसी है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि उसकी ज्ञानमीमांसात्मक चेतना भी एक जैसी होगी। मसलन् स्त्री के आधुनिकरूप की बात भारतेन्दुमंडल के यहां भी है और बंगला लेखकों और विचारकों के यहां भी है लेकिन क्या सामाजिक स्तर एक जैसा है? आज भी बंगलाभाषी स्त्री और हिन्दीभाषी स्त्री का यथार्थ एक जैसा नहीं है। चेतना का स्तर एक जैसा नहीं है। 19वीं सदी के बंगाली बुद्धिजीवी और हिन्दी बुद्धिजीवी के विचार अनेक मामलों में मिलते हैं लेकिन सामाजिक धरातल पर, सत्य के धरातल पर विराट अंतराल है। बंगला बुद्धिजीवी के लिए सतीप्रथा एक समस्या है लेकिन हिन्दीप्रान्तों में यह समस्या नहीं है। इस समस्या को लेकर कोई सामाजिक हलचल नहीं है। यह संभव है दो जातीयभाषाओं में किसी विषय पर एक जैसे विचार व्यक्त किए गए हों लेकिन सामाजिकस्तर पर चेतना और सत्य को लेकर व्यापक अंतर हो। कुछ लोगों के लिए जातिसूचक नामों का प्रयोग करना जातिवाद प्रतीत हो सकता है लेकिन किसी अन्य जाति में यह भावना ही न हो। मसलन् हिन्दीभाषी क्षेत्र में जातिसूचक नाम के प्रयोग जातिभेद को व्यक्त करते हैं लेकिन बंगला में यह भेद नवजागरण के दौरान ही खत्म हो गया ।
अंतर्वस्तु समान होने से अवधारणा नहीं बनती। इसके समानान्तर अर्थ के आधार पर भी अर्थ सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। सवाल यह है कि नवजागरण के संदर्भ में जिन अवधारणाओं की बात की जाती रही है वे क्या सामाजिक यथार्थ से मेल खाती हैं ? हिन्दी में सामाजिक यथार्थ (शिक्षित-अशिक्षित दोनों का) के साथ अवधारणा का व्यापक अंतराल है। कोई भी अवधारणा वैज्ञानिक रूप में तब ही स्थापित होती है जब उसका सामाजिक ऑब्जेक्ट के साथ साम्य हो।
नवजागरण में विवेकवाद और बुद्धिवाद है लेकिन क्या वास्तव में हिन्दी के शिक्षितवर्ग की उस दौर की चेतना और व्यवहार के साथ ये तत्व मेल खाते हैं ? अवधारणा तब तक नहीं बनती जब तक विचार विशेष और ऑब्जेक्ट के बीच में साम्य स्थापित न हो जाय ।
अस्मिता में समत्व के विचार के आधार पर जब भी अस्मिता बनायी जाएगी उसमें समस्याएं रहेंगी। समत्व के आधार पर बनायी गयी अधिकांश धारणाएं ऑब्जेक्ट के साथ मेल नहीं खातीं। फलतः अवधारणा और यथार्थ में मेल नजर नहीं आता। सामाजिक चेतना और सामाजिक विकास के बीच में फांक नजर आती है। भाषा और उसके सामाजिक आधार के बीच में अंतराल नजर आता है। भाषा के बारे में सचेतनता जितनी बढती जाती है उसी अनुपात में वैचारिक समझ भी बढ़ती जाती है। हमारे अनुमान करने की क्षमता में भी इजाफा होता जाता है। साथ ही भाषा की ज्ञानमीमांसा और व्याख्या में भी बदलाव आता है। इसके अलावा भाषा की व्याख्या बार बार बदलती है। कल तक जिसे जातीयभाषा कहते थे जरूरी नही है वह आज जातीय भाषा के रूप में न जानी जाती हो। हिन्दी आज कॉमन कम्युनिकेशन की राष्ट्रीय –ग्लोबल भाषा है। मूल बात यह है कि भाषा में व्याख्या के स्तर पर फ्रैगमेंटेशन स्वाभाविक चीज है। भाषा में सम्मिश्रण स्वाभाविक चीज है। यदि अस्मिता की अवधारणा का सामाजिक यथार्थ से मेल नहीं हो पाता है तो वैसी स्थिति में अवधारणा के असफल हो जाने या अप्रासंगिक हो जाने का खतरा रहता है। हिन्दी में नवजागरण की अवधारणा की तकरीबन यही स्थिति है।
हिन्दी नवजागरण की सबसे बड़ी मुश्किल है कि हमने हिन्दीभाषी क्षेत्र के अन्य हिस्सों को विस्तार के साथ कभी खोलने की कोशिश ही नहीं की। नवजागरण हो तो इसके लिए जरूरी है कि उसके समूचे क्षेत्र को विस्तार से खोला जाय। हिन्दी नवजागरण तब ही संभव है जब हम हिन्दी अस्मिता को मानें और हिन्दी अस्मिता पूरी तरह निर्मित तब ही होती है जब हिन्दीक्षेत्र के बृहत्तर हिस्सों को खोला जाए। हिन्दी जाति और अन्यजातियों के बीच के संबंध को भी रेखांकित किया जाय। अस्मिता जहां एक ओर अपने को विवेचित करती है वहीं दूसरी ओर अन्य को जन्म भी देती है। अतः पहले हमें यह देखना चाहिए कि हिन्दीजाति अपना वर्णन कैसे करती है और किस तरह अन्य सामाजिक इकाइयों के प्रति रिएक्ट करती है।
अस्मिता विमर्श को जिन लोगों ने निर्मित या प्रचारित किया है उनकी अन्य अस्मिताओं के विमर्श में कोई खास दिलचस्पी नहीं देखी गयी। मसलन् भाषा की अस्मिता पर नामवर सिंह ने जोर दिया लेकिन स्त्री और दलित अस्मिता के सवाल उनके लिए हाशिए के सवाल भी नहीं रहे हैं। यही हाल रामविलास शर्मा का है। उनके लिए अस्मिता के रुप में हिन्दीजाति का सवाल प्रमुख है लेकिन उन्होंने कभी अन्य अस्मिताओं के सवालों पर विचार ही नहीं किया। रामविलास शर्मा ने समूचे लेखन से यह आभास मिलता है कि हिन्दीजाति का सवाल मार्क्सवादी चिंतन का हिस्सा है और स्त्री या दलित अस्मिता के सवाल उसका हिस्सा नहीं हैं। सच यह है कि अस्मिता विमर्श अंततः परंपरागत मार्क्सवादी पैराडाइम का अंग नहीं है। यह कम्युनिस्ट पार्टियों के विमर्श का हिस्सा भी नहीं है। अस्मिता के रुप में हिन्दीभाषा को आधार बनाकर आज हम जब बहस करते हैं और 19वीं सदी को याद करते हैं और उसकी स्मृतियों में डूबकर गोते लगाते हैं तो यह भूल ही जाते हैं कि हिन्दीभाषी जनता में अस्मिता के रूप में भाषा को आधार बनाएंगे तो इसमें अनेक उलझनों में फंस सकते हैं। मसलन् जो खड़ीबोली हिन्दी को अपनी अस्मिता मान रहे हैं उनकी भाषायी अस्मिता किसी अन्य भाषा से जुड़ी हो सकती है। हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक व्यापक मध्यवर्ग पैदा हुआ है वो अपनी भाषायी अस्मिता को हिन्दी से नहीं अंग्रेजी से जोड़ता है। अन्य ऐसे भी लोग हैं जो अन्य भाषायी अस्मिताओं से अपने को जोड़ते हैं।
अस्मिता पर बात करते समय एक ही अस्मिता को एक समय में निर्धारक बनाया जा सकता है। अन्य अस्मिताएं गौण हो जाती हैं।लेकिन समय और परिस्थितियां बदलने के साथ अस्मिता भी बदलती है। यह संभव है जो अस्मिता पहले गौण नजर आ रही हो वह आज सक्रिय और प्रधान अस्मिता बन जाए। हिन्दीजाति की बहस में असल समस्या यह है कि हिन्दीजाति अमूर्त नजर आती है। हिन्दीजाति की अमूर्तता का प्रधान रूप तब सामने आता है जब हिन्दीजाति की अन्य जातियों के साथ तुलना की जाती है। जब आप एक जाति के साथ दूसरी जाति की तुलना करते हैं तो अमूर्त अस्मिता बनाते हैं। लक्षणों के आधार पर साम्य स्थापित जब भी करेंगे तो अमूर्तता पैदा होगी। मसलन्, रामलाल की रामलाल वर्मा के साथ तुलना करके एक जैसा अर्थ व्यंजित करने या एक जैसा अर्थ खोजने की जब भी कोशिश की जाएगी अस्मिता अमूर्त शक्ल ग्रहण कर लेगी। एक प्रोफेसर की दूसरे प्रोफेसर के साथ पद के आधार पर तुलना की जाएगी तो अमूर्त अस्मिता जन्म लेगी। इसी तरह एक भाषा की दूसरी भाषा के साथ एक जाति की दूसरी जाति के साथ लक्षणों के आधार पर तुलना मुश्किलें खड़ी करती है और इससे अमूर्त अस्मिता का जन्म होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि भाषा के आधार पर जब भी अस्मिता बनेगी वह अमूर्त ही होगी। अमूर्त अस्मिता का खतरा अन्य अस्मिता-रूपों के साथ भी हो सकता है। मसलन् ज्योंही हिन्दीभाषी औरत और बंगाली औरत की तुलना करते हुए लक्षण साम्य खोजने की कोशिश की जाएगी तो अमूर्तन पैदा होगा।
नामवरसिंह ने ‘स्वत्व’ के बहाने जिस अस्मिता की बात की है उसे वे मानवाधिकारों से जोड़कर नहीं देखते। भाषायी अस्मिता का सवाल हो या निजी या सामाजिक अस्मिता के सवाल हों-- ये सभी सवाल मानवाधिकार के दायरे में आते हैं। सवाल यह है कि नामवरसिंह मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में रखकर क्यों नहीं सोचते ? वे जानते हैं कि अस्मिता को मानवाधिकार के दायरे में रखकर देखा जाना चाहिए। लेकिन वे मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में रखकर नहीं सोचते फलतः वे जिस अस्मिता की बात करते हैं उसकी राजनीति और विचारधारा दोनों के अतर्विरोधों को छिपाते हैं। अस्मिता का सवाल मानवाधिकार का सवाल है। यह महज साहित्य-प्रपंच नहीं है। भारतेन्दु के दौर में मानवाधिकार की समझ नहीं थी लेकिन आज तो है। भारतेन्दु नहीं जानते थे, लेकिन नामवर सिंह जानते हैं। आलोचना में मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा के बिना आलोचना का लोकतांत्रिकीकरण संभव नहीं है। आलोचना की आंतरिक प्रक्रिया पारदर्शी नहीं बनती।
नामवर सिंह को आलोचना में फतवे देने में मजा आता है। आलोचना में फतवेबाजी वस्तुतः आलोचना का अंत है। आलोचना में सरलीकरण करना भी आलोचना का अंत है। दुर्भाग्य से नामवर सिंह ने अपने नवजागरण लेखन में यही किया है। वे फतवे देते हैं। निष्कर्ष देते हैं। वे कभी किसी मुद्दे को गंभीरता के साथ विश्लेषित नहीं करते। ‘स्वत्व’ को यदि वे अस्मिता से जोड़ते हैं तो यह भी देखें कि क्या खड़ीबोली हिन्दी का हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं के साथ भाईचारा और आंतरिकता बढ़ी है या घटी है? क्योंकि अस्मिता की राजनीति भावनात्मक बंधनों को मजबूत करती है। लेकिन विगत 65सालों का अनुभव बताता है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों के साथ खड़ीबोली की दूरी बढ़ी है। हिन्दीभाषी क्षेत्र में खड़ीबोली के अलावा अन्य भाषाओं और बोलियों के पठन-पाठन और प्रकाशन में ह्रास आया है। खासकर अकादमिक स्तर पर यह खाई व्यापक रूप में नजर आती है। यह अचानक नहीं है कि नामवरसिंह ने हिन्दी भाषीक्षेत्र की खड़ीबोली से इतरभाषाओं और बोलियों के साहित्य पर कुछ भी नहीं लिखा।
अस्मिता की पहचान हमेशा अपने सामाजिक समूह से भावनात्मक तौर पर जुड़ी रहती है। उसके दमित, वंचित सामाजिक समूहों को अभिव्यक्ति देती है। हिन्दी में यह देखना मजेदार होगा कि किसानों और मजदूरों पर कितना कथासाहित्य या काव्य लिखा गया? ये वे वर्ग हैं जो बृहत्तर सामाजिक समुदाय और भाषाओं के दायरे को समेटते हैं। हिन्दी का अधिकांश साहित्य मध्यवर्गकेन्द्रित रहा है। यह वर्ग हिन्दी का बड़ा भोक्ता भी है। यहां तक कि दलितों और स्त्रियों का भी अधिकांश लेखन मध्यवर्ग केन्द्रित है। इस वर्ग के चित्रण में एक खास फिनोमिना नजर आता है कि वहां पर बार बार यह दरशाने की कोशिश की जा रही है मध्यवर्ग बदल रहा है, वह पहले जैसा था अब वैसा नहीं है। यानी मध्यवर्ग के रूपान्तरित रूपों की चर्चा खूब हो रही है। यह भी चर्चा खूब हो रही है कि एक अस्मिता का दूसरी अस्मिता किस तरह शोषण कर रही है। किस तरह का सांस्कृतिक वर्चस्व एक-दूसरे पर स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। दलित और स्त्रीसाहित्य के संदर्भ में खूब लिखा जा रहा है। इस क्रम में अस्मिता पर हो रहे हिंसाचार, शारीरिक शोषण, उत्पीडन, अलगाव, शक्तिहीनता आदि के सवालों पर जमकर बहस हो रही है। यह भी कहा जा रहा है कि अस्मिता के सवाल इसलिए उठाए जा रहे हैं जिससे संबंधित अस्मिता की चेतना को ऊँचा उठाया जाय, उसे अभिव्यक्ति मिले।
नामवरसिंह के ‘स्वत्व’मॉडल की एक अन्य मुश्किल यह है कि उसमें लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं है। वे स्वाधीनता के भावबोध के अभाव की भारतेन्दुयुग में चर्चा करते हैं। लेकिन लोकतंत्र की नहीं। लोकतंत्र के बिना अस्मिता नहीं बनती और स्वाधीनता की भावना भी पैदा नहीं होती। अस्मिता और लोकतंत्र अन्योन्याश्रित हैं। लोकतंत्र जितना समृद्ध होगा अस्मिताचेतना भी उतनी ही समृद्ध होती जाएगी। लोकतंत्र का जिन क्षेत्रों में विस्तार होगा उन क्षेत्रों में अस्मिता के सवाल तेजी से सामने आएंगे। लोकतांत्रिकचेतना के कारण अस्मिताचेतना और अस्मिता की राजनीति का विकास होता है। लोकतंत्र के विकास के कारण साझा भावबोध की धारणा फैलती है। शिरकत की भावना का विकास होता है। अस्मिता के प्रसार के लिए ये दोनों चीजें बेहद जरूरी हैं। अस्मिता के विकास के कारण विभिन्न जातियों, समुदायों, हाशिए के समूहों के आत्मनिर्भर होकर विकास करने की संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। अस्मिता के आधार पर जब देखना आरंभ करते हैं तो साहित्य के आधार के रूप में मनुष्य पदबंध अपदस्थ हो जाता है। पहले मनुष्य के रूप में देखते थे।
भारतेन्दुयुग में मनुष्य की प्रतिष्ठा हुई है, अस्मिता की नहीं। अस्मिता की धारणा कालांतर में जन्म लेती है और बहस के केन्द्र में आती है। पहले ‘मनुष्य’ की मांगें थीं अब अस्मिता के आधार पर मांगे पेश की जा रही हैं। पहले सार्वभौम मनुष्य के आधार पर सोचने और चित्रित करने का रिवाज था नया अस्मितायुग लिंग, जाति, धर्म, भाषा, सम्प्रदाय, नस्ल, जातीयता आदि अस्मिता रूपों के आधार पर चित्रण और मांगें पेश कर रहा है। भारतेन्दुयुग में खड़ीबोली हिन्दी के विकास के साथ भाषा के ‘स्वत्व’ की बात उठी जरूर है लेकिन वे ‘स्वत्व’ को मनुष्य के पैराडाइम पर रखकर देखते हैं, अस्मिता के पैराडाइम पर रखकर नहीं देखते ।