शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

मोदी और गुजराती अस्मिता की राजनीति-2

जनता की चेतना’ के नाम पर पांच करोड़ जनता का जयगान वस्तुत: ऐसी जनता का जयगान है जिसने सचेत रूप से वास्तविकता से अपने को अलग कर लिया है। जनता की यथार्थ से विच्छिन्न अवस्था का मीडिया ने खासकर चैनल प्रसारणों में बार-बार प्रक्षेपण किया गया।

     चैनलों में  विधानसभा चुनाव के समय गुजरात की जनता के चेहरे आ रहे थे ,चैनलों में शिरकत के जरिए जनता का महिमामंडन चल रहा था,किंतु जनता के ऊपर मीडिया का सत्य थोपा हुआ था, मीडिया सत्य के आधार पर जनता की भावनाओं को उभारा जा रहा था। इसका सिलसिला काफी पहले से शुरू हुआ था।

मोदी की विकासपुरूष की इमेज,''पांच करोड़ की गुजराती अस्मिता'' को मीडिया ने विगत पांच वर्षों (2002-07 ) में सचेत रूप से विकसित किया गया। सन् 2002 के दंगों की विभीषिका और तद्जनित सत्य से लोग दूर रहें, इसका सारा ताना-बाना गुजरात में 2002 के दंगों के बाद से शुरू हुआ था और इसके लिए एक ही बात बार-बार कही गयी कि हम 2002 को भूलना चाहते हैं। हम आगे जाना चाहते हैं। लेकिन विपक्ष बार-बार 2002 का रोना-धोना लेकर आ जाता है और हमें गोधरा की याद दिलाता है।
     उल्लेखनीय है संघ परिवार भारत में अस्मिता राजनीति का चैम्पियन है। आधुनिक भारत की अस्मिता की राजनीति का विमर्श संघ को अपने अंदर समेटे हुए है। संघ ने गुजरात में ''पांच करोड़ की गुजराती अस्मिता'' का नारा इसलिए दिया कि गुजरात के सत्य पर पर्दा डालना था और सत्ता हासिल करनी थी, अस्मिता का सवाल सत्य के उद्धाटन का हिस्सा नहीं होता बल्कि सत्य पर पर्दादारी के लिए, सत्य से ध्यान हटाने ,वास्तव मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए अमूमन अस्मिता  की राजनीति का इस्तेमाल किया जाता है।
अस्मिता सत्य से पलायन का अस्त्र हैअस्मिता के नाम पर मानवता को बौना बनाया जाता है,मनुष्य को छोटा बनाया जाता है अथवा उसकी उपेक्षा की जाती है।
  
 ''पांच करोड़ की गुजराती अस्मिता'' के नाम पर गुजरात के मानव सत्य को अस्वीकार किया गया। इस कार्य में मीडिया ने बड़े ही कौशल के साथ मोदी का साथ दिया और बार-बार रेखांकित किया कि गुजरात का सत्य वही है जो मोदी कह रहा है। मोदी जो कह रहा है वही वास्तविकता है।

साथ ही गुजरात के बारे में सभी किस्म के ऐतिहासिक-राजनीतिक सत्य को मीडिया ने विकृत करके पेश करने की कोशिश की और बार-बार यही दरशाने की कोशिश की है कि इस बार का चुनाव जाति के नाम पर नहीं लड़ा गया, साम्प्रदायिकता के नाम पर नहीं लड़ा गया, हिन्दुत्व के नाम पर नहीं लड़ा गया, इस बार का चुनाव सिर्फ विकास के नाम पर लड़ा गया और सभी चुनाव विश्लेषक (जिनमें अधिकांश धर्मनिरपेक्ष थे) यही बताते रहे कि गुजरात का चुनाव विकास के नाम पर लड़ा गया । इस तरह की व्याख्याओं का गुजरात के मानवीय यथार्थ से कोई संबंध नहीं है। संघ परिवार की विकास परिवार के रूप में छवि बनाने की कोशिश मीडिया राजनीति का हिस्सा है।  इसमें गुजरात की जनता की चेतना नहीं बोलती, गुजरात की जनता के अन्तर्विरोध नहीं बोलते। 
    आज हमारे सामने मुश्किल चुनौती है जनता के सही अर्थ को परिभाषित करने की। जनता की चुप्पी के क्षेत्रों के अर्थ खोलने की। हमें देखना होगा  क्या जनता के नाम पर जो अर्थ बांटा जा रहा है क्या वह मीडिया निर्मित अर्थ है  ? क्या सत्य का विकृतिकरण  हो रहा है सत्य का लोप तो नहीं हो गया ? मीडिया की विशेषता है  वह अर्थ सर्वग्राह्य बनाता है,सरलीकरण करता है,तटस्थ बनाता है। अर्थ को फॉर्मरहित बनाता है। अथवा जनता को ही फॉर्मलेस बनाता है। जहां मीडिया के द्वारा प्रस्तावित अर्थ का जनता प्रतिरोध करती है उसे अस्वीकार करती है,वहां पर मीडिया जनता के प्रतिरोध का जबाव नहीं देता। मासमीडिया हमेशा सत्ताा के साथ रहता है और जनता को मेनीपुलेट करता है।  यह भी संभव है मीडिया जनता के साथ हो और जनता को ही सही अर्थ से वंचित कर दे,अर्थ को खोखला बना दे। जनता के अर्थ के साथ हिंसाचार करे। ऐसी अवस्था में जनता मीडिया से अभिभूत रहे ,अथवा राजनीति को मीडिया शोमैनशिप के मार्ग पर ठेल दे। गुजरात के संदर्भ में इन प्रवृत्तियों को सहज ही देखा जा सकता है।
       मोदी का तर्क है विगत पांच साल में गुजरात में कोई साम्प्रदायिक दंगा नही हुआ। यह बात तथ्यत: ठीक नहीं है। इन पांच सालों में कईबार साम्प्रदायिक हिंसाचार की वारदातें हुई हैं। स्थिति यह है कि गुजरात में जिस दिन चुनाव प्रचार आरंभ हुआ उसी दिन साम्प्रदायिक हिंसाचार की घटना हुई और उसमें कई लोग मारे गए। कई चर्च भी हमले के शिकार हुए । दूसरी बात यह साम्प्रदायिक हमला सिर्फ दंगे अथवा हिंसाचार के समय ही नहीं होता बल्कि तथाकथित शांत माहौल में साम्प्रदायिक वैचारिक हमले होते रहते हैं और ये कायिक हिंसाचार से ज्यादा गंभीर घाव करते हैं। सवाल यह है कि विगत 8 सालों में गुजरात में साम्प्रदायिक विचारधारा के हमले हुए हैं या नहीं ? साम्प्रदायिकता बढ़ा है या घटा है ? ध्यान रहे साम्प्रदायिकता वह भी है जो हिंसाचार के बिना होती है। संघ जानता है कि गुजरात में मुसलमानों को अधमरा किया जा चुका है। उनकी समूची अर्थव्यवस्था तहस-नहस की चुकी है। इस तबाही के बाद ही मोदी सत्ता में आया था।
सन् 2002 का चुनाव जीतने के बाद मोदी का प्रमुख लक्ष्य था गुजरात को साम्प्रदायिकचेतना से घेर लेना। और इस कार्य में मोदी सफल रहा। अहर्निश मुसलमानों ,ईसाईयों और धर्मनिरेक्षता के खिलाफ वैचारिक अभियान चलाया गया, समूचा सामाजिक वातावरण प्रदूषित करके रखा गया। पहले साम्प्रदायिकता के तर्को के आधार पर कत्लेआम किया गया और सन् 2002 में चुनाव जीतने के बाद साम्प्रदायिक विचारधारा को जबर्दस्ती लोगों के जेहन में उतारा गया। इसके लिए 'पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' के नारे को वैचारिक अस्त्र बनाया गया। अनेक ऐसे कानून बनाए जिनसे अल्पसंख्यकों के हितों को नुकसान पहँचता है।
   अल्पसंख्यकों के खिलाफ समूचे राज्य में आर्थिक-राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव की भावना को जमीनी वास्तविकता में तब्दील कर किया गया। अघोषित तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ पाबंदियां लगायी गयीं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष बुध्दिजीवियों पर निरंतर हमले संगठित किए गए। सवाल उठता है यदि मोदी की जीत के बाद गुजरात में शांति लौट आई थी तो मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के खिलाफ द्वेष और घृणा अभियान जारी क्यों रहा ? ये अभियान बताते हैं कि मोदी के शासन में साम्प्रदायिक अशांति जारी थी।

  दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि गुजरात के राज्यव्यापी जनसंहार की पृष्ठभूमि एक दिन में तैयार नहीं हुई बल्कि इसकी जमीन लंबे समय से तैयार की जा रही थी, संभवत: राममंदिर आन्दोलन के आरंभ होने के साथ ही गुजरात के जनसंहार की आधारशिला रख दी गयी थी। लालकृष्ण अडवाणी की राम रथयात्रा सोमनाथ से  शुरू हुई और गुजरात को संघपरिवार की आदर्श परीक्षणस्थली अथवा प्रयोगशाला के तौर पर विकसित करने का फैसला तब ही ले लिया गया था। भाजपा को यू.पी. में असफलता हाथ लगी किंतु गुजरात में प्रयोग सफल रहा। इसका प्रधान कारण है गुजरात में जमीनी स्तर पर दो दलीय ध्रुवीकरण है। कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी भी दल का अस्तित्व नहीं है। यह दो दलीय ध्रुवीकरण भाजपा के लिए आसानी से सत्ता में ले जाने में मददगार साबित हुआ है। यदि गुजरात में कोई तीसरा दल होता जैसा यू.पी. अथवा बिहार में है तो भाजपा को संभवत: जनता नहीं चुनती। दो दलीय ध्रुवीकरण में भाजपा हमेशा फायदे में रहेगी। गुजरात से राजनीति का यही मॉडल निकल रहा है। भाजपा चाहती है कि साम्प्रदायिक और गैर साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण हो। दो दलीय अथवा दो मोर्चों की राजनीति का मंच तैयार हो। इसमें भाजपा ज्यादा सुविधाजनक स्थिति में रहेगी।
   



             

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