गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

फिल्मी गीत और पैरोडी के विचारधारात्मक खेल


 फिल्मी गीत 'पैरोडी' है। पैरोडी का अर्थ यह नहीं है कि इसे गंभीरता से न लिया जाए। पैरोडी गंभीर विधा है। इसकी साहित्यिक परंपरा है। पैरोडी की विधागत विशेषता है कि वह पराश्रित या परजीवी, व्युत्पन्न, स्वचेतन, प्रबोधात्मक और आत्म-प्रतिबिंबात्मक विधा है। इसमें आलोचनात्मक अंतराल बनाए रखकर पुनरावृत्ति होती है। यह विडंबनापूर्ण है, इससे खेला जा सकता है।

कुछ चिंतक यह भी मानते हैं कि 'पैरोडी' की सृजनात्मक भूमिका होती है। खासकर फिल्मी संगीत की दुनिया में पुराने संगीत रूपों की नकल करके उन्हें नए रूप में पेश करके आधुनिक संगीत चेतना बनाने में इससे मदद मिलती है। पैरोडी के द्वारा ही संगीत चेतना का रूपांतरण, समावेशन और गहराई में प्रवेश संभव हुआ है।

पैरोडी में 'अंतरवर्ती संदर्भगतता' (इंटरटैक्स्चुएलिटी) का प्रयोग होता है। इसी के कारण वह नए को समाहित और पुनरुत्पादित करने में सफल हो जाती है। प्रभावशैली पैरोडी में लेखकीय भावबोध और रूप (फॉर्म) का इच्छित दिशा में पूरी तरह विकृतीकरण कर दिया जाता है। उसमें विशिष्ट क्षण को उभारा जाता है। इसमें परंपरा से विच्छिन्नता होती है। पाठ के मूल संदर्भ और उससे जुड़ी चीजों के संदर्भ से काटकर उसका निर्माण किया जाता है। इसके लिए पाठगत अंतस्संबंधों का विश्लेषण करना चाहिए।

इसमें निष्क्रिय, वैविध्यपूर्ण एवं द्विअर्थी प्रयोग मिलते हैं। 'पैरोडी' को समझने का अर्थ है संप्रेषण की प्रक्रिया को समझना। इसके संदर्भगत उत्पादन, पाठ के साथ युग के संबंध को समझना चाहिए।

'पैरोडी' की खूबी है कि वह वास्तव से सुंदर होती है। इसमें वास्तविक समस्याओं और वास्तविक परिस्थितियों का गंभीर वर्णन मिलता है। उसके पाठ की प्रस्तुति प्रभावशाली होती है, पाठ भी प्रभावशाली होता है। यह पुराने रूप (फॉर्म) के साथ संवाद है।

पैरोडी स्वभावत: वर्णसंकर और द्विअर्थी होती है। वह पुराने रूप के साथ ऐसा संवाद है जो अविस्मरणीय रूप में सामने आता है। वह स्व-संतुष्ट और नाशवादी रूप की अभिव्यक्ति है। पैरोडी की लोकप्रियता का इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि वह आज कल्पनाशीलता और संवेदनात्मकता का निर्माण करने का बड़ा स्रोत है। आमलोगों के दृष्टिकोण, संवेदनशीलता, मानवीय संबंधों, संस्कारों और मूल्यबोध को निर्मित करने में इसकी गंभीर भूमिका है।

इस परिप्रेक्ष्य में हमें फिल्मी गीत-संगीत या लोकप्रिय गीत-संगीत की सामाजिक भूमिका के बारे में विचार करना चाहिए। हिंदी फिल्मों के गीतों में निम्नलिखित प्रवृत्तियां पाई जाती हैं : (1) उल्लास, (2) प्रेम, (3) एकता, (4) सुंदर अतीत और सुंदर भविष्य की परिकल्पना, (5) प्रकृति वर्णन एवं सामाजिक भावनाएं, (6) अर्थहीनता, (7) स्व-पीड़न और पर-पीड़न, (8) धार्मिक आस्था।

इन आठों प्रवृत्तियों के गीत प्रत्यक्ष या प्रकारांतर से व्यक्ति के सामाजिक अलगाव या जड़ों से दूर चले जाने या जीवन से पृथकता या भावात्मक तौर पर संबंधों में आई दरार या बेगाने भावों के जीवन में जड़ें जमा लेने के भाव को व्यक्त करते हैं। उल्लास की प्रवृत्ति जिन गानों में व्यक्त होती है उनमें यह तथ्य उभारा जाता है कि जीवन में धक्का लगना अनिवार्य है, यह अपरिहार्य किंतु अस्थायी अवस्था है। इन गानों का अंत सुखांत होता है।

इसी तरह एकता की प्रवृत्ति को जिन गानों में अभिव्यक्ति मिलती है, वहां राष्ट्रीय एकता, सामाजिक एकता, बंधुत्व एवं समानता के भावबोध की अभिव्यक्ति मिलती है। उल्लास और एकता की प्रवृत्ति के गीत जनता के मन को उद्वेलित करते हैं, मन को उत्प्रेरित करते हैं। इन दोनों प्रवृत्तियों से मन को हल्का आनंद और आत्मसंतोष मिलता है।

प्रच्छन्नत: ये दोनों प्रवृत्तियां किसी न किसी तरह के सामाजिक असंतोष को व्यक्त करती हैं। इनमें अपने ही हाथों अपनी पीठ थपथपाने या जो सहमत है उसे ही सहमत करने या संबोधित करने की दृष्टि मिलती है। सामाजिक असंतोष की कारक शक्तियां इसमें शामिल नहीं होतीं। परिणामत: उल्लास और एकता की प्रवृत्तियां सकारात्मक दिशा में ले जाने के बजाय प्रतिगामी दिशा में ले जाती हैं।

जिन गीतों में समूह का आह्नान होता है वहां व्यक्तित्व केंद्रित दृष्टिकोण मिलता है। व्यक्तित्वों में भी अभिजन के व्यक्तित्व को हीरो या त्राणकर्ता के रूप में उभारा जाता है। ये गीत समूह या गिरोह में शामिल होने का भाव पैदा करते हैं। जब तक आप समूह या गिरोह में शामिल हैं तब तक चिंता करने की कुछ भी जरूरत नहीं।

समूह और गिरोह अमूर्त होते हैं। शक्लहीन होते हैं। शक्ल या पहचान के अभाव के कारण ही इनकी फासिज्म की दिशा में विकास की संभावना होती है। इससे समूह के दबाव की चेतना का निर्माण होता है। परिणामत: श्रोताओं में दबाव ग्रुप की राजनीति और अंधसमूहवाद की राजनीति के प्रति रुझान बढ़ता है।

फिल्मी गीतों की शैली में अमूमन 'आंतरिकता' या 'हार्दिकता' का तत्व हावी रहता है जिसके आधार पर सामान्य संवेदना निर्मित की जाती है। यही सामान्य संवेदना करोड़ों श्रोताओं के दृष्टिकोण में गीतों की विचारधारा के प्रति अनुकूल रवैया पैदा करती है।

गीत सुनते हुए यह महसूस होता है कि गायक सिर्फ श्रोता से मिल रहा है, तुमसे मिल रहा है। यह गायक का श्रोता से व्यक्तिगत मिलन है। यह सामुदायिक संवेदना का गंभीर विकृतीकरण है। गीतों में गायन शैली वैयक्तिक होती है। सुनने के क्रम में हमें वैयक्तिकता के बजाय यह महसूस होता है कि यह जीवन से कई गुना ज्यादा बड़ी है। वस्तुत: यह ऐसी शैली है जो अपने सामूहिक दायित्व को भूल चुकी है। यह लोकप्रिय गीतों का वैयक्तिकीकरण है।





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