बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

माध्यम साम्राज्यवाद की नरकलीला -2-

  हिंसा की जरुरत उसी समाज को पडती है जहां इसका इस्तेमाल निजी संपत्ति की रक्षा के लिए किया जाता है जो मानव द्वारा मानव के उत्पीड़न का स्रोत है।पूंजीवादी जगत का लगभग सारा अनुसंधान और विकास कार्य औद्योगिक राष्ट्रों में संकेन्द्रित है।इस पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार है। तकनीकी डिजायनों का 80फीसदी अंश उन्हीं के नियंत्रण में है। ये कम्पनियां संपत्ति का संचय उपभोग बढाने के लिए नहीं करतीं। अपितु संपदा का ज्यादा से ज्यादा संचय ही इनकी मूल प्रकृति है। संचय को विनिवेश में लगाने की कोशिश की जाती है और उससे हुई प्राप्तियों को बचत खातों में डाल दिया जाता है।

 साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के कारण विषमता,असमानता एवं अलोकतान्त्रिक मानसिकता का तेजी से विकास हुआ है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में घुसपैठ बढ़ी है।विश्वकी200 सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का1960 में विश्व के सकल घरेलू उत्पादन के17प्रतिशत हिस्से पर कब्जा था जो 1982 में बढकर 24 फीसदी हो गया और 1995में32प्रतिशत हो गया।                                                                                                                         

अ. ग्राचोव और नि.येर्मोश्किन ने''नयी सूचना व्यवस्था अथवा मनोवैज्ञानिक युध्द?''कृति में सैन्य, सूचना, और संचार के अंतस्संबंधों को विश्लेषित करते हुए लिखा कि ''राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में निरंतर चढ़ाव आने और पूॅजीवादी व्यवस्था में गंभीर संकटों के आने के साथ-साथ संघर्ष विचारधारा के क्षेत्र में भी अंतरित होता जा रहा है। 

आधुनिक साम्राज्यवाद अपनी विचारधारात्मक सेवाओं के संकेन्द्रण की तरफ विशेष ध्यान दे रहा है। ताकि एक ऐसे सशक्त हरावल का निर्माण किया जा सके;जो स्थानीय और विश्व के पैमाने पर सामाजिक परिवर्तनों का प्रतिरोध करने की क्षमता रखता हो। आर्थिक,सैनिक और विचारधारात्मक प्रसार एकाकार हो गया है।''                                                                  

पचास और साठ के  दशक में उपजे पूंजीवादी संकट के कारण शस्त्र उद्योग में पूंजी निवेश ज्यादा  हुआ।सन्1947 से 1970 के दौरान 1,100विलियन डॉलर का सैन्य उदृदेश्यों पर निवेश किया गया। अमरीकी सैन्य उद्योग पर किए गए शोध कार्यों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि जब-जब युध्द की शुरुआत हुई है तब-तब अमरीकी उद्योगों में हल्की सी विकास दर दर्ज की गयी है। आम तौर पर विकसित राष्ट्रों में सूचना तकनीकी के विकास की बढ़-चढ़कर प्रशंसा की जाती है। किन्तु हकीकत यह है कि उन समाजों में असमानता बढ़ी है।

''मानव विकास रिपोर्ट 1996''के अनुसार 'ओईसीडी' देशों में 100मिलियन से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे जिन्दगी बिता रहे थे।पांच मिलियन लोग गृहहीन थे।आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में 20 फीसदी समृध्दों ने इन देशों के 20फीसदी सबसे गरीब लोगों की तुलना में दस गुना ज्यादा कमाई की।इसी तरह अमरीका की कुल आबादी के एक फीसदी समृध्दों की संपत्ति में 20से 36प्रतिशत तक की वृध्दि हुई। 

दूसरी ओर बेकारों की संख्या में बेशुमार वृध्दि हुई।विश्वस्तर पर भूमंडलीकरण के नियमों एवं मांगों को लागू करने का यह दुष्परिणाम निकला है कि बडे पैमाने पर दरिद्रता,बेकारी,एवं असमानता का विकास हुआ है।आज दुनिया में1.3 विलियन लोगों के पास साफ पीने का पानी नहीं है।प्राइमरी स्कूल जाने योग्य सात बच्चों में से एक बच्चा स्कूल के बाहर ही रह जाता है। 840 मिलियन लोग कुपोषण के शिकार हैं।तकरीबन 1.3 विलियन लोग ऐसे हैं जिनकी प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम आय है। इन आंकड़ों में हो रही वृध्दि की ओर कायदे से भूमंडलीकरण समर्थकों को ध्यान देना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हो रहा है।                                                                                        
असल में, भूमंडलीकरण में अन्तर्विरोध निहित हैं।इसका संबंध पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों से है। पूंजीवाद ने विश्व व्यवस्था के रुप में जब अपना विकास शुरु किया तो उसने सीमित रुप में सामन्तशाही के खिलाफ संघर्ष किया। पूंजीवादी सत्ता और औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की स्थापना की। पुराने संबंधों को बरकरार रखा। इसके खिलाफ दुनिया के गुलाम मुल्कों में आजादी के लिए संघर्षों का सिलसिला चल निकला।

 आजादी के लिए संघर्ष पूंजीवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ पहली सबसे बड़ी जंग हैं। तात्पर्य यह है कि भूमंडलीकरण मूलत: आजादी और आत्मनिर्भरता को छीनता है।यह परनिर्भरता और सैन्य-निर्भरता पैदा करता है। लोकतन्त्र को कमजोर बनाता है या उसे खत्म करता है।यह कार्य वह भूमंडलीय माध्यमों, भूमंडलीय संचारप्रणाली, भूमंडलीय नियमों,और निर्बाध प्रवेश के जरिये करता है। साम्राज्यवादी भूमंडली करण की विशेषता है पर-निर्भरता, सैन्य सहयोग और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार- प्रसार।  इच्छा और आकांक्षाएं सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की बजाय वस्तु प्राप्ति से जुडने लगती हैं। फलत: इच्छाओं का वस्तुकरण होने लगता है। जीवनशैली, खान-पान, प्रतीकों एवं चिह्नों के जरिये साम्राज्यवादी संस्कृति को जनप्रिय बनाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं।इस क्रम में जहां एक ओर बहुराष्ट्रीयनिगमों का विस्तार होता है। वहीं दूसरी ओर आम लोगों में भ्रम की सृष्टि  होती है। यही वजह है कि किससे लडना है और कैसे लडना है ,इन सवालों पर नये किस्म के चिन्तन की जरुरत महसूस की जा रही है।नयी समझ के अभाव में संघर्ष के पुराने अस्त्र बेकार हो गए हैं।


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