सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

टेलीविजन में साम्प्रदायिक हिंसाचार की प्रस्तुति के खतरे -1-

साम्प्रदायिक हिंसाचार की टेलीविजन पर प्रत्यक्ष प्रस्तुति साम्प्रदायिक विवाद और ध्रुवीकरण को तेज करती है।चैनलों को चिंता है कि घटना को सीधे या लाइव प्रसारण दिखाया जाए। लाइव टेलीकास्ट के तात्कालिक फायदे हैं।इससे हत्यारे गिरोहों और हिंसा को बेनकाब करने में मदद मिलती है।किंतु इससे हिंसाचार को स्थानीय स्तर से उठाकर राष्ट्रीय स्तर तक फैलने का मौका मिलता है।इस तरह का प्रसारण हिंसा करने वालो को राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक मदद करता है।


हिंसा का प्रसारण हिंसा को खत्म नहीं करता बल्कि हिंसा को वैध बनाता है।प्रस्तुति चाहे जिस परिप्रेक्ष्य में की जाए हिंसा अंतत: हिंसा को जन्म देती है।यह वाचिक हिंसा हो सकती है या फिर कायिक हिंसा हो सकती है।


साम्प्रदायिक हिंसाचार का प्रदर्शन दर्शक के मन में बैठी हुई भ्रांतियों और साम्प्रदायिक मनोभावों को सतह पर ले आता है।इसके कारण साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह प्रबल हो उठते हैं। टेलीविजन वालों की चिन्ता ताजा घटना बताने की है किन्तु इसके प्रभाव की ओर से वे ऑंखें बंद किए रहते हैं।ध्यान रहे किसी भी प्रसारण के प्रभाव को सिध्द करना बेहद मुश्किल काम है।


 किसी प्रस्तुति विशेष को देखने वाला व्यक्ति अन्य अनुभवों और प्रस्तुतियों के संपर्क में भी आता है।इन अनुभवों के प्रभाव से उस प्रस्तुति विशेष के प्रभाव को पृथक् कर पाना सरल नहीं होता।अंतत: इस बारे में फैसला समाज के किसी शासक समूह के मानकों अथवा समाज के सामान्य विवेक के आधार पर लिया जाता है।


गुजरात के जनसंहार पर टेलीविजन प्रस्तुतियों को हमें टेलीविजन कार्यक्रमों में प्रसारित हिंसक कार्यक्रमों के फ्लो के संदर्भ में भी देखना चाहिए।साथ ही टेलीविजन से निरंतर साम्प्रदायिक संगठनों के नेताओं के अशालीन और बेहूदे बयानों के साथ रखकर भी देखना चाहिए।हम यह भी देखें कि टेलीविजन चैनल कितना समय साम्प्रदायिक संगठनों को देते हैं और उनकी किस तरह की बातों को प्रसारित करते हैं। 


अनेक माध्यम विशेषज्ञों ने कहा कि गुजरात के नरसंहार के प्रत्यक्ष प्रसारण या खबरों में हिंसा के दृश्यों ने साम्प्रदायिक संगठनों को नंगा किया है।उन्हें अलग-थलग किया है।यह भी कहा गया कि इस तरह की प्रस्तुतियां धर्मनिरपेक्ष एजेण्डे को आगे बढ़ाती हैं। इस तरह का तर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि जब हिंसा का प्रत्यक्ष समर्थन,उकसाने या भड़काने की कार्रवाई या केबल चैनलों से हिंसा या बलात्कार की झूठी खबरें बवाल मचा सकती हैं तो वास्तव खबरें क्या बवाल नहीं मचाएंगी


माध्यम विशेषज्ञ यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि गुजरात के हिंसाचार का एक्सपोजर साम्प्रदायिक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करेगा।हमारे पास इस तरह के अभी तक शोध नहीं हैं जो हिंसाचार के प्रसारण को दिखाने पर हिंसा के प्रति घृणा पैदा होती है,इस धारणा की पुष्टि करते हों। 


टेलीविजन के प्रभाव के बारे में सभी रंगत के विचारक यह मानते हैं कि प्रभाव के बारे में सुनिश्चित रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है।एल बिर्कोविट्त्ज ने काफी अर्सा पहले माध्यम प्रक्षेपित हिंसा के मनोवैज्ञानिक पक्षों का सटीक मूल्यांकन किया था।एल.बिर्कोविट्त्ज ने ''सम आस्पेक्ट्स ऑफ आब्जर्वड एग्रेसन'' में लिखा कि गुस्साए लोगों के सामने टेलीविजन हिंसा का प्रदर्शन उनके आक्रामक व्यवहार में वृध्दि करता है।


प्रस्तुति में जो चीजें दिखाई जाती हैं वे आक्रामक व्यवहार के लिए प्रारम्भिक सूत्र का काम करती हैं।जब इन प्रारम्भिक सूत्रों को बाद में यथार्थ जीवन में देखने या खोजने की कोशिश की जाती है तो इससे पुन:आक्रामक व्यवहार में इजाफा होता है। एक अन्य निबंध''सम डिटर्मिनेन्ट्स ऑफ  इम्पलसिव एग्रेशन:दि रोल ऑफ मेडीएटेट एसोसिएशन्स विद रीइनफोर्समेंट्स फार एग्रेसन''में लिखा कि कुण्ठाएं या फ्रस्टेशन आक्रामकता के लिए तैयार करता है।


आक्रामकता के लिए दो चीजें जरूरी हैं पहली है व्यक्ति के अंदर गुस्सा या कुण्ठा,दूसरी चीज है अनुकूल वातावरण।एक अन्य निबंध ''सम इफेक्टस ऑफ थॉट आन एण्टी एंड प्रो सोशल इन्फ्लुएंस ऑफ मीडिया इवेन्ट''में लिखा कि व्यक्ति जब गलती करता है तब गुस्सा करता है।आक्रामक व्यवहार तब भी पैदा हो सकता है जब व्यक्ति किसी एक्शन से व्यक्तिगत तौर पर प्रभावित न हो।


मसलन् जब माहौल गरम हो तब व्यक्ति को गुस्सा आता है। जबकि गरमी व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए पैदा नहीं की जाती।व्यक्ति संवेदनाओं के स्तर पर हमला करने के बारे में तब महसूस करता है जब उस पर सिलसिलेवार ढ़ंग से वाचिक या शारीरिक हमला हो।गुस्से में व्यक्ति दो स्तरों पर सक्रिय रहता है हमला और पलायन।हमले के समय गुस्सा मदद करता है।वहीं दूसरी ओर गुस्से के कारण पलायन करता है ,जिम्मेदारी से भागता है।


 यह असल में भय की प्रतिक्रिया है।इसको प्रतिकूल परिस्थिति में सक्रिय होते हुए देखा जा सकता है।प्रतिकूल परिस्थितियों में गुस्सा क्यों आता है ?इसके बारे में बिर्कोविट्त्ज का मानना है कि क्रोध के साथ अनेक किस्म के भाव जुड़े होते हैं।विरोधी भाव भी जुड़े होते हैं।साथ ही प्रतिकूल आक्रामक आचरण भी जुड़ा होता है।गुस्सा या आक्रामक व्यवहार के समय इनमें से कोई भी तत्व सक्रिय हो सकता है।यह भी संभव है जिसे कमजोर तत्व समझा जा रहा है वह आक्रामकता में वृध्दि करे।


यह भी देखा गया है कि व्यक्ति जब पूर्व घटना के बारे में सोचता है तब आक्रामक हो उठता है।अथवा विरोधी विचारों का सामना करता है तब आक्रामक हो उठता है।जब दर्शक टेलीविजन पर किसी घटना को देखता है तब उसकी जानकारी में इजाफा होता है।यह प्रक्रिया स्वचालित रूप में घटित होती है।इसमें सचेत विचारों की थोड़ी भूमिका होती है।


 साथ ही ज्योंही दर्शक हिंसाचार के चित्र देखता है तब अन्य हिंसाचार के चित्र उसके जेहन में स्वत: आने लगते हैं।बिर्कोविट्त्ज का मानना है कि हिंसा की एक भी घटना का उद्धाटन तय मानसिकता को पूरी आक्रामकता के साथ उभार देता है।आक्रामकता तब तक अपनी भूमिका अदा नहीं करती जब तक दर्शक आक्रामकता को महसूस न करे।सिर्फ फिल्म के प्रदर्शनमात्र से आक्रामक रवैयया पैदा नहीं होता।जब लोग यह सोचते हैं कि किसी घटना को उनसे छिपाया गया या सुचिंतित भाव से गलत ढ़ंग से पेश किया गया या सुचिंतित भाव से दिखाया जा रहा है तो नाखुश होते हैं,गुस्सा होते हैं।इसके अलावा परिवेशगत स्थितियां और व्यक्तिगत कारण भी संवेदनाओं को प्रभावित करते हैं।साथ ही घटना को व्यक्ति कैसे व्याख्यायित करता है,इसका भी प्रभाव होता है।

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