मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

मासकल्चर का सच -2-




मासकल्चर में सामाजिक ऐक्य का अभाव होता है। यदि ऐक्य का भाव होता तो अमरीका सबसे ज्यादा ऐक्यबध्द समाज होता।असल में, मासकल्चर 'और-और' की लालसा पैदा करती है।वहॉ आकांक्षा की आंधी है ,वहाँ जो कुछ भी मिले आनंद नहीं मिलता।मासकल्चर इकसार पर बल देती है ,एकता पर नहीं।इकसारता में स्वाधीनता का निषेध है। मासकल्चर की नीति अजगर की नीति है।यह निगल जाने को एकीकरण कहते हैं।
     
संस्कृति और लोक संस्कृति 'सत्य' पर जोर देती है।जबकि मासकल्चर 'छद्म सत्य' या 'आभासी यथार्थ' पर जोर देती है। यह व्यवहार में अपना ही निषेध करता है।यह ऐसा यथार्थ है जिसका सामाजिक संबंधों पर नियंत्रण नहीं है।यह राजनीतिहीनता के आवरण में बडे पूंजीपति वर्ग की राजनीति करता है। 

इसी तरह पूंजीवादी संस्कृति से लड़ने के नाम पर जो लोग धर्म के उपकरणों के प्रयोग पर जोर देते हैं वे यह भूल जाते हैं कि धर्म के जरिए सामाजिक प्रभेदों को खत्म नहीं किया जा सकता। क्योकि धर्म का आधार प्रभेद और वैषम्य ही है। धर्म तर्कहीन होता है , वहाँ तर्क नहीं चलता ,वह परिवर्तन विरोधी होता है।धर्म जिन्हें पृथक् करता है वे अलग -अलग कमरों में रहते हैं और इनके दरवाजे दोनों ओर से बंद होते हैं। मासकल्चर भेद की संस्कृति है , इसका अबुध्दि से गहरा संबंध है।
          
उत्तर- आधुनिक भाव बोध पैदा करने में विज्ञापन और फैशन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।उत्तर- आधुनिक फैशन संतोष नहीं देता।जबकि आधुनिकतावादी फैशन संतुष्टि देता था।कारण यह है कि उत्तर-आधुनिक युग में संतुष्टि की संभावनाएं खत्म हो गई हैं। आज उपभोग और वितरण के प्रश्न महत्वपूर्ण हो गए हैं। आज फैशन उपभोग को अतृप्ति की दिशा में ले जा रहा है। अनगिनत रुपों को जन्म दे रहा है।
          
फैशन की खूबी है कि वह सार्वभौम 'कोड्स' के तहत अपना विकास करता है।ये पूर्ववर्ती सांस्कृतिक 'कोड्स' को हजम करके आते हैं।वह उन्हें बॉधे रखता है ,उनका रुपान्तरण करता है , उन्हें दोहराता है ,उनका इस तरह पुनर्निर्माण करता है जिससे उनका निरन्तर उपभोग किया जा सके। इसमें रुप और स्टायल की चक्राकार परिक्रमा चलती रहती है।
        

मासकल्चर की विशेषता है कि वह वास्तविक विवादों से घृणा करती है। वह ऐसी सहिष्णुता को निर्मित करती है जिसमें सामाजिक चुनौतियों के प्रति डर बैठा हुआ है।ऐसा नागरिक बनाती है जो वगैर किसी प्रतिरोध के सब कुछ स्वीकार लेता है। जो व्यक्तिगत चयन की जिम्मेदारी से मुक्त होता है। वह ' फॉरवर्ड फॉर फॉरवर्डनेस' में यकीन करता है।वह ऐसी प्रगति में यकीन करता है जो दिशाहीन और अंतहीन है।जिसमें मूल्यों और विवेक व्यवस्था का क्रम टूट चुका है। 

जो व्यक्ति मासकल्चर के साथ कदम मिलाकर नहीं चलता वह पिछड़ा माना जाता है।यहॉ उदासीनता का साम्राज्य है ,फ़र्क न कर पाने वाली मूल्यहीन चीजों की बाढ़ है। मासकल्चर ऐसा जगत रचता है जहॉ प्रत्येक चीज अंत में अर्थहीन होकर रह जाती है।अब सिर्फ सिरों की गिनती तक चीजें सिमट जाती हैं। जीवन के प्रति गंभीरता के अभाव के कारण गंभीरता का कोई महत्व नहीं रह जाता।अपितु महत्वपूर्ण वह है जो अर्थहीन है। 

यह ऐसा युग है जहॉ बहुसंख्यक जनता की राय सही मानी जाती है।अगर कोई उसकी राय से सहमत नहीं है तो बहिष्कृत कर दिया जाता है।''सभी मानते हैं तुम भी मानो'' का सिध्दान्त इसकी धुरी है। अब सब कुछ 'रुटिन' में बदल जाता है। हम वास्तविक चुनौती के अनुभव से वंचित हो जाते हैं। शक्तिहीन और किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं।

उत्तर - आधुनिक चिन्तक मासकल्चर और उपभोक्तावाद को सकारात्मक ढ़ंग से देखते हैं। उन्हें इसकी खामियां नजर ही नहीं आतीं।वे मासकल्चर में निहित संस्कृतिहीनता और उपभोक्तावाद में निहित दरिद्रीकरण की उपेक्षा करते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का विस्तार एवं नित नए ब्रॉडों का प्रवेश एक आम नियम है। इसमें मजदूरों के श्रम और तकनीकी कौशल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।मजदूरों के श्रम से निर्मित वस्तुएँ उसे विपन्न बनाती हैं। 

कार्ल मार्क्स ने '' 1844 की अर्थशास्त्र और दर्शन संबंधी पांडुलिपि'' में इस फिनोमिना पर लिखा था कि मजदूर जितना ही ज्यादा स्वयं को व्यय करता है ,वस्तुओं का इतर -संसार जिसे वह सर्जित करता है ,उसी के उपर और उसी के विरुध्द उतना ही शक्तिशाली होता जाता है ,उसके पास उतनी ही कम वस्तुएं रह जाती हैं। इसी क्रम में उपभोक्ता समाज का निर्माण होता है। आम लोगों की पगार की कीमत घटती जाती है और जीवन स्तर में गिरावट आ जाती है। इजारेदारियाँ दिन- दूनी रात चौगुनी तरक्की करती जाती हैं।मजदूर द्वारा उत्पादित संपदा शक्ति और आकार में जितनी बढती जाती है वह उतना ही निर्धन होता जाता है।मजदूर जितना ही ज्यादा माल पैदा करता है ,वह निरंतर उतना ही सस्ता माल बनता जाता है। लोगों की दुनिया का अवमूल्यन वस्तुओं की दुनिया के बढ़ते हुए मूल्य के क्रमानुपात में होता है।इस क्रम में मजदूर के श्रम का वस्तुकरण हो जाता है।श्रम के वस्तुकरण के कारण ही अब वह माल के दासत्व की अवस्था में पहुंच जाता है।अब उसके उपर वस्तुओं का शासन होता है। वह वस्तुओं का गुलाम हो जाता है।
       मजदूर जितना ही अधिक पैदा करता है उसके पास खपाने को उतना ही कम होता है ,वह जितना ही अधिक मूल्य सर्जित करता है ,उतना ही अधिक मूल्यहीन ,अधिक बेकार होता जाता है।उसका उत्पाद जितना ही अधिक सुनिर्मित होता है,मजदूर उतना ही अधिक विरुपित होता जाता है।उसका उत्पाद जितना ही अधिक सभ्य होता है मजदूर उतना ही बर्बर होता जाता है।श्रम जितना ही शक्तिशाली होता जाता है,मजदूर उतना ही अधिक शक्तिहीन होता जाता है। यह ठीक है कि श्रम धनवानों के लिए अद्भुत वस्तुएँ पैदा करता है ,लेकिन मजदूरों के लिए वह अभाव ही पैदा करता है।वह महल तैयार करता है ,लेकिन मजदूर के लिए झोंपड़े ही बनाता है।वह सौन्दर्य का सृजन करता है किन्तु मजदूर के लिए कुरुपता ही पैदा करता है। वह श्रम की मशीनों से प्रतिस्थापना करता है।वह बुध्दि का सृजन करता है लेकिन मजदूर के लिए मूर्खता ,जड़ता को पैदा करता है।

आमतौर पर विज्ञापनों में खाने-पीने , बच्चे पैदा करने, सुंदर आकर्षक वस्त्र पहनने ,अच्छे वाहनों पर सवारी करने पर जोर होता है। ये मूलत : उपभोग की प्रवृत्ति पर जोर देते हैं। किन्तु उपभोग पर जोर पाशव - अवस्था की ओर ले जाता है। इससे अमानवीय मूल्यों का सृजन होता है।

 ऐसी अवस्था को ध्यान में रखकर कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि   '' जो पाशव है,वह मनुष्य बन जाता है और जो मनुष्य है वह पाशव बन जाता है। निस्संदेह ,खाना,पीना,संतानोत्पत्ति आदि भी विशुध्दत :मानव कार्य हैं। लेकिन विमुक्त रुप में ,अन्य समस्त मानव क्रिया-कलाप के क्षेत्र से पृथक् रुप में लिए जाने और एकमात्र चरम लक्ष्य में परिणत कर दिए जाने पर वे पाशव कार्य ही हैं।''

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