शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

संस्कृति उद्योग में बालठाकरे की विदाई का शोक प्रस्ताव - सुधा सिंह

आखिरकार शाहरूख की फिल्म 'माई नेम इज़ खान' रिलीज हो ही गई। देश के अन्य हिस्सों की तरह मुंबई में भी यह हाउसफुल गई। हर तरफ फिल्म का स्वागत किया गया। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म क़ामयाब रही। अमेरिका, पाकिस्तान और अन्य देशों में भी यह स्थिति है। लेकिन इस फिल्म के रिलीज के पहले और रिलीज के दौरान भी कई तरह की राजनीति चल रही थी। हिन्दुत्ववादी मुद्दा फिल्म उद्योग में और ज्यादा नहीं चल सकता शिवसेना को भी यह समझ लेना चाहिए। फिल्म की सफलता को देखकर यही कहा जा सकता है कि जनता सबसे बड़ी है। जनता से ऊपर कुछ नहीं है। जनता ने अपना फैसला कर लिया। जनता का हीरो बाल ठाकरे नहीं शाहरूख खान हैं, यह जनता ने साबित कर दिया। भेदवादी दृष्टि को एक सिरे से नकार कर साबित कर दिया कि वह परिपक्व है और अपने फैसले लेना जानती है। बस मौका और समय का इंतजार करती है। बॉलीवुड ने भी इस मुद्वे पर अपनी एकजुटता दिखाई। बॉलीवुड की नामी हस्तिया¡ फिल्म देखने गई। कइयों को लौटना पड़ा क्योंकि फिल्म हाउसफुल थी। कबीर बेदी जैसे अनेक कलाकार टिकट न मिलने के कारण लौटने पर मज़बूर हुए।
  चाहे यह कहा जाए कि फिल्म मुंबई और हिन्दुस्तान के अन्य जगहों पर सुरक्षा के साए में या कहें तो हमलों की आशंका के बीच रिलीज हुई। लेकिन फिल्म को लेकर जनता के उत्साह और भारी संख्या में मल्टीप्लेक्स और सिनेमाघरों की तरफ उसके रूख ने भय और आतंक की राजनीति को धता बता दी। जनता ने समझा दिया कि सेलेक्ट या रिजेक्ट वही करेगी। यह हक़ किसी और को नहीं देगी। जनता के रवैय्ये के कारण मल्टीप्लेक्स मालिकों को भी अपने रूख़ में परिवर्तन करना पड़ा। एक दिन बाद ही सही कई मल्टीप्लेक्सों ने अपने यहा¡ फिल्म रिलीज की। हमें यह देखना चाहिए कि बाल ठाकरे बनाम शाहरूख खान के इस पूरे विवाद में मूल मुद्वा न तो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है न ही सस्ती लोकप्रियता हासिल करना बल्कि यह है कि बाल ठाकरे और शिवसेना की जो हेज़ेमनी मुम्बइया फिल्म उद्योग पर है उसे शाहरूख मानते हैं कि नहीं मानते।
  हमेशा सांप्रदायिक ताकतें सामान्य और गैर ज़रूरी मुद्वों पर हंगामा शुरू करती हैं और पूरा का पूरा स्पेश अपने लिए ले लेती हैं। शाहरूख के धर्मनिरपेक्ष रवैये और टेलीविजन चैनलों के अहर्निश सहयोग ने शाहरूख को नैतिक तौर पर बाल ठाकरे की तुलना में ऊपर रखा इससे टेलीविजन चैनलों का एक नया स्वरूप सामने आ रहा है। चैनलों ने आम तौर पर बाल ठाकरे और उनके अनुयायियों के खिलाफ नरम रूख़ रखा है। ऐसा पहली बार हुआ है कि वे शाहरूख के साथ एकजुट रहे।
  यह ठीक है कि फिल्म व्यवसाय के लिए ही तैयार की गई है। लेकिन शाहरूख और बाल ठाकरे का विवाद बुनियादी तौर पर शिवसेना के वर्चस्व के खिलाफ जो अंतर्विरोध फिल्म उद्योग में बन रहा है उसकी मुखर अभिव्यक्ति है।
  फिल्म को रिलीज न करने के पीछे मल्टीप्लेक्स मालिकों की यूनियन का सांप्रदायिक नजिरया सामने आया है जो पहले भी अनेक मौकों पर अपनी इस वैचारिक पक्षधरता को अभिव्यक्त करता रहा है। उल्लेखनीय है कि मुम्बई के मल्टीप्लेक्स मालिकों ने बाल ठाकरे के दबाव में आकर यह निर्णय लिया था। बालठाकरे और शिवसेना ने जब ये देखा कि तथाकथित 'जनता' और हिंसा के दबाव से फिल्म को प्रदर्शित होने से नहीं रोक पा रहे हैं तो उन्होंने मल्टीप्लेक्स मालिकों की लॉबी पर दबाव डाला ओर मुम्बई के बड़े हिस्से में और खासकर मल्टीप्लेक्सों में फिल्म को रिलीज होने से रोका। शिवसेना के वरिष्ठतम नेता मनोहर जोशी स्वयं एक मल्टीप्लेक्स में फिल्म बंद कराने पहुँचे। उल्लेखनीय है कि मनोहर जोशी, बाल ठाकरे के बाद शिवसेना में सबसे बुजुर्ग नेता हैं। राजनीतिक इतिहास में किसी भी दल के इतने बड़े राष्ट्रीय नेता के द्वारा सिनेमाघर बंद कराने की घटना अपने आप में अनूठी घटना है। इससे यह भी पता चलता है कि महाराष्टª प्रशासन ने जिस सख्ती के साथ शिवसेना के कार्यकताओं की धरपकड़ की , उन्हें थानों में बंद किया उसके चलते शिवसेना के पास हॉल बंद कराने के लिए कार्यकर्ताओं का भी अकाल पड़ गया।
 बाल ठाकरे और उनके अनुयायी कम से कम एक सबक लें कि जनता और राज्य अगर मिल कर कार्रवाई करते हैं तो सांप्रदायिक शक्तियों को आसानी से अलग-थलग किया जा सकता है। दूसरा सबक शाहरूख के रवैय्ये से लेना होगा कि कलाकार को अपने विचारों के लिए किसी भी हद तक कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए और दृढ़ता के साथ सांप्रदायिक ताक़तों की प्रेशर पॉलिटिक्स के सामने झुकना नहीं चाहिए। उल्लेखनीय है कि यही बाल ठाकरे मणिरत्नम की 'बाम्बे' और अमिताभ की 'सरकार' फिल्म में भी अपनी दबाव की राजनीति के चलते दर्जनों दृश्यों को कटवा चुके हैं। कम से कम शाहरूख खान ने अभी तक न तो माफी मांगी और न ही किसी भी क़िस्म के दबाव के आगे समर्पण किया है। शाहरूख खान का बाल ठाकरे के खिलाफ़ खड़े होना इस बात का भी संकेत है कि अब शिवसेना का मुम्बई फिल्म उद्योग में प्रभाव घटना शुरू हो गया है और ये भविष्य के लिए सिर्फ एक ही चीज का संकेत है कि मुम्बई फिल्म उद्योग में बाल ठाकरे के दिन अब लदने शुरू हो चुके हैं।










2 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा है, बाल ठाकरे की विदाई हो गई

    लेकिन ये शाहरुख की पिक्चर बहुत बेकार थी, एकदम बोरियत भरी

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  2. चैनलों ने आम तौर पर बाल ठाकरे और उनके अनुयायियों के खिलाफ नरम रूख़ रखा है।..इस लाइन पर फिर से विचार करने की जरुरत है।.

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