गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

हिन्दी के भाषाविद् स्त्रीभाषा कब पढाएँगे ?


आज सारे भारत में उच्च शिक्षा के स्तर पर सेमेस्टर प्रणाली लागू करने की कवायद चल रही है। यू जी सी का दबाव है और दण्डानुशासन जनित भय भी कि लगभग हर विश्वविद्यालय का प्रशासन इसे लागू करने की प्रक्रिया आरंभ कर चुका है। इस प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है पाठ्यक्रम में बदलाव। अब तक का जो पाठ्यक्रम चला आया है , जिसे पढकर मेरी पीढी और मेरी माँ की पीढ़ी बडी हुई है ,उससे स्त्री की कोई छवि निर्मित नहीं होती। बारह चौदह वर्ष की पढाई करने के बाद अगर प्रश्न किया जाए कि हमने जो अध्ययन किया उसके आधार पर बताएँ कि स्त्री कैसी थी, उसका संसार कैसा था, वह कैसे सोचती थी तो उत्तर नकारात्मक होगा। न तो इतिहास, न भाषा का अध्ययन,  न खानापूर्ति के अलावा समाजशास्त्र स्त्री के बारे में कुछ बताता है।
  समाज में पुरूषों की भूमिका वर्चस्वशाली रूप में है। पुरू हमेशा ज्ञान, दर्शन और साहित्य के केन्द्र में रहे हैं। वे हमेशा से इस सामाजिक स्थिति में रहे हैं कि पुरू श्रेष्ठता का मिथ निर्मित कर सकें और इसे स्वीकार भी करवा सकें। इस झूठ को पुष्ट करने के लिए अपनी श्रेष्ठता के पक्ष में प्रमाण जुटा सकेंयह ऐसा मिथ है जिस पर हमला तो किया जा सकता है लेकिन जिसका उन्मूलन संभव नहीं है क्योंकि इसकी जड़ें सामाजिक बुनियाद में हैं। सामाजिक तानाबाना इस झूठ को बनाए रखने, इससे सहयोग करने के पक्ष में है।
  स्त्रियाँ अपने सत्य का निर्माण जिस रूप में करत हैं या करने के लिए उत्प्रेरित किया जाता है उमें भाषा के स्वैच्छिक नियमों की अहम भूमिका होती है। सत्य के निर्माण का एक अहम हिस्सा भाषा है। भाषा इस दुनिया को वर्गीकृत और व्यवस्थित करने का माध्यम हैयह सत्य को मैनीपुलेट करने का माध्यम भी है। भाषिक बनावट और भाषिक व्यवहार के माध्यम से ही हम अपनी दुनिया को वास्तविक बनाते हैं और अगर बुनियाद में ही गड़बड़ी है तो भ्रम के शिकार होते हैं। भाषिक नियम जो सांकेतिक व्यवस्था हैं, यदि गलत हैं तो रोजाना धोखा खाते हैं।
    स्त्रीहीनता के नियम भाषा में कैसे काम करते हैं देखना हो तो भाषा विज्ञान के परंपरित पाठ्यक्रम को विश्लेशित करना दिलचस्प होगा। एक उदाहरण लें। भाषा से संबंधित किसी भी अध्ययन के पुरोधा हैं सॉस्यूर। सॉस्यूर भाषा अर्थ संबंधी नियम को स्वाभाविक मानते हैं। ये नियम संसार में मौजूद हैं और उन्हें केवल अर्थ के जरिए खोजा जाना है। इस तरह से भाषा के इतिहास को सहज, स्वाभाविक और वैध मानते हैं।
  भाषाविज्ञान के एक अन्य पुरोधा येस्पर्सन ने अपनी पुस्तक लैंग्वेज इट्स नेचर डेवलपमेंट एण्ड ओरिजन (1922) में 'द वुमेन ' शीर्षक एक अध्याय लिखा और उसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि स्त्रियाँ भाषा के व्यवहार के संबंध में पर्देदारी और अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति को प्रमुखता देती हैं। येस्पर्सन ने दंभ के साथ उदघोषणा की कि ने यदि हमने अपने को स्त्रियों की दुर्बल अभिव्यक्ति वाली भाषा के अनुकरण में लगा दिया तो यह भाषा के लिए गंभीर खतरा होगा! येस्पर्सन ने कहा कि जो और खरी अभिव्यक्ति का एक अर्थ होता है और चूँकि स्त्रियों में यह गुण नहीं होता अत: उनकी भाषा एक खतरा है।
   कुछ भाषाविद इस निष्क्ष पर पहुँचे हुए जान पड़ते हैं कि भाषा पुरू की होती है। यह एक पुंसवादी संरचना है। वे सहज ही यह मानते हैं कि पुरू ही भाषा का निर्माता और आविष्कर्ता है। मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टि से भाषा का अध्ययन करनेवालों ने भी भाषा के निर्माण में स्त्री की किसी तरह की भूमिका को अस्वीकार किया। स्त्रियों के पास जो कुछ है वह पुरूषों का अनुकरण है या उनसे चुराया गया है। स्त्रीवादी भाषाविदों के लिए यह एक असहज स्थिति है जिसमें भाषा को पुरू संपत्ति के रूप में देखा जाता है। यह लैंगिक पूर्वाग्रह है। स्त्रियाँ चूँकि भाषा का इस्तेमाल करती हैं, अत: यह केवल पुरू संपत्ति नहीं हो सकती लेकिन पितृसत्ताक समाज में पुंसवादी वर्चस्व को देखते हुए यह भी उतना ही सच है कि स्त्रियाँ अपने को पुरू र्तों पर अभिव्यक्त करने के लिए बाध्य हैं। इस तरह से स्त्री हमेशा अन्य और उधारलेनेवाली ,कर्जखोर बनी रही। इस उधार की पूँजी ने स्त्री को कभी भाषा का क्तिशाली प्रयोक्ता नहीं बनने दिया। बल्कि इसके उलट स्त्री द्वारा पुरू भाषा के प्रयोग ने पुरूभाषा को और भी मजबूती प्रदान क
  सैंकडों बरस के शिक्षा के इतिहास में भाषा को कभी स्त्री के सन्दर्भ में नहीं देखा गया। न ही भाषा के निर्माण में स्त्री की किसी तरह की भूमिका का विश्लेषण किया गया। क्या पूरे हिन्दुस्तान के विश्वविद्यालयों में चल रहे पाठ्यक्रम परिवर्तन की कवायद में किसी भी जगह इस पर विचार किया जाएगा ?
(लेखिका- सुधा सिंह , स्त्रीवादी आलोचिका)

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल नहीं किया जाएगा।
    मेरा भाषा ज्ञान, भाषा के इतिहास का ज्ञान लगभग नहीं के बराबर है। फिर भी कुछ बातें बिना सीखे सहज ही समझ आ जाती हैं। जैसे यह बात कि भाषा के उपयोग में स्त्री सदा पुरुषों से बेहतर रही है। अपने भावों को वह सदा बेहतर अभिव्यक्ति देती है। छोटे बच्चों को देखिए। बच्चियाँ पहले बोलना सीखती हैं। यदि मैं सही याद कर रही हूँ तो इसका कारण यह बताया गया कि आदिकाल से स्त्रियाँ बच्चों का ध्यान रखती थीं व उनसे बात करती थीं। शिकार करने या खाना जुटाने में अभिव्यक्ति की उतनी अहमियत नहीं थी जितनी बच्चों को बड़ा करने में।
    भाषा पुरुष की होती है, सही हो सकता है। कहते हैं कि नौ कोस में भाषा बदल जाती है और स्त्रियाँ लम्बे समय से विवाह के बाद दूसरे के घर, गाँव व कबीले में जाकर रह रही है।
    स्त्री का पति को नाम लेकर सम्बोधित न करना, ये, वे आदि कहना इस बात को दर्शाता है कि उनके बीच कितनी सम्वादहीनता है।
    आपका लेख बहुत कुछ सोचने को बाध्य करता है किन्तु केवल व्यवहारिक ज्ञान के बल पर अधिक कहना उचित नहीं होगा। फिर भी कह गई। स्त्री हूँ ना!
    घुघूती बासूती

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  2. The modern research in area of neurobiology shows that there are certain differences in the male and female brain. Comparatively men use only half of their brain. However, women have activity in both sides of brain and quantitatively more than men. Indeed, one of the most active areas in women brain are the areas that are involved in the communication, and language.


    However, when we see everything, in terms of the tools of power and establishment, women may not have had chance, and still have limited sharing in common space. The male domination also in the area of written "Bhasha" reflects the societal problems and lack of recognition of women as full human being.

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  3. there was time matriarchal society persisted and then came patriarchal every thing that woman owned was taken over and even the tools of communication like bhasha

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