बुधवार, 16 दिसंबर 2009

समाचार चैनलः धंधे में मालामाल न्यूज में गोलमाल




भारतीय समाचार चैनलों का नव्य -उदारतावादी दौर में धंधा चोखा रहा। आंकड़े बताते हैं कि विगत 10 सालों में चैनलों की तादाद में तेजी से इजाफा हुआ है। अभी 80 न्यूज चैनल हैं जिनकी संख्या आगामी चंद महीनों में 100 का आंकड़ा पार कर जाने की संभावना है। समाचार चैनलों का बहुभाषी विकास हुआ है।
   टेलीविजन के धंधे में डीडी का वर्चस्व था, इस क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति मिलने के बाद डीडी का वर्चस्व टूटा। समाचार चैनलों की व्यापक अर्थव्यवस्था का उदय हुआ। पहले लगता था हिंदी-अंग्रेजी चैनलों का ही वर्चस्व चलेगा, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं के चैनलों के आने के बाद समाचार का समूचा व्यावसायिक ढांचा ही बदल गया। आमदनी,दर्शक संख्या और राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से अंग्रेजी चैनलों को भाषायी चैनलों ने काफी पीछे छोड़कर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
     अंग्रेजी चैनलों की दर्शक संख्या 2007 में 0.75 प्रतिशत थी जो 2009 में घटकर 0.42 प्रतिशत रह गयी है। हिंदी चैनलों की इसी अवधि में दर्शक संख्या 5.29 से घटकर 4.18 प्रतिशत हो गयी है। इसके विपरीत क्षेत्रीय चैनलों का दर्शक संख्या 2.92 से बढ़कर 4.26 प्रतिशत दर्ज की गयी है। मजेदार बात यह है जिस गति से  चैनल बढ़े हैं उस अनुपात में टीवी समाचार की साख में इजाफा होना तो दूर उलटे टीवी समाचार की साख गिरी है। आज से 5 साल पहले न्यूज चैनलों को तकरीबन 500 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते थे आज 1500 करोड़ से ज्यादा के विज्ञापन मिलते हैं। एक अनुमान के अनुसार टीवी उद्योग इस समय सालाना 10 हजार करोड़ से ज्यादा के विज्ञापन प्राप्त कर रहा है।

    हिंदी के अनेक पाठक टीवी समाचार को विधागत विशेषता के आधार पर नहीं जानते उनके लिए विश्व विख्यात फ्रांसीसी विद्वान पियरे बोर्दिओ के विचार जानना सही होगा । बोर्दिओ ने टीवी पर विचार करते हुए ' ऑन टेलीविजन' किताब लिखी यह किताब 112 पृष्ठों की है। इस किताब में टीवी में ''अन्तनिर्हित अर्थ का उद्धाटन करते हैं।'' जो अदृश्य है,छिपा है,उसे सामने लाते हैं,इसी क्रम में लिखा है कि टीवी समाचार सनसनीखेज का आदी बना देता है। टीवी एक मीडियम के तौर पर यथार्थ पैदा करने की बजाय यथार्थ की रिकॉर्डिंग का माध्यम है। हम धीरे-धीरे ऐसे संसार के करीब आते जाते हैं जिसे टीवी पेश करता है। वह अपनी इजारेदारी के कारण सांस्कृतिक संपदा पैदा करता है,टीवी खबरों का विभाजन नए किस्म की सत्ता को जन्म देता है। '' जनता की नजरों के सामने सब समय बने रहने की अवस्था के कारण ,व्यापक सर्कुलेशन और आम जनता में प्रसार के कारण पत्रकार सारे समाज पर अपना नजरिया थोप देता है,समस्या की धारणा ,उसके प्रति अपना नजरिया थोप देता है।'' इससे 'पत्रकार सेंसरशिप' पैदा होती है। 'पत्रकार सेंसरशिप' पत्रकार की बगैर जानकारी के लागू होती है। चयन की प्रक्रिया में उन्हीं चीजों का प्रसारण किया जाता है जो चीजें उसे ''रोचक'' लगती हैं। ''दर्शक के ध्यान को बांधे'' रखती हैं। इसका अर्थ है कि मानसिक पकड़ की कैद में हों।''     
   सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है टीवी रेटिंग। उसकी मुनाफा कमाने की मंशा। यही वह आधार है जिसके आधार पर खबरें चुनी जाती हैं। रेटिंग और मुनाफे के आधार जब टीवी के सभी उत्पाद तैयार किए जाते हैं। ''यह स्वाभाविक है कि वे सामाजिक जगत का '' रुपायन नहीं करेंगे। यह तो इस मीडियम की फ्रांक भगवान (फ्रांस की मुद्रा) के सामने गुलामी है। टीवी सभी किस्म की अवैधताओं को अपदस्थ कर देता है।

सामान्यत: टीवी के विमर्श और उनके प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। यहां कम से कम समय में ज्यादा प्रभाव पैदा किया जाता है। टीवी उत्पादन के जरिए प्रतीकात्मक हिंसा पैदा की जाती है। अदृश्य सेंसरशिप होती है। इसके जरिए जो दिखाना है उसे छिपाया जाता है। सूचनाओं का निरंतर और बार-बार प्रवाह बनाए रखा जाता है। हमेशा अनिवार्यता और जल्दी सोचने की आदत बनी रहती है। टेलीविजन बहस सच में झूठ और झूठ में सच की तरह होती है। उसकी बहसों के केन्द्र में हमेशा तनाव और अन्तर्विरोध के सवाल रहते हैं।

टीवी का चारित्रिक वैशिष्टय है कि बह बाजार के कोटा और प्रतिस्पर्धा के आधार पर चलता है। बाजार की शक्तियों में कृत्रिम प्रतिस्पर्धा और मनमाने ढ़ंग से बाजार की शक्तियों का निर्धारण करता है। बाजार में कौन आएगा और कौन टिकेगा इस पर टीवी का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है।
बोर्दिओ कहता है आरंभ में अनेक समाजशास्त्रियों ने साठ के दशक में टीवी के आने पर इसका उपहास उड़ाया था । इसे जनविहीन मीडिया की संज्ञा तक दे डाली थी। किंतु कालान्तर में देखा गया कि यही मीडिया सारी ऑडिएंस पर एकच्छत्र राज्य स्थापित कर चुका है। यहां तक कि टीवी निर्माताओं ने भी इसकी शक्ति को कम करके आंका था।

   आज दुनिया की सारी ऑडिएंस इसके दायरे में कैद है। स्थिति यह है कि सभी किस्म के सांस्कृतिक उत्पादों को भी इसने प्रभावित किया है,अन्य मीडिया के लोग भी इसमें जाना चाहते हैं। सांस्कृतिक उत्पादन के क्षेत्र में टीवी ने अभूतपूर्व प्रभाव डाला है। यहां तक कि कलात्मक वैज्ञानिक उत्पादन भी इससे प्रभावित होने से बच नहीं पाया है। आज टीवी सांस्कृतिक उत्पादन के सार्वभौम अन्तर्विरोधों को चरमोत्कर्ष तक ले गया है।  

टीवी सूचना के माध्यम से यथार्थ को विरुपित ढंग़ से पेश करता है। उसके जरिए छनकर जो यथार्थ आता है वह विकृत होता है। वह यथार्थ को ऐसी योजना में तब्दील कर देता है जो उसके अनुकूल हो। व्यापक जनता के सुनने के लक्ष्य और अनिवार्यता को संतुष्ट करे। मासमीडिया हर समय राजनीतिक तौर पर बड़ी भूमिका अदा करता है। राजनीतिक खेल में वह सिर्फ दर्शक मात्र नहीं होता बल्कि खेल के सभी नियमों का खिलाड़ी होता है। इसमें संदेह नहीं कि यह समाज 'पब्लिक ओपिनियन' का समाज है। यह बात तर्कपूर्ण भी लगती है इसलिए वे यह मानते हैं कि वे जैसा सोचते हैं वैसा ही घटे। जो लोग कहते हैं कि वे हमारे यथार्थ को निर्मित कर रहे हैं,उसको पेश कर रहे हैं, उनके पास कितना अवसर है , वे दृढ़ता और निरंतरता के साथ उसकी महत्ता प्रदर्शित करते हैं।

हमारा समाज मीडियाकेन्द्रित है। शक्ति का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि शक्ति को दिखाएं,बल्कि शक्ति को कोई नोटिस ले,संप्रसारित किया जाय,यथार्थ को बयान में तब्दील किया जाय। किंतु यह सब नया नहीं है। इस तरह के लक्ष्य के साथ राजा से लेकर कवि तक सभी काम करते रहे हैं। उनके एक्शन ग्राम्य गीतों और कविता के रुप में आते रहे हैं। संघर्ष में जीतना महत्वपूर्ण है किंतु कहानी को काल और स्थान में आना चाहिए। सिर्फ स्मृति को विकसित करने के लिए ही नहीं बल्कि शत्रु के अंदर एक्शन लेने के पहले उसकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए। आज ये परंपरगत 'उपकरण' यह सुनिश्चित करते हैं कि 'वह ऐसा कर सकता है।' अथवा 'उसने यह बात प्रचारित की'। इसके कारण खुली शत्रुता जन्म लेती है। उनके हित अलग-अलग हैं। एक जमाना था जब गायक को राजा दान देता था। आज वह गायक अपने गाने का उतना ही पाता है जितने लोग उसे सुनते हैं।
    बोर्दिओ कहता है कि जो टीवी पत्रकार जनता में उम्मीदें पैदा करते हैं ,अपनी वाचालता से नीति को सरलीकृत करके पेश करते हैं,(सभी किस्म के लोकतांत्रिक मुद्दे में विपक्ष की राय भी होती है,मंशा होती है,उसकी भी सूचना दी जानी चाहिए,अथवा शिक्षा दी जानी चाहिए) उनकी यह वाचालता सिर्फ उनकी इच्छा या रूझान को बताती हैं। उनके विजन को बताती है।

खासकर तब जब बहस में  प्राथमिकता अपने हिसाब से तय करके उस समय दुरुपयोग किया जाता है जब हारने का डर हो। विवाद में हमेशा द्वंद्व होता है। इसमें कोई भी औसत किस्म का आदमी बढ़त हासिल कर सकता है और किसी भी राजनेता अथवा व्यक्ति को परास्त कर सकता है। इस तरह के विवाद में जो चीज नष्ट होती है वह है तर्क। विवाद की धुरी है तर्क और टीवी विवाद इसे ही नष्ट कर देते हैं।

मसलन् बजट घाटे,करों में कटौती,विदेशी कर्ज आदि के सवाल पर चली बहसों में इसे देखा जा सकता है। टीवी पर आने वाली बहसें व्यक्तिगत राजनीतिक संपर्क और आंतरिक निजी बातों के आधार पर ज्यादा होती हैं। यहां तक कि इसमें अफवाहों का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसे ही वस्तुगत राय  और खोज के रुप में पेश किया जाता है। सारी चीजें ऐसे पेश की जाती हैं गोया वे विशेषज्ञ हों।

इससे भी रोचक बात इस खेल में यह है कि खिलाड़ी जो अपने तर्क से खेल रहा होता है वह राजनीतिक कार्यनीतिक सवाल ज्यादा उठाता है,सारवान बातें कम कहता है,यही उसकी बहस का सार भी होता है। ये राजनीतिक मंच से दिए गए भाषण ज्यादा लगते हैं। इनका प्रभाव भी वैसा ही होता है। सवाल यह है कि इनकी अंतर्वस्तु किसकी है ? कभी -कभी वे नया दिखाने की कोशिश करते हैं और बहस के धुंए में उसे छोड़ देते हैं ।

  
                   

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