शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

धार्मिक संगीत की इकसारता


सिनेमाई धार्मिक संगीत कैसेट के जरिए आनेवाला धार्मिक संगीत श्रोता के मन में निश्चित प्रतिक्रिया व्यक्त करने का आधार बनाता है। यह मूलत: समुदाय को संबोधित करने का अभिनय करता है। किंतु इसके गायक, श्रोता या भक्तमंडली के बीच में महान अंतराल होता है। यह श्रोताओं में प्रभाववश अनिश्चित आंत्मानुभूति पैदा करते हुए इकसार प्रभाव पैदा करता है। इस तरह के संगीत का लक्ष्य व्यक्त करने के बजाय अंनुभूति पैदा करना होता है। ऐसे संगीत की अंतर्वस्तु पाठ के अंदर ही नहीं, बाहर भी होती है।
जनमाध्यम की तकनीकी में प्रवेश करते ही धार्मिक संगीत अपनी समष्टिगत क्रियाओं एवं भूमिकाओं से विच्युत हो जाता है। अब वह लौकिक संगीत हो जाता है। पहले धार्मिक संगीत को भगवान के बगैर कल्पना संभव नहीं थी किंतु संगीत के लौकिकीकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण ने भगवान को अपदस्थ कर दिया। अब भगवान की जगह शुद्ध मनोरंजन ने ले ली है। अब श्रोता भगवान के बजाय मनोरंजन के वशीभूत होता है। अब वह बुर्जुआ संगीत की बृहत्तर परंपरा का अंग बनकर बाजार में एक माल बन जाता है। अब धार्मिक संगीत के लिए श्रद्धा या भक्ति या आस्था की नहीं पैसे की जरूरत है, आपके पास पैसा है तो आप खरीद सकते हैं, आनंद उठा सकते हैं।

   धार्मिक संगीत के लोकतांत्रिकीकरण के कारण प्रवीणता, मौलिकता और सूक्ष्म आविष्कारकर्ता का जन्म हुआ। धार्मिक संगीत अब मनोरंजन संगीत बन गया। पहले से ज्यादा लोकप्रिय बना। इसने संगीत की समस्याओं को सुलझाने के बजाय अहंकारपूर्ण प्रदर्शन और सन्न कर देनेवाले दृष्टिकोण को बढ़ाया। यह अब मूलत: प्रशंसाकामी हो गया। इसमें संगीत की नकल और पुनरावृत्ति मिलती है। इसीलिए यह रूपवादी संगीत है। इसमें मानवीय अनुभूतियों एवं जीवन की ऊष्मा का अभाव है।
फिल्मी गीतों की परंपरा और इतिहास का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इसके बुनियादी 'एटीटयूड्स' में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि 'एटीटयूड' से 'एटीटयूड' की दिशा की ओर बदलाव होता रहा है। आमतौर पर गायक चरित्र सीधा-सच्चा आदमी होता है या मित्रतारहित व्यक्ति होता है। यह ऐसा गायक चरित्र है जिसके पास घर, प्रेम, राष्ट्र, दोस्ती के प्रति उमंग का भाव है। यह स्व-चेतन अपील है। निज के प्रति रोमांटिक रुझान इसकी धुरी है। यहां ऐसा आम आदमी है जो यथार्थ सदृश लगता है। परिणामत: सहज ही श्रोता के साथ संवाद बनाने में सफल हो जाता है। यह श्रोता के भावों को गीतों में शिरकत के लिए आमंत्रित करता है।
   जिन गीतों में पड़ोसी या 'दोस्त' की चाह व्यक्त होती है वहां कमजोर सामुदायिकता व्यक्त होती है। कमजोर सामुदायिकता लोकवादी संस्कृति का मूलाधार है। पड़ोसी या दोस्त के प्रति आह्नान, घर का पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठना, अच्छी चीजों के स्वागत की ओर ध्यान खींचना, साथ ही, वर्तमान और स्थानीय दृष्टिकोण को उभारना इन गीतों की विशेषता है।
आधुनिक समाज के विकास की दिशा में प्यार की प्रवृत्तिा का प्रमुख हाथ रहा है। आम जीवन से धर्म को अपदस्थ करने में प्यार की प्रवृत्ति की बड़ी भूमिका है। गीतों में व्यक्त प्यार में समय, चिंता और हताशा का अतिक्रमण दिखाई देता है। किंतु एक चिंताजनक तथ्य उभरकर आया है। वह यह कि प्यार की भाषा धार्मिक रूपक और धार्मिक भाषा के प्रयोग को लेकर आई है। प्यार मूलत: एकाकी व्यक्तियों का प्यार है। समाज से विच्छिन्नता या पलायन या सामाजिक विद्रोह इसका केंद्रबिंदु है।

भाषा के तौर पर धार्मिक भाषा का प्रयोग भाषिक एवं सांस्कृतिक विखंडन की ओर ठेल रहा है। विखंडन का बहुआयामी स्वरूप विकसित करने में भाषातत्व की एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में भूमिका रही है। आज हकीकत यह है कि धार्मिक भाषा, रूपकों, नारों और स्थानों का जनमाध्यमों, विज्ञापनों, राजनीति में तेजी से प्रयोग बढ़ा है। इससे अंधआस्थावाद और कठमुल्लापन मजबूत हुआ है। इससे असहिष्णु भावबोध का विस्तार हुआ है।

असहिष्णुता को लोकवादी संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं में से एक विशेषता माना जाता है। यह नए किस्म की असहिष्णुता कमजोर और अस्वीकार योग्य है। इसमें चुनौतियों के प्रति डर और विक्षोभ का भाव है। यह आम लोगों में बिना किसी प्रतिरोध के कुछ भी स्वीकार कर लेने का भाव पैदा करती है।

प्यार की प्रवृत्ति के गीतों में प्रेम ही सर्वस्व है यह दृष्टिकोण प्रमुख रहता है। यहां वास्तविक संसार से पलायन का दृष्टिकोण प्रमुख है। प्यार के यूटोपिया में निराशा और पलायन का भाव सामाजिक जीवन की विपत्तियों के समाधान के रूप में आता है। जिसके पास सुंदर सपने हैं और वस्तुओं की चाह है। ज्ञान के वस्तुकरण और मनुष्य के वस्तु में बदल जाने की अभिव्यक्ति है। साथ ही, निराश की अवस्था में मौत की ओर उन्मुख हो जाने की कोशिश है।


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