सोमवार, 14 दिसंबर 2009

ग्लोबल विलेज का तानाबाना







मार्शल मैकलुहान  ने ग्लोबल विलेज की जब पहले  सबसे धारणा पेश की तो ज्यादातर विचारकों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया । आज सारी दुनिया में ग्लोबल विलेज की धारणा का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है। ग्लोबल विलेज अथवा भूमंडलीय गांव रुपक है। इसके जरिए परवर्ती पूंजीवादी विकास और तद्जनित मीडिया वातावरण और सामाजिक संरचनाओं  के अध्ययन में मदद मिलती है। ग्लोबल विलेज में टीवी को आधार बनाकर धारणा पेश की गई थी, इसके अलावा मासकल्चर के विकास को भी इस धारणा को जोड़कर देखना चाहिए। ग्लोबल विलेज का निर्माण ग्लोबल मीडिया प्रसारण और ग्लोबल मासकल्चर के प्रसार के साथ जुड़ा हुआ है।


मैकलुहान ने लिखा '' आज,इलैक्ट्रिक तकनीक के आने के एक शताब्दी से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद हमने अपने केन्द्रीय नरवस सिस्टम को ग्लोबल के हवाले किया है, भूमंडल के संदर्भ में स्पेस और टाइम दोनों का लोप हो गया है।'' इस नजरिए से यदि बीसवीं शताब्दी को देखें तो एकदम भिन्ना नजारा दिखाई देगा। यही वह शताब्दी है जिसमें दो विश्वयुध्द हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ,विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष,यूरोपीय यूनियन,नाटो जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ। यूरोपीय देशों की साझा मुद्रा का जन्म हुआ। उपग्रह तकनीकी का विकास हुआ और उपग्रह के जरिए सारी दुनिया में टीवी प्रसारण संभव हुआ। आधुनिकता और फिर उत्तार आधुनिकता का पथ ग्रहण किया।
       


     सारी दुनिया को ग्लोबल विलेज के रुपक में बांधने का काम किया टीवी और उपग्रह ने। टीवी ने विश्व समुदाय को जन्म दिया,आज हमारे बीच में ज्यादा से ज्यादा बहुराष्ट्रीय चैनल आ रहे हैं। इंटरनेट ने इस प्रक्रिया को नई ऊचाईयां दीं। पहले हमारे पास परंपरागत टीवी था,जिसमें स्थानीय स्तर पर एक साथ कार्यक्रम का आनंद ले सकते थे,राष्ट्रीय अनुभूति में बंध सकते थे, किंतु सैटेलाइट के इस्तेमाल ने टीवी और सामाजिक संरचनाओं का स्वभाव ही बदल दिया। इसका मानवीय व्यवहार पर गहरा असर हुआ। आज संसार पहले की तुलना में एक-दूसरे से ज्यादा जुड़ा है। ग्लोबल विलेज का आधार है ग्लोबल संपर्क, ग्लोबल संवाद,ग्लोबल संस्कृति। ग्लोबल होने का यह अर्थ नहीं है कि स्थानीय वैशिष्ट्य खत्म हो जाएंगे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि स्थानीय वैशिष्टय के लिए भी ग्लोबल आधार उपलब्ध रहेगा। स्थानीय भी ग्लोबल हो सकता है। ग्लोबल का अर्थ लोकल का लोप नहीं है,बल्कि ग्लोबल लोकल के बिना आधार ही नहीं बनाता, ग्लोबल का लोकल से बैर नहीं है, बल्कि लोकल के लिए नयी संभावनाएं पैदा करता है। इस अर्थ में ग्लोबल एक प्रगतिशील कदम है,प्रतिगामी कदम नहीं है।
      


         ग्लोबल मीडिया के कारण लोकल लोगों में संवाद और संपर्क और भी मजबूत बनता है। ग्लोबल का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि लोकल ग्लोबल आर्थिक गतिविधि का हिस्सा बनता है, ग्लोबल आर्थिक संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथित करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकल आर्थिक गतिविधियों को खत्म कर देता है, बल्कि लोकल को भी ग्लोबल आधार देता है। इस क्रम में आर्थिक गतिविधि की राष्ट्रीय सीमाओं को खत्म कर देता है,सीमाहीन विकास, राष्ट्र की सीमा के परे जाकर विकास की नयी संभावनाओं के द्वार खोलता है। कोई देश ग्लोबल विलेज बनता है या नहीं यह सब कुछ स्थानीय राजनीतिक -आर्थिक संरचनाओं के ग्लोबल संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथन पर निर्भर करता है। 


लोकल के ग्लोबल होने की पहली शर्त है सभी किस्म राष्ट्रीय बंधनों,सीमाओं और कानून में ग्लोबल आर्थिक या वित्तीय संस्थानों के अनुकूल बुनियादी परिवर्तन। ग्लोबल विलेज के रुपक का मूलाधार है ग्लोबल संपर्क की संरचनाएं,ग्लोबल वित्तीय संरचनाएं,ग्लोबल संचार प्रणाली। इसका आधार है सैटेलाइट, टीवी,इंटरनेट आदि के जरिए संपर्क,संबंध और संवाद।  ग्लोबल का लक्ष्य है वर्चुअल समाज,वर्चुअल संस्कृति ,वर्चुअल आनंद,वर्चुअल इतिहास के जरिए सारी दुनिया के बीच नये संबंध ,संपर्क और संवाद का निर्माण।
      
  ग्लोबल विलेज में आने या रहने अथवा इस रुपक को महसूस करने का अर्थ यह नहीं है कि भौतिक जगत में वैषम्य का लोप हो गया है,बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य,सामाजिक वैषम्य,राष्ट्रों के वैषम्य,संस्कृतियों के वैषम्य,जीवन की आधारभूत परिस्थितियों के बीच वैषम्य की प्रकृति को बदलता है, वैषम्य को बढ़ाता है, वैषम्य को छिपाता है। 


   ग्लोबल विलेज का अर्थ यह नहीं है कि सारी दुनिया एक जैसी हो गयी है,एक ही गांव में रहती है, बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य के सवाल को सम्बोधित ही नहीं करता। ग्लोबल विलेज एक सुंदर रुपक है ,यह सच को छिपाता है,सच को उद्धाटित भी करता है,काल और देश के भेद के बिना यह काम करता है। पहले वैषम्य स्थानीय था,अब वैषम्य ग्लोबल है। स्थानीय वैषम्य को ग्लोबल वैषम्य के परिप्रेक्ष्य में देखने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ग्लोबल विलेज में यदि ग्लोबल उपभोग,ग्लोबल संवाद, ग्लोबल संचार के सवाल प्रमुख हैं तो ग्लोबल हिंसाचार,ग्लोबल वैषम्य,ग्लोबल लूट और उत्पीड़न के सवाल प्रमुख हैं।
   
    ग्लोबल में कोई भी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक तत्व छिपा नहीं रहता,ग्लोबल विलेज में सबको सबकी खबर लेने,जानने का हक है,संभावनाएं हैं और हस्तक्षेप करने का अधिकार भी है। ग्लोबल हमें सीमाबध्दता,स्थानीयता,स्थानीयबोध और कूपमंडूकता से मुक्त करता है। इस अर्थ में यह सकारात्मक धारणा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो ग्लोबल नहीं है वह कूपमंडूक है, और जो ग्लोबल है वह अक्लमंद है। यह भी संभव है कि खान-पान में ग्लोबल हों,ज्ञान में लोकल हों। ज्ञान में ग्लोबल हों,जीवनशैली में लोकल हों।


 ग्लोबल में सब कुछ खुला है तो बहुत कुछ अनखुला भी है,उदार वातावरण है तो अनुदार वातावरण भी है , लोचदार समझ का समाज है तो कट्टरपंथी समाज भी है। कहने का अर्थ यह है ग्लोबल अन्तर्विरोधी है। मूलत: वर्चस्ववादी है, इसमें मुक्ति की क्षमता नहीं है। किंतु संपर्क की क्षमता,संवाद की अपार क्षमता जरूर है।


     मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की धारणा दी थी तब वह दृश्य ,व्यक्तिवादी प्रिंट संस्कृति की समाप्ति को देख रहे थे, यही वजह है उन्होने '' इलैक्ट्रोनिक इंटरडिपेंडेंस'' की बात कही थी। यही वह दौर था जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने दृश्य संस्कृति के जरिए युगीन और वाचिक संस्कृति को अपदस्थ किया था। 


    इलैक्ट्रोनिक युग में मनुष्य व्यक्तिवाद से निकलकर फ्रेगमेंटेशन या विखंडन के युग में दाखिल होता है।  सामुदायिक अस्मिता के युग में दाखिल होता है। इसका आदिवासी चरित्र था। मैकलुहान ने ऐसी अवस्था में नए किस्म के सामाजिक संगठनों की बात कही। नया सामाजिक संगठन ग्लोबल विलेज के रूप में सामने आया। हम अलैक्जेंडरियन लाइब्रेरी की ओर जाने की बजाय कम्प्यूटर की ओर चले गए, इलैक्ट्रोनिक दिमाग की ओर चले गए,एक तरह से साइंस फिक्शन के प्रति पागल हो उठे। इस समूचे परिवर्तन को सही ढ़ंग से समझे बिना हम आतंककारी दर्द के शिकार हो गए। हम ऐसे जगत में आ गए जिसमें समग्रता में अन्तर्निर्भरता बनी रही। इसके ऊपर सह-अस्तित्व को आरोपित कर दिया गया।
      
    वाचिक समाज में आतंक एक अनिवार्य और नार्मल तत्व है। इसमें प्रत्येक चीज प्रत्येक चीज को प्रभावित करती है। हमारी पश्चिमी मानसिकता यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि हम जनजातीय चेतना से घिर चुके हैं। मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की बात कही थी तो उसका इशारा मीडियम के ज्ञानात्मक प्रभाव की ओर था। मैकलुहान का मानना था कि मीडिया के प्रभाव को लेकर हम यदि सतर्क नहीं होते तो ग्लोबल विलेज सर्वसत्तावाद और आतंक के राज में तब्दील होने की क्षमता रखता है। मैकलुहान की यह बात अब तक के ग्लोबल यथार्थ में सच साबित हुई है। सन् 1980 के बाद से सारी दुनिया में आतंक,सर्वसत्तावाद का एक नया उभार देख रहे हैं। खास किस्म की आदिमचेतना और आदिम मानसिकता का प्रसार देख रहे हैं।
 (लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह )

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