रविवार, 14 फ़रवरी 2010

प्रेम की सामाजिक अलगाव से जंग


       
      
 प्रेम से लड़ने के लिए अलगाव से लड़ना बेहद जरूरी है। हमें इस प्रेम से उबरने का प्रयास करना चाहिए। एरिक फ्रॉम ने लिखा है इस लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्ण असफलता को पागलपन कहा जाता है क्योंकि इसमें पूर्ण अलगाव के कारण भय बना रहता है। इससे बचने का एक ही रास्ता है विश्व के साथ अलगाव की समाप्ति। विश्व के साथ लगाव के कारण भय से मुक्त हो पाते हैं। वह अलगाव खत्म हो जाता है।

सच यह है कि हम अपने घर में कैद होकर भी खुश नहीं होते, बल्कि खुशी का नाटक करते रहते हैं। परफेक्ट ड्रीम लाइफ का दावा करते रहते हैं। हम असल में डिजनी के उन कृत्रिम चरित्रों की तरह होकर रह गए हैं जो हंसते रहते हैं और रंगीन हैं, बाहरी जीवन में वे असल रूप से भी विराट नजर आते हैं। किंतु अंदर ही अंदर वे घुटते रहते हैं, रोते रहते हैं, और अपनी जिंदगी से मुक्त होने की कामना करते हैं।

असली प्रेम वह है जो घर की कैद के बाहर ले जाय, यह बाहर जाना अंतहीन स्पेस में जाना है। शहरी बंद और गंदी तंग बस्तियों की मुक्ति के प्रयासों में शामिल होना है, गरीबी से मुक्ति के प्रयासों में शामिल होना है। इराक और सूडान में चल रहे अर्थहीन खूखराबे के परे जाना है।
      
प्रेम का असली अर्थ है हम अपनी फैंटेसी की दुनिया के बाहर आएं,यथार्थ का सामना करें। यथार्थ जिंदगी के कष्टों को जानें,उसका हिस्सा बनें। जिससे इस दुनिया को प्रत्येक के लिए बेहतर बना सकें।  हम लोगों में इस तरह के प्रेम का अभाव है, इस अभाव का प्रधान कारण है हमारा स्वयं से अलगाव। अन्य से अलगाव, भगवान से अलगाव। इसके गर्भ से मानव सभ्यता की शर्मिदगी, कुंठा और दर्द व्यक्त हो रहा है। आज की सबसे बड़ी मानवीय जरूरत है इस अलगाव को कम करना,अपने अकेलेपन की कैद से मुक्त होना। दुख की बात यह है कि अपने जीवन के अलगाव को कम करने के लिए हम कहीं ज्यादा बड़े अलगाव को चुन लेते हैं। यह तब होता है जब हम अपनी पहचान का परिवार या समुदाय या गिरोह या पड़ोसी या चर्च या देश के साथ व्यापार करने लगते हैं। हम उसे ही प्यार करने लगते हैं।
आज समानता का अर्थ समता है न कि निजता है। पुरानी रहस्यवादी परंपरा में ''एकत्व'' पर जोर है। इसमें सब एक में समाहित हैं। इस एकत्व को हम समता के साथ भ्रमित करते है। एकत्व का अर्थ समत्व नहीं है।

हमारा मीडिया एकत्व का संदेश देता है समत्व का संदेश नहीं देता। सामाजिक विकास के लिए एकत्व की नहीं समत्व की जरूरत है। समत्व के लिए न्याय की जरूरत भी होगी। क्योंकि वे समान नहीं है। एकत्व में न्यायबोध की जरूरत नहीं होती। एकत्व अन्य को एकाकार कर लेता है।

जबकि समत्व का लक्ष्य है भिन्नता और असमानता को खत्म करना। यह कार्य न्याय के आधार पर ही संभव है। सच्चा प्रेम ,परिपक्व प्रेम एकता (यूनिटी) की मांग करता है , कनफर्मिटी या वैधता की मांग नहीं करता। इसे खुलेपन की जरूरत है समत्व की नहीं, खुलेपन की जरूरत है ,अकेलेपन की नहीं, सहजीवन की जरूरत है अलगाव की नहीं, एक्टिविटी अथवा गतिविधि की जरूरत है पेसिविटी या निष्क्रियता की नहीं।

         प्रेम मूलत: गतिविधि है। प्रेम का पेसिव प्रभाव नहीं होता। बल्कि यह तो रास्ते में खड़ा रहता है,यह समर्पण नहीं है। सामान्यतौर पर प्रेम के सक्रिय चरित्र वे हैं जो प्रेम में देते हैं। लेते नहीं।
लोग व्यक्तिगत कारणों से रोमैटिंक लव करते हैं। उसके अनुभव के आधार पर विवाह करते हैं।  प्रेम के इस रूप को बढ़ावा देना चाहिए। ऑब्जेक्ट के रूप में इसका महत्व है। इसकी भूमिका महत्वपूर्ण नहीं है।

रोमैंटिक प्रेम का चारित्रिक वैशिष्टय भी है , उसका सामयिक संस्कृति के लिए प्रासंगिकता है, मौजूदा संस्कृति खरीद पर टिकी है। समान रूप से पसंदीदा वस्तुओं के विनिमय पर टिकी है। आधुनिक मर्द की खुशी दुकान में रखी चमकती चीजों पर टिकी है। वह उन्हें खरीदना चाहता है, किश्तों में उनका भुगतान करना चाहता है। यही स्थिति लड़की की भी है, मर्द ऐसी लड़की पर आकर्षित होते हैं जो आकर्षक हो। यानी जिसकी सुंदर पैकेजिंग हो। इस पैकेजिंग का संबंध बाजार की उन गुणवत्तापूर्ण चीजों से जुड़ा है जिसे व्यक्तित्व बाजार ने पेश किया है।
        व्यक्ति आकर्षक तब लगता है जब वह सामयिक फैशन का प्रयोग करे। आज के जमाने में मद सेवन करने वाली,सिगरेट पीने वाली लड़की टफ और सेक्सी मानी जाती है। वही आकर्षक भी है। आज फैशन ज्यादा से ज्यादा घरेलूपन और शर्मीलेपन की मांग करता है। 19वीं शताब्दी के अंत में आक्रामक और महत्वाकांक्षी मर्द पैदा हुआ। आज किंतु सामाजिक और सहिष्णु मर्द की मांग की जा रही है। यही आकर्षक पैकेंजिंग का हिस्सा है। एरिक कहता है किसी भी रूप में प्रेम की अनुभूति वैसी ही मानवीय कमोडिटी के विनिमय के जरिए ही पैदा हो पाती है, विनिमय वही करना चाहिए जो शक्ति में हो। उन्हीं वस्तुओं का विनिमय करना करना चाहिए जिनका सामाजिक मूल्य हो। साथ ही जिनकी तुम्हें जरूरत हो।
जब दो व्यक्ति प्रेम करते हैं तो वे बाजार में उपलब्ध बेहतर वस्तु के आधार पर सौदा करते हैं। संस्कृति भी बाजार की अवस्था पर निर्भर करती है। मानवीय प्रेम असल में वस्तु विनिमय और श्रम बाजार के पैटर्न पर टिका है। एक अन्य भ्रम यह है कि प्रेम में पड़क़र कुछ सीखा नहीं जाता । जो लोग हमेशा प्रेम की अवस्था में रहते हैं, प्रेम के स्थायी भाव में रहते हैं ,ऐसे लोगों के बारे में यही कह सकते हैं कि ऐसे दो लोग जब मिलते हैं तो प्रेम के बीच की दीवार अचानक गिर जाती है और वे एक-दूसरे के करीब पहुँच जाते हैं। एकाकार हो जाते हैं। इस तरह का एकत्व बेहद उत्तोजक होता है। खासकर उन लोगों के लिए ज्यादा आकर्षक होता है जो अकेलेपन के शिकार होते हैं। बिना प्रेम के रह रहे होते हैं। इस तरह के लोगों में अचानक पैदा हुआ प्रेम जादू की तरह होता है। इसमें अचानक शारीरिक आकर्षण एवं उपभोग का भाव भी होता है। इस तरह का प्रेम टिकाऊ नहीं होता।  प्रेम का वही रूप टिकाऊ होता है जिसमें अन्य के प्रति आकर्षण है, देने का भाव है। पाने के भाव से प्रेम मिलता नहीं है बल्कि प्रेम का लोप हो जाता है।








1 टिप्पणी:

  1. आप जिन मूल प्रस्थापनाओं को ले कर चलते है, बेहद सटीक होती हैं।

    पर उनकी व्याख्या, समसामयिक हालातों के मद्देनज़र उसका विश्लेशण करते वक्त कुछ अज़ीब से, कभी-कभी ऊल-जलूल भी हो जाते हैं।

    बेहद सावधानी की जरूरत है।
    पर आपकी रवानगी, और जल्दबाज़ी शायद उसकी फ़ुर्सत नहीं दे पा रही है।

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