मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

इस्लाम,मध्यपूर्व ,बहुराष्ट्रीय कारपोरेट मीडिया और एडवर्ड सईद -2-

अमरीकी नीतिनिर्धारकों को तीसरी दुनिया के देश 'अविकसित' नजर आते हैं।इन देशों में परंपरागत जीवनशैली की पकड़ है जिसके कारण इन देशों में साम्यवाद का खतरा अथवा आंतरिक ठहराव है। यही वह फ्रेमवर्क है जिसमें फिलीस्तीनियों को फिट कर दिया गया है। अमरीका का मानना है तीसरी दुनिया के देशों के लिए ''आधुनिकीकरण'' आज की सबसे बड़ी जरूरत है।  जेम्स पैक के अनुसार ''आज दुनिया में जितनी भी क्रांतिकारी उथल-पुथल है,जिसके प्रति परंपरागत राजनीतिक अभिजन प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहता है, उसका विचारधारात्मक प्रत्युत्तर है आधुनिकतावादी सैध्दान्तिकी।''
    
     सईद ने लिखा है कि अफ्रीका और एशियाई देशों में साम्यवाद की बढ़त रोकने के लिए बड़े पैमाने पर पैसा खर्च किया गया। अमरीका के व्यापार विस्तार और इस सबसे बढ़कर इन देशों में अपने सहयोगी कैडर तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिससे इन देशों को लघु अमरीका बनाया जा सके। इसके लिए आरंभिक समर्थन के तौर पर सैन्य मदद मुहैयया करायी जा रही है। जिससे समूचे एशिया और लैटिन अमेरिका में हस्तक्षेप किया जा सके।
   
अमरीका के द्वारा एशिया के बारे में किस तरह के नीतिगत विचार हैं और वे एशिया की किस तरह की आदतें देखना पसंद करते हैं, उन्हें समझे बगैर आप अमरीकाजनित आधुनिकीकरण को समझ ही नहीं सकते। इसी के आधार पर अमरीका अपना आधुनिकीकरण में राजनीतिक,भावनात्मक और रणनीतिक निवेश करता है।


  परंपरागत समाजों के आधुनिकीकरण पर बड़े पैमाने पर अमरीकी विचारों और राजनीतिज्ञों का लेखन मिलता है जिसमें 'आधुनिकीकरण' को 'जनप्रिय मन' (पापुलर माइण्ड) से जोड़ा गया है। इस जनप्रिय मन के अंदर अमरीका की मूर्खताएं भर दी गयी हैं,जैसे अमरीका की खर्च करने की आदत,अवांछित वस्तुओं और गहने,भ्रष्ट शासकवर्ग और छोटे और कमजोर देशों में अमरीकी हस्तक्षेप को भर दिया गया है। 


    आधुनिकतावाद के अनेक भ्रमों में से एक है इस्लामिक जगत के बारे में समझ। अमरीका का मानना है इस्लामिक देशों की सभ्यता अभी बेहद पिछड़ी है,इतनी पिछड़ी है कि वह समय से काफी पीछे चल रही है। इस्लामिक समाजों में किसी भी किस्म का विकास नहीं हुआ है और कुसंस्कार जड़ें जमाए हुए हैं। पश्चिमी विचारों को इन समाजों में प्रवेश से रोकने का काम पूरी परह मौलवी लोग कर रहे हैं। वे इन समाजों को मध्यकाल से आधुनिकाल में आने नहीं देना चाहते। भय की बात यह है कि ये लोग किसी किस्म की राजनीति स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उनका इस्लाम से बंधे रहना एकतरह की बगावत है।
    
     कहा जाता है इस्लाम में अतिधार्मिकता है। वे यह भी बताते हैं  पश्चिमी दिमाग से इस्लामिक जगत कैसे भिन्नाता प्रदर्शित करता रहा है। खासकर शीतयुध्द के समय किस तरह पश्चिमी जगत से इस्लामिक दुनिया अपनी भिन्नाता प्रदर्शित करती रही है। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसके आधार पर अमरीकी जनता को शिक्षित किया जाता है और उन्हें मध्यपूर्व में सैन्य हस्तक्षेप के लिए तैयार किया जाता है। 


     अमरीकी प्रतिष्ठानी मीडिया का तर्क है इस्लाम के उभार का अर्थ है इजरायल के लिए खतरा। पश्चिमी वर्चस्व और आधुनिकीकरण के लिए खतरा। अमरीकी स्कॉलरों की नजर में आधुनिकीकरण का एक ही उदाहरण रहा है और वह है ईरान। बाकी इसलामिक जगत को अमरीकी आधुनिकतावादी नजरअंदाज करते रहे हैं। मसलन् अरब राष्ट्रवाद,जिसके तहत मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, इण्डोनेशिया के सुकर्णो, फिलीस्तीनी राष्ट्रवाद,ईरान के विपक्षी ग्रुप,हजारों इस्लामिक स्कॉलर,बुध्दिजीवी,शिक्षक आदि को आधुनिकतावाद के सिध्दान्तकार नजरअंदाज करते रहे हैं। इन सबका विरोध किया गया अथवा उपेक्षा की गई और इसके लिए बेशुमार धन बहाया गया।
   
आधुनिकीकरण की हवा द्वितीय विश्वयुध्द के बाद के दो दशकों में देश-देशान्तर में बहती रही। आधुनिकीकरण के सफल आख्यान के रूप में ईरान के राजा शाह पहलवी को आदर्श रूप में प्रचारित किया । किंतु कालान्तर में ईरान का आधुनिकीकरण और आधुनिकतावाद अमरीका के गले नहीं उतरा और आज तो अमरीका ईरान को पूरी तरह ध्वस्त करने पर आमादा है। 


    ईरान में लोकतंत्र है,आधुनिक शिक्षा -दीक्षा का माहौल है। ईरान संप्रभु राष्ट्र है किंतु अमरीका नहीं चाहता कि ईरान संप्रभु राष्ट्र रहे। ईरान के ऊपर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। उस पर हमले की तैयारी हो रही है। इसके पहले जब इराक का शासक सद्दाम हुसैन अमरीका का पिट्ठू था, उससे ईरान पर हमला कराया गया,ईरान को वर्षों युध्द की आग में झोंक दिया गया। 


    तकरीबन आठ साल इराक-ईरान युध्द चला और उसमें इराक ने रासायनिक हथियारों तक का प्रयोग किया, इसके बावजूद ईरान ने जनतंत्र के रास्ते से अपने कदम वापस नहीं लिए,ईरान में आज सबसे ज्यादा आधुनिक नजरिए के नागरिक पाए जाते हैं,लोकतांत्रिक सरकार है,ईरान में कहीं पर भी आतंकवादी नहीं हैं। ये सारी चीजें अमरीका को हरगिज पसंद नहीं हैं। अब ईरान के खिलाफ अपनी सेनाओं को सन्नाध्द करने में लगा है और ईरान के अंदर भाड़े के सैनिक और आंदोलनकारी जुटाए जा रहे हैं जिससे लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी गई सरकार को गिराया जा सके। 


      ईरान के बारे में एक बात सच है कि ईरान की जनता में अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ जबर्दस्त घृणा है। ईरान के शासक अमरीकी विदेशनीति की जमकर मुखालफत करते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि ईरान में विगत पचास वर्षों में जो कुछ घटा है उसे अमरीकी आधुनिकतावादियों की सैध्दान्तिकियों के जरिए शायद ही कोई समझ पाए।


      ईरान में आधुनिक परिवर्तन की आंधी अमरीकी आधुनिकतावाद की सबसे बड़ी असफलता रही है। मसलन् जब ईरान में राजा शाह पहलवी का शासन स्थापित हो गया, शाह स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष,सूट-बूट वाले शासक थे। ईरान कभी भी कम्युनिस्ट समर्थक नहीं रहा। ईरान की जनता को आधुनिकतावाद के प्रतीक कार,गहने,सैन्यास्त्र,स्थायी सरकार, सुरक्षा का तंत्र आदि कभी भी आकर्षित नहीं करते रहे हैं।


     सईद ने लिखा है आधुनिकतावाद और कुछ नहीं यहूदीवाद को पुनर्स्थापित करने की कोशिश है। ये सारी चीजें इस्लाम के प्रति नजरिए के नाम पर पेश की जाती रही हैं। अमरीका का सारा सूचना और संस्कृति तंत्र इन्हीं आधुनिकतावादी सपनों और नजरिए पर टिका  है। उसका 'हम' का नजरिया और नीतियां इसी पर आधारित है।
     वे बार-बार अपने बेशकीमती विचारों को इस्लाम,तेल, पश्चिमी सभ्यता का भविष्य और लोकतंत्र के लिए संघर्ष के नाम पर पेश करते रहे हैं। इस्लाम के खिलाफ घृणा के प्रचार में जिन दो तत्वों को प्रधान रूप से इस्तेमाल किया जाता है वे हैं, पहला, इस्लाम की तयशुदा इमेज,जिनमें केरीकेचर दिखाया जाता है। उन्मादी और बकबादी भीड़ को दिखाया जाता है। दूसरा ,इस्लाम के नाम पर दिए गए दण्डों को दिखाया जाता है। साथ ही यह भी बताया जाता है कि इन सबके ऊपर तेल की सत्ता काबिज है।  तेल कंपनियों का राज है।
         

     फिलीस्तीन के सवाल पर विचार करते हुए सईद ने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि फिलीस्तीन को एक राष्ट्र के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्हें एक समूह अथवा अरब शरणार्थी के रूप में नहीं देखा जाए। फिलीस्तीन की एक राष्ट्र के रूप में स्वीकृति का अर्थ है फिलीस्तीन को उनकी राजनीतिक अस्मिता के साथ जोड़ना। अपने देश की ऐतिहासिक जमीन पर वापस लौटना प्रत्येक फिलीस्तीन का अधिकार है। यह सच है अधिकांश फिलीस्तीन अपने देश के बाहर शरणार्थी की तरह इधर-उघर बिखरे पड़े हैं। इसके बावजूद उनके बारे में सामूहिक नजरिए से बोला जा सकता है। उनके आत्मनिर्णय के अधिकार की आकांक्षाओं को व्यक्त किया जा सकता है। उनकी स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र की मांग की हिमायत में खडा हुआ जा सकता है।
    सईद ने ''ईमानदार और एकीकृत फिलीस्तीन राजनीतिक आत्मचेतना'' और ''राष्ट्रीय आत्मचेतना'' की बात कही है। सन् 1948 और खासकर 1967 के बाद से फिलीस्तीनियों में एकता बनी और उनमें फिलीस्तीन राष्ट्र के निर्माण की मांग जोर पकड़ने लगी। फिलीस्तीनियों के साझा मंच के तौर पर फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन का नाम उभरकर सामने आया। इसी फिलीस्तीनी राष्ट्रवाद की मुखर अभिव्यक्ति के रूप में एडवर्ड सईद का नाम बौध्दिक जगत में उभरकर सामने आया। सईद का समूचा पालन-पोषण पश्चिमी वातावरण में हुआ और इसके कारण उनके पास दो तरह की पहचान थी, पश्चिमी और फिलीस्तीन की पहचान। सईद को सिर्फ फिलीस्तीन कहना ठीक नहीं होगा। उनके विचारों और नजरिए पर जितना फिलीस्तीनी जनता के स्वतंत्र राष्ट्र की मांग का गहरा असर था उससे भी ज्यादा असर पश्चिमी विचारधारा के मुक्तिकामी विचारों का था। सईद के द्वारा फिलीस्तीन आख्यान को बार-बार पेश करने का मूल मकसद था फिलीस्तीन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पेश करना। इस आख्यान में इजरायल समर्थित आख्यान का खंडन किया गया है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम में फिलीस्तीनी जनता का इजरायल समर्थित आख्यान ही सबसे ज्यादा प्रचलन में है। उसी को पश्चिमी जगत ज्यादा जानता है। सईद ने इजरायल की स्वतंत्र राष्ट्र की बजाय एक विस्तारवादी राष्ट्र की परिकल्पना पेश की है। इजरायल के द्वारा कैसे विस्तारवादी- साम्राज्यवादी नीतियों का पालन किया गया और किस तरह मध्यपूर्व में उसने अन्य राष्ट्रों पर हमले किए और उनकी जमीन को अपने अधिकार में ले लिया, किस तरह फिलीस्तीनियों को गुलामों से भी बदतर अवस्था में रखा ,किस तरह स्वयं इजरायल में यहूदी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करके समूचे इजरायल को एक कट्टरपंथी धार्मिक यहूदीवाद के रास्ते पर ठेल दिया गया है। ये सारी चीजें एक महाख्यान के रूप में सईद के लेखन में बार-बार आती हैं।
(लेखक -जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह )

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