शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

आरएसएस का मूक हिन्दू यूटोपिया


   (मोदी के गुजरात में हुए दंगे का एक दृश्य) 

मोदी ने मूक हिन्दू यूटोपिया निर्मित किया है। इसमें सहज धर्मनिरपेक्ष वातावरण असहिष्णु लगता है। नागरिकों ने अपनी जिम्मेदारी संघ के कंधों पर डाल दी है और अपने को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया है। मूक कल्पनालोक में अहर्निश वाचिक हिंसा चलती रहती है। 

गुजरात में शोषण है,गरीबी है और बोरियत भी है। साम्प्रदायिक हिंसा ने इन सबसे निजात दिलाने का वायदा किया किंतु वास्तव में ऐसा न हो सका बल्कि स्थिति सुधरने की बजाय और भी बिगड़ती चली गयी। हम सोच रहे थे कि सब कुछ ठीक हो जाएगा ,दंगा पीड़ितों को दुबारा से बसा दिया जाएगा किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ।

 मोदी के पास गुजरात के भविष्य को लेकर कोई नया प्रस्ताव नहीं है,पुरानी त्रासदी से निकलने का रास्ता नहीं है। मोदी को मीडिया ने महानायक के रूप में प्रस्तुत किया। मोदी से नीतिगत तौर पर कोई सवाल नहीं किए। उससे सिर्फ उपलब्धियां बोलने के लिए कहा गया उसकी किसी भी उपलब्धि के बारे में मीडिया वालों ने अपनी ओर से पुष्टि का प्रयास नहीं किया। मोदी ने जो कहा उसको प्रसारित कर दिया, उसकी तहकीकात नहीं की,अन्य स्रोत से पुष्टि नहीं की। इसी को कहते हैं राजनीतिक जनसंपर्क।  राजनीतिक प्रचार। लेकिन इसे पेश किया खबर के रूप में।

 राजनीतिक प्रचार खबर नहीं होता। मोदी को इजारेदारियां सबसे ज्यादा पसंद करती हैं। इसका प्रधान कारण है मोदी का बड़ी पूंजी के प्रति प्रेम। बड़ी पूंजी के अपने प्रेम को मोदी आशिक की तरह निभाता रहा है। वह बड़ी पूंजी का दीवाना है। उसे ऐसी नीतियों से नफरत है जो बड़ी पूंजी का निषेध करें। बड़ी पूंजी का वातवरण किसी भी किस्म के धर्मनिरपेक्ष वातावरण को स्थिर नहीं बनने देता। इसके विपरीत गैर धर्मनिरपेक्ष वातावरण बनाने पर जोर देता है। जनता के जीवन में विमर्श,संवाद और वैचारिक तानवों की समाप्ति हो जाती है। जनता मूलत: दर्शक बना दी जाती है। वह देखती है किंतु बोलती नहीं।
  
बड़ी पूंजी के परिवेश में नए किस्म की सामूहिक गोलबंदी और मानसिकता पैदा हो जाती है। जिसमें आधुनिक की बजाय गैर आधुनिक सामाजिक गोलबंदियां उभरकर सामने आ जाती हैं। ये हथियारबंद और आक्रामक गोलबंदियां हैं। संघ परिवार के नए प्रयोग इस रणनीति से परिचालित हैं और कांग्रेस भी इसी धंधे में लग गयी है और उसने गुर्जर आरक्षण के नाम पर यह प्रयोग शुरू कर दिया है। लोकतांत्रिक राजनीति के निहाज से सामूहिक गोलबंदियां शुभ लक्षण नहीं है।  

सामूहिक उन्माद से संचालित गोलबंदियां अंतत: हमारे देश को कांगो और सूडान जैसे जनसंहारों और समूहों की खूनी लड़ाईयों के युग में ले जाएंगी अथवा नाइजीरिया की तरह समाज में अपराधियों का ही शासन होगा। सामूहिक गोलबंदी फासिस्ट हथयार है। इसके जरिए अप्रासंगिक सवालों के आधार पर  लोगों को हमेशा उन्माद में रखा जाता है। ऐसी स्थिति में किसी भी किस्म के तर्क और परेशान करने वाले सवालों को उठाना संभव ही नहीं होता। मोदी इसी गोलबंदी की पैदाइश है। मोदी के राजनीतिक जगत में धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक लेखक ,बुध्दिजीवी,संस्कृकिर्मी के लिए किसी भी किस्म की स्वायत्त जगह नहीं है। अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। वे सिर्फ दोयमदर्जे के नागरिक होकर ही जी सकते हैं।
      
मोदी के गूंगे कल्पनालोक में सैंकडों साल पुराने विचार बार-बार दर्शन देते हैं। ये ऐसे विचार हैं जो पहले कभी किसी ने नहीं देखे न सुने। हिन्दुत्व की तथाकथित शुध्दतावादी धारा का कल्पित आख्यान और विदेशी हमलावरों की मनगढ़ंत कहानियां इस कल्पनालोक सबसे बड़ी पूंजी हैं। इन आख्यानों का नए उपभोक्तावाद से गहरा संबंध है।  

इस काम के लिए कथावाचकों,भजनमंडलियों, टीवीपंथी संतों -महंतों की पूरी मंडली अहर्निश काम कर रही है।ये लोग पुराने विचारों की बाढ़ पैदा किए हुए हैं। इनमें नया बहुत ही कम है। इन कथावाचकों के पास कहानियां हैं कि माँ कैसे अपने बेटे से प्यार करती थीबाप कैसा सदाचारी था, अथवा अनाचारी था तो भगवान ने उसे कैसे ठीक कर दिया। ऐसी भी कहानियां सुनाते  हैं जो पुरूषत्व और स्त्रीत्व को अस्वीकार करती हैं। ऐसे पिता की कहानी बताते हैं जो माता का विरोध करता था। जमींदार किसान का विरोध करता था। इसके अलावा विलक्षणताओं से भरी हुई कहानियां भी सुनाई जा रही हैं। 

मोदी और संघ के पक्ष में रचे जा रहे इस कल्पनालोक का  इतिहास से बैर है। उसे किस्से-कहानियां,पौराणिक कहानियां पसंद हैं, किंतु इतिहास पसंद नहीं है। उसकी कल्पना की नदी की कहानी में दिलचस्पी है नदी के विकास की वैज्ञानिक कहानी में दिलचस्पी नहीं है।  
       
संघ परिवार के यहां मनुष्य और पशु में अंतर नहीं है। बल्कि अनेक बार तो यह देखा गया है मनुष्य से ज्यादा पशु को महान बनाया गया है। याद करें गौ संरक्षण आंदोलन को। गूंगा कल्पनालोक स्त्री-पुरूष में अंतर नहीं करता बल्कि प्रत्येक चीज को पुरूष की नजर से ही देखता है। कृत्रिम और असली में अंतर नहीं करता। यूटोपिया और विज्ञान में अंतर नहीं करता। इतिहास और मिथक में अंतर नहीं करता बल्कि मिथकों को ही मुक्ति का स्रोत मानता है। मिथकीय कहानी की शुरूआत सहजभाव से हो जाती है और फिर अचानक उसमें इतिहास का समावेश कर लिया जाता है। 

गूंगे कल्पनालोक के साइबोर्ग पक्के दोस्त हैं। मोदी के भी कार्यकलाप की धुरी इंटरनेट है। मोदी के लक्षण साइबोर्ग से काफी मिलते हैं। साइबोर्ग को मिथकीय कहानियां पसंद हैं और वे तमाम चीजें उन्हें भी अच्छी लगती हैं जो गूंगे कल्पनालोक के निर्माताओं को अच्छी लगती हैं।
   
मौजूदा परवर्ती पूंजीवाद का सबसे बड़ा फिनोमिना है खोखलापन अथवा अर्थहीनता। परवर्ती पूंजीवाद में खोखलापन अथवा अर्थहीनता चारों ओर से घेर लेती है। यह खोखलापन हमारे बौध्दिक और कलात्मक उत्पादन को आकर घेर लेता है। सर्जनात्मकता भी खोखलेपन की शिकार हो जाती है। इसके कारण वैचारिक विभ्रम में इजाफा होता है। हम लगातार रहस्यों की दुनिया में घिरते चले जाते हैं।

 आज हम जिसे संस्कृति कहते हैं वह पदबंध स्वयं में ही दिग्भ्रमित करने लगा है। संस्कृति की जब बातें करते हैं तो संस्कृति के वैज्ञानिक और नये खोजपरक आयामों की ओर ध्यान नहीं जाता। सामान्य शिक्षा की अवधारणा और उसके वैज्ञानिक आयाम की ओर ध्यान नहीं जाता। बल्कि हमारी शिक्षा और संस्कृति को लेकर समस्त प्रतिक्रियाएं दैनंदिन जिंदगी,त्यौहारों और भावनाओं से तय होती हैं। अर्थहीनता क्रांतिकारी परिवर्तनों के खिलाफ विभ्रम पैदा करती हैं।

 मौजूदा समाज में संस्कृति के उत्पादन के क्षेत्र में संस्कृतिविरोधी चीजों का इजारेदारियों के समर्थन से सुचिंतित भाव से उत्पादन हो रहा है। मसलन् उपन्यास और सिनेमा जगत में घटिया उपन्यासों और फिल्मों की बाढ़ आयी हुई है। इस समूची प्रक्रिया का युवावर्ग पर गहरा असर हो रहा है। प्रभुत्वशाली विचारधारा युवावर्ग में प्रतिगामी विचारों और भावनाओं को संगठित कर रही है। प्रतिगामी व्यक्ति का निर्माण किया जा रहा है। 

व्यक्ति के सामने विचारधारात्मक विभ्रम की स्थिति है। संकट यह है कि खोखलेपन का उत्पादन अंत में स्वयं बुध्दिजीवियों और रचनाकारों को ही चुनौती देने लगा है। हिन्दी में यह स्थिति बड़े पैमाने पर पैदा हो गयी है। अन्य भाषाओं में भी संभवत: यही स्थिति है।
    
साहित्य,कला,संस्कृति से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में खोखलेपन ने कब्जा जमा लिया है। अब सारी गतिविधियां उपयोगितावाद के सिद्धान्तों को मद्देनजर तय की जा रही हैं। ये सारी गतिविधियां खंड-खंड हैं। बिखरी हैं। इसमें आलोचना और अनुसंधान अभाव है। बुर्जुआजी बार-बार नयी चीजों के आस्वाद में निवेश कर रहा है। नई से नयी चीजों का आस्वाद लेने की प्रवृत्तिा बेहद खतरनाक प्रवृत्तिा है। इसमें अनेक बार पतनशील भी आ रहा है। यह ऐसा नया है जो आक्रामक है, भ्रमित करने वाला है।
        व्यापारिक तंत्र समूची सांस्कृतिक गतिविधियों पर वर्चस्व स्थापित किए हुए है और जरा सी भी ऐसी कोई चीज जो समाज के वैनगार्ड का काम कर रही है उसे विभाजित करने की कोशिश करने लगता है। उसे सामाजिक नियमों के बहाने रोका जा रहा है। स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि हम लोग बहस के दौरान  खंड- खंड, शंकालु और वैविध्यपूर्ण व्याख्या के नाम पर बहसों से पलायन करने लगे हैं। बहस के पुख्ता आधारों को त्याग देते हैं । वैनगार्ड का यहां अर्थ है संरक्षक। संरक्षक हमें बुर्जुआजी की मूर्खताओं और संस्कृतिविहीनता से बचाता है। चीजों पर संदेह करना सिखाता है। आज ऐसे लोगों और संगठनों से संघर्ष की जरूरत है जो संस्कृति में उपयोगितावाद,खंड-खंड सत्य,भ्रमित  अथवा शंकालु यथार्थ ,व्याख्याओं के वैविध्य के नाम पर मूर्खताओं को फैला रहे हैं। इसके लिए जरूरी है कि आपके पास सुसंगत क्रांतिकारी कार्यक्रम हो। क्रांतिकारी नीति हो। हमें संस्कृति से लेकर राजनीति तक प्रत्येक क्षेत्र में आलोचनात्मक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के बिना किसी भी नयी चीज को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
     
मोदी के ''पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' के नारे को अधिकांश दलों ने  अनालोचनात्मक ढ़ंग से स्वीकार कर लिया है। किसी भी दल ने इस नारे के पीछे छिपी राजनीति और फासीवादी विचारधारा को निशाना नहीं बनाया सिर्फ इतनाभर कहा गया कि यह नारा हिन्दुत्व पर पर्दा डालने के लिए लाया गया है। 

सच यह नहीं है, यह एकदम नया नारा है। इसकी वैचारिक परिणतियां और तानाबाना अलग है। यह अस्मिता की राजनीति के सबसे खतरनाक बिंदु पर हमें ले जाता है। हमें पूरी तरह निरस्त्र कर देता है। आलोचनात्मक विवेक को निशाना बनाता है। सभी किस्म के तर्कों को खत्म कर देता है। इसमें भविष्यवादी की अनुगूंजें सुनाई देती हैं।  तकनीकी महानता का महिमामंडन है। इसके बहाने  कला,संस्कृति आदि पर सीधे हमले किए जा रहे हैं। घटिया फिल्मों के रिलीज के लिए गुजरात में कोई परेशानी नहीं है बल्कि जितनी भी परेशानी है अच्छे सिनेमा के लिए है। गुजराती अस्मिता और विकास के नाम पर संघ परिवार तकनीक और बुर्जुआ तरक्की को आक्रामक भाव से पेश कर रहा है साथ ही कला,साहित्य,संस्कृति के श्रेष्ठतम मानकों पर घृणिततम हमले कर रहा है। यह स्थिति तकरीबन वैसी ही है जैसी प्रथमविश्वयुध्द के बाद इटली में थी। कला,साहित्य संस्कृति पर राष्ट्रवाद और फासीवाद ने जमकर हमले किए। आश्चर्य की बात यह है कि भारत का इजारेदार पूंजीपतिवर्ग इस तरह के हमलों को संरक्षण दे रहा है। भाजपा को बड़े पैमाने पर धन मुहैयया कराया जा रहा है।
      
भाजपा गुजरात में जो कुछ कर रही है वह भारतीय पूंजीपतिवर्ग के समर्थन से कर रही है। वे खुल्लमखल्ला फासीवाद को प्रश्रय दे रहे हैं। गुजरात में अपनी बर्बर कार्रवाईयों  के जरिए संघ परिवार के छोटे से लेकर बड़े नेतागण परंपरागत संस्कृति की धारणा को ही बदलने में लगे हैं। आज स्थिति इतनी बदतर है कि कोई भी मूर्ख व्यक्ति गुजरात में खड़ा होकर किसी भी कलाकार,साहित्यकार,बुध्दिजीवी का सरेआम अपमान कर जाता है और उसके खिलाफ कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती। प्रशासन कोई कार्रवाई नहीं करता। उलटे ऐसे व्यक्तियों को संरक्षण दिया जा रहा है। संस्कृति की नकारात्मक व्याख्या तैयार की जा रही है। संस्कृति के खिलाफ मूर्ख और हिंसक लोग फरमान जारी कर रहे हैं। यह सब संघ परिवार के लोग कर रहे हैं।

     



6 टिप्‍पणियां:

  1. चतुर्वैदी जी आपको बहुत सारे अध्ययन की आवश्यकता है .......तथ्यहीन लेखन का बेहतरीन नमूना.....

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  2. aap ki njr me bs gujrat ko chhod kr sb jgh bda sona brs rha hai nto vhan koi grib hai nkoi bhookha sb se bdtr halt to shayd bngal ki hai pr aap ko lal chshma chdha krv dekhne ko hi kha gya hoga vh aap kr rhe hain is liye aap ka is me koi kssor nhi hai aap ka ek matr ejenda hindu virodh hai aap krte rhiye yh to aap ke poorvj bhi krte rhe honge ap bhi kren pr aap ye to btayen ki aap hindoon ke liye kya kr rhe hain ya hindon ko chhod kr baki sb ke liye dule ho rhe hain hindon ko han gali to de rhe hai is se bda aur kya kam kregen aap
    dr.ved vyathit

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  3. आप कोलकत्ता में रहते है वहां के हालत लिखिए ! वामपंथियों ने जिस बंगाल को नरक बना रखा है वहां रहते हुए आपको वो नजर नहीं आता , वहां के उजड़े उद्योग धंधे आपको दिखाई नहीं देते जबकि सबसे ज्यादा तरक्की करते हुए गुजरात में आपको गरीबी ,शोषण और बोरियत नजर आती है |
    वाह खूब !! धन्य हो प्रभु ! धन्य हो !!
    प्रोफ़ेसर साहब ! छात्रों का अध्यन कराने के साथ साथ थोडा खुद भी अध्ययन करले :)

    होली की शुभकानाएं !

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  4. LGTA HAI AAPNE MODI PR KAFI STUDY KI HAI. KYO TENTION LETE HO,TNAV JIVN BRBAD KR DETA HAI.AAP TO BS APNE NAM KE ACORDING CHAR VEDO KA ADHYAN KARE.AAPKO ILAJ KI JRURT HAI.

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  5. "गुजरात में शोषण है,गरीबी है और बोरियत भी है", बिल्‍कुल ठीक कुछ भी गलत नहीं लगा। मोदी कितना भी प्रचार करें कि गुजरात में पूंजी का भारी निवेश हो रहा है, लेकिन यह बात भी सच है कि इजारेदार वर्ग के हाथ में यह पूंजी केन्द्रित हो रही है और गरीबी का ग्राफ बढा है।
    बहुत ही लाजवाब लेख, मुझे नहीं लगता कि कोई भी लेखक मोदी के वाईब्रेंट प्रचार की इससे बेहतर कलई खोल सकता था।

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